आज वह सुबह जल्दी उठा. बाज़ार वाले दिन वह जल्दी ही उठता था. नित्यकर्म से निपट कर वह दुबग्गा मंडी जाता और वहां थोक के भाव से सब्जियां मिलती है. वह अपनी बिक्री के हिसाब से हफ्ते भर की सब्जियां खरीद कर लाता था. इसके लिए उसे घर से करीब डेढ़ कि.मी. पैदल चल कर सड़क पर आना होता है फिर ऑटो या टेम्पो पकड़कर उसे मंडी जाना होता है. वहां से मंडी करीब दस कि.मी. पर होती है. अक्सर वह बाज़ार वाले दिन ही जाता था परन्तु हरी सब्जियों के लिए उसे कभी कभी बीच में भी जाना पड़ जाता था.
वह सब्जियां बेचा करता था. उसके पास चार पाहियों वाला ढेला था जिसमें वह करीने से सब्जियां सजाता. इसके लिए उसे कानपुर रोड की आशियाना कॉलोनी सबसे मुफीद पड़ती थी. हालाँकि वह उसके घर से करीब छै कि.मी. दूर पड़ती थी. वह रोज नियम पूर्वक घर से साधे आठ बजे निकलता था. पहले वह शिव मंदिर में माथा टेकता फिर निश्चित और आश्वस्त भाव से भरी सब्जी का ढेला धकेलता, खींचता हुआ कॉलोनी करीब दस या साढ़े दस बजे तक पहुँच जाता. वास्तविक बिक्री यही पर शुरू होती थी.
यह कॉलोनी अच्छी कॉलोनी थी. सड़कें साफ-सुथरी बीच बीच में छोटे बड़े पार्क और अच्छी बात कि यहाँ के निवासी काफी संपन्न थे. मतलब बड़े बड़े लोग, बड़े बड़े घर और अच्छी-अच्छी स्त्रियाँ, गृहणियां और गोल मटोल बच्चे. यहाँ के लोग मोल भाव नहीं करते थे. ज्यादातर उसके बताये दामों में सब्जियां खरीद लिया करते थे. अगर किसी को बाज़ार भाव से ज्यादा पता लगता और टोकते तो उसका यही जवाब होता था कि, “क्या करें साहेब, घर-घर, गली-गली, मारे मारे फिरते है, एक आध ज्यादा ले लेते हैं तो कोई गुनाह तो नहीं है और आपको भी तो घर बैठे ताजी हरी सब्जी मिल जाती है. क्या गलत है? वे सिर्फ मुस्करा कर रह जाती, और उनकी गरदन स्वीकारोक्ति में हिल जाती. क्योंकि वह सब्जी खरीदने बाज़ार नहीं जाती और उनके आदमियों को फुर्सत नहीं है बाज़ार से सब्जी लाने की. उनके लिए पैसा नगण्य है वनस्पति समय के, यह बात वह बखूबी समझता है.
कानपुर रोड पार करना सदैव से एक समस्या रही है. अवध हॉस्पिटल वाले चौराहे पर इतना ट्रैफिक होता है कि उसे अपना भरा ठेला सही सलामत पार निकालना आफत को धोका देना होता है. वह इतने अभ्यस्त तरीके से तेजी, धीमे, बचाव, थमना, के कौशल में माहिर होना होता है. जैसे बुढ़ापे में सुई में बिना चश्मे की सहायता से धागा डालना. फिर भी कभी गच्चा खा जाना होता है. पार करने के कई कई प्रयासों के बाद ही सफल हो जाना होता है.
एक बार वह बुरी तरह असफल हुआ था. और उसकी सारी सब्जियां सड़क पर बिखर गयी थीं, जब अनेक प्रयासों के बाद भी, उसक तरफ हरी बत्ती हो जाने के बाद भी वह सड़क नहीं पार कर पाया था. अंतिम प्रयास के रूप उसके साथ कई वाहन तीब्र गति से सड़क पार करने के लिए साथ-साथ गुजरे थे. परन्तु फिर एक कार की हलकी टक्कर ने उसके ठेले को उलट दिया और वह कार सरपट निकल गयी. उसकी नब्बे प्रतिशत सब्जियां नष्ट हो गयी थीं और वह बाकी बची सब्जियां उसने अपनी जान जोखिम में डाल कर बचायी थीं. प्रसाद स्वरूप में उसने पुलिस के चार पंच डंडे सेत में खाए थे. वह और उसका ठेला चोटिल हुए थे. दो ढाई हजार की सब्जियां बर्बाद हुई थीं और हजार पञ्च सौ अपने और ठेले की तीमारदारी में खर्च हुए थे. महीने भर की आमदनी धूल धूसरित हो गयी थी. यह तो गनीमत रही कि उसने घर में एक भैस भी पाल रखी थी. जिसकी देखभाल उसकी पत्नी कुसुम अपनी दो बेटियों के साथ मिलजुलकर किया करती थी. उसके दूध बेचने से भी कुछ न कुछ आमदनी हुआ करती थी. जाहिर है कि उसकी घरवाली की सुझ्बुझ से, और उसकी व्यक्तिगत बचत से उसके परिवार को फांके की नौबत नहीं आ पाई थी. वह फिर अपना ठेला सब्जियों से भर पाया था. तब से आज तक वह चौराहा उसे दहशत में डाल देता है. उसे कानपुर रोड का वह चौराहा पार करने में आध-एक घंटा लगना साधारण बात रही होती है. वह अपने घर से कानपुर रोड आने में पांच कि.मी. डेढ़ से दो घंटा और सड़क पार करके कॉलोनी आने में एक से दो घंटा लग जाते है.
मई का महीना है. वह पसीने से बुरी तरह तर-बतर है, जैसे कि वह कपडे सहित स्नानं करके आया हो. उसे जोरो की प्यास लग रही थी. अपने साथ लाई प्लास्टिक की बोतल का पानी समाप्त हो चुका है, हाँलाकि वह उसका गरम पानी प्यास के कारण समाप्त कर चुका है..वह आस पास तलाशता है, कहीं नहीं है दूर दूर तक. वह एक जगह बैठता है झीनी छाव में. यह एक बड़े आदमी का चबूतरा है. वह डर डर कर देखता है कि मकान मालिक का कोई कुत्ता उसकी उस महीन झीनी छाव को छीन न लें! उसका डर उसकी प्यास से बेखबर कर देता है. वह अपनी हथेलियों से ही अपने चेहरे में घिर आये पसीने को पोछता है. कोई मालिक या कोई कुत्ता उसके सुस्ताने में बाधा नहीं पड़ा था. परन्तु प्यास बदस्तूर जारी थी उसे परेशान करने के लिए.
ग्यारह बज रहे थे.यह सही समय है,अपने माल को बेचने के लिए. वह उठ जाता है, “सब्जी ! ले.. लो…..” की आवाज उसके कंठ से स्वभावतः गूंजने लगती है. परन्तु अत्यधिक प्यास के कारण ग्लास सूख गया है, इसलिए स्वर काफी माध्यम या निम्न स्वर में खरखरा, फंसता हुआ ही निकल पाता है. यह आवाज़ किसी गृहणी को आकर्षित करने में नकामयाब रहती है. वह कुछ घर जाता है जो अक्सर सब्जियां खरीदते है. उसने कालबेल बजा कर उन्हें अपनी सब्जियां खरीदने के लिए आमंत्रित किया. प्रत्याशा के विपरीत उसे दो-चार घर से बोहनी हो गयी. परन्तु उसकी प्याश बुझाने का किसी ने भी उपक्रम नहीं किया, यद्दपि उसने इस तरह की फरियाद की थी, परन्तु फटाक से दरवाजा बंद होने से उसे प्रतिउत्तर मिल गया था.
हवा चलने लगी थी. गर्म हवा थी. बारह से कम क्या बजे होगें, उसने सोचा. इस चलती हवा ने उसके कपड़े सुखा दिए थे और साथ में उसका बदन भी. उसे लगा कि उसे कही लू न लग जाये ? ठेला खीचतें चलातें उसे ऐसा लगा कि वह बेहोश होकर गिर पड़ेगा. वह हर घर, स्थान को अपनी प्यास के लिए टटोलता परन्तु निराशा हाँथ लगती. उसे लगा की वह पानी के अभाव में मर जायेंगा. उसकी आँखों में धुंधलका छाने लगा.शायद वह मर रहा है. उसके कदम लड़खड़ा रहे थे. वह बेसुध होकर आगे आगे ही बढ़ रहा था. अचानक उसकी बुझती आँखों ने एक अविश्वसनीय दृश्य देखा, एक जगह, एक बड़ी खाली जगह, खाली मैदान सा,या बिना किसी बाउंड्री वाल के बहुत बड़ा प्लाट और उसमे बहता पानी. एक जल का श्रोत. एक पिचकारी के मानिंद निकलता हुआ पानी. उसके सारे शरीर में हरारतनुमा स्फूर्ति दौड़ गयी.
प्लाट की जमीन के भीतर दबे पानी का पाइप फट गया था और उससे पानी पिचकरी के रूप में, फुहारें के रूप में बाहर आ रहा था. वह सब कुछ छोड़कर गिरते पड़ते वहां पहुचने में सफल रहा. वह चुल्लू लगाकर गटागट पानी पी गया. इतना पानी पी गया की उसका पेट दर्द करने लगा, तब जाके अहसास हुआ कि वह जिन्दा है. वह वैसे ही गीली जमीन में बैठ गया. उसने कस कर अपने पेट को पकड़ा और उपर आकाश की तरफ उबलती आँखों से निहारा.वहां से दया करूँणा उतरी. उसे धीमे धीमे राहत आने लगी.
कुछ स्वस्थ होने पर उसे अपने ठेले की चिंता हुई. सामने लेन पर उसका ठेला खड़ा था.निरपेक्ष निरंकुश लेकिन अभिन्न साथी. कुछ देर वह उसे वैसे ही घूरता रहा. फिर धीरे से उसने अपने ठेले को सड़क से प्लाट के भीतर खींच लिया. वह ठेले की छाँव में बोरा बिछाकर बैठ गया.
एक थोड़े मिनट की झपकी ने उसे तरोताजा कर दिया. उसने देखा की गर्मी के कारण उसकी सब्जियां सूखी जा रही है. जल्दी ही कुछ नहीं किया तो वह मर जाएँगी. शायद हरी सब्जियां मर भी गयी हो, उसने सोचा? उसने ठेले के नीचे लटकी छेद वाली बाल्टी निकली और जीवनदायनी पाइप के छेदपानी से किसी तरह तिकड़म भिड़ा कर पानी चूती बाल्टी से सब्जियों को पानी पिलाया, अपनी कोकाकोला की बोतल भरी. अब उसे भूख लगने लगी थी. उसने एक पोटली में बंधी अपनी करीब करीब सूख गई रोटी और सब्जी को उदरस्थ किया और एक बार फिर छककर पानी पिया.
कुछ ही समय नहीं गुजरा था कि उसने अपने भीतर एक नयी शक्ति और उर्जा का अनुभव किया. उत्साहित होकर वह फिर जगह जगह घर घर सब्जी बेचने दौड़ पड़ा. आशा के विपरीत उसकी सारी सब्जी बिक गयी थी. सब्जियों में खाली पत्ते और अनूपयुक्त सब्जी बची रह गयी. उसने भगवान के साथ पानी-पिचकारी वाली जगह-प्लाट को प्रणाम किया.
कई दिनों से वह यह महसूस करता है कि भद्दर गर्मी की समस्या यानि कि दोपहर बारह बजे से चार बजे तक उसकी सब्जी की बिक्री एक्का दुक्का मौकों को छोड़कर नहीं होती है. इस दरम्यान वह बेवजह थक जाता है… अगर वह दोपहर को आराम कर ले तो ज्यादा समय तक वह सब्जी बेच सकता है और ज्यादा आमदनी कर सकता है…उसे शाम के सात बजे वापस घर भी जाना होता है. तभी वह रात के नौ-साढ़े नौ तक वापस घर पहुच सकता है…रात का खाना और सोना भी जरुरी है वरना मुंह अँधेरे उठना कैसे हो पायेंगा?…फिर ज्यादा देर तक रुकना, फिर अपने घर घर जाना खतरे से खाली नहीं है. रोड से घर तक अँधेरे और जरायम पेशे वालों से लूट-पाट का डर रहता है.
मगर यहाँ कैसे रूक सकता है?… यह एक विकल्प हो सकता है…पानीपिचकारी वाला प्लाट…? सिर्फ दोपहर भर के लिए…?सुस्ताने और पानी पीने के लिए व् सब्जी मरने से बचाने के लिए…?…खाली तो पड़ा है..? काफी दिनों से उजाड़ पड़ा है…?..पता नहीं किसका है…?होगा किसी का…? होगा किसी का हमें इससे क्या..? सरकारी होगा…?…विधायक निवास बनेगा..शायद?..पोस्ट ऑफिस बनेगा..?नहीं नहीं..प्लोटिंग होना बाकी है…! अरे!..विवादित जगह है…उसे कही से स्पष्ट जानकारी नहीं मिल सकी…खैर जिसका होगा वो खुद अपना कब्ज़ा लेगा….उसका मन ललचा गया. कुछ समय के लिए तो उसका हो सकता है…?…उस खाली पानीपिचकारी वाले प्लाट पर कूड़ा-करकट बेकार समान आदि, आसपास के लोगो द्वारा डाला जाता रहा है. अब भी अक्सर उसने पड़ जाते देखा है….सिर्फ दोपहर में सुस्ताने के लिए…बस…कुछ समय दुपहर को रुकने भर को…वह तो लखन विगत एक माह से कर ही रहा है अभी तक तो किसी ने भी नहीं टोका….!…देखा जायेगा…?
एक दिन दोपहर को. एक दूसरे प्लाट से सटी दीवार के पास की जगह साफ़ की. उसी प्लाट के कूड़ा करकट से छांटकर छोटे बड़े डंडे, मोमिया. फटे पुराने कपड़े, तिरपाल के टुकड़े आदि टिक-टीकाकर रस्सी सुतली से बांधकर कुछ कुछ अपने और ठेले के लिए छाँव का हल्का झिन्ना सा इन्तेजाम किया. फिलहाल वह दोपहर के लिए उसकी शरणस्थली बन गयी. अब प्रतिदिन वह कुछ न कुछ अपने घर से, कबाड़ी के यहाँ से, या आस पास कूड़ा कबाड़ से छांटकर…इंट..गुम्मे…अध्धे…पटरे…बल्ली…बेकार पड़ी टूटे-फूटे स्टूल-कुर्सी आदि जोड़कर एक कमरा का घरौदा-डेरा बना लिया था. अहिस्ता-अहिस्ता…इस काम में उसे एक माह का समय लग गया…उसे इस काम को अंजाम देने में किसी प्रकार की टोका टांकी या धमकी, अवरोध का, किसी प्रकार से, किसी के द्वारा विरोध का समाना नहीं करना पड़ा था. अब भरी दोपहर में वह अस्थायी कमरा उसकी शरणस्थली में तब्दील हो गया था.वह बेफिक्र होकर बेरहम दोपहर गुजारने और सुस्ताने लगा.
कुछ दिन ही नहीं गुजरे थे कि एक दोपहर नगर पालिका वाले आ धमके और उससे वहाँ रहने का किराया सौ रुपया महिना की वसूली कर ले गए. उसने सोचा कि सौ रुपया महिना में कुछ बुरा भी नहीं है. अब वह क़ानूनी रूप से यहाँ टिक सकता है. परन्तु उन्होंने कोई रसीद तो दी नहीं है…खैर…कोई बात नहीं. उनकी जानकारी में तो आ ही गया है कि वह नगर पालिका का किरायेदार है.
शायद कुछ महीने ही गुजरे थे इस दोपहर वाले आशियाना में, कि सहसा एक दिन सोए हुए उसे किसी ने धकेलकर उठाया. उसे हलकी फुलकी खरोंच व् चोट भी आई थी. एक कर्कश आवाज गूंजी,
“कैसे..?..कैसे रह रहे हो…? किस की अनुमति से हो यहाँ..?” एक रोबीले आदमी ने जिसकी बड़ी बड़ी मुच्छे थी, उससे पूछा.
लखन ने अचकचा कर उसे देखा. वह लम्बा तड़ंगा, सफ़ेद कुरते पैजामे और चमकदार काली चमकदार चप्पलों में सोभायमान था. उसके साथ तीन चार मुस्टंडे वैसे ही और थे, जो झोपड़ी के बाहर खड़े थे. प्लाट के भीतर एक महेंद्र एस.उवी. खड़ी थी, जिसकी फ्रंट शीट पर एक नेता टाइप प्रभावशाली आदमी बैठा था. उसी के निर्देश पर वे उसे घसीटते हुए उसके सामने उसे पेश कर दिया.
“कब्ज़ा…किये हो?” उसने कड़क आवाज और आँखें तरेरते हुए कहा.
“नहीं…साहेब! नगर पालिका के किरायेदार हैं.” वह मिमियाते हुए बोला.
“अच्छा.! दिखाओ रसीद.” उसने आश्चयर्जनित स्वर में कहा.
“वो…वो..तो वह देते नहीं है.”
“फिर कैसे किरायेदार?..अवैध रह रहे हो.मत…मतलब गैरकानूनी…यह मेरा प्लाट है, मेरे नाम अलाट है…समझे?”
“जी,सरकार.” वह सशंकित और सहमे स्वर में बोला.
“ उठाओ, यह सब लंगड़-फंगड़ और दफा हो जाओ. कल से दिखाई न पड़ना. कल से हमे काम शुरू करवाना है.”
“ हटा,लेंगे साहेब,…जैसा आपका हुकुम!” उसने बड़ी दीनता और मायूशी से कहा.
वह छै के छै लौटने लगे थे. लौटते लौटते गाड़ी रुकी. वह रोबीला नेता उतरा. उसने लखन को ईशारे से बुलाया, “देखो! याद् रखना…मेरा नाम अर्जुन सिंह है. यह जगह मेरी है कोई पूछे तो बता देना.”…फिर कुछ रूककर कहा, “ऐसा है,जब तक कंस्ट्रक्शन पूरा न हो जांय. तुम यहाँ रूक सकते हो. मगर याद रखना कि तुम अर्जुन सिंह के बिना पैसे के किरायेदार हो. हाँ, एक बात और यह अपना तामझाम और ज्यादा न फैलाना.”
“जी,साहेब!” यह कहते हुए वह रो…रो..आया था. परन्तु भीतर ही भीतर संतोष का अनुभव हुआ कि मालिक ने उसे तुरंत निकाला नहीं.
अगले दिन वहां पर अर्जुन सिंह अपन कुछ हथियार बंद साथियों सहित आया. कुछ देर बाद कुछ और साथी मिस्त्री मजदूर लेकर आये और काम चालू कर दिया.समय यही करीब एक बजे दोपहर था. चहल पहल हल्ला गुल्ला और देखकर और सुनकर वह खोल से बाहर निकला. प्लाट में इटें सीमेंट मौरंग बिखरी पड़ी थी और बाउंड्री वाल बनाने हेतु नीव की खुदाई का काम चल रहा था.उसने वहां से निकल जाने की सोची.
वह सब्जी के ठेले के सहित बाहर जा रहा था. उसने सोचा चलो सब्जी बेचने का एक दो फेरा और लगा लिया जांय. उसका सब्जी का ठेला देखकर वह रोबीला आदमी यानि कि अर्जुन सिंह बोला, “सैनी हो?”
“नहीं साहेब, यादव हैं!”
“फिर यह सब क्या,सब्जी…? गाय,भैस नहीं है क्या?”
“है, हजूर घर पर है,सिर्फ एक भैस.”
“अबे! और भी घर है?”
“देवपुर, पारा में अपना गाँव घर है. परिवार है, बच्चे है. एक भैस है. एक भैस से गुजारा कहाँ हो पाता है.इस कारण मै सब्जी बेचने का काम करता हूँ और घरवाली,बच्चे भैस दूध का काम देख लेते है.”
“ठीक है…ठीक है..ध्यान रखना,यहाँ का भी.कोई ऐठबजी करे तो बताना! साले,को ठीक कर देंगे.” उसने बड़ी अकड़ से कहा. “फिलहाल तुम रहो.” वह जल्दी से ठेला निकाल कर भागा कि कही गुस्से में उसे ही न झपट दे.
अभी मुश्किल से पंद्रह दिन भी नहीं बीते थे कि एक और बवंडर उसकी झोपड़ी के भीतर घुस आया.वे दस बारह लोग थे. वे दो बड़ी गाडियों में आये थे. उनका लीडर इनोवा गाड़ी के बाहर खड़ा उन्हें निर्देशित कर रहा था. सभी लकदक सफेद कुरते पजामे या सफारी सूट में थे. एक दो ब्रांडेड पैंट-शर्ट में भी थे.कुछ लोग लखन को घसीट कर बाहर ले आये और उसे लीडर के पास धकेल दिया.
“अबे..! मादर…!..अहीर…! मेरी जगह में कब्ज़ा किये बैठा है…गणेश मिश्रा की जगह पर. तेरी इतनी हिम्मत..!..साले ने बाउंड्री वाल भी बनवा ली जैसेकि नगर पालिका से पट्टा लिखवा के लाया हो?” नेता के साथी उसे पीटने ही वाले थे कि वह गिडगिडाने के साथ रूवांसी आवाज में बोला, “साहेब यह दीवाल मैने नहीं बनवाई है.यह ठाकुर अर्जुन सिंह ने बनवाई है. यह उनका प्लाट है.मैं यहाँ पेरमानेंट नहीं रहता हूँ बल्कि सिर्फ दोपहर में थोड़ी देर सुस्ताने के लिए रूकता हूँ.
“भाग साले यहाँ से. बड़ा आया ठाकुर अर्जुन सिंह के प्लाट वाला. आज के बाद दिखाई मत पड़ जाना.काट के फेक देंगे.” उन्होंने उसे सब्जी के ठेले सहित निकाल दिया.उसके देखते ही देखते उन्होंने पिचकारी वाले प्लाट की अधिकांस बाउंड्रीवाल गिरा दी. उनके आदमियों ने उसे दर्शक भी नहीं रहने दिया और उसे ठेले सहित दौड़ा लिया. वह गिरते-पड़ते और ठेले और सब्जी को बचाते अपने प्राण बचाते भागा. उनकी पहुँच से दूर होते ही वह कुछ देर साँस लेने के लिए सुस्ताया और शिव भगवान का नाम लेकर अपने सब्जी बेचने के काम में संलग्न हो गया. मगर उसका ध्यान अपनी पिचकारी वाले प्लाट में स्थिति अपने आसियाने में टिका ही रहा.
रात के आठ बज रहे थे. वह आज कॉलोनी में ज्यादातर सब्जी बेच आया था. कुछ सड़ी-गली बेकार सब्जी और सब्जियों के पत्ते बचे रह गए थे. देर काफी हो गयी थी. उसे घर लौटना था. परन्तु उसका मन अपने अस्थायी टिकने के स्थान का क्या हश्र हुआ है उस पर टिका हुआ था. उसका मन किया एक बार घर लौटने से पहले उसे देख लिया जाये. वह कुछ बचा है कि नहीं? उसने देखा बाउंड्री वाल बुरी तरह से उखड़ी बिखरी पड़ी है. पाइपलाइन से पानी फूट कर भी निकल रहा था.बऔर उसके डेरे की और बह रहा था. परन्तु वह यह देखकर हतप्रभ रह गया कि उसका डेरा करीब करीब सही सलामत है. हालांकि उसको ढके कपड़े और उड़ गए थे. उसके डेरे को कोई नुक्सान उनकी और से नहीं पहुचाया गया था क्योकि उसके भीतर रखी सभी चीजे सही सलामत थी. घोर आश्चर्यजनक रूप से वही बैठ कर वह फटी फटी आखों से उसे निहारने लगा.
उसी समय कही से एक भूरे रंग की गाय आकर उसके पास रभाने लगी. वह समझ गया गाय भूखी और प्यासी है. उसने अपनी बची सब्जी उसे खाने को दी और टूटीपाइप से जल निकाशी श्रोत से अपनी बाल्टी में पानी भरकर उसे पिलाया. यद्दपि वह खुद बेहतर भूखा था, परन्तु गाय माता की भूख-प्यास बुझाकर उसे आन्तरिक शांति महसूस हुई और उसे अपने भूखा रहने का कोई मलाल नहीं था.
रात के दस बज गए थे. अब वापस घर जाने का कोई औचित्य समझ में नही आ रहा था. घर लौटने में खतरा था उसकी जमा पूंजी लुट जाने का. उसने वही रूक जाने का फैसला किया. उसने चारों तरफ देखा एक तरह से उस प्लाट के प्रति और वातावरण में निष्पक्ष शांति पसरी थी. परन्तु घर की चिंता थी.पत्नी और बच्चे उसके लिए चिंतित होंगे.उसने अपने पहने गुदड़ से कही से ढूंढकर पुराना, घिसा-पिटा मोबाइल निकाला और अपनी पत्नी कुसुम को काल करके वस्तुस्थिति की जानकारी दी और न आने की खबर भेज दी.
वह अपने ठेले में बैठा था.उदास और चिंतित था. अब क्या होगा?एक भाव आ रहे थे दूसरे जा रहे थे. उलझन में था. इस पिचकारी वाले प्लाट का असली में कौन मालिक है? नगरपालिका…? ठाकुर अर्जुन सिंह…? या…पंडित गणेश मिश्र का…?…कुछ समझ में नहीं आ रहा था. क्या दोपहर का अस्थायी डेरा उसका शरण स्थली अब नहीं रह पाएंगा…? वह थक गया. थकावट शरीर से ज्यादा मन की थी. उसने सोने का इरादा किया. वह उसी ठेले में लेट गया.
ठेले में लेटे लेटे उसने देखा की गाय माता भी उसी प्लाट में बैठी थीं. वह निश्चित भाव से बैठी जुगाली कर कर रही थी. जैसे कि यह उनकी अपनी स्थायी घर जगह हो? स्थायी घर का भाव आते ही,यकायक एक विचार उसके भीतर क्रोंधा…देखा जायेगा…?
उसने मानो ठेले से छलांग लगा दी. उसने आस पास बिखरी ईंटें समेटी सहेजी और उन्हें चुनचुन कर अपने पहले अस्थायी कमरे के पास में पांच फूट छोड़ कर पांच फूट ऊँची दीवार बना दी. एक दूसरी दीवाल उसने पहले से सटा कर दरवाजे भर की जगह छोड़कर चुन दी. परन्तु बिना छत और दरवाजे के उसका दूसरा कमरा बन गया था. उसने संतोष की एक निगाह उस पर डाली और एक दृष्टि अपने पर. सिर्फ एक तिरपाल या मोमिया की और जरुरत है,असमान से बचने के लिए.,उसकी मडिया को छाने को… उसे लगा उसने अपने लिए एक किला बना लिया है बेशक यह अस्थायी ही है.
यह सब काम का अंजाम देते हुए उसे रात के एक बज गए थे. वह थककर चूर हो गया था. थकावट और नींद का नशा उस पर सर चढ़कर बोल रहा था. उससे जुड़े ख्वाब ने उसे बुरी तरह तोड़ रहे थे.वह अपने ठेले पर बेतरतीब सो गया.
सुबह वह काफी देर से उठा. उसने गर्व से अपने अर्जित किले को देखा. एक संतुष्टि का भाव उस पर तारी हो गया था. उसे लगा अस्थायी देता कुछ कुछ स्थायी रूप लेता लग रहा है. किन्तु…परन्तु… के ढेर में वह उलझ गया. वैसे ही वह दूर किसी उजाड़ मैदान में वह फारिग होने निकल गया. वही बाज़ार से वह कुछ खा पी आया. लौटकर आ कर देखा की उसका उसका सब कुछ है, गाय,-ठेला और उसका अस्थायी किला, मकान,या घर.
उसने ठेले को एक कमरे के भीतर किया और दूसरे बिना छत वाले कमरे में गाय को. अब वह निश्चित होकर देवपुर को चल पड़ा.
वह अपने घर में है. खाना खाकर वह अपनी पत्नी कुसुम के साथ गंभीर मंत्रणा में बिजी हो गया. पत्नी उससे ज्यादा तेज, दबंग और चलाक थी.उसने उसे कुछ दिन संयम रखने को कहा. उसने दो बड़े थैले में सब्जी भर की दी. उसने साइकिल के हैंडल में उसे लटकाया, हरी सब्जियों के झाबे को पीछे कैरियर पर लादा और चल पड़ा अपनी अर्जीत धरोहर को परखने और घर से बाहर की गतिविधियों में.
यहाँ पिचकारी वाले प्लाट में सब कुछ वैसा ही था जैसा वह छोड़ गया था सिर्फ गाय नदारत थी. उसने अपने ठेले को सब्जियों से सजाया, साइकिल कोठरी में की. और निकल पड़ा अपनी नियमित बेचने के धंधे में. रात में आता ठेला भीतर करता और चुपके से निकल कर अपने घर चला जाता.सुबह से फिर उसी तरह से उसका कार्य चालू हो जाता. इस तरह दस-पन्द्रह दिन बीत गए कोई नहीं आया कब्जाने,उसे धकियाने या उसे निकालने,किराया वसूलने.
वह आश्वस्त था अब सब कुछ सामान्य है. उसे अब कुछ आगे की सोचना चाहिए. उसने पत्नी को वस्तुस्थिति की जानकारी दी. पत्नी तैयार थी. उन्होंने अपनी दो बेटियों को घर सम्हालने को हिदायत दी. उसने दोनों बेटियों के सहयोग से घर का सारा काम निपटाया, दो भैसों को चारापानी देना फिर उनका दूध दुहना और घर पर आ गए ग्राहकों को दूध बेचना. बेटियां बड़ी थी, पंद्रह सोलह साल की. आमदनी बढ़ाना है. उनकी शादी व्याह के लिए पैसा जोड़ना है. वे पांच-छै दर्जे से ज्यादा पढ़ नहीं पाई थीं. वे पहले से ही माँ के साथ सारा काम कराती रहती थी. ज्यादातर वे खाना बनाने में पारंगत थी. क्योकि वह काम नियमित रूप से बारी बारी से उन्हें अवश्य करना होता था.
लखन और कुसुम कॉलोनी आ गये थे. यहाँ पर वह जैसा छोड़ गया था सब कुछ वैसा ही था. वह पत्नी को वहां की व्यवस्था सम्हालने को कहकर कबाड़ी के पास गया. एक पुराना तिरपाल,एक पल्ला, एक जंजीर, एक छोटी वाटर टूयूब और एक शीशी का कॉर्क.दोनों ने मिलकर तिरपाल से छत बनायीं, कमरे में जंजीर से बाँध कर पल्ला अटकाया. उसका दो कमरों का घर तैयार हो गया था. वाटर पाइप के छेद को कुछ बड़ा किया और उसमे कार्क फिट कर दी. अब जब पानी की जरुरत होती थी तो कार्क निकाल कर, टुएब लगाकर पानी ले लिया जाता और जरुरत न होने पर फिर कार्क लगाकर पानी बंद कर दिया जाता.
उसने पत्नी के साथ मिलकर पहले की अपनी लायी हुई सब्जियों के साथ अपना ठेला सजाया.बवह फिर निकल पड़ा अपना व्यापार करने. उसकी पत्नी ने साइकिल भीतर की और वही कमरे में लेट गयी आराम करने कबाड़ी के यहाँ आने से पूर्व ही कुसुम ने कमरे लीप-पोत कर रूकने लायक बना लिए था.
दिन के एक बजे वह वापस आया तो उसके साथ वही भूरी गाय साथ साथ चली आ रही थी. उन दोनो ने खाना खाया और सब्जियों का बचा खुचा और निरर्थक अवशेष गाय को भी खाने के लिए दिया. जब वह गाय को पानी पिला रहा था तो यकायक उसका जेहन में कोई विचार उछला. अचानक वह गाय को उत्सुकता और स्वार्थवश निहारने लगा. गाय उससे काफी हिलमिल गयी थी. उसने पत्नी को बुलाया. उससे कुछ कहा,कुछ मंत्रणा की. दोनों ने मिलकर गाय का विधिवत निरीक्षण किया, मुंह खोलकर दांत गिने, पूंछ उठाकर देखा और उसके थन आदि परखे और आपस में सलाह-मशविरा कर के इस नजीते पर पहुंचे की यह एक आध सीजन और चल सकती है. उन दोनों को लगा कि एक सम्पदा और मिल गयी है. उन्होंने एक खूंटा गाय के लिए भी गांड दिया और वह जंजीर जो वह दरवाजा टिकाने बांधने के लिए लाया था उससे गाय को खूंटे से बाँध दिया. अब उन्होंने निर्णय किया कि गाय माता के लिए उचित और भरपूर अन्न का प्रवंध करना चाहिए.
शाम को वह सब्जियों को बेचने निकल पड़ता. रात के आठ बजे वापस आता सब्जियों के ठेले को और गाय को अलग अलग कमरों में बंद करता और साइकिल से पति पत्नी अपने स्थायी घर देवपुर के लिए निकल पड़ते. अगले दिन सुबह वह नौ बजे तक पति पत्नी अपने कॉलोनी वाले अस्थायी घर फिर आ जाते.यह उनकी नियमित दिनचर्या हो गयी थी.
काफी समय बीत गया था. परन्तु दोनों प्लाट मालिक अर्जुन सिंह और गणेश मिश्र एक बार भी नहीं आये. किन्तु नगर पालिका के कर्मचारी उससे नियमित उगाही करते रहते. उन्होंने उससे कह रखा था कि यह जगह सरकारी है, और किसी को प्लाट एलोट नहीं किया गया है. उचित समय में यहाँ नगर पालिका निर्माण कार्य करवाएगी. क्या करवाएगी यह नहीं बताया? कोई कब्ज़ा करने आये तो मना करना और हमें बताना कार्यवाही की जाएगी. कुछ महीने गुजर गए वह भूल गया था इस पर किसी और का भी अधिकार हो सकता है. वे बेफिक्र होकर स्थायी और अस्थायी घरों के बीच डोलने लगे थे.
एक दिन अचानक वे दोनों दल कुछेक मिनटों के अंदर आ धमके. और प्लाट पर कब्जे को लेकर आपस में उलझ पड़े. उनमे इस बात की बहस हो रही थी उन्होंने पहले कब्जाने की कोशिश की थी दूसरे को इस में दखल नहीं देना चाहिए था. एक दूसरे के अधिकारों का अतिक्रमण है, और विवाद और संघर्ष को नौता देना है. वे झगड़ने लगे थे और हाथ पाई की नौबत आने लगी थी. इक दूसरे पर हमलावर होते होते उनका ध्यान लखन यादव पर गया. वे सारे फसाद की जड़ उसे समझे जो उन्हें असली मालिक कौन है, वही है, ठीक से बता नहीं सका. दोनों पार्टियाँ उनकी तरफ लपकी.पति-पत्नी दोनों अपनी जान बचाने के हेतु विपरीत दिशाओं में नाला फांद कर भागे, सब कुछ उसी हाल में छोड़कर.
वे दोनों मुख्य सड़क पर आकर मिले. उनकी सांसें चल रही थी उखड़ी हुई. शायद और कुछ भागना पड़ता तो भागते भागते मर जाते. उन्होंने सांसों को विराम दिया और आगे की कार्यवाही के विषय में विचार किया. वहां से वे नगर पालिका ऑफिस पहुंचे. उन्होंने वहाँ गिरते पड़ते रोते झीकते उस कर्मचारी की तलाश में जुट गए जो उनसे किराया ले जाता था. ऑफिस के हर कमरे में छान मारा वह नदारत था.
अचानक वह दिखायी पड़ा. बाहर से भीतर ऑफिस में आता दिखाई दे गया. उन्होंने उसे संकटमोचक के रूप में पकड़ लिया. सारी दास्तान बिना रुके बयांन कर दी. अपनी जान बचाने की और प्लाट के कब्जे रोकने की. वह तटस्थ और निरपेक्ष भाव से ऐसा सुनता रहा जैसे कि कोई खास बात न हो. वह उन दोनों को लेकर एक अधिकारी से मिला. वह अधिकारी एक और बड़े अधिकारी से मिला. बड़े अधिकारी ने स्थिति की गंभीरता परखी और उस कनिष्ठ अधिकारी को पुलिस थाने जाने की हिदायत दी. वहां से वह चारो पुलिस थाने गए. थानेदार को सारी कहानी फिर दोहराई गयी. वह सोचता रहा और विचार करता रहा.
शाम के सात बज गए थे, जब पुलिस सब-इंस्पेक्टर और चार सिपाही वहां पहुंचे,मामला शांत के सन्निकट था.झगड़े के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे…वह बहस और गुफ्तगू में उलझे थे. दोनों दावेदारों में किसी बात की सहमति हो गयी प्रतीत होती थी. सब-इंस्पेक्टर की दोनों लीडर से कुछ अन्तरंग बात हुई, और कुछ ले-देकर मामला शांत हुआ.सभी पक्ष वापस लौट गए और लखन को भी इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वह भी अपना सब माल-असबाब समेट ले और सारा प्लाट पहले जैसा सपाट कर दिया जाएँ नहीं तो सब जब्त कर लिया जायेगा. वे सभी लौट गए. लखन और पत्नी कुसुम भी लौट गए साइकिल में. परन्तु गाय और सब्जी का ठेला पूर्वत कमरों के भीतर कर गए.
अगले दिन वे दोनों फिर आये. मगर काफी देर से आये थे. एक डर बैठ गया था कि दोनों में कोई मिल गया तो उसे भूतर देंगे. क्या सुरक्षित रहा, क्या निपट गया? ईंटें, मौरंग गिट्टी, और एक आध बोरी सीमेंट सीमेंट बिखरी पड़ी थी. उसका आशियाना मतलब उसके बनाये कमरे सब धुल-धूसरित थे. सब्जियों में आलू प्याज कुछ बच गए थे बाकि हरी सब्जियां सब पददलित थी. उसका ठेला घायल सा मूक दर्शक बना असहाय खड़ा था. भूरी गाय भाग गयी थी या भगा दी गयी थी. उसने एक उस लम्बे बड़े प्लाट में एक बदलाव देखा कि उसके बीच में एक दो फूट ऊँची दीवार विभाजन रेखा सी खींच दी गयी थी.
दोनों नगरपालिका गए. उसी कर्मचारी से मिले. वह अपनी वफादारी का सबूत पहले ही पेश कर चुका था. जिसका खामियाजा उसे क्या मिला, बताया. उस कर्मचारी ने उस इलाके के सभासद मिस्टर कमलेश सचान से उसका परिचय करवाया. उसने उसे फिर जम जाने की सलाह दी, बाकि वह देख लेगा. कर्मचारी ने उनका ध्यान रखने को कहा. कर्मचारी पहले की तरह उसके साथ था.उसने समझा और सभासद और कर्मचारी को संतुष्ट किया. नगर पालिका की तरफ से भी हरी झंडी हो गयी, किन्तु उसकी संगृहीत राशि संतुष्टि की भेंट चढ़ गयी.
दोनों पिचकारी वाले प्लाट में लौट आये. वे भूत की तरह जुट गए उसे दुरस्त करने में. अधिकांश समान वही बिखरे मलबे में खोज लिया गया. कुछ दौड़ घूप के संग्रहित किया गया. आखिर में वे सफल रहे थे, कुछ ढंग-बेढंग का रहने लायक बनाने में. वे दोनों भूखे प्यासे जुटे रहे तब जाकर रात आठ बजे वह निवृत हुए थे. अब उन्होंने दोपहर का खाना खाया और वापस साइकिल से घर करीब दस बजे पहुंचे.
सुबह उठते ही वे कॉलोनी आ गए थे. पत्नी को वहां छोड़कर, वह भूरी को ढूढने निकल पड़ा. उसने आशियाने के कूड़े के ढेर में भूरी को मुंह मारते देख लिया. उसने उसे थपथपाया,इधर उधर देखा और धीरे से हुंकार लगाते हुए अपने पीछे पीछे पिचकारी वाले प्लाट में ले आया. उसने उसे पत्नी के सुपुर्द किया और वह खुद निकल पड़ा दुबग्गा मंडी से ताजी हरी सब्जियां तथा अन्य समान थोक के भाव खरीदने हेतु.
उनकी गाड़ी पहले की तरह चलने लगी थी. इसी बीच वह भूरी को पशु मेडिकल सेंटर से गाभिन करवा लाया.वह अब गाय माता की बेहतर देखभाल करने लगा था बल्कि यह जिम्मा कुसुम के पास हस्तांतरित हो गया था. उचित समय पर भूरी ने एक बछड़े को जन्म दिया.वे दोनों खुसी से भर गए. गाय के दूध की डिमांड कॉलोनी में अच्छी थी. सारा-का सारा दुध वही बिक जाता और ख़तम हो जाता था.उसके दाम भी अच्छे मिलने लगे थे. अब आस–पड़ोस वाले उससे ही सब्जियां खरीदने लगे थे, जिससे की उसे कॉलोनी के ज्यादा चक्कर नहीं लगाने पड़ते थे.खर्चा निकाल कर उसकी अच्छी-खासी आमदनी होने लगी थी. वे आश्वस्त थे की यही गति रही तो एक आध साल के भीतर वह अपनी बड़ी लड़की का व्याह करने लायक पैसा जमा कर लेंगे.
काफी समय बीत गया था परन्तु प्लाट के पुराने या नए दावेदार प्रगट नहीं हुए थे. कर्मचारी विधिवत अपना किराया लेने आता रहा था.जिससे कि वह और निश्चित थे.
लखन के पड़ोस में एक पक्के प्लाट पर इरशाद का बसेरा था. वह भी प्लाट के तथाकथित मालिक की सहमति से प्लाट की देखभाल एव सुरक्षा हेतु अपनी दो भैसों,दो बीबी और चार-पांच बच्चों के साथ बगैर किराये के रह रहा था. इस प्लाट की दीवारे ७ फीट ऊँची और जमीन सीमेंट वाली टाइल्स से पटी थीं. इसमें एक बड़ा कमरा बना हुआ था. इरशाद की बड़ी बेटी छोटी बीबी से कुछ ही बड़ी थी. वह कुछ नहीं करती दिखती थी, सिर्फ पान चबाये इधर उधर डोलती फिरती थी और सबको अन्यों को काम करते देखती रहती थी. उसकी बड़ी बीबी इमली अपनी छोटी बड़ी बेटियों के साथ सारा काम निपटाती रहती दिखती थी. इरशाद और उसके दो बड़े बेटे दिन के उजाले में कम से कमतर दीखते थे. शायद वह बाहर कुछ काम करते होंगे? क्या करते थे? किसी को कोई अनुमान नहीं था.उसके यहाँ सुबह से भैसों को चारा पानी देना, दूध दुहना, ग्राहकों को दूध देना और कुछ दूध उसके बड़ी बेटी आस पड़ोस के घरों में दूध पहुचाती थी अपनी साइकिल से ले जाकर. दोपहर को उनके घर गोबर के कंडे पाथे और थापे जाते. जिसे सिर्फ इरशाद की बड़ी बीबी ही अंजाम दिया करती थी. कंडे पाथने के बाद उन्हें दीवारों या जमीन पर चिपकाकर सुखाया जाता.एक दो दिन में जब कंडे सुख जाते तब उन्हें एक कोने में रखकर उन्हें बेचने के काम होता रहता था, जो सुबह से शाम तक किसी समय हो सकता था जब कभी ग्राहक आते थे. इस काम को भी बड़ी बीबी और बड़ी बेटी करती थी. छोटी बेटी काफी छोटी थी पांच या छै साल की,उपेक्षित रहती थी इसलिए उसका रोना अक्सर सुनाई पड़ता रहता था. छोटा बेटा और छोटी बेटी हर समय खेलते नज़र आते या लड़ते झगड़ते,रोते गाते,पिटते-पटते पिटाते,खाते-पीते,पतंग उड़ाते-लूटते,अपनी माँ इमली से पिटते-झगड़ते लड़ीयातें-दुलराते रहते थे.छोटी बीबी सिर्फ बनी ठनी दिखती रहती थी. उसे कभी किसी ने काम करते नहीं देखा था. हाँ ! अलबत्ता उसे छोटे पर कभी कभी हुकुम चलाते अवश्य देखा था.परन्तु वह इरशाद की चहेती थी.उससे कोई कुछ कहने सुनाने की हिम्मत नहीं कर सकता था वरना उसे इरशाद का कोप-भाजन बनना पड़ता था और जम कर पिटाई भी झेलना पड़ सकता था.वह उस घर की शो-पीस थी.
इरशाद के घर में गोबर ज्यादा होने लगा था, इसलिए कंडे भी ज्यादा पथने लगे थे. और उसके लिए जगह कम पड़ने लगी थी. अचानक बड़ी बीबी को ध्यान आया कि पड़ोसी लखन की बाहरी दीवारें और नाले के पास कुछ जगह खाली है. वहां लखन का अधिकार नहीं है. उसकी अपनी बाहरी दीवाल जिस पर गेट लगा है वह सीमेंटेड है. उस पर कंडे थोपे नहीं जा सकते,बुरा लगेगा.मकान मालिक उसे निकाल सकता है, क्योंकि वह यह बात अच्छी तरह जानती थी कि वह लोग बिना किराये के रह रहे है. और उसने सिर्फ इरशाद को अकेले रहने को दी थी देखभाल के लिए नाकि पुरे परिवार के रहने के लिए. हालांकि वह यह नहीं जानती थी कि उसके मकान मालिक ने भी यह सरकारी जमीन अवैधानिक रूप से कब्जाई है. लखन जिसमे है वह प्लाट नाले के पास है और नाले के पास भी काफी पटी जगह खाली पड़ी है जिस पर अपने कंडे पाथे और सुखाये जा सकते है.
एक दिन बड़ी बीबी ने अपने कंडे उस नाले के पास वाली जगह और लखन की बाहरी दीवाल पर पाथ दिए और सुखाने लिए छोड़ दिए. जब लखन और उसकी पत्नी कुसुम नहीं थे. जब वे लोग आये तो कुसुम ने एतराज जताया.-
“ ह्मरे यहाँ कहे,अपने कंडे पाथप,सुखावत हऊ.हटाव यहाँ से.” उसने गुस्से में कहा.
“अरे! बहिनी हमरे यहाँ जगह कम पडत है. तहक बरे यहाँ लगानी है.रिस्याव जिन.’ उसने हँसकर कहाँ. यद्दपि उस हंसी में वक्रोक्ति थी.
“न…न… यह न चलिब! हटाव यहाँ से…नहीं तो हम सब हटायके फेक देब.” उसने क्रोध में लगभग चीखते हुए कहा.
“अच्छा,अब तो लग गवा है, सूख जान देव, बिहान से न लगावेब.” वह समझौते के स्वर में बोली. उसने उसकी बात का विश्वास किया.
अगली बार से भी वह न सुधरी.वह पुराने सूखे कंडे हटाती और नए ताजे थोप जाती.कुसुम जब भी देखती बिगड़ती चीखती चिल्लाती परन्तु इमली के यहाँ शांति छाई रहती. एक दिन कुसुम में रौद्र रूप आ गया. उसने सारे कंडे उखाड़-पखाड दिए और फेक दिए. कुछ क्या ज्यादातर नाले में जा गिरे. और जी भर के इमली को गरियाया.
जब इमली ने अपने कंडों के यह गति देखी तो वह भी बुरी तरह आहत हुई और उसने भी बुरी- बुरी मर्दों वाली गाली बकी. उसके अधिकार को चुनौती दी, “सरकारी मुफ्त की जमीन पर कब्ज़ा जमाये बैठी है और कहत है की हमेरी जमीन है.”
“मुफ्त की कैसी? किराया देत हैं,वह भी सरकार का!…तुम्हारी तरह नहीं…गैर की जमीन पर अपन का बेच का बैठी हौ…छिनाल कही की?” वह भी चुभती हुई गलियों पर उतर आई.
“जबान का लगाम दे,बदमास लुच्ची. तुही ऐसी हुइए.” उसने बुरी तरह प्रताड़ित होते हुए कहा.
फिर गलियों की बौछार दोनों तरफ से अनवरत और निरंतर जारी हो गयी. गलियों के शब्दकोश नाकाफी हो गए और उनमे नए नए गाली शब्द जुड़ते चले जा रहे थे. कुछ ही देर बाद वे हाथापाई पर उतर गयी. कुसुम उस पर भारी पड़ रही थी. वह उसे जमीन पर बिछा बिछा कर मार रही थी. काफी हल्ला गुल्ला और चीख चिल्लाहट से इमली का परिवार आ गया. छोटी बीबी पहले से ही दूर तमाशा देख रही थी. और इमली को पिटते देख कर मन ही मन खुश हो रही थी. इरशाद की बड़ी लड़की और छोटे लड़के ने जब अपनी माँ को पिटते देखा तो उन्होंने इमली को दौड़कर छूटाया और वह कुसुम के विरुद्ध संघर्ष में शामिल हो गए. और उसे बुरी तरह पीट दिया. वह अकेली पड़ गयी थी. अब कुसुम अपनी जान बचाकर अपनी कोठारी में भागी और दरवाजा बंद कर लिया.
थोड़ी देर बाद लखन आया तब उसने कुसुम को कैद से आजाद किया. पड़ोस में शांति पसरी पड़ी थी. उसे पूरी बात पता चली.वह इरशाद से शिकायत करने पहुंचा.
शाम के सात बज रहे थे. उस समय पूरा परिवार इरशाद और दोनों बड़े लड़के गंभीर उत्तेजित और गरम थें. लखन की शिकायत करने पहुंचना, मंद मंद सुलगती-बुझती आग में हवा, तेल और लकड़ी की आपूर्ति कर दी. उनकी आग भभक उठी.लपटें उठने लगीं. इरशाद और उसके लडकों ने उसे बुरी तरह पीट दिया. हल्ला-गुल्ला, खून-खच्चर की आवाज सुनकर कुसुम अपने को न रोक सकी और वह भी पहुँच गयी लखन को बचाने. उसे भी फिर पीटा गया.
वे दोनों अपनी जान बचाकर भागे,अन्यथा वे वही काल कवलित हो जाते. यद्यपि उन लोगों ने उसका दूर तक पीछा किया था. फिर कुछ सोचकर छोड़ दिया. लखन का सर फूट गया और उसके हाथ पैर में गंभीर छोटे आई थी शायद फैक्चर हुआ हो. कुसुम को भी काफी गंभीर चोटें आई थी.उसका शरीर भी कई जगह से लाल नीला हो गया था.
कुछ ही समय बीता होगा कि लखन और उसकी पत्नी पुलिस के साथ आते दिखाई पड़े. इरशाद और उसके बड़े लड़के भागने लगे. इरशाद पकड़ा गया परन्तु उसे दोनों लडके भागने में कामयाब रहे. पुलिस ने दोनों पक्षों की बात सुनी. पुलिस ने समदर्शी रूख अपनाया और इरशाद और लखन को हवालात में डाल दिया.
कुसुम भागकर कमलेश सचान सभासद से मिली. उसने पूरा व्योरा उन्हें बताया. जब वे पहुंचे तब वहां पहले से ही स्थानीय दबंग नेता इरशाद की कब्जे-जमीन के मालिक बैठे थे. सचान जी और नेता के सक्रीय हस्तक्षेप से दोनों पक्षों में समझौता करवाया गया.पुलिस से कुछ लें दें की बात तय हुयी.इरशाद को अतिरिक्त रुपये इरशाद के इलाज के लिए देने पड़े. दोनों पक्ष अपने अपने आदमियों को छुड़ा लाये और बिना कोई केस दर्ज हुए.इस तरह वे दोनों कोर्ट कचेहरी के चक्कर से भी बच गए.
कुछ दिन दुःख, निराशा, हताशा और पछतावा में गुजरे क्योंकि अतिरिक्त आमदनी जो कॉलोनी वाले घर से बढ़ी थी,बड़ी बेटी की शादी की तैयारी के रूप में इकठ्ठा किये थे, वह अपने दोनों के इलाज और पुलिस को केस को रफादफा करने में चुक गए. फिर भी धीमे धीमे गाड़ी अपनी गति से दौड़ने लगी थी. पडोसी इरशाद से कटुता चरम पर विदमान थी. परन्तु अघोषित शांति थी. दोंनो के बीच इर्षा, द्वेष, डाह और एक दुसरे को देखकर मुंह बिचकाना, चिढ़ाना और खिजाना बदस्तूर जारी था. यह इमली और कुसुम की दैनिक दिनचर्या में शामिल था. कॉलोनी में गाय का दूध पूरी तरह से बिक जाता था. सदैव की तरह सब्जी ठेला और गाय अपने स्वयं के द्वारा निर्मित कोठरी में रात में विश्राम पाते. लखन से ज्यादा कुसुम की जान पहचान कॉलोनी में हो गयी थी,क्योंकि घरों में काम करने वालियों से उसकी मित्रता स्थापित हो गयी थी. वे थोड़े समय रूककर उसके पास अपने दुःख सुख साँझा किया करती थी. बड़े घरों की स्त्रियाँ कामवाली तलाशने में उससे मदद लेने लगी थीं.
कुछेक महीने ही गुजरे थे कि उसके सामने वाले घर में चोरी हो गयी. वे एक रात के लिए घर से बाहर गए थे सुबह आने पर पता चला कि उनका सब कुछ लुट गया है. रात और विकट जाड़े का समय था जब यह चोरी का काम अंजाम दिया गया. चोरों ने गेट, कमरों के इन्टरलॉक काटकर और अलमारी सेफ आदि को तोड़कर सारे गहने आभूषण और नकदी लेकर ले उड़े थे. किसी को कानो-कान खबर नहीं हो पाई. पुलिस को शक लखन पर गया जबकि कुसुम को शक इरशाद एंड कंपनी पर था.क्योंकि वे रात आठ बजे अपना दड़बा बंद कर के जा रहे थे तो उन्हें इरशाद के घर में कुछ अतिरिक्त चहल-पहल नोट की थी. उसने उस समय अपने पति से जिक्र किया था जिसे उसने नकार दिया था. उसकी डाट लगायी और किसी के विषय में ज्यादा ध्यान न देने की हिदायत दी थी. अपने काम से काम रखने की नसीहत भी दी थी.
मौका-मुयाने के समय दरोगा लखन पर बिगड़ा और गुस्से में बिफर उठा, “अबे ! मादर…,बहन…,बेटी…, तू… यहाँ कैसे रहता है?… यह तेरा प्लाट है ?…जरूर इस चोरी में तेरा हाथ है…?…बता…?
“नहीं…! साहेब मैं तो रात को अपने घर देवपुर चला जाता हूँ…मुझे कुछ पता नहीं…सिर्फ मेरी सब्जी का ठेला और गाय यहाँ रहते है.”
“यह बता कि तू रहता किस हैसियत से ?” वह गुर्राया.
“साहेब ! बहुत गरीब आदमी हूँ. सिर्फ दोपहर भर टिकता हूँ…नगर पालिका वालों को पता है…मेरी न मानो तो हजूर, सचान साहेब से पूछ ले.” उसने बड़ी चिरौरी की. परन्तु वह नहीं पिघले. सिपाहियों ने उसके दो-चार डंडे जमा दिए और कहा, “कल तक यह सारा टीम-तामडा उटा लो.गायब हो जाना,दिखाई मत पड़ना…वरना उठाकर हवालात में बंद कर देंगे….समझे.!..इतनी छूट काफी है तेरे लिए.”
लखन रोने गिड़गिड़ाने लगा. परन्तु उनमे असर न हो रहा था. अचानक उसका ध्यान अपने छिपे मोबाइल पर गया. उसने सचान साहेब को फ़ोन लगा दिया. संयोगवस् वे मिल गए. उन्होंने दरोगा से बात करने को कहा. उसने लौटेकर जा रही टीम से उनकी बात करायी. उंनके चेहरे पर बात करने के बावजूद असंतोष फिर भी झलक रहा था. वे फिर बडबडाये, धमकी दी और जगह खाली करने की धमकी,चेतावनी जारी करी और चले गए.
अगले दिन उसने अपनी पत्नी कुसुम को थाने भेजा और इरशाद से भी पूछताछ करने का अनुरोध किया परन्तु दरोगा और सिपाहियों ने उसे बुरी तरह झिड़ककर भगा दिया. वे सभासद साहेब से मिले और अपनी विपदा और थानेदार की धमकी का जिक्र किया.वहां से उसे कुछ तसल्ली मिली. किन्तु उसकी जमापूंजी एक बार फिर खलास हो गयी परन्तु वह बेदखल होने से बच गया.
फ़िलहाल उसका पिचकारी वाले प्लाट पर कब्ज़ा बरक़रार रहा. उसने शक, सुबह और डर-भय के बीच अपनी वहां की दिनचर्या पुनः प्रारंभ कर दी. उसने सोचा और भोले नाथ से प्रार्थना की, यदि साल भर किसी प्रकार का कोई संकट न आन पड़े तो वह अबकी बार अवश्य कुछ बचत सुरक्षित कर पायेगा जिससे कि वह अपनी बड़ी बेटी का व्याह कर पाये.
-राजा सिंह
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