आपातकाल ( २५ जून १९७५ ) का वह समय
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जिस दिन ( २५ जून १९७५ ) आपातकाल लगा था , उस दिन मैं बनारस में था .मित्र कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह से पहले ही बात हो गयी थी कि पहले ‘आज’ अखबार के दफ्तर चलेंगे, उसके बाद कथा-लेखिका प्रतिमा वर्मा से मिलने उनके निवास चलेंगे ,प्रतिमा जी आज कार्यालय के पास ही दीना गोलानाथ में रहती थीं. हम और बिस्मिल्लाह उन दिनों कहानियां लिख रहे थे और छप भी रहे थे .,मैं तो खैर फ्रीलांस कर रहा था, लेकिन बिस्मिल्लाह बनारस में नेशनल इंटर कालेज में प्रवक्ता थे .और जम कर कहानियां लिख रहे थे . मैं जब भी बनारस जाता .बिस्मिल्लाह से मिलता ज़रूर था .उसी वर्ष इलाहाबाद में लेखक सम्मलेन भी हुआ था, जिसमें हमने और बिस्मिल्लाह ने अहम् भूमिका निभाई थी, जिसकी चर्चा दिनमान में आदरणीय सर्वेश्वर जी ने अपने कालम चरचे और चरखे में किया था .
मैंने उसी वर्ष सेंट्रल पेडागाजिकल इन्स्टीटयूट इलाहाबद से एल.टी.किया था माया की स्थायी नौकरी छोड़कर .वेतन कम होने के कारण मुझे नौकरी छोड़कर एल. टी. करना पडा था .उस समय मेरा वेतन दो सौ के नीचे ही था. अमरकांत जी मेरी आर्थिक स्थति से पूरी तरह वाकिफ थे .उन्होंने मुझे उत्साहित किया और कहा कि मैं प्रवेश परीक्षा दूं .मैने परीक्षा दी और पता नहीं कैसे मैं मेरिट में आ गया .अब दाखिले की समस्या थी .किसी तरह वह भी पूरी हुई .लेकिन आगे के खर्च के लिए अमरकांत जी ने आलोक मित्र से बोलकर मुझे सत्यकथा का सम्पादन हास्टल से करने की अनुमति दिला दी और मुझे काम भर पैसे मिलने लगे .मैं शाम को पांच बजे से पहले माया प्रेस जाता और कहानियां ले आता. दूसरे दिन जब भी मौक़ा मिलता दे आता .प्रूफ सीधे व्यास जी को देता .फ्रीलांस से भी मैं ठीक ठाक पैसे अर्जित कर लेता था ..इस तरह मैंने एल.टी. भी अच्छे नंबरों से पास कर लिया .अब आगे जो कुछ करना था वह जुलाई में ही कर सकता था, क्योंकि वैकेंसी उसी समय आती थी .फिलहाल मैं खाली था . खैर .
दोपहर को खाना कर हम लोग ‘आज’ के दफ्तर गए. वहां फोटो पत्रकार एस.अतिबल के साथ चाय पीने नीचे आ गए .चाय के साथ तरह -तरह की चर्चाएँ भी होने लगीं. बारह जून को इंदिरा जी के खिलाफ इलाहाबद हिंह ऑर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय दिया था ,राजनारायण जी के मुकदमा जीतने और न्यायाधीश जगमोहन सिन्हा के साहस की भी बातें हो रही थी ..तभी एकाएक भगदड़ मच गयी .सूचना आयी कि देश में आपातकाल लग गया है और जयप्रकाश जी के बाद दूसरी गिरफ्तारी चंद्रशेखर जी की हुई है .यहं खबर लगते ही अतिबल ऊपर अपने दफ्तर चले गए और मैं बिस्मिल्लाह के साथ उन्के निवास कोयला बाज़ार आ गया.
समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक यह निर्णय क्यों लिया गया .हम सब अचंभित थे . कहा यह गया कि मुकदमा हार जाने के कारण इंदिरा जी ने यह निर्णय लिया था .इंदिरा जी स्वयं इलाहाबद हाई कोर्ट में आकर अपनी गवाही दी थी .यह भी एक इतिहास बन गया कि भारत का कोई प्रधानमंत्री स्वयं कोर्ट में हाजिर हो कर .
बाद में आपातकाल लगाने के पीछे जिन कारणों का उदघाटन हुआ ,उसमें कुछ निम्नलिखित हैं –
१ -अहमदाबाद के एल.डी. कालेज आफ इंजीनियरिंग के छात्र फीस बढ़ोत्तरी के विरोध में दिसम्बर ७३ में आन्दोलन पर चले गए थे. इसके ठीक एक महीने बाद चहरों ने राज्य की कांग्रस सरकार को बर्खास्त करने की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था .उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल थे .
२ – जयप्रकाश नारायण का आन्दोलन – यह सर्वविदित है कि १९७४ में बिहार आन्दोलन छात्रों द्वारा शरू हुआ .इसे सफल बनाने के लिए सभी दलों ने अपना भरपूर समर्थन दिया .इसका नेतृत्व जय प्रकाश नारायण ने किया .जब इंदिरा गांधी ने बिहार विधान सभा के निलंबन को अस्वीकार कर दिया ,तब आन्दोलन और तेज हुआ .निश्चित ही आपातकाल लगाने में एक महत्वपूर्ण कारण जे.पी. आन्दोलन भी था .
३ – रेलवे हड़ताल – जे पी आन्दोलन के दौरान समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडीज के नेतृत्त्व में रेलवे हड़ताल की घोषणा कर दी गयी .पूरे देश में रेल सेवा बुरी तरह प्रभावित हुई .यह हड़ताल लगभग तीन हफ्ते चला था .हज़ारों रेल कर्मियों को गिरफ्तार किया गया, साथ ही उनके परिवारों को रेलवे क्वार्टर से बेदखल कर दिया गया .इस हड़ताल से केंद्र सरकार पूरी तरह हिल गयी थी .
४ – चुनाव का मुकदमा इंदिरा जी हार गयी थीं .जिसे समाजवादी नेता राजनारायण ने दायर किया था .इंदिरा जी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के ,लिए बीस दिन का समय माँगा था .१९ मार्च को इंदिरा जी गवाही देने इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुँची थीं .१२ जून को खिलाफ फैसला हुआ. उनसे वोट देने का अधिकार कोर्ट ने छीन लिया था
बताया जाता है कि उस समय इंदिरा जी मानसिक रूप से बहुत परेशान थीं. .कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने चुनाव घोषित करने की भी सलाह दी थी ,लेकिन आन्दोलन और बढ़ती हुई महंगाई के कारण उन्होंने चुमाव से इनकार कर दिया था .उन्हें भय था कि इन परिस्थतियों में चुनाव हार जायेंगी .इसलिए उन्होंने २४ जून की रात ११.३० मिनट पर राष्ट्रपति भवन जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकालीन के कागज पर दस्तखत करा लिया .दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी .इसके बाद की स्थिति से सभी वाकिफ हैं .
आपातकाल का निर्णय लेने के पीछे इंदिरा जी ने जो तीन वजहें बतायी थीं, उनमें पहला यह था कि जयप्रकाश नारायण द्वारा शुरू किये गए आन्दोलन की वजह से भारत की सुरक्षा और लोकतंत्र खतरे में है .दूसरा कारण बताते हुए उन्होंने यह कहा था कि “ मेरा विचार है कि देश में तेजी से आर्थिक विकास , पिछड़े वर्गों और वंचितों को उत्थान की ज़रुरत है ..तीसरा यह कि विदेशों से आने वाली शक्तियां भारत को अस्थिर और कमजोर कर सकती हैं . उस समय देश के सभी बड़े छोटे विपक्ष के नेता , छात्र एवं युवा जेल में डाल दिए गए थे .इनकी संख्या एक लाख से भी ज्यादा थी .
खैर ,मैं तो अपनी बात कर रहा था .तो आपातकाल लग जाने के कारण सभी तरह की वैकेंसी पर रोक लग गयी .मैंने जो सोचा था , वैसा होना अब भविष्य में दिखाई नहीं दे रहा था .फ्रीलांसिंग से रोजमर्रा का खर्च तो चल सकता था ,लेकिन यह कोई एकमुश्त की आमदनी तो थी नहीं .एक नौकरी की ज़रुरत तो थी ही .मैं सोचने लगा कि बेकार में माया की नौकरी छोड़ दी .स्वतंत्र लेखन करके बतौर पारिश्रमिक संतोषजनक राशि मिल जाती थी. फिर यह सोच कर संतोष कर लेता था कि आपातकाल न लगता, तो नौकरी मिल ही जाती . खैर अब जो होना था हो गया था .आगे की राह देखनी थी .मैं बनारस से इलाहाबाद आ गया .
एक दिन शाम को मैं बैडमिन्टन खेलने के बाद काफी हॉउस जाने के लिये कपडे बदल रहा था कि कुणाल श्रीवास्तव जी घर आ गए .हम दोनों ने साथ में चाय पी .फिर मैं काफी हॉउस जाने लगा, तो उन्होंने कहा कि आज मत जाइए .हमारे साथ चलिए . कुछ बहुत ज़रूरी बात करनी है .कुणाल जी और हम माया में एक साथ थे .ये तीन भाई थे और सभी लेखक और सम्पादक थे .इनके बड़े भाई सुशील कुमार बहुत अच्छे कहानीकार थे .( उनकी एक कहानी ‘माटी का पहरुआ’ , मुझे अब भी याद है, जो कहानी पत्रिका में छपी थी .)बाद के दिनों में रीडर डाइजेस्ट जब हिन्दी में सर्वोत्तम नाम से निकला, तब अरविन्द जी के बाद वही सम्पादक हुए थे .एक और भाई कुमारप्रिय थे, जो पाकेट बुक के काफी चर्चित लेखक थे .
हमें कुणाल जी अपने घर ले गए .वहां उन्होंने होटल से खाना मंगवा लिया और काफी देर तक बातें होती रहीं .असल में उन दिनों वह कुसुम प्रकाशन के लिए मनोहर कहानियां की तरह एक पत्रिका निकालना चाह्ते थे .उनकी फाइनल बातचीत कुसुम प्रकाशन के मालिक कृष्ण कुमार भार्गव ( जिन्हें लोग लल्लू बाबू के नाम से जानते थे ) से फाइनल बात हो चुकी थी .लल्लू बाबू टाइगर पेपर मिल के कागजों के थोक व्यापारी थे .प्रेस भी उनका अपना नैनी में था .इसलिए पत्रिका निकालने में कोई परेशानी नहीं थी .कुणाल जी ने मुझे नौकरी के लिए कहा .साथ ही इस बात के लिए भी आश्वस्त किया कि वेतन माया से ज्यादा देंगे .कुल मिलाकर हुआ यह कि जब मैं कुणाल जी घर से रात ग्यारह बजे चार सौ रूपये वेतन और लिखने के अलग से पारश्रमिक की बात तय कर के निकला .
इस तरह मुझे एक ठिकाना जो आपातकाल के दौरान वह नूतन कहानिया में सहायक सम्पादक के रूप में मिला .फिलहाल मेरे लिए सजीवन बूटी ही था .इसके बाद मुझे पुनः पत्रकारिता का क्षेत्र मिल गया .इसके कुछ ही समय बाद मैं धर्मयुग चला गया .
आल सोचता हूँ तो लगता है कि ठीक ही था किस्मत से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता .मुझे आपातकाल ने फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में लौटा दिया .और फिर मैं पीछे मुड़ कर नहीं देखा .यह अलग बात है कि अंतिम दौर में मैंने विश्वविद्यालय में अध्यापन भी किया मेरे दोनों शौक पूरे हो गए .
अब मैं अवकाश प्राप्ति के बाद बच्चों के साथ नोयडा में रह रहा हूँ .अपने को लेखन में पूरी तरह व्यस्त कर लिया है .हाँ, साल में महीने दो महीने के लिए गाँव भी चला जाता हूँ .
( कुछ सामग्री और चित्र नेट से लिया है .साभार )
आपातकाल (25 जून 1975) का वह समय : सुनील श्रीवास्तव

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