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Lahak Digital > Blog > Literature > संजय कुमार सिंह की कहानी : ‘जाड़ा’
Literature

संजय कुमार सिंह की कहानी : ‘जाड़ा’

admin
Last updated: 2023/10/01 at 1:49 PM
admin
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17 Min Read
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जाड़ा से दहल कर शंकर ने रात में कहा,” सुबह स्टेशन नहीं जाऊँगा टैम्पो लेकर… बाप रे बाप…हाड़ गलाने वाली ठंढ है …बहुत वर्षों के बाद ऐसी ठंढ पड़ी है…. ईंजन तक जल्दी स्टार्ट नहीं होता है…जान बचे ,तो सौ उपाय…”
” नहीं जाओगे, तो घर कैसे चलेगा?” लक्ष्मी ने कहा,” चार बच्चे जो जने हो, उन्हें कौन खिलाएगा? किसी का मुँह बन्द नहीं है, भगवान ने चीर कर भेजा है…खिलाना तो पड़ेगा ही…”
” भगवान ही खिलाएँगे…” उसने काँपते हुए कहा,” मुझसे तो नहीं होगा…खून जम जाता है उतना सवेरे,तिस पर सजग नहीं रहे, तो मारामारी में दूसरा टैम्पोवाला पैसेंजर खींच लेगा… यह भी कोई काम है…जीवन सिंह तो अलाव के पास बैठा रह गया…बोला… जा भाई जिसे चढ़ाना है, चढ़ा … मेरी जान निकल रही…”
” तू दूसरे की छोड़…” पत्नी बोली,” बैंक का लोन है… बगल में चार: जन के पेट हैं… स्कूल की फीस है…घर बैठोगे, तो गृहस्थी नहीं चलेगी…मौसम के कहर पर मत जाओ …गरीबों की जिंदगी में सबसे ज्यादा खेल वही करता है… पैसे वालों का मन चले, तो वे इस मौसम में भी नाच करें… हमारे लिए क्या सर्दीऔर क्या घाम …चाम घिसो…बस!”
शंकर खामोश हो गया। कोरोना आया ,तो उसकी मार गरीबों पर पड़ी। दंगे-फसाद में भी कई बार घर बैठना पड़ता है… इस बार की ठंढी भी वैसी ही मारक… दूसरी तरफ अमीरों को देखो हीटर जलाकर ठाठ से घर में सोये रहते हैं, भगवान की दुनीति नहीं तो क्या है यह? किसी के पास सुख है, तो उसका अंत नहीं, किसी के पास दुख है तो खालिश दुख …कुछ उसके जैसे लोगों के भाग्य में ही खोट होता है, नहीं तो नगर पालिका की लगी-लगायी नौकरी छूटती…
वह सोने का जतन करने लगा। बंद कमरे में भी हवा देह को छेद रही थी। दोनों बच्चे काठ के पटरे को जोड़ कर बनाए खाट पर दुबके सोये पड़े थे। लक्ष्मी रसोई साफ कर रही थी। इस औरत को ठंढ लगती कि नहीं? कहीं बीमार हो जाएगी, तो अलग से आफत आ जाएगी…
…
शंकर बी.ए.पास था। काॅलेज में एक नम्बर का फुटबाॅलर। बहुत दौड़-भाग के बावजूद जब नौकरी नहीं लगी, तो वह परिवार उठाकर शहर आ गया। शहर में एक बाबू ने बहुत-आरजू-मिन्नत को बाद नगरपालिका में सहायक के पद पर डेलीवेज पर लगवा दिया ,पर एक दिन वहाँ से भी छटनी हो गयी। कोई पाँच बरस इधर-उधर छोटा-मोटा काम कर उसने सौ गज जमीन ली, छप्पर-छाजन डाल कर घर बना लिया।भाड़े की खोली से निजात मिली, तो फिर फाइनान्सर कृपाल सिंह के माध्यम से किस्त पर टैम्पो खरीद लिया…अब शहर में सवारियों को ढोकर हजार -पाँच सौ से ही घर की गाड़ी खींच रहा था…
…
सुबह सचमुच वह ठंढ की मार से बचने के लिए शुतुरमुर्ग बन गया था, गर्माहहट की नींद के साथ सपने कि वह बड़ा आदमी बन गया है। कृपाल सिंह फाइनांसर से भी बड़ा आदमी…पर तभी बीच सपने में पत्नी ने जगा दिया,” उठो भी! ट्रेन का समय होने वाला है…”
” आँय?” वह हड़बड़ा कर उठ गया,” तुम भी अजीब हो, इस ठंढ में भी दया नहीं आती? कभी निकल जाने दो ट्रेन को और सोने दो चैन से…आज मेरा जी नहीं हो रहा कि जाऊँ…बड़ी ठंढ लग रही है..”
“चलो जल्दी करो…” लक्ष्मी ने कुछ सोच कर कहा,” मैं चाय बनाती हूँ। क्या कहा दया नहीं है…? अरे तेरे रोम-रोम से मुझे मोह है,… पर इस झूठे मोह-छोह से काम चलेगा… अमीरों के लिए जो धन राख होता है,वही गरीबों के लिए लाख… आज नहीं गए, तो हजार -पाोँच सौ का चूना लग जाएगा.. चलो,आज मछली ले लेना…तुम्हें पसंद है न झोल-भात…”
” ओह! बहुत हवा है…” शंकर तेजी से तैयारी करने लगा।थोड़ी देर में
लक्ष्मी बिस्कुट के साथ चाय ले आयी।शंकर पैंट-कोट और टोपी पहन कर निकल पड़ा।
…
मुहल्ले से बाहर सड़क पर आते ही उसे लगा, कोहरे की चादर लील लेगी दुनिया को । भगवान ने आदमी का जीवन दिया ठीक, पर उसे पापी पेट नहीं देता, क्या बुरा होता…पेट सिर्फ अमीरों के होते…गरीबों के नहीं…सड़क पर एक-दो पैसेंजर को छोड़ कर बहुत उम्मीद नहीं थी। हाँ जानकी एक्सप्रेस से आने वाले जो पैसेंजर आ जाएँ। उसने स्टेशन पहुँच कर पहला राउण्ड मारा, गिर्जा चौक, थाना चौक, मझली चौक…वापसी में उसे एक परिवार ने रिजर्व कर लिया। छोटी बस स्टैंड … उन लोगों को छोड़ कर …वह फिर वापस स्टेशन की ओर आ गया…
शहीद चौक के पास एक भिखमंगे की लाश औंधी पड़ी थी। वह उस भिखमंगे को पहचानता था। बरसों-बरस से वह इसी इलाके में रहता था। आज ठंढ से टें बोल गया। अब नगरपालिका की वैन आएगी और जानवर की तरह लाद कर कहीं किसी शमशान में फेंक देगी…इस बार ऐसा किसी दिन नहीं गुजरा, जब किसी के मरने की खबर नहीं सुनी हो…या अर्थी लेकर जाते लोग नहीं मिले हों..
राम नाम सत्य है
सबका यही गत्य है…

पटेल चौक के रैन-बसरे के पास किसी ने टायर में आग लगा दी थी। वह भी बगल में गाड़ी लगा हाथ सेंकने लगा,लोगों के साथ आवारा कुत्ते भी कुछ दूरी पर आग के पास आकर बैठ गए थे। एक बूढ़ा आदमी कह रहा था,” मुर्दे को क्यों जलाते हो ,उतनी लकड़ियों से अलाव का इन्तजाम कर दो चौक-चौराहे पर ताकि लोगों की जान बचे…सरकार केवल भूक कर रह जाती है…कहीं कुछ प्रबंध है…?”
किसी ने कहा,” कल जनता चौक पर एक बाइक सवार को ठंढा लगा और वह लुढ़क गया… इस बार बहुत से जवान और बच्चे भी उठ गए…सदर अस्पताल में देखो…क्या ठसाठस भीड़ है…सब एक्सपोजर वाले…. किसी को उल्टी हो रही है, तो किसी की साँस बैठ रही…”
शंकर उठ गया। उसे आग सेंकने से गर्माहट हुई। वह चैतन्य हुआ, तो उसे लक्ष्मी की बात याद आयी। वह मछली बाजार की ओर चल पड़ा। वहाँ अच्छी-खासी गहमा-गहमी थी। उसे महसूस हुआ कुछ भी हो जाए, दुनिया का कारोबार चलेगा…जल्दी-जल्दी मछली लेकर वह घर की ओर रपटा… टैम्पो लगा कर लक्ष्मी को मछली थमा वह बिस्तर में घुस गया।वाकई शरीर पानी हो गया था!
…
दिन का खाना देर से बना। खाना खाकर शंकर फिर बिस्तर के अंदर चला गया।बच्चे भी स्कूल से आ गए थे। हवा इसी तरह-तरह साँय-साँय कर रही थी। शाम कोलबगल के मैनेजर साहब का लड़का विशाल आया और बोला,” अंकल रात में दस बजे सीमांचल पकड़ना है…”
शंकर का मन भारी हो गया,” तबीयत ठीक नहीं है।”
” नहीं अंकल जो भी लेना है, लें, पर चलना तो होगा। ” वह जिद्द करने लगा।
” ठीक है…” उसने कहा,” आ जाऊँगा।”
विशाल के जाने के बाद लक्ष्मी बोली,” सवेरे भेज कर मैं बहुत पछतायी… मुझे भी क्या जिद्द चढ़ी, उठा दिया… अब तबीयत ठीक नहीं है, तो क्यों जा रहे हो?जाड़ा सचमुच जुल्म कर रहा है…आज मेरा हाथ ऐंठ रहा था बर्तन धोते…गाँव से फोन आया था… कई लोग गुजर गए…काकी मर गयी…”
शंकर कातर भाव से मुस्कूराया,” जाड़ा हो कि गर्मी वह हमारे लिए अपनी चाल क्यों बदलेगा? मैं बस यह गया, वह लौटा…दो सौ रु. बैठे-बिठाए मिल जाएँगे…”
लक्ष्मी को समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे!
…
पिछले दो महीने से किस्त को लेकर शंकर और कृपाल सिंह के बीच तनातनी चल रही थी। शंकर ठंढ का रोना रो रहा था, तो कृपाल सिंह पैसे का। आखिर एक शाम जब शंकर राउण्ड मार कर आया, तो कृपाल सिंह के गुंडे टैम्पो खींच कर ले गए। वह गिड़गिड़ता रहा। उसने कृपाल सिंह को फोन भी लगाया ,पर उसने उठाया ही नहीं।
घर आकर वह बिस्तर पर बैठ गया। जाहिर था वह बहुत दुखी थी। शहर और गाँव में यही फर्क है… वहाँ रिश्ते का वास्ता दो ,तो आदमी रहम करता है… यहाँ लाज-शरम का कोई मोल नहीं… आँखें निर्लज्ज और जबान बेगानी… पानी-पानी बेपानी….कृपाल सिंह पैसे के लिए ऐसा करेगा… इसका अनुमान नहीं था उसे… पिछले महीने टायर बदलना पड़ा था… साढ़ू की बहन की शादी में जाना पड़ा था ,ठंढा अलग… मंदी अलग… उस कमीन ठीकेदार ने उसके ईमान पर यकीन नहीं किया, इसका मलाल हो रहा था उसे…आज गाँव होता ,तो वह ऐसे महाजन की मूँछें उखाड़ लेता… पर पराये देश में झगड़ा-झंझट नहीं… उसका पैसा था …ले गया…
” काहे परेशान हो रहे हो?” लक्ष्मी ने दिलासा देते हुए कहा,” भले ठंढी में सवेरे-सवेरे स्टेशन जाने से मुक्ति मिली… जाड़ा बाद दूसरे धंधा-पानी के बारे में सोचा जाएगा… समझो ऊपर वाले ने बख्श दिया…यह समय बाहर निकलने वाला है…”
” गाड़ी मिल जाएगी…मुझे इसकी फिक्र नहीं…” शंकर ने कुछ टूट कर कहा,” बस शहर के आदमी के मिजाज के बारे में सोचता हूँ… यहाँ बस लेन-देन का रिलेशन है…और कुछ नहीं….कोई कुछ कहे… गाँव से शहर आने का दुख हो रह है अब मुझे …”
” मुझे तो शहर ही अच्छा लगता है…गाँव में कोई बात फैल जाती है…शहर में किसी को दूसरे के ऊँच-नीच से मतलब नहीं…” लक्ष्मी ने अपना तर्क रक्खा,” फिर बच्चे भी तो पढ़ रहे…अब गाँव के बारे में सोच कप क्या होगा…गरीब हर जगह मुश्किल में है… ”
” हाँ, यही सही है…” वह कोट खोल कर लेट गया।
…
सुबह की शुरुआत बुरी खबर से हुई। चौक पर रामसुमेर ने बताया, जीवन सिंह चल बसा। वह लक्ष्मी को सूचना देकर मातमपुर्सी के लिए निकल गया ।जीवन उसका दोस्त था। वह बीमार चल रहा था। उसके चार बच्चे और बीबी के पेट पर वज्र गिर गया था। दिन भर उधर ही रहा।सभी रो-धो रहे थे।लाश जलाकर लौटा ,तो उसे जीवन सिंह की परिवार की चिंता ने और हलकान कर दिया, उसे अगर कहीं कुछ हो जाए, तो उसके परिवार का भी क्या हाल होगा…घर लक्ष्मी के पीलो ,फाॅल, रफ्फू… लगाने की मामूली आमदनी से कैसे चलेगा? कब तक चलेगा?
” क्या सोच रहे हो?” लक्ष्मी ने चाय का कप रखते हुए कहा।
” कृपाल सिंह मिला था…” उसने बदल कर कहा।
” क्या बोला?”
” कह रहा था..टैम्पो ले आओ…”
” तो ले आओ…”
” नहीं…” शंकर ने कहा, ” सोचता हूँ जीवन सिंह की पत्नी… कमली भाभी सो बोल कर दो-तीन सौ रोज पर वही टैम्पो ले लूँ…इससे दोनों घर चल जाएँगे… दोस्ती का फर्ज भी पूरा हो जाएगा…”
” एक पखवाड़ा रुक जाओ…” पत्नी ने ब्रेक लगाया।
” क्यों?” शंकर चौंका।
” जाड़ा कम हो जाएगा…”
शंकर ने हसरत से उसकी ओर देखा और फिर कहा,” जाड़ा हो कि घाम…हम गरीबों को लिए काम ही राम है…सवाल अपने घर का नहीं है …जीवन स्ंह के घर का भी है… तुम बस अपनी राय दो… क्या करूँ?”
“कमली भाभी से पूछ लो।” लक्ष्मी ने द्रवित होकर कहा।
” मैं जानता हूँ, तुम्हारा दिल बड़ा है…” वह खुश होते हुए बोला।
…
किरिया-करम के बाद शंकर ने कमली भाभी को अपने मन की बात बतायी।उसे संकोच भी हो रहा था कि वह गलत न सोच ले, लेकिन वह सहर्ष तैयार हो गयी। शंकर ने टैम्पो को गौर से देखा, उसे जीवन सिंह का चेहरा याद आया, मानो उसका हमशक्ल भाई हो वह… मन ही मन उसकी स्मृति को नमन कर वह टैम्पो लेकर निकला,तो कुछ ज्यादा ही ठिठुर रहा था। उसके कंधे पर दो परिवारों का भार था…

———

नाम- संजय कुमार सिंंह
जन्म- 21 मई 1968 ई.नयानगर मधेपुरा बिहार।
शिक्षा- एम.ए. पी-एच.डी(हिन्दी)भा.वि.भागलपुर।
रचनात्मक उपलब्धियाँ-
हंस, कथादेश, वागर्थ, उद्भभावना,परिकथा,नई धारा, नया ज्ञानोदय,समकालीन भारतीय साहित्य,पाखी ,साखी, पुष्पगंधा, नवनीत, आजकल, गृहलक्ष्मी, अविराम साहित्यिकी, वीणा, अहा जिंदगी, चिंतन दिशा,सोच विचार,हिंदी चेतना, हरिगंधा,पुष्पगंधा, संपर्क भाषा भारती, कथाबिंब, दोआबा, कथाक्रम, लहक, कलायात्रा, प्राची, परिंदे, अक्षरा, गगनांचल, विपाशा, हिमतरु, साहित्य अमृत, समकालीन अभिव्यक्ति, मधुराक्षर , प्रणाम पर्यटन, परती पलार, नया,विचार वीथी, संवदिया, साहित्य कलश, रचना उत्सव, दि अण्डरलाइन, हिन्दुस्तानी जबान, सृजन सरोकार, सृजन लोक, नया साहित्य निबंध, पाठ, प्रगतिशील साहित्य, शब्द वृक्ष,किस्सा, किस्सा कोताह, नवल, उत्तर प्रदेश , प्रणाम पर्यटन, अतुल्य भारत, ककसाड़ , एक और अंतरीप, गृहलक्ष्मी, अलख, नया, भाग्य दर्पण, अग्रिमान, हस्ताक्षर, नव किरण, आलोक पर्व, लोकमत, शब्दिता, दूसरा मत, उदंती, हाशिये की आवाज, काव्य-प्रहर, नव निकष, समय सुरभि अनंत , हाॅट लाइन, हिमप्रस्थ, अतुल्य भारत,पुरवाई, गौरवशाली भारत, स्वाधीनता, रचना उत्सव, प्रखर गूँज, अभिनव इमरोज, साहित्यगंधा, हिमप्रस्थ, शोध-सृजन, पश्यंती, वर्त्तमान साहित्य, कहन, गूंज, संवेद, पल,प्रतिपल, कला, वस्तुत: उमा, अर्य संदेश, गूँज, सरोकार, द न्यूज आसपास, कवि कुंभ, जनपथ, अपरिहार्य , मानवी, अलख, साहित्य समीर दस्तक, सरस्वती सुमन, हिमतरु, हिमालिनी, अंग चम्पा, हस्ताक्षर, मुक्तांचल, साहित्य यात्रा, विश्वगाथा ,विश्वा, शीतल वाणी, अनामिका, वेणु, जनतरंग , किताब , चिंतन-सृजन, उदंती, स्पर्श समकालीन, सुसंभाव्य, साहित्यनामा, हिमाचल साहित्य दर्पण, हम हिन्दुस्तानी, दैनिक हिन्दुस्तान, इन्दौर समाचार, मालवा हेराल्ड, कोलफील्ड मिरर, नई बात, जनसत्ता, प्रभात खबर आदि पत्र- पत्रिकाओं में कहानियाँ,कविताएँ,आलेख व समीक्षाएँ प्रकाशित।
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20 कुछ विचार और कुछ प्रतिक्रियाएँ(आलोचना) अधिकरण प्रकाशन दिल्ली।
सम्प्रति- प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला काॅलेज पूर्णिया-854301
9431867283/6207582597

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