वीरेन्द्र सारंग की लोकचेतना अत्यधिक मुखर है। वे ठेठ जन – जीवन और वंचितों के जीवन – स्तर का साक्षात्कार करते हुए बतकही और गुनगुनाने के शिल्प में उसे व्यक्त करते हैं। “कथा का पृष्ठ” भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनका गद्यकाव्य है जो आम आदमी की जीवन – कथा के पृष्ठों को बांचता है और अलाव की धीमी आंच में उसे पकाने और प्रसारित करने की उद्यमिता से जुड़ता है। उनकी विवक्षा मुखर है और सन्नाटे को चीरती हुई धीमी अनुगूँज पैदा करती है। सृजन के प्रति कवि की अनन्त आस्था है जो धार्मिक आस्था का अतिक्रमण करती है और राजनीतिक परिदृश्य से ऊबी हुई है। ईश्वर के बिना इस लोकतांत्रिक आदमी का काम चल जाता है और अपने आस पास के जीवन में गहरे धंस कर उसे ऐसे प्रकट करता है, जैसे वही उसका ईश्वर हो। राजसत्ता की मधुर आलोचना भी आदर के शिल्प में! भोगा हुआ सत्य और अनुभूति की प्रामाणिकता उनकी कविता का धातु गत वैशिष्ट्य है। वे हमारे गृह जनपद गाजीपुर के हैं और लखनऊ के सचिवालय में कार्यरत हैं। वे एक उपन्यास कार भी हैं। “अलगनी पर समय” और ‘बज्रांगी’ जैसे उपन्यासों के लेखक और “कोण से कटे हुए” तथा “हवाओं! लौट जाओ” जैसे काव्य – संग्रहों के प्रणेता सारंग जी एक सहज – सरल व्यक्ति हैं।
कवि का कोई गुरु नहीं है और वह गुरु की सत्ता को अस्वीकार कर देता है। किन्तु कविता भी तो गुरु ही है जो समय और समाज का मार्ग दर्शन करती है और बिना कविता पढ़े कोई कविता कैसे लिख सकता है? वह आलोचना से परे पैगम्बर की जगह लघु मानव की बात करता है जो जीवन भर दूसरों के जीवन को संवारने में लगा रहा लेकिन आज उसके अकर्मक जीवन में कोई सहारा नहीं है और वह अपनी पीठ दीवार में रगड़ कर खुजली मिटा लेता है। कहीं हम कविता के साथ भी तो यही नहीं कर रहे हैं! अज्ञानी बन कर देश – दुनिया से बेखबर रहना या अपनी रोटी छिपा कर खाना या झोली में भूंजा रखकर चुरमुर – चुरमुर चबाना देशज अनुभव हैं। भीख मांगना भी हाथ पसारने की एक कला है। राजा जी के पोस्टर देखकर हमारा पसीना लजा जाता है। हमारी जठराग्नि तेज है और उसके भीतर बासी – तिवासी खाना या ईंट – पत्थर सब कुछ हम पचा लेते हैं किन्तु भ्रष्ट धन नहीं पचा पाते। कपड़े में पैबंद लगी है और पैंट की चेन टूटी है। वहाँ आलपिन लगा लिया है और एक चप्पल रस्सी के सहारे है। राजा का भविष्य सुरक्षित है और हमारा वर्तमान विद्रूप। राजाजी! मेरी ओर से आप ही पर्यटन कीजिए। मैं एक रोटी कम खा लूंगा। नमक और प्याज के साथ दो सूखी रोटी खाकर अपनी आंखें पोंछ लूंगा। हमारे घर में अक्सर बिजली चली जाती है और रिमोट खराब हो जाता है। जी में आता है कि टेलीविजन पटक कर फोड़ दूं। किन्तु दांत पीसकर और मुट्ठी भींच कर अपनी ही क्षति करने के बाद अब मैं सहज हो जाता हूँ और किताब से गुस्से वाली लाइन हटा देता हूँ। जय हिंद बोलता हूँ। सचिवालय में इस मंत्र के बिना सन्तुलन भी नहीं बना सकते। अर्थव्यवस्था के लिए आदमी की खाल तौलने की बिडम्बना के साथ ही मुहावरों और नारों को जीवन – खुराक समझने वाला सूत्रधार भी उतना ही हास्यास्पद है। लगता है कि हमारी व्यवस्था का ही रिमोट खराब हो गया है। कुल मिलाकर सारंग जी जीवन और जगत को देखकर बुदबुदाते रहते हैं और कविता को गैरजरूरी या फालतू बकवास समझने वाली सत्ता का प्रतिपक्ष रचते हैं। कई बार ऐब्सर्ड को भी रचते हैं और सम्पूर्ण जीवन – सत्य का सामना करते हैं। वीरेन्द्र जी को हृदय से बधाई।
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अजित कुमार राय, कन्नौज