‘जाग रहे हैं’
लो जाग गए
सभी अपने-अपने
भीतर बाहर-
देखकर कुछ प्रयास किया
कुछ विचार मिले
कुछ स्वभाव मिले
हैरान थे
भेदभाव था
कुछ नीचा था
कुछ उंचा था
मिटा सकते थे
भेदभाव को
परन्तु नहीं
कुछ स्वार्थ था
कुछ अंहकार था
बहुतों को नौकर रखना है
मन बंद
बुद्धि बंद
चेतना बंद
जाग गए
परन्तु जागी केवल इन्द्रियां
बहा ले गईं
जगह-जगह
राज करो
धन समेटो
कुचलो
अत्याचार करो
मालूम नहीं था इन्हें
कि अपने सपने में
अपने पर थूकना है
रात थी
रात है
रात ही होगी
जिनमें
जगह-जगह रस्सियाँ थीं
जगह-जगह रस्सियाँ हैं
जगह-जगह रस्सियाँ होंगी
बस सांप सांप समझते रहे
अभी तक
जाग कर भी
नहीं जागे
इतना कुछ अच्छा
वसुधा पर
मिलकर भी
अन्तरिक्ष में भी झांका
झांक रहे हैं
अत्याधुनिक तकनीक से
कमज़ोर के कांधे पर
पांव रखकर
सभी कुछ होते हुए
न अन्न दे सके
न वस्त्र
न ही रहने के लिए घर
सभी को-
कहने को
सभी जाग रहे हैं
गहरे सपने में
सभी काम पर जा रहें हैं
देख रहे हैं रस्सी को
समझ रहे हैं सांप
इस मरूस्थल में
इस मृगतृष्णा में
हो सकता है
वसुधा का निर्माण हुआ हो
प्रेम प्रभु में
समर्पित होने का-
विडम्बना है
हम वसुधा को ही
खा रहे हैं
जाग रहे हैं
जाग रहे हैं
अपने अपने
बनाए गए
सपने में
बस जाग रहे हैं ।
——–
1.
रोज़ की बात है
रोज़ ही घटती है
कि
लोगों को
अपनी बुद्धि, क्षमता,
विचारों की उड़ान व
विकास पर
गर्व है
तब तक
जब तक
वसुधा का
एक एक कण
आपस में जुड़ा है
हर कण
कईं घटनाओं को
संजोए
घूम रहा है
तुम भी
कण में
घूमते
अपने आप को
रोज़ देख ही रहे हो।
2.
बात तो करे
बड़ी देर से
अभी तक बात नहीं की
न करे
क्या फर्क पड़ता है
पर इसमें
इतना उतावलापन
वजह
नहीं कुछ नहीं
कुछ संबंध है
बाहर से या भीतर से
इससे क्या फर्क पड़ता है,
पड़ता है
अगर बाहर से है
तो थोड़े समय के लिए
अगर भीतर से है
तो बहुत समय लेगा
अगर दोनों से न हो
मैंनें
गीता
अभी पढ़ी नहीं
तुमने शुरू कर दी
पढ़ना
अपने से
यह बात करके
कि
‘अगर दोनों से न हो’-
ऐसी बात तो कहे
बड़ी देर से
सचमुच
इस तरह
बात नहीं की।
ऐनक
ऐनक
अगर देखती
तो बहुत से
युद्ध रुक जाते
धागे से जोड़ी गई
ऐनक को
दूर किसी गांव के
मिट्टी से बने घर में
बुढ़ापे ने अभी तक
अपनी नाक व
अपने कान पर
रोककर रखा है
ऐनक बच्चे के
चेहरे पर
मुस्कराती भी है
हमारा गुस्सा
सभी घरवालों पर
ऐनक को
किसी कपड़े से
साफ करते करते
उतरता भी है
ऐनक भटके हुए को
हर पल रोज़
रास्ता भी दिखाती है
ऐनक वालों को
किसी से प्यार
बड़ी मुश्किल से मिलता है
धुधंले शब्दों को
ऐनक
साफ दिखाई देने का
साधन बनती है
टेबल पर रखी
ऐनक ने
न कभी
किसी से पानी पिया
और
न ही कभी
किसी से
खाना खाया
ऐनक को
जहां भी रखो
ठहर जाती है
बड़ी मुद्दत के बाद
किसी ने
ऐनक को
घास पर रखा है
बड़ी मुद्दत के बाद
ऐनक ने
ख़ुद चलने की
कोशिश की है
‘पानी पर दिखते अक़्स की तरह’
दुनिया के
हर सफर में
मेरे अनगिनत कदमों का
सिलसिला
हवा में गायब हो जाता था-
हर देश के
खूबसूरत प्रसिद्ध दृश्य
पानी में दिखाई देते
अक़्स से
अक्सर मिलते जुलते थे-
प्रसन्नता से भरा मन
सचेत न हो सका
वास्तविक सच्चाई से-
गम्भीरता से
मिट्टी
और
मिट्टी से बने
गमले को न देख सका-
जो हो रहा था
बस हो रहा था,
जैसे दरियाओं के
समूह के समूह
समन्दर में
सम्मानित हुए जा रहे थे-
समानांतर
शुरुआत और समाप्ति
के परे
बीजों का खेल था-
भिनभिनाता
नौजवानों का शोर
अपनी-अपनी पार्टियों में
खाने पीने
व हंसी मज़ाक में
गिलहरियों सा पुलकित
फुदक रहा था-
संसार के बहुत से
घरों में
खाने के लिए कुछ भी नहीं है-
निकालो इसे बाहर,
ऐसा सुनाकर
पार्टी का सारा मज़ा
किरकिरा कर दिया-
हां, दे सकता हूँ
कुछ लोगों को
हर रोज़
खाना, मैं भी,
मगर
मुझे मेरे माता पिता ने
आजतक
देना नहीं सिखाया-
मालूम है मुझे,
यह गुस्सा
मेरे नहीं होने का प्रतीक है
और
खीझ भी,
कि
सामर्थ्य था मैं,
परन्तु
मेरा दरिया
समन्दर में न मिल सका-
सच्चाई को जानते हुए भी
मेरे जैसे
अमीर बच्चों को
ऐसे पालने को
कोरा स्वार्थ कहते हैं-
मालूम नहीं
हमारे धनवान माता पिता
कौन से ऐसे सफर पर निकले हैं
और क्योँ,
जिनके
सभी कदमों के निशान
आहिस्ता आहिस्ता
हवा में गायब हो रहे थे,
पानी पर दिखते
अक़्स की तरह।
——
1.
‘अभी किसी का’
‘अभी किसी का’
हो गईं
अब
हर तरह की
काफी विद क्रीम
औपचारिकताएं –
मालूम नहीं
नज़दीक कहीं
शरीर पर
फटे
लपेटे टाट का
एक धागा
उड़ते उड़ते
गलती से
कीचड़ से सने
भूख का
जूता पहनकर
तुम्हारे कारपेट पर
चलने लगा,
सभी देख रहे थे
परन्तु
धागा जोड़ने
कोई नहीं
आगे आया-
अन्न के दानों ने
अभी तक
किसी का
नाटक
खत्म नहीं किया था।
2,
‘सादी सी लिखी हुई’
‘सादी सी लिखी हुई’
हम
पचास साठ
लोग
आपस में
मिलकर
समझौता कर लेते हैं
कि
दुनिया कैसे चलानी है-
बर्फ की
सादगी को तो देखो
उसने इन्हें सुनकर भी
आग से कहकर
अपने को पिघलाकर
इनके होंठों तक
पानी पहुंचा दिया,
एक सादी सी
लिखी हुई
स्लिप भेजकर
कि
शीशे में दीखते
अक्स से
तितलियों के
रंग
बनाए नहीं जाते।
‘अपने आप से भी पूछा जाए’
कितने
किसान व मज़दूर हैं
जो
हमारे लिखे
कविता, कहानी,
व उपन्यास को
पढ़तें हैं –
और
इनमें से
कितने लेखक हैं-
अब क्या कहें
अपने आप से शर्म आती है,
लेखक तो ख़ुद
शुद्ध चोर है
किसान व मज़दूर की
घटनाओं को
छापकर
साहित्य के माध्यम से
मध्यमवर्गीय
व कभी-कभी
अमीरों को
बेचने की कोशिश करता है-
हम सभी साहित्यकार
सारी उमर
अवार्ड, मान्यता
व स्टेटस के
चक्कर में
एक दूसरे को
कोसते रहते हैं-
किसान व मज़दूरों के
पास
न ही साहित्यकारों के
साहित्य की
और न ही
पब्लिशर्स की
कमाई पहुंचती है-
अमीर तो
वैसे भी
चालाकी से
मिलजुलकर
किसान व मज़दूरों का
खून चूसने में
व्यस्त रहा है-
धीरे-धीरे
साहित्य
घर में
रद्दी हो रहा है
और
दुकानों पर
रद्दी के भाव ही
बिक रहा है-
नेट पर
जो आजकल
सुन्दर व आकर्षित
परोसा जा रहा है
उसे तो सभी जानते हैं-
किसान
केवल
अपने मिट्टी के
साहित्य को ही जानता है
और
मज़दूर
ख़ुद किसी का
बोझा उठाने के बाद
माथे से गिरते
पसीने के
साहित्य को ही जानता है-
हम साहित्यकार
कौन सा
साहित्य रच रहे हैं
जो इनके
मिट्टी व पसीने के
सत्य से
उंचा व
शाश्वत है।
आखिर नींद में
आखिर
नींद में
सपने सज ही गये-
ख़ुद में
रेत जुड़ेगी नहीं-
सदियों से कोशिश जारी है
अक़्स को
पानी से बाहर निकालने की-
बंट गई
हर बूँद
तेरे मेरे
हिस्सों को
मापते- मापते-
छोटी सी
मिट्टी की कटोरी में
जोड़ा हुआ पानी
और
साथ में
बिखरे
चावल के दाने,
चिड़ियों का रूठना
बहुत बड़ा बाज़ार
इसके घाटे को
नहीं जानता-
बदलते पोशाकों से
रात
कभी नहीं ख़रीदी गई
और
न ही उसकी नींद –
सो गई है
बर्फ भी
यज्ञ करते-करते-
कब पकेंगे
सपनों के बीज
कण-कण की
आग में ।
‘ईश्वर मिले क्या’
चलिए
आज ईश्वर को खोजते हैं
अरे, वह खोजने से परे है
और
हर समय
सभी जगह
एक जैसा रहते हैंञ
अरे, वह तो एक जैसा रहने से भी परे है-
ऐसा है कि
यह रोज़-रोज़ की
सांसारिक रूटीन
कुछ तो इसमें से
खो रहे हैं,
ठीक है
जीवन को
विधिवत् चलाने में
कुछ हद तक तो
कुछ करना ही पड़ता है
लेकिन फिर भी
इस में से
कुछ तो छूटता जा रहा है
होता तो हमारे पास ही है
पर उसे देख नहीं पाते-
क्या आप मुझे
एक रोटी दे सकते हैं
कौन हो तुम-
और अचानक
तुम्हारा रोटी मांगना,
आपने अभी कहा
कुछ तो छूट रहा है-
हां, कहा था
तो आप रोज़ पेट भर कर खा रहे हैं
लेकिन मुझे रोज़
पेट भरकर खाना नहीं मिल रहा है-
इसलिए आप से
अपने हिस्से की रोटी मांग रहा हूँ-
आप घबराये न
मैं जा रहा हूँ-
लेकिन ऐसे कईं सवाल हैं
जिसका जवाब आपके पास
आसानी से रहता है
और आप इसे कार्य में
कर भी सकते हैं-
वैसे तो हर एक के पास
ईश्वर
हमेशा से रहता ही है-
परन्तु कार्य और सोच में
हम सभी
अच्छी तरह जानते हैं
कि किसके लिए क्या करना है
लेकिन
जब आप करते हैं
तो
जो छूट रहा है
वह बहुत ही आसानी से
मिल जाता है-
परन्तु
ऐसा अनुभव किसी को
कह नहीं सकते,
लेकिन कार्य में
एक रोटी
बिना ढिंढोड़ा पीटे
देने की कोशिश तो
कर सकते हैं-
ऐसे और भी
कईं छोटे छोटे कार्य
करने से
कुछ भी आपका
छूटता नहीं-
ईश्वर
मिले क्या।
——–
1.
बारिश
अच्छी लगती है
जिनके घर
पक्के होते हैं-
बारिश
बारिश लगती है
जिनके घर
कच्चे होते हैं ।
2.
पत्तियां
फूल
टहनियां
बिना कपडों के
बूंद-बूंद
भीगतीं,
खुले छोड़ दियें हैं
सभी ने
कुछ देर के लिए
अपने-अपने
विचार बन्धन,
फुहार
शीतल हवाएं
भीगना भीतर तक,
मुस्काना
खिलखिला कर हंसना,
बरसते बरसते
कभी ऊंगलियों से
हम आकाश को छूते,
कभी आकाश हमें छूता
न देखते हुए
न सुनते हुए
न जानते हुए-
बस भीग रहे हैं
बस भीग रहे हैं ।
‘ध्वनि’
आकाश में
उड़ते हुए
विमान की आवाज़
ज़मीन पर
मिस्त्री द्वारा
मकान बनाते दौरान
तोड़ी गई
आधी ईंट की
आवाज़ के साथ
विलय हो जाती है-
भिनभिनाता बाज़ार
मुंडेरों पर बैठे
कबूतरों की गुंटरगू
के रहस्य को
शायद अनदेखा कर रहा था-
भोर होते ही
भजन, गुरबाणी व आयतों का
आलौकिक मिश्रण
दिहाड़ीदार मजदूरों के
भीतर-बाहर की
ईमानदार जीवन-शैली को
सिमरण कर रहा था-
पत्तों को स्पर्श करती
बारिश की बूंदो का स्नेह
जब वसुधा को छूता था,
छोटे-छोटे
चींटियों द्वारा बनाए गए
घरों में
मधुर ध्वनि का
विस्मय नृत्य होता था-
ब्रह्माण्ड की ध्वनियों का
सूक्ष्म विस्तार
बहुत ही विरला है-
ध्वनि अपने आवागमन से
कब मुक्त होगी
मैं नहीं जानता,
लेकिन हर कोई
भरा-भरा सजा है
इसकी
श्रृंखलाओं को ओढ़े-
अभी-अभी
ध्वनि गुज़री है
सरल, सहज
अद्धभुत ।
ठंड-तपिश-नृत्य
ठंड की चुभन
के दायरे में
बस्तियों की नींद के सपने थे-
फैक्ट्रियों में बनते
कम्बल
और तुम्हारे बांटने
का खुशनुमा
मैं
से भरा
छोटा सा तालाब
भीतर से जम चुका था-
दुनिया में
बहुत से
बनते
गर्म कपड़े
आसानी से
ज़रूरतमंदों के
जिस्मों को
गरमाईश दे सकते हैं-
परन्तु
तुम्हारा व्यापार
गिनती में उलझा
संवेदनशीलता को
नहीं समझता-
माइन्स टेंपेरेचर
जमती बर्फ
कंपकंपाती ठंड
वैसी की वैसी
न जाने
कितनी सभ्यताओं की
साक्षी रही है-
बस बदलते लोग
कभी कम
कभी अधिक होती
आग की तपिश के
इर्द-गिर्द
जुड़कर
गोल-गोल
नृत्य कर रहें हैं ।
———
कपास बिछड़ी
कपास बिछड़ी
धागे मुड़ते मुड़ते
बनते गए,
कपड़ों ने फैलाव की
उड़ान भरी,
न हुआ शरीर
अनगिनत पहनावों से
ढकता गया-
सुन्दर आकर्षण
जीव
जीवंत प्रतीत होता
छायाओं की गाथाओं में
टिमटिमाता
जलता बुझता
अनदेखे द्वार द्वार के
स्पर्शों से तंरिगत
मौन
गहरी अवस्थाओं को
पिरोये
होने व न होने में
झूलता
कभी टूटे धागे के जोड़ में
कभी फटे कपड़ों के ऊपर
कपड़े के ही पैबन्द में,
मैं किसका
कौन मेरा
क्यों हुआ मैं,
वसुधा के टुकड़े ने
शायद सुना नहीं,
इसलिए कपास ने
उगना अभी बंद नहीं किया-
अभी भी
पेड़ के इर्द गिर्द
विश्वास का धागा
बांधा जा रहा है-
दूर
कपास के फूल
हवा से संवाद कर रहे थे।
——–
1.
काठ का घोड़ा
बहुत दौड़ा
शताब्दियों तक-
झट से फैंक दिया
फाड़कर कागज़
डस्टबिन में-
इस्तेमाल करने की
आदत
इन्सान को सदियों से है-
और मोक्ष भी
जल्दी चाहता है।
2,
मोमबत्ती
धूप
रूई की बाती
एक दूसरे का
हाथ पकड़कर
सड़क पार कर रहीं थी
अपने अपने रास्तों से
वाकिफ़ भी थीं
और मंजिल का पता भी-
जानती थीं
कुछ देने में
जलना भी होता है।
3,
हवाई जहाज
के सफर से
चाल में फ़र्क सा
आ जाता है-
दिखाने के लिए
ब्रांडिड रहना पड़ता है-
धूप और बारिश
बार-बार आती है
आपको मिलने के लिए-
परन्तु आपका समय कीमती है
और ख़रीदी हुई कार भी-
एयर होस्टेस
आपकी सेवा में हाज़िर है-
उतरते समय हाथ जोड़कर
पूछतीं हैं
आपका सफ़र कैसा रहा-
पर वहां
हम दोनों में से
कोई नहीं होता।
4,
यह नया रिश्ता
आपके लिए
कैसा रहेगा-
पर मैं उसे
एक बार देखना चाहता हूँ –
पर आप उसे रोज़ देखते हैं
एक मां की शक्ल में
एक बहन के रूप में-
और अपना सभी कुछ
छोड़ जाती है
उसे पाने के लिए
जिसका उसे
कुछ पता नहीं होता है ।
——–
1.
जब आप कहते हैं
कि मैं जानता हूँ ,
तब आप नहीं जानते-
जब आप कहते हैं
कि मैं नहीं जानता,
तब आप जानते हैं ।
2.
आपके अपने द्वारा बनाए गए
या
दूसरों के द्वारा बनाए गए से
बहुत से आपके विकल्प होते हैं
और ज़िम्मेदारी भी
आपकी ही होती है-
लेकिन जब आप
सूरज की तरफ देखते हैं
तो उसका कोई विकल्प
नहीं होता,
उसका विकल्प
केवल सूरज ही होता है
और आपकी कोई
ज़िम्मेदारी नहीं होती ।
3.
संसार की लगातार सोच
संसार को ही बनाती है,
जो बन जाता है
उसे और बनाती है-
संसार को माध्यम समझकर
हल्का सा पकड़कर
फिर छोड़कर
जब मूल को सोचते हैं
तो नहीं होते हैं ।
4.
रात के सपने से जागना
रात और उसके सपने को
झूठलाता है-
दिन के चलते फिरते
सपने से जागना
दिन और उसके सपने को
झुठलाता है-
जागने में
नहीं जागना,
जागने को झुठलाता है।
‘पहाड़ धुंध बादल’
पहाड़ धुंध बादल
उतरे
भीतर-भीतर-
चीड़ देवदार
झूमें
संग-संग हवाओं के-
टेढ़ी मेढ़ी
ढलानों में रमती
कच्ची पक्की
पीली सब्ज़ तराईयां-
झरने के भीतर
झरना
हर कोई होता
झरना-
अपने इस पहले रूप को
चुपके से सागर देख गया-
मिट्टी का घर
पक्षी का घोंसला
रसोई का धुआं,
जीवन को देखने
जीवन कुछ पल
ठहर गया
समीप से-
आपसी मनमुटाव की
ऊंचे शिखर से
मौन
पिघलती बर्फ-
टिमटिमाते
रात को तारे,
हर कण का
बनता है
उत्सव विवाह का-
मूल में लौटूं
पहचानूं
श्वास के श्वास को-
तेरा पानी बहता
तेरा पानी लौटता
बरसता
छोटी-छोटी
बारिश की बूंदो में-
कुछ पहाड़ों पर
कुछ खेतों पर
कुछ जंगलों पर
कुछ तेरे मेरे
कच्चे आंगन में-
लो धुंध भी आ गई
खेलने
सब के साथ
आंख मिचोली ।
——–
1.
एक कलम तो ले आओ
जी,आजकल नहीं मिलती
कुछ विचार तो ले आओ
जी, खत्म हो चुके हैं
कुछ परिन्दे तो ले आओ
जी, छोड़कर जा चुके हैं
कुछ सहारा तो दे दो
जी सभी लाठियाँ टूट चुकी हैं
कुछ मानवता तो दिखाओ
जी,वैसे इन्सान अब दिखते नहीं
कुछ तो दिखाओ
जी, सभी अन्धे हैं
बस लगातार भाग रहे हैं
एक ईश्वर तो दिखाओ
जी, खिलौने बन चुके हैं
तुम कौन हो?
जी, मालूम नहीं ।
2,
पेटी
बोरी
टोकरी
डिब्बा
केवल इस्तेमाल के लिए हैं
बाद में फैंक दिए जाते हैं
परन्तु इन सभी का काम
आजकल मानव ही
मानव को लेकर करता है
समझ नहीं आता
कौन
किसको फैंक रहा है।
3,
हर मौसम में
हवा बदल रही है
तेरे मेरे
कपड़े को देखकर
पहचान हो रही है
अपने तक
सीमित हो गया है
दिल-
बात असल में
कुछ दूसरी ही हो रही है-
दरिया
तुमसे दोस्ती नहीं रख सकता
इसके हर अपने बहाव में
इसी की
पैरवी हो रही है।
‘बन रही होगी…पाल रहा होगा’
कभी-कभी
भीड़ का विचार
व
एक ही व्यक्ति का विचार
उपयुक्त नहीं होता-
भीड़ एक होने का
सपना बुनती है
और
एक व्यक्ति का विचार
भीड़ इकट्ठा करने की
कोशिश करता है-
पहले पहल कुंबों में
युद्ध जीतना
आख़िरी निर्णय होता था
एक मुखिया का कहना
व भीड़ का लड़ना
अभी तक
गोंद की तरह
चिपका हुआ है-
चमड़ी उतर जाए
लेकिन भीड़ का
विचार नहीं बदलता,
एक व्यक्ति का विचार
मज़े से काफ़ी पीता
दूर से
निर्देश देता है-
भीड़ अचानक
हिंसक हो जाती है-
कुंबा बेशक
बहुत बड़ा व
विकसित हुआ है
लेकिन हैं तो सभी अपने-
बदसूरती व ताज्जुब का
आलम यह है
कि
भीड़ अपने को नहीं पहचानती
व
एक व्यक्ति
का विचार
अपने ही को
पृथक कर देता है-
इस
भीड़ व
एक के विचार में
बहुत धुआं ही धुआं है
जिसमें
अपनों की अपने से
अभी तक
शनाख्त नहीं हो रही है-
इस समय भी
कहीं तो
भीड़
बन रही होगी,
किसी एक का
विचार
अपने स्वार्थ को
पाल रहा होगा।
‘कुछ प्रयत्न करूं’
हर रोज़
एक अनदेखा विश्वास लिए
बाहर भीतर चलता हूँ
मालूम है
कि कुछ नहीं मालूम
फिर भी मालूम को
जानने के प्रयत्न में
बार-बार चलता हूँ
तुझे लगता है
कि तेरी तरफ
तेरे ज़रूरत से
कुछ ज़्यादा आया है
बिना सोच
बांट उसी वक़्त
जिन्हें ज़रूरत है
तू और भीतर जाएगा
पेड़ों पर दिखते हैं
मौसम जब भी
एक नयी उगन
सी जगती है
वायु के स्पंदन से
उसे स्पर्श कर जाता हूँ
भावों के तपिश से
हर पल सर्जन होता है
इस सर्जन के
आवागमन में
बार-बार
तुझसे मिलन होता है
तेरे ही ब्रह्माण्ड हैं
तेरी न हुई सोच से
हर पल उत्पन्न होते हैं
हर पल प्रलय में ढलते हैं
भीतर इनके सपनों में
भ्रम में पाले अपनों में
हर पल न जाने क्यों
बहुत लम्बा खिंच जाता है
पहले एक नहीं होता था
अब एक से अनेक हो जाते हैं
इस तेरे मेरे भेदभाव में
फिर भी
चलने की कोशिश रहती है
कुछ अज्ञानता मिटे
कुछ प्रेम के अंकुर खिलें
कुछ सादगी हो
कुछ दिखावा न हो
कुछ अंहकार कम हो
कुछ क्रोध शान्त हो
कुछ करने में झूठ न हो
कुछ सहानुभूति के पत्तों पर
अलिप्त बूँदों का घर हो
उस घर में श्रद्धा हो
उस घर में विश्वास हो
जिस पर हर रोज़
चलने का
कुछ नया करने का
कुछ सार्थक सोच के साथ
कुछ प्रयत्न करूं
कुछ जतन करूं ।
‘अभी इसी समय’
बहुत ही गम्भीर प्रश्न हैं
जो अपने आप से पूछने पडेंगे
अभी तक नहीं मालूम
कि इस शरीर का अस्तित्व
अगर है तो क्यों है
धीरे-धीरे क्षीण होकर
विलय होता है
इस ब्रह्माण्ड में
तो जाता कहां है
इन प्रश्नों के इर्द-गिर्द
न जाने कब से
बहुत कुछ
बुना गया
शरीर पर ओढ़कर
हर बार
समय समय पर
चलाया गया
लेकिन प्रश्न खड़े हैं
अभी तक
वहीं के वहीं
आज के युग में भी
कुछ सूझा नहीं
महंगी से मंहगी
कार बनाने
और
फिर रखने की इच्छा
इस इच्छा ने
बड़ी बड़ी इमारतों में
रहने का मन बनाया
वसुधा का हर जगह
सीना काटकर
अपने आराम का आसन
उंचा किया
भव्य अंहकार
भव्य जमा पूंजी
भव्य आधिपत्य का जुनून
लो एक छोटा सा पत्ता गिरा
सब टूट गया
सब बिखर गया
फिर वही प्रश्न
फिर कोई उत्तर नहीं
घबरा कर वापिस
जीवन को फिर से थाम लिया
खाने पीने, रहने
व ओढ़ने के लिए
कम से कम
इन्तज़ाम जरूरी हैं
सभी के लिए
परन्तु अभी तक
सभी ने
सभी का
इस आवश्यक
ज़रूरी इन्तज़ाम का
क्या साथ दिया
नहीं दिया
नहीं दिया
फिर
कैसी सोच को लेकर
हम सभी जी रहे हैं
इसी सोच को लेकर
दान पुण्य का दिखावा
सब बेकार
तबाही व
डराने के लिए बनाए
गंभीर तरह तरह के हथियार
स्मरण कर
कुछ सुझाया था
वेद व उपनिषदों ने
अपनी इच्छाओं के घोड़ों को
वश में करने के साधन
विमुख हुए
मन, बुद्धि व आत्मा का
दुरुपयोग किया
क्या अभी तक हासिल किया
अज्ञानता, दुख व तनाव का
बीज बोया
बार-बार इसे
अभी तक हासिल किया
शरीर से जुड़े
प्रश्न अभी तक
वहीं के वहीं हैं
क्या वेद व उपनिषदों को लेकर
फिर से
कोशिश नहीं करोगे
इच्छाओं के भोगने के
अनगिनत समन्दर
कभी खत्म नहीं होंगे
क्या फिर भी
अभी
इसी समय
प्रयास नहीं करोगे क्या।
———–
1.
संतरे के छिलके
मूंगफली के छिलके
देख रहा था
भूखा बच्चा
पहिए गुज़रते गये
सामने स्कूल भी था
बगल में एक बहुत बड़ा
विश्वविद्यालय
थोड़ी ही दूर
अमीरों के घर भी थे
मालूम नहीं
इन सभी में
कौन लगातार
भीग रहा था
बारिश में ।
2,
उसके पास जाइए
आपका काम हो जाएगा
लेकिन वह बहुत रुपये
मांग रहा था
मैं नहीं दे सकता
हंस कर बोला
फिर नेता बन जाओ
अपने आप रुपये आते जाएँगे
काम भी उसी क्षण होंगे
यह पाप है
मालूम है
सदियों से कर रहा हूँ
भेष बदलकर
लेकिन
भेष बदलकर
तुम्हारा भी तो
कोई
हिसाब किताब
रख रहा होगा।
3,
कितनी बार कहा है
बेटी
कि
बहुत अच्छे
कपड़े पहना करो
लेकिन मम्मी
पापा के चोरी के कमाए पैसे
और रोज़
न जाने कितनी बार
आपके
झूठ बोलने से
इन्हीं कपड़ों से
रोज़
बदबू आती है।
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1.
अनदेखे
गरमाईश के
पैबन्द
आते-जाते
लोगों के बैठने से
तह पर तह
बनते चले जाते हैं-
केवल
मुसाफ़िर
करते हैं
सफ़र-
बस की सीट
सफ़र नहीं करती।
2,
हर रोज़
ढ़क लेता हूँ
भीतर ही भीतर
चादर से
प्यार के
गोल गुम्बद को-
ज़िन्दगी में
चलते-चलते
घूमते हुए
फिर वही
एक बिन्दु का
इन्तज़ार
भला क्यों रहता है।
3,
जानने के बाद भी
बादलों को
बांधा नहीं जा सकता
कब बरसे
कहां बरसे
यही इनकी
इश्क भरी
आवारगी है।
4,
बड़े नाटक के बीच
मैं अपने नाटक के
टुकड़े के साथ
बहुत खुश था
एक छोटे से
टुकड़े को
सारी उमर
किसी दूसरे टुकड़े के साथ
जोड़ने की
कोशिश करता रहा-
शौक
पूरा करने के लिए
लोग
क्या-क्या नहीं करते।
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1.
पेड़
निंदा और आलोचना
सुनकर
क्रोधित नहीं होते-
धैर्य से
आपकी बात सुनते हैं
सेवा ही होगी
जब आप इनसे
सीधा संवाद करेंगें ।
2,
वर्षों से
बहुत कम वेतन पर
अपने बच्चों का
पेट भरने की
कोशिश कर रहे हैं
आपकी अमीरी से
मानवता की चरागाह
सूखती जा रही है
क्या आप भी
आराम से
घास पर बैठ सकेंगे ।
3,
कृत्रिम मेधा ( आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) से
आनंद की भावना
‘उसकी’ उपस्थिति
शुद्ध प्रेम
क्या उपज सकेंगी?
प्रकृति की छाया से
क्या मानव
ऊब गया है?
आख़िर
मौलिक सृजन का
निर्णय
किसका होता है।
4,
मोर के पंख ने
बारिश की
दस्तक दी है
ईंट के नीचे
चीटियां
अपने खाने का सामान
जोड़ रही हैं ।
5,
1500 का उधार
निवस्त्र पिटाई
फिर देह पर
पेशाब करना
कौन से
विश्वविद्यालय की
रचना कर रहा है
आधुनिक
मानव।
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विजय सराफ ‘मीनागी’, जम्मू