यूँ तो सीमा विजयवर्गीय की ग़ज़लें जीवन और जगत के सभी बिंदुओं को छूती हैं, लेकिन चूँकि एक महिला ही महिला-अंतर्मन को बख़़ूबी समझकर उसे अभिव्यक्त कर सकती है। यही कारण है कि सीमा ने अपनी ग़ज़लों में नारी जगत के सभी महत्त्वपूर्ण पहलुओं को उकेरने की कोशिश की है। बेटी, बहन, माँ, पत्नी के रूप में नारी के संवेदनाओं को उन्होंने अपने अशआर में बहुत ख़ूबसूरती से समेटा है। नारी प्रेम का प्रतिरूप है, इसीलिए सीमा को भी यह विषय बहुत प्रिय है। वह लिखती हैं-
मेरी ग़ज़लों में बस प्रेम ही प्रेम है
इनके हर्फ़ों में बस प्रेम ही प्रेम है
वो खिलाती रही राम को प्यार से
जूठे बेरों में बस प्रेम ही प्रेम है
वहीं वह कहती हैं-
ज़िंदगी तकरार में कुछ और है
और वो ही प्यार में कुछ और है
है अकेलेपन का भी अपना मज़ा
पर मज़ा परिवार में कुछ और है
बेटी जब ससुराल आ जाती है, तो उसे अपना मायका, अपनी मिट्टी कैसे कचोटती है-
ये दिन तो उलझनों में जैसे-तैसे बीत जाता है
मगर हर शाम यादों में सताती है मेरी मिट्टी
वो घर देहरी, वो आँगन, बाग गलियाँ वो सभी सखियाँ
सभी के रूप में कितना लुभाती है मेरी मिट्टी
अपने भोले बचपन को याद करते हुए कवयित्री उसे समझाती हुई कहती हैं-
मेरी दुनिया भी सुंदर है, पर बचपन के रंग निराले
इन्हें सँजोकर रखना, बस अब क्या समझाऊँ भोले बचपन
कल तो मुझको काम बहुत है, सच कहती हूँ बाल-खिलौने
ले मैं एक कहानी तुझको आज सुनाऊँ भोले बचपन
कवयित्री स्त्री को कुछ इस प्रकार परिभाषित करती हैं-
ममता का संसार है औरत
प्रकृति का उपहार है औरत
कैसे कमतर इसको आँकें
रचना का विस्तार है औरत
बासन्ती ख़़ुशबू-सी महके
जीवन का सिंगार है औरत
सीमा कितनी ख़ूबसूरती से नारी मन की इच्छाओं को अभिव्यक्त करती हैं-
मैं फूलों की तरह खिलना, महकना चाहती हूँ बस
हवाओं में फ़िज़ाओं में पुलकना चाहती हूँ बस
वही बंधन, वही तड़पन, वही आँसू भला कब तक
परिंदों की तरह उड़ना, चहकना चाहती हूँ बस
भले ही आँधियाँ आएँ, भले ही बिजलियाँ चमकें
किरण बनकर मैं सूरज की चमकना चाहती हूँ बस
‘माँ’ सीमा का सर्वप्रिय विषय रहा है। वह बूढ़ी माँ जिसने बच्चों की ख़ुशी के लिए अपना सब कुछ क़ुर्बान कर दिया, वही उसे घर के एक कोने में डालकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री समझ लेते हैं। कुछ शेर देखिए-
सहमी-सहमी-सी रहती है बूढ़ी माँ
अपनी बात कहाँ कहती है बूढ़ी माँ
घर पर अब अधिकार है बेटे-बहुओं का
बेबस ही बैठी रहती है बूढ़ी माँ
बोझ बनी हैं घर में फिर भी बच्चों को
रोज़ दुआ देती रहती है बूढ़ी माँ
माँ तो बेटी के पूरे जीवन की स्वर्णिम पूँजी होती है। ऐसे में माँ का चले जाना बेटी को बहुत अखरता है-
वो माँ के हाथों की खीर पूरी
वो प्यार से सबको ही खिलाना
वही रसोई, वही तो घर है,
मगर वो लज़्ज़त बदल गई है
बेटी जब पीहर आती है तो माँ के बिना पीहर कैसा लगता है, कवयित्री लिखती हैं-
आ रही हिचकियाँ मेरी माँ
क्या कहें चुप्पियाँ मेरी माँ
बाद तेरे तुझे ढूँढतीं
हर तरफ़ बेटियाँ मेरी माँ
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विश्वासों में घिर जाती हूँ तब माँ की याद बहुत आती
अपनों से चोटें खाती हूँ तब माँ की याद बहुत आती
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सताती है मुझे जब-जब बहुत ही याद माँ की तब
मैं अपनी शक्ल में ही माँ को अक्सर ढूँढ़ लेती हूँ
सीमा की संवेदनाएँ माता-पिता के साथ बहुत गहरी जुड़ी हैं, तभी वो कह पाती हैं-
बुढ़ापे को अकेले झेलते माँ-बाप से बच्चे
समय पर मिलने आ जाएँ दीवाली मन गई समझो
नारीमन सबको ख़ुशी बाँटना चाहता है, नारी के करुणा पक्ष को अभिव्यक्त करते हुए सीमा कहती हैं-
मिठाई और कुछ कपड़े भिखारी को अगर देकर
दुआ थोड़ी भी पा जाएँ, दीवाली मन गई समझो
नारी के अधिकारों का जब हनन होता है, तो कवयित्री का नारीत्व चीख़ उठता है-
जहाँ घर-घर में पूजा होती है देवी की हर दिन ही
सिसकती हैं वहाँ कितनी ही सीताएँ अभी तक क्यों
सभी चीज़ें नहीं अपनी जगह पर, कब भला होंगी
खटकती हैं मेरे दिल में यही बातें अभी तक क्यों
नारी घर, परिवार व समाज में कितनी भी यातनाएँ सहे, किंतु अपने सृजन को कभी नहीं छोड़ती-
तुम्हारे शोर में भी बेसुरे होंगे न मेरे स्वर
यहाँ जब-जब भी बोलूँगी मैं सुर-तालों में बोलूँगी
समाज में जब ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने वाली नारी के शरीर के अनगिनत टुकड़े कर दिए जाते हैं, तो कवयित्री का आहत मन चीख़ उठता है-
ये ज़रूरी नहीं इश्क़ में डूबकर
हर कोई राधिका, हर कोई श्याम हो
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लिखी थी मिलकर जो प्रेम-गीता
उसे ही अब तुम जला रहे हो
तुम अपनी नज़रों में आज ख़़ुद को
उठा रहे या गिरा रहे हो
बहुत ही पावन, बहुत ही उज्ज्वल
बहुत निराला ये प्रेम-मंदिर
झुका है सर सदियों से जहाँ पर
उसे ही अब तुम ढहा रहे हो
जब स्त्री विरह की अग्नि में तड़पती है, तो वह प्रियतम को उलाहना देने से भी नहीं चूकती। वह अपने अतीत को कुछ इस प्रकार याद करती है-
फिर से गले लगाता तो बेहतर होता
अपनी बात निभाता तो बेहतर होता
भाव कहाँ मरते हैं दिल में जो उपजे
फिर से उन्हें जगाता तो बेहतर होता
वहीं वह प्रेम का आदर्श राम-सिया को मानते हुए कहती हैं-
भूल जाना नहीं याद रखना सदा
मैं तुम्हारी सिया, तुम मेरे राम हो
इस तरह भी बजाओ मुरलिया कभी
बस मेरा, बस मेरा, बस मेरा नाम हो
उन्होंने स्त्री-पुरुष के रिश्तों को बहुत ख़ूबसूरती से बयान किया है-
ये नदियाँ और सागर के तो रिश्ते हैं बहुत गहरे
नई धारा भी ये रिश्ते समझ पाए तो बेहतर है
सीमा की ग़ज़लों में सूफ़ियाना प्रेम की झलक स्थान-स्थान पर देखने को मिलती है-
कितनी बार हुआ है ऐसा, कितनी बार सजे हैं वो पल
उसने मुझमें ख़़ुद को ढूँढा, मैंने उसमें ख़़ुद को पाया
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तुझे जाना तुझे परखा है जबसे
तेरे ही गीत गाती जा रही हूँ
सीमा सच को बहुत साफ़गोई से बयान करती हैं और यह भी महसूस करती हैं-
कल से लेकर आज तक के देख पन्ने खोलकर तू
सच अकेला था, अकेला है, अकेला ही रहेगा
जिस समाज में दहेज जैसी कुप्रथाएँ हों, वहाँ नारी मन का आहत होना स्वभाविक है-
नहीं हैं बेटियाँ जिनके, हुए पत्थर हैं जिनके दिल
वो भोले बाप के जज़्बात को क्या ख़ाक समझेंगे
नारी के शरीर पर कुदृष्टि रखने वालों पर तीखा व्यंग्य कसती हैं-
टिकी जिनकी नज़र बस रूप के उजले समंदर पर
वो मीरा-गोपियों की बात को क्या ख़ाक समझेंगे
सीमा के शेरों में सनातन संस्कृति के प्रतीक प्रचुर संख्या में मिलते हैं। वह दुराचारियों को सबक़ सिखाने के लिए भगवान को बुलाती हुई नज़र आती हैं-
सुनो धनश्याम अबलाएँ तुम्हें फिर-फिर बुलाती हैं
दुशासन पड़ रहा भारी मेरे गणतंत्र भारत में
नयन से खोलकर पट्टी तलाशेगी दिशाएँ ख़ुद
न चुप बैठेगी गांधारी मेरे गणतंत्र भारत में
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लक्ष्मी दुर्गा काली जो भी नाम मिले
समय की धारा पर मैं लिखती जाती हूँ
नारी संघर्ष को अभिव्यक्त करते हुए कवयित्री लिखती हैं-
ये माना कि मुझको सताया बहुत है
मगर ज़िन्दगी ने सिखाया बहुत है
इन्हीं हादसों गिराया था मुझको
इन्हीं हादसों ने उठाया बहुत है
किन्तु सीमा का नारी मन पूर्णतः आशावादी है, तभी वह कहती हैं-
फिर एक दिन तो मिलेगी मंज़िल,
और आसमाँ भी झुकेगा इक दिन
नए जतन से, नए सपन को
अब आज़माएँ नए बरस में
सीमा फ़नकार हैं और फ़नकार की नज़र बड़ी सतर्कता के साथ समाज में व्याप्त अच्छाइयों-बुराइयों को कला के माध्यम से उकेरती हैं-
मैं इक फ़नकार हूँ, फ़न के नए लफ़्ज़ों में बोलूँगी
कभी ग़ज़लों में बोलूँगी, कभी नज़्मों में बोलूँगी
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एक नन्हीं-सी क़लम को हाथ में मेरे थमाकर
दे दिया माँ भारती ने इक नया उपहार मुझको
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ख़़ून हत्या साज़िशों से हैं घिरीं चारों दिशाएँ
पर इसी परिवेश में मैं बुद्ध होना चाहती हूँ
पुस्तक प्रकाशन के अवसर पर सीमा को बहुत-बहुत बधाइयाँ और हार्दिक शुभकामनाएँ। माँ सरस्वती जी से कामना है कि वह इस पुस्तक के माध्यम से उन्हें और अधिक साहित्यिक ऊँचाइयाँ प्रदान करें।
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