हर साल की तरह 2024 की जनवरी की भी पहली तारीख़ को मैंने डॉक्टर धनंजय वर्मा को फोन किया और जवाब में उनका हमेशा की तरह विनोद और स्नेह मिश्रित “राकेश भारतीय की जय हो!” सुनाई दिया। जबसे उनसे परिचय हुआ था, हर महीने ही फोन पर बात करने का सिलसिला बन गया था और ज्यादातर एक-दूसरे का कुशलक्षेम जानने और साहित्य-संगीत पर बातें होती थीं। वे उम्र में मुझसे उन्नीस वर्ष बड़े थे और मुझे यह अनुभूति होती थी कि एक दुर्लभ विद्वान तथा परिवार के बड़े-बुजुर्ग से बात कर रहा हूँ। अब उनसे बात कभी न हो सकेगी, वे जनवरी की ही अट्ठाइस तारीख़ को ब्रह्मलीन हो गये।
तब ‘पश्यन्ती’ के संस्थापक-सम्पादक प्रणव कुमार वंद्योपाध्याय के आग्रह पर मैं पत्रिका का सम्पादन करता था। ‘पश्यन्ती’ में मेरी रचनाएँ वर्षों से प्रकाशित हो रही थीं, प्रणव जी स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याओं से जूझ रहे थे। एक दिन वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी मन्त्रालय (जहाँ तब मैं निदेशक के रूप में नियुक्त था) के मेरे दफ़्तर आये और पत्रिका के लिए आई रचनाओं के कई बंडल मुझे थमाते हुए बोले कि अब तुम करो इसका सम्पादन। मैंने तभी धनंजय वर्मा जी के एक लेख को देखा, वैदिक साहित्य से उद्धरणों से युक्त अद्भुत विवेचन जो मूलतः उनका व्याख्यान था। प्रणव जी से बात करने पर वर्मा जी के बारे में और जाना। फिर देखा उज्जैन से निकलने वाली पत्रिका ‘समावर्तन’ में मिर्ज़ा ग़ालिब पर उनका लेख। उस लेख से बेहद प्रभावित होकर मैंने वर्मा जी को एक चिट्ठी लिखी और उसके बाद से सम्पर्क-संवाद का जो सिलसिला बना उसने मुझे उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्थायी प्रशंसक बना दिया। उनके कृतित्व के बारे में बात करते हुए उसी पुस्तक ‘साझी विरासत’ पर बात केंद्रित करना चाहूँगा जो उर्दू के महान शायर ग़ालिब के ही नहीं बल्कि मीर, फ़िराक़, फैज़ और हिन्दी-उर्दू के आदिकवि अमीर खुसरो के भी साहित्यिक अवदान पर ‘समावर्तन’ में आये उनके लेखों की पुस्तक है।
‘साझी विरासत’ की भूमिका में धनंजय वर्मा ने कुछ बेहद महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं, यथा – “यह साझी विरासत सिर्फ़ हिन्दी-उर्दू की ही नहीं है, यह हिन्दू और मुसलमान दोनों की (भी) है। इससे भी आगे बढ़कर यह हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों की है।” यह पुस्तक 2013 में छपी और 2014 में उन्होंने मुझे एक प्रति भेजी, मेरी समीक्षा समावर्तन में छपी, और अपनी मृत्यु से दो महीने पूर्व उन्होंने बताया था कि मेरे अलावा किसी भी ने नहीं समीक्षा लिखी बावजूद प्रतियाँ भेजने के। यह तथ्य वैचारिक शून्यता की ओर इंगित करता है जो आज साहित्य जगत में व्याप्त है जिसके तहत किसी भी साहित्यिक कृति का आकलन उसकी श्रेष्ठता को निगाह में रखकर नहीं बल्कि स्वार्थसाधन से चालित होकर होता है।
‘साझी विरासत’ जैसी पुस्तक मात्र शायरी पढ़कर नहीं लिखी जा सकती है। शायरी पढ़कर उसपर चिंतन-मनन करने के बाद एक सांस्कृतिक तमीज़ से लैस व्यक्ति अपने सांस्कृतिक कर्तव्य के तहत ही ऐसा करता है, और धनंजय वर्मा से बेहतर इस काम के लिए शायद ही कोई और होता। वे व्यक्तिगत बातचीत तक में माक़ूल शायरी के एक से बढ़कर एक नगीने बातों में पिरोते रहते, कुछ शब्द न समझ में आने पर समझाते भी चलते थे। न सिर्फ़ शायरी के बल्कि अपनी ज़मीन की संस्कृति के झंडाबरदार के रूप में उन्होंने शायरों का विस्तृत विश्लेषण जो किया है उससे उनकी सांस्कृतिक दृष्टि का भी परिचय मिलता है। आज कम ही लोग इस बात को जानते होंगे कि फ़िराक़ गोरखपुरी बड़े स्वतंत्रता-सेनानी थे और गोरखपुर के ‘स्वदेश’ पत्र में लिखे गये उनके विचारोत्तेजक लेख स्वतंत्रता की अलख जगाने की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण थे। वर्मा जी ने ‘साझी विरासत’ में इस तथ्य पर भी सप्रमाण लिखा है।
शायरों के विशिष्ट अवदान पर सोदाहरण बात करते हुए वे मीर के बारे में “सादा ज़बानी दरअसल अभिधा की काव्यात्मकता है – – – उर्दू शायरी में मीर इसके माहिर ही नहीं प्रवर्तक भी हैं।”, ग़ालिब के बारे में “उनके लिए हिन्दू, मुसलमान और ईसाई – सब बराबर थे। उस ज़माने में यह उनके सर्वधर्म समभाव का प्रमाण है।”, फ़िराक़ के बारे में “फ़िराक ने उर्दू गज़ल में क्लासिकी शायरी की ऊँचाइयों को बरक़रार रखते हुए नये भावों को व्यंजित करने की सामर्थ्य पैदा की।” जैसी टिप्पणियां करते चलते हैं जो उनके गहन अध्ययन और सूक्ष्म आलोचकीय दृष्टि को प्रमाणित करती हैं। उन्होंने पूरी ही पुस्तक में शायरी का विश्लेषण करते हुए जो वक़्त की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का भी विश्लेषण किया है वह ‘साझी विरासत’ को देश की सांस्कृतिक पहचान के प्रति सजग हर व्यक्ति के लिए बहुमूल्य पुस्तक बनाता है।
धनंजय वर्मा का जहाँ साहित्यिक अवदान बहुआयामी था वहीं उनकी रुचियाँ भी कम बहुआयामी नहीं थी। मुझसे उनके जुड़ाव का एक पक्ष शास्त्रीय संगीत में समान रूप से रुचि होना भी था। वे मुख्यतः शास्त्रीय तंत्रसंगीत में रुचि रखते थे और रविशंकर के सितार-वादन की उनके पास बहुत रेकार्डिग थी। वायलिन-वादन में एन. राजम उनकी पसंद थीं। कुछ वर्षों से बाँसुरी-वादन उन्हें बहुत सुकून देता था। जबसे यूट्यूब की सुविधा मोबाइल पर संगीत सुनना सम्भव करने लगी, वे मोबाइल पर ही संगीत का आनन्द लेने लगे थे।
धनंजय वर्मा जैसे व्यक्ति एक बड़े सांस्कृतिक शून्य को अपनी उपस्थिति और कृतित्व से पूरी तरह हावी होने से रोके रहते हैं। इस देश की बहुआयामी संस्कृति को गहराई तक जानने-समझने और समझानेवाले तथा ‘साझी विरासत’ जैसी कृतियों से साधारण पाठक तक भी पहुँचा सकने में समर्थ उन जैसे लोग अब बहुत ही कम रह गये हैं। इस दृष्टि से उनका जाना हिन्दी-जगत की एक बड़ी क्षति है।
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