कोई नहीं पूछेगा!
कोई नहीं पूछेगा !
अपने मन की करो
पर मन तो मान,
नहीं रहा
मानेगा भी नहीं,
सबकी
निष्ठाएं बिक चुकी हैं ।
सबका
स्वार्थ निहित है
स्वार्थ!
घुस गया है
रीढ़ की हड्डी में।
बस वक्त दो खुद को,
उठाओ चिलमन
इस नफासत से
बचा रहे थोड़ा वजूद
जिसके लिए मिटते
आए थे कभी
पर तुम्हारा मिटना-मिटाना
तो भी तो ढोंग ही
ठहरा ।
प्रेम !
पढ़ नहीं पाते थे
तुम
आज तुम
प्रेम के जादूगर हो !
जीवन का बदलाव!
समय
पलट सकता है क्या ?
ये सवाल
वाजिब नहीं है
वाजिब है समय का बहाव
जिस में बहते हुए
हम कहीं दूर
बेसक बहुत दूर
निकल आए हैं
शुरुआत
फिर हो सकती है
ये बेमानी है।
शुरुआत का कोई आसरा नहीं
न उपाय
हां
उपाय सूझ में आ सकता है
अनजानी गलतियों का,
अनजाने व्यवहार का
लेकिन प्रश्न वहीं
खड़ा है ?
अनजानेपन का
तरीका एक ही बचा है !
जीवन में दोहराव नहीं
आते, बल्कि आते हैं
बदलाव
अब ये निर्भर है आप पर
कैसे लाते हैं ,
जीवन में बदलाव
अब बची शुरुआत!
दरअसल शुरुआत कभी नहीं होती
जीवन की ये विडम्बना ठहरी
शुरुआत का मुहूर्त
निकालना पड़ता है
थोड़ा शुरुआत को बदला
जा सकता है
लेकिन उसके लिए भी चाहिए
जीवन में बदलाव
दरअसल
आप को बात समझ नहीं आई
सत्ता, शक्ति, वैधता
अब वैध नहीं रहे
हो गए हैं अवैध
इसीलिए आ रहे हैं
जीवन में बदलाव और
दोहराव
और आपका अपना
अनजानापन ।
घर
कोई कोठी बोलता है
कोई महल
कोई मकान बोलता है
तो कोई महल के
आगे भी
कुटीर लिखता है
हालांकि उसे पता है
कुटीर क्या और
महल क्या
एक नयी नौबत
फ़ार्म हाउस
जी दो तीन तो मैंने भी देखें
ग़लती से फार्म हाउस
और नया शिगूफा
फाईव
स्टार
एक बार मैं भी गया
फ्री मैं
फाईव स्टार
फिर आ गए तंबू
और
टेंट
के मानों सो तंबू और टैंट तो और भी महंगे
हां कच्चे घर और महंगे
बात है या अमीरी ने
छीन लिए तंबू और टैंट
कच्चे और पक्के घर
नेह और रिश्ते
बचा क्या
सड़क और फुटपाथ
जिनकी सुरक्षा इनके ही हाथ।
भूखे का सपना
आज मैंने सोचा, थोड़ा
कम खाया जाए
फिर सहधर्मिणी के व्रत से
ध्यान बंटा
तो सोचा
भूखा ही रहा जाए!
था जरूरी काम
हाट-बाजार का
करनी थी शोपिंग
तो मजबूरी में जाना पड़ गया,
जाना पड़ा, तो दिख गई
एक शुद्ध दुकान, वो भी फेमश
थोड़ा मन ललचाया,फिर
ध्यान हटाया
बढ़ चला थोड़ा आगे
पर ध्यान हटा नहीं
और उलझ गया
आ गई शहर भर की सबों फेमश दुकानों की याद
चाट कचौरी
और शुद्ध घी की जलेबी
पंडित का चाट भंडार
समोसे और
वो डोसे
वो फालूदा कुल्फी।
अरे वो भटूरे
आर गजब की रसमलाई,
जो दो बार खाई
फिर नींद मुझसे धुडकायी ।
उठा भागा!
अरे सहधर्मिणी ने आवाज लगाई
दो बासी रोटी! सच में बड़ी ही मुश्किल से खाई।
सच कहूं
तो मुझे घर आने में शर्म नहीं थोड़ी श्रम आई !
फिर नींद कम आई ।
दरअसल मैं सो गया
देखा बुरा ख्बाव
ख्बाव मैं आया
अब देश आजाद हैं
तरक्की होगी
कोई कह रहा था
भाषण नहीं होंगे
और रेहड़ी
ढेले तो आजादी के खिलाफ है।
पंगडंडी
मैं ही तो इंसाफ है।
फिर मैं
चुप रहा
सब कह रहे थे,
अब सब ठीक है
फिर सच में आंखें खुलीं
तो
समझ ना पाया
भूख क्यूं है!
पवन कुमार, रोहतक, हरियाणा