“अरे सुधा कमरे में अंधेरा क्यों है” सविता ट्यूबलाइट ऑन करती हुई बोली- “तिसपर तुमने दुपट्टे से अपना मुँह भी छुपा रखा है। इस तरह अंधेरे में रहने से क्या होगा? तुमको तो अभी और संघर्ष करना है। यह जिंदगी कई प्रकार के इम्तहान तो लेती ही है। और तुम्हें इसमें पास होना है।”
“ये झुलसी हुई सूरत लेकर कोई क्या संघर्ष कर पायेगा दीदी” सुधा सुबक उठी- “न जाने किस जनम का पाप था, जो मुझे ढोना पड़ेगा।”
“अरे ऐसा न कहो” सविता उसके सिर को सहलाते हुए बोली- “जीवन में ऐसे भी पल आते हैं, जब सबकुछ लुटपिट जाता है। मगर इसके लिए कोई जीना तो नहीं छोड़ देता। दुनिया में कितने दिव्यांग हैं, वे जी रहे हैं कि नहीं? बल्कि कुछ ने तो समय और समाज को चुनौती देते हुए ऊँचाइयों को पा लिया है। इसी इलाहाबाद शहर में एसिड पीड़ित अनेक लड़कियॉं हैं, जो जी रही हैं कि नहीं? उनमें से कुछ तुमसे मिलने अस्पताल में भी आई थीं। तुम्हारे साथ सभी की सहानुभूति है।”
“और इसी सहानुभूति से मैं बचना चाहती हूँ दीदी” वह फफक उठी- “मैं किसी के रहमो-करम, किसी के दान-दया पर जीना नहीं चाहती।”
“किसने कहा कि तुम किसी के रहमो-करम या दान-दया पर जीना सीखो” सविता उसके मुख पर पड़े दुपट्टे को हटाती हुई बोली- “अबतक तुमने अपने बलबूते ही तो इतना सफर तय किया है। यूजीसी क्वालिफााई कर तुम वजीफा पा रही हो। तुमने अपनी पीएचडी की थिसिस जमा की है। तुम्हारे राघवेन्द्र सर उस थिसिस की भूरि-भूरि प्रशंसा कर गये हैं! विषय भी तो तुमने अच्छा चुना था, वर्तमान संदर्भ में कबीर। देर-सबेर तुम्हारा वाइवा भी हो जायेगा। और तब तुम कहीं किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय मे सहायक प्रोफेसर लग जाओगी। तुम्हारी यही इच्छा थी ना कि तुम कबीर पर शोध करो और प्रोफेसर बनो। कबीर का सारा साहित्य इसी कर्म और संघर्ष पर तो टिका है। और तुम जरा सी बात पर घबरा रही हो? जब ये मौका हाथ आया है, तो उसे यूँ नष्ट ना करो।”
“यह जरा सी बात है दीदी कि मेरा सारा चेहरा झुलसा दिया गया। मुझ कुरूप को देख लोग क्या कहेंगे?”
“इसलिए तो मैं बनारस से तुम्हारे लिए एक चीज लाई हूँ” वह अपने हैंड पर्स से एक बड़ा सा लिफाफा निकालकर बोली- “मेरे ससुराल में मेरे ददिया ससुर की निधि है यह, बाबा आदम जमाने का रिकॉर्ड।”
“तो तुम यहॉं किसलिए ले आई! इसका क्या उपयोग है?”
“उपयोग भले ना हो। मगर यह काला तवा समान रिकॉर्ड स्वयं में एक इतिहास तो समेटे हुए है ना” वह उसे समझाते हुए बोली- “आजकल तो गीत-संगीत सस्ते में, लगभग मुफ्त ही सर्वसुलभ है। लेकिन पुराने जमाने में रिकॉर्डिंग की कहॉं व्यवस्था थी? सवा सौ साल पहले एचएमवी कंपनी ने पहली बार एक मशहूर गायिका जानकीबाई की गानों की रिकॉर्डिंग शुरू की। ग्रामोफोन पर तब इन काले तवों को चढ़ाकर गीत सुनने का प्रचलन था। तुम्हारे जीजाजी बता रहे थे कि जानकीबाई इसी इलाहाबाद की थी और उस जमाने में एक गीत की रिकॉर्डिंग के लिए ढाई सौ लेती थी। इतनी मशहूर थी वह कि रियासतें उसके कार्यक्रमों का आयोजन करने के लिए लालायित रहती थीं और उसकी सारी माँग, सारे नखरे उठाती थीं। उस जमाने में वह अपने एक कार्यक्रम के लिए हजार रूपये का शुल्क वसूलती थी। लेकिन वहीं जब उसे किसी धार्मिक समारोह में भजन आदि गाने के लिए आमंत्रित किया जाता, तो एक पैसा नहीं लेती थी।”
“मगर दीदी यहॉं घर में तो कोई ग्रामोफोन नहीं है, बजाओगी कैसे।”
“मैं इसे बजाने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें दिखाने के लिए लाई थी” सविता हँसते हुए बोली- “गाने तो मेरे मोबाइल में कैद हैं, जो आज के संदर्भ में शायद तुम्हें पसंद न आये, क्योंकि यह पूरी तरह शास्त्रीय ढंग से गाया गया है। एक बात और बताऊँ तुम्हें कि वह अपने गाए गीतों को स्वयं कंपोज कर संगीतबद्ध करती थी। इसके अलावा वह गीत भी लिखती थी और उसका अपने गीतों का एक संकलन भी प्रकाशित हुआ था। हिन्दी, उर्दू के अलावा संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषाओं में भी उसका दखल था। होली, चैती, कजरी, ठुमरी, गजल, भजन सबकुछ गाया उसने।”
सुधा आश्चर्य से उस पुराने रिकॉर्ड को देखने लगी, तो सविता बोली- “दरअसल मेरे ददिया ससुर को एक अंग्रेज अफसर ने वापस इंग्लैंड लौटते वक्त अपना ग्रामोफोन और कुछ रिकॉर्ड उनसे खुश होकर उपहार में दिया था। उसमें जानकीबाई का कोई रिकॉर्ड नहीं था, तो वह उसे वापस करने उसके बँगले में चले गये। उस जमाने में जानकीबाई का रिकॉर्ड हजारों रूपये में मिलता था। और वो भी प्रायः दुर्लभ ही होता था। उस जमाने में मेरे ददिया ससुर की तनख्वाह ही पचास रूपये मासिक की थी और वह उस रिकॉर्ड को कभी खरीदने को सोच भी नहीं सकते थे। लेकिन उस अंग्रेज अफसर ने हँसते हुए उन्हें यह रिकॉर्ड भी दे दिया था। इसमें रिकॉर्ड किया हुआ एक गाना सुनो।”
सविता ने अपना मोबाइल ऑन किया तो उसमें से गीत के बोल उभरे
तोको पीव मिलेंगे घूँघट के पट खोल रे।
घट-घट में वही साईं रमता, कटुक बचन मत बोल रे।
“कहने का मतलब यह कि अब तुम भी अपना ये घूँघट अर्थात् मुँह पर से दुपट्टा खोलो और पूरे साहस के साथ समाज का सामना करो” सविता दीदी बोली- “क्या नहीं है तुम्हारे पास, जिसके लिए तुम्हें मुँह छुपाना पड़े? दुनिया व्यक्ति से नहीं, बल्कि उनके व्यक्तित्व की कायल होती है।”
“ये सब सिर्फ कहने की बात है दीदी।”
“नहीं सिर्फ कहने के लिए नहीं, बल्कि उदाहरण भी कई हैं। यही जानकीबाई इलाहाबाद को देख लो। बचपन में ही एक गुंडे ने उसपर छुरे से प्राणघातक हमला किया था। उसकी दुश्मनी उसके पिता से थी। और गुस्सा उसने जानकी पर निकाला। चाकुओं से गोद दिया था जानकीबाई को। बताते हैं कि पूरे छप्पन घाव थे उसके शरीर पर। लेकिन वह बच गई। और जब उसने अपनी आवाज का जादू बिखेरा तो सारी दुनिया चमत्कृत रह गई।”
“ऐसा क्या!”
“तुम क्या सोचती हो, हादसे सिर्फ तुम्हारे साथ हुए हैं! रोज हजारों-लाखों हादसे और दुर्घटनाएँ होती हैं, जिसमे लोग बच भी जाते हैं। और वह एक नये सिरे से जिंदगी की जद्दोजहद में भी जीते रहते हैं। इसलिए कल की बात छोड़ो और आगे की ओर देखो।”
“अरे सविता बेटी, रात बहुत हो गई है” अचानक मॉं अंदर आकर बोली- “खाना खा लो और फिर सो जाओ। तुम थकी होगी। और हॉं, अपनी बहन सुधा को भी साथ खिला देना।”
“मुझे खाने को मन नहीं है” वह बुझे स्वर में बोर्ली “तुमलोग खा लो।”
“अब चलो भी” सविता उसे बाहर खींचते हुए बोली- “अभी तो मैंने तुम्हें एक उदाहरण दिया। और फिर तुम पुराने ढर्रे पर आ गई!”
“अच्छा दीदी, जानकीबाई के बारे में कुछ और बताओ” खाना खाते हुए सुधा बोली- “मुझे भी उसके बारे में जानकर उत्सुकता हुई है।”
“ज्यादा मैं कुछ नहीं जानती। तुम्हारे जीजाजी इस प्रसंग में बहुत कुछ जानते हैं। उनको ऑफिस में छुट्टी नहीं मिली, इसलिए वे नहीं आ सके। अन्यथा वे तुम्हें उसके बारे में बहुत कुछ बताते। जानकीबाई दरअसल बनारस की रहनेवाली थी। उसकी मॉं बनारस की प्रतिष्ठित तवायफों में गिनी जाती थी। जब जानकीबाई के साथ ये हादसा हुआ, तब वह बारह-तेरह साल की थी। और इसी उम्र में उसकी गायकी के फसाने शुरू हो चुके थे। बनारस रियासत की रानी उसकी खास प्रशंसक थी। इसलिए जब उसके साथ ये हादसा हुआ, तो उसने व्यक्तिगत रूचि लेकर उसकी दवा-दारू का इंतजाम किया और उपचार कराया। जानकी कोई खास सुंदर नहीं थी। और इस हादसे के बाद तो वह और कुरूप हो गई थी। लेकिन उसकी वह मोहक आवाज बरकरार थी। उसकी आवाज की कशिश में कोई कमी नहीं हुई, बल्कि बढ़ते वक्त के साथ इजाफा ही हुआ था। लेकिन लोगबाग अब उसे ‘छप्पनछुरी’ कहने लगे थे, क्योंकि उसे छप्पन घाव लगे थे। कितनी बड़ी विडंबना थी यह। और इस बीच बदनामी से बचने के लिए उसकी मॉं उसे साथ लेकर इलाहाबाद चली आई, जहॉं आकर वह यहीं की होकर रह गई।
“अपनी मॉं की परवरिश और प्रशिक्षण की वजह से अब वह इलाहाबाद में जैसे जीवन की दूसरी पारी खेल रही थी। उसकी आवाज में गजब का सम्मोहन, दर्द और तड़प थी। अपने सुरों को उसने अपने रियाज के माध्यम से धार दिया। उसकी गिनती भारत के प्रथम श्रेणी के गायिकाओं में की जाने लगी थी।”
“मगर मैंने उसका गाना कभी नहीं सुना।”
“वह दौर शास्त्रीय गीत-संगीत का था। रेडियो वगैरह पर तो ये कभी-कभार आ जाता है। मगर हम रेडियो कहॉं सुनते हैं! फिर यह दौर फास्ट गीत-संगीत का है, जिसमें वह सारा कुछ पुराना दब सा गया है। फिर भी अभी भी शास्त्रीय गीत-संगीत के लाखों-करोड़ों लोग दिवाने हैं। क्योंकि इनमें रस है, तो आध्यात्मिकता भी है। यह साधना की चीज है, जो साधते-साधते ही सधता है। इसके लिए काफी समय, धैर्य और ध्यान की जरूरत रहती है। न सिर्फ गाने वाले के लिए, बल्कि सुननेवाले के लिए भी इसकी जरूरत पड़ती है। और यह वर्तमान में किसी के पास नहीं है।”
“फिर भी मैं उसे सुनना चाहूँगी।”
“मुझे मालूम था कि तुम ऐसा ही कहोगी” सविता अपना मोबाइल निकालते हुए बोली- “मैंने उसका एक गीत डाउनलोड किया है।”
मोबाइल से एक गीत के बोल गूँजने लगे- “सईंया निकस गये, मैं ना लड़ी थी। ना जाने कौन सी खिड़की खुली थी . . . . . .’
“अरे यह तो कबीर की कविता है, जिसे कितने मोहक अंदाज में गाया गया है” गीत के बोल खत्म होते ही सुधा बोली- “सचमुच इस गीत के अनेक मायने हैं। लौकिक भी, और पारलौकिक भी। लेकिन ऐसी आवाज! उस जमाने में लोग इसे सुनकर ऐसे ही नहीं मतवाले हुए जाते होंगे।”
“कोई भी सहृदय व्यक्ति इसके सरलार्थ को समझ सकता है और इसमें अवगाहन कर सकता है। लेकिन इस गीत में धर्म है, अध्यात्म और जीवन-दर्शन भी है। तुम तो कबीर के उलटबाँसी और रहस्यवाद पर शोध ही कर रही हो। और उधर उस गायिका ने कितनी सरलता के साथ इसे हमारे दिलों में उतार दिया है। जानकीबाई इलाहाबाद ने ऐसे ही अनेक गीत और भजन गाये हैं।”
“मुझे उसके बारे में और जानकारी चाहिए” सुधा उत्सुकता से भरकर बोल उठी- “मैं उसके बारे में और अधिक जानना चाहती हूँ।”
“पूछ लेना किसी से” सविता हँसकर बोली- “वैसे अच्छा तो यही रहता कि जानकीबाई खुद आकर तुम्हें सारा कुछ बता जाती! मगर अब तो वह इस दुनिया में है ही नहीं।”
खाना खाकर सुधा अपने कमरे में चली आई। चारों तरफ किताबें ही किताबें थीं। एक तरफ कुछ नोट्स थे, जिसे उसे देखना था। मगर उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए बत्ती बुझाकर वह सोने का प्रयास करने लगी। कमरे में नीले रंग का नाइट बल्ब जल रहा था। पूरे एक महीने बाद अस्पताल से वह आज घर लौटी थी। और बीते दिनों की घटनाएँ उसकी ऑंखों के सामने जैसे साकार सी हो रही थीं। टेबल पर वह पुराने जमाने का काले तवे सा रिकॉर्ड रखा था। वह जानकी के बारे में सोच रही थी कि एक बच्ची को जब इतने सारे घाव लगे होंगे, तो वह किस मर्मांतक पीड़ा से होकर गुजर रही होगी।
अचानक उसे लगा कि कमरे में कोई प्रकट हुआ है।
उसे कुछ आशंका सी हुई। सचमुच कमरे में लाल रंग की भारी जरीदार बनारसी साड़ी पहने कोई आहिस्ता-आहिस्ता उसकी तरफ बढ़ रहा था। लंबे घूँघट से उसका चेहरा छिपा हुआ था। “कौन है” अचानक वह चिल्लार्ई “यहॉं क्या करने आए हो।”
“जरा धीरे बोलो” वह साया जैसे फुसफुसा कर उससे बोला- “अभी तो तुम मेरे बारे में ही सोच रही थी। और जब आई हूँ, तो तुम चिल्ला रही हो।”
“जानकीबाई!”
“ठीक पहचाना” वह साया बोला- “मैंने विचार किया कि तुमसे अपना सुख-दुख बॉंट लूँ।”
“तो फिर यह घूँघट क्यों काढ़ रखी हो” सुधा सहज होते हुए बोली- “मुझसे क्या परदा!”
“वह इसलिए कि कहीं तुम मेरा चेहरा देख डर न जाओ।”
“तुम्हारा चेहरा क्या मुझसे भी ज्यादा वीभत्स है” सुधा बोली- “मैं मान नहीं सकती।”
“अब तुलना करना ही है तो कर लो” वह साया अपना घूँघट हटाते हुए बोला- “मगर तुम्हें घबराने की कोई जरूरत नहीं।”
अचानक कमरे में जैसे हल्का प्रकाश हुआ, जो सीधे उसके चेहरे पर पड़ने लगा था। ओह, इतना कुरूप चेहरा! सुधा को जैसे अब जानकीबाई की कुरूपता का अहसास हुआ। मगर वह आज उसके पास किसलिए आई है, यह वह सोच नहीं पा रही थी।
“मुझे एक बार गायकी के लिए पहली बार ग्वालियर बुलाया गया था। काफी मान-मनौव्वल के बाद मैं वहॉं पहुँची थी कि वहॉं के राजा ने मुझे देख लिया। वह अपने सलाहकार मंत्री से एकदम बिगड़ गया और बोला कि चेहरा इतना बदसूरत है, तो गाना कितना खराब हो सकता है। वह उससे बोला कि जानकीबाई अगर मंच पर आई तो वह वहॉं से उठकर चला जायेगा। इसलिए उसे हटाकर किसी दूसरी गायिका को बुलाओ।
“अब राजहठ के आगे किसकी चली है! सारी तैयारी हो चुकी थी। और बाहर से किसी नामचीन गायिका को बुलाना असंभव था। सो वह मंत्री सीधे मेरे पास चला आया और अपनी समस्या रखी। मैं क्या कर सकती थी? उस मंत्री ने मुझे सुझाया कि आप घूँघट कर गायकी करना। इससे राजा उसका चेहरा देख भड़केगा नहीं और मेरा भी मान रह जायेगा। मैंने उसकी बात मान ली।
“अगले दिन ग्वालियर के राजा से वह मंत्री बोला कि एक गायिका का इंतजाम तो हो गया है। मगर उसकी शर्त यही है कि वह घूँघट कर गायकी करेगी। राजा को भला इसपर क्या आपत्ति होती। उसे तो गाना सुनने से मतलब था। रात को जब मेरी गायकी की शुरूआत हुई, तो राजा मुग्ध होकर सुबह तक मेरी गायकी सुनता रह गया।”
“ओह!” सुधा को हँसी आ गई।
“इसमें हॅसने की क्या बात है” जानकीबाई भी हँसते हुए अपने घूँघट को और सरकाते हुए बोली- “तुम तो मुझसे बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी हो। वैसे अष्टावर्क का नाम तो शायद तुमने सुना ही होगा। उनके पिता राजर्षि जनक के दरबारी विद्वान थे। एक बार किसी कारणवश वह जनक के दरबार में चले आए। वह अत्यंत कुरूप थे। उनके अंग आठ जगहों से मुड़े हुए थे । उन्हें देख सभी हँसने लगे। भरे दरबार में हँसते हुए लोगों को देख वह खुद हँसने लगे और बोले कि यह विद्वत्समाज की सभा नहीं, चमारों की सभा है, जो चमड़ी देखकर लोगों के बारे में अनुमान लगाती है! अरे, मनुष्य के अंतर्मन को देखो और उसके सौंदर्य का आकलन करो। इसपर जनक जैसे राजर्षि ने अपने सिंहासन से उठकर बालक अष्टावर्क की अभ्यर्थना की और उन्हें गुरू माना।”
“आप बिलकुल सही कह रही हैं। वैसे मेरे साथ जो हादसा हुआ, उससे मैं टूट गई हूँ” सुधा बोली- “लेकिन वह जमाना और था, और ये जमाना और है! अभी-अभी आपने ग्वालियर के राजा का उदाहरण दिया। अभी तो तस्वीर और बदल चुकी है। अब तो लोग चाल-चरित्र नहीं, सिर्फ चेहरा ही देखते हैं।”
“और इसलिए तो वे धोखा खाते और पछताते हैं” वह अपनी साड़ी का ऑंचल कंधे पर डालती हुई बोली और पास रखी कुर्सी पर बैठ गर्ई- “गरमी लग रही थी, इसलिए घूँघट उतार दिया।”
कमरे में जैसे अचानक दूधिया प्रकाश फैल गया था। बेशकीमती बनारसी साड़ी और सोने की भारी-भरकम, पारंपरिक जेवरातों से लदी एक दोहरे बदनवाली महिला उसके सामने बैठी अपनी आपबीती बता रही थी। जानकीबाई उसके इर्द-गिर्द फैले किताबों को उलट पुलट कर उत्सुकतापुर्वक देख रही थी। अचानक वह उसकी ओर देख मुसकुराकर बोली- “लगता है तुम कबीर के बारे में बहुत कुछ जानती हो। मुझे भी वह अत्यंत प्रिय हैं। मुझे भी उनका कवित्त बहुत भाता है। लो एक मैं तुम्हें सुनाती हूँ –
मोरी चुनरी में परि गयो दाग पिया।
पॉंच तत्त की बनी चुनरिया…सोरहसे बँद लागे जिया।”
“सचमुच मुझे दाग लग गया है। मुझे ईश्वर ने स्वाभाविक सौंदर्य दिया था, जिसे किसी ने नष्ट कर दिया।”
“जिसने तुम्हें दाग दिया, अब वह जेल में है” जानकीबाई दृढ़तापुर्वक बोली- “उसकी चिंता अब समाज और कानून करेगा।”
“मगर इस चेहरे को लेकर क्या करूँ” वह अब पुनः बिलखने लगी थी- “यह झुलसा हुआ चेहरा मैं खुद नहीं देख सकती, तो दूसरे को क्या दोष दूँ? यह चेहरा लेकर बाहर निकलते डर लगता है।”
“अब तुम्हें खुद ही समझना होगा कि इस हादसे के पार कैसे जाएँ। इस तरह उदास और हताश होकर, सबसे कटी-कटी रहकर कुछ नहीं होगा। एक नए सिरे से तुम ढंग से खाना-पहनना, रहना-सहना सीखो। अपना चेहरा दुपट्टे से ढँकी रखोगी, तो कुछ नहीं होगा। तुम्हें उस हादसे को भूलना ही होगा।”
“इतने बड़े हादसे को कोई अचानक कैसे भूल सकता है?” सुधा फफक कर रो पड़ी- “वक्त ने मुझे इतना बड़ा घाव दिया है। उसे इतनी जल्दी भूल कैसे सकती हूँ?”
“ठीक बात है कि भूलने में समय तो लगेगा ही। मैंने सुना है कि तुम कबीर पर शोध कार्य कर रही हो, तो मुझे बहुत खुशी हुई। तुम इसे पूरा करो। तुम जब एक प्रोफेसर बन जाओगी, तो सम्मानजनक स्थिति हासिल करोगी। तुम एक बहादुर लड़की हो। तभी तो एक गुंडे का वहाँ मुकाबला कर पाई। अब किसी को क्या पता था कि वह गुंडा ऐसी टुच्ची हरकत कर डालेगा।”
“यह सब कहने की बात है” सुधा पुनः सुबक उठी- “मेरा जीवन व्यर्थ हो गया है।”
“मैंने कहा न, वह एक हादसा था, जिसे तुम्हें भूलना ही होगा। इसी शहर में ही कोई दर्जन भर ऐसी घटनाएँ हुई हैं। अन्य शहरों में भी ऐसे हादसे खूब हुए हैं। तो क्या उनलोगों ने जीना छोड़ दिया ?”
“मुझे यह सब कुछ नहीं सुनना” सुधा अपने चेहरे को दुपट्टे से लपेट पलंग पर लेट गर्ई- “मेरे लिए तो यह संसार ही असार हो गया है। समझ नहीं आता कि मैं क्या करूँ, कहॉं जाऊँ?”
“इसी डर के आगे तो जाना है और इसे जीतना है। वह एक हादसा हुआ समझो। दुनिया में इतनी सारी दुर्घटनाएँ, अगलगी की घटनाएँ होती हैं। जो बच जाते हैं, वे जीना तो बंद नहीं कर देते?”
उसे याद आने लगा कि कितनी सादगी से रहती थी वो। मगर मोहन उसके पीछे ही पड़ गया था। हरदम उसका पीछा किया करता और उसके सौंदर्य के कसीदे काढ़ता रहता था। वह था तो उससे साल भर सीनियर, मगर पढ़ाई में एकदम कोरा ही था। उसे अपने इतिहास पर घमंड था। छात्र राजनीति में भी वह सक्रिय था। विगत छात्र यूनियन के उपाध्यक्ष पद के लिए वो उम्मीदवार था। सभी उसके जीतने के प्रति आश्वस्त थे। मगर वह चुनाव हार गया था। और एक दिन अचानक वह उसे मिला तो बोला- “देखो तुम कहती थी ना कि राजनीति सही चीज नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारे खातिर चुनाव हार गया। मगर अब मैं तुम्हें जीतना चाहता हूँ।”
“मैं कोई वस्तु हूँ क्या, जिसे तुम जीतना चाहते हो!” वह हँसकर बोली थी- “इस पुरूषवादी मानसिकता से बाहर आओ। और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।”
“वो तो मैं देता ही हूँ” वह बोला- “मगर तुम्हें भी मुझपर ध्यान देना होगा।”
“मेरे पास इतना समय नहीं है कि फालतु बातों पर ध्यान दूँ” वह बोली थी- “मुझे अपनी थीसिस तैयार करनी है। मैने यूजीसी क्वालिफाई किया है। इसलिए यूनिवर्सिटी मुझे मानदेय के रूप में बड़ी रकम देता है। तो उसका ख्याल तो रखना ही होगा न?”
“पैसों की तुम चिंता क्या करती हो” वह उसके और करीब आ कर बोला- “जितना तुम्हें मिलता है, उतना तो मैं यार-दोस्तों के संग चाय-पानी में उड़ा देता हूँ। बस तुम मेरा साथ दो।”
“यही तो मैं दे नहीं सकती” वह तंग आकर बोली थी- “तुम मेरे पीछे ना ही पड़ो, तो बेहतर रहेगा।”
“और ऐसा ना किया तो क्या कर लोगी” वह उसका हाथ पकड़ कर बोला- “मैं जो चाहता हूँ, उसे पाकर ही दम लेता हूँ।”
“वह तो मैंने चुनाव में देख ही लिया” वह खीझकर अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली- “अभी तक हार का स्वाद गया नहीं!”
“इसीलिए तो अब जीतना चाहता हूँ” वह उसकी कलाई पर अपनी पकड़ मजबूत करते हुए बोला- “अब तुम कहीं जा नहीं सकती।”
“छोड़ो मेरा हाथ” वह गरजी। फिर दूसरे हाथ से उसने एक झन्नाटे के साथ उसे एक झापड़ रसीद कर दिया। वह एकदम से हतप्रभ रह गया था। तबतक उनके इर्द-गिर्द भीड़ लग गई थी। शायद इतना अपमानित उसने कभी महसूस नहीं किया होगा।
और उसके अगले ही हफ्ते उसने उसपर तेजाब फेंक दिया था। वह रिक्शा से विश्वविद्यालय से घर जा रही थी। वह घात लगाये बैठा था। ठीक रिक्शे के पीछे से आकर उसने उसपर तेजाब की बोतल उड़ेल कर भाग खड़ा हुआ था।
चौक के पास एकबारगी ही हड़कंप मच गया था। लोगों ने तुरंत उसे अस्पताल पहुँचाया। विश्वविद्यालय से थोड़ी ही दूर पर ये घटना घटी थी। सो वहॉं ये खबर लगते ही झुंड-झुंड लोग आ गये थे। घर में बहुत बाद में यह खबर पहुँची। तेजाब से जैसे सारे शरीर में आग सी लगी थी। जलन से सारा देह ऐंठ रहा था। बेहोशी में भी उसका सर्वांग कॉंप रहा था। जो आता, वही पानी डाल जाता कि तेजाब का असर कुछ कम हो। मगर वह तो जैसे चमड़ी बेधकर अंदर तक जा चुका था। कुछ लोग एक टैक्सी रूकवाकर उसे आनन-फानन अस्पताल पहुँचा गये थे। और तत्काल ही उसका आपात्कालीन उपचार चलने लगा था।
विश्वविद्यालय से झुंड-झुंड छात्र-छात्राएँ और प्रोफेसर भी उसे देखने चले आये थे। पुलिस के कड़े पहरे के बीच उसका इलाज चल रहा था। खबर पाते ही मम्मी-पापा भी दौड़े चले आये थे।
लगभग महीने भर उसका इलाज चला था। और इसी बीच पुलिस ने मोहन को गिरफ्तार कर लिया था। दरअसल दो-तीन आपराधिक मामले में भी उसपर कार्रवाई चल रही थी कि उसने ये बड़ा कांड कर दिया था। चश्मदीद गवाहों के कारण अब वह जेल के सलाखों के पीछे था। यह सब याद आते ही वह तिलमिला उठी। और जैसे तड़पकर बोली- “मगर मेरे साथ दूसरी बात है। मैं तो तिल-तिल कर मर रही हूँ।”
“हर व्यक्ति के साथ होनेवाली दुर्घटना अलग ही होती है” जानकीबाई बोली- “तुम्हें तो सफलता के शीर्ष पर पहुँचना है। उससे भी ऊँचे जाना है। बिलकुल मेरी तरह।”
वह जानकीबाई को देखती रह गई ॐ
“हॉं सुधा बेटी, बिलकुल मेरी तरह” वह बोल रही थी- “तुम्हारे साथ तो फिर भी तुम्हारे ईष्ट-मित्र, नाते-रिश्तेदार खड़े हैं। मगर मेरे साथ तो कोई नहीं था। मुझे तो अपना शहर बनारस ही छोड़ना पड़ गया था। क्योंकि जमाने ने मुझे एक बेहूदा नाम दे दिया ‘छप्पनछुरी’, जिसे सुनते ही मेरे शरीर में जैसे आग सी लग जाती थी। मेरे सभी घाव हरे हो जाते थे। मगर मैं किस-किस के साथ लड़ती ? सो खुद के ज्ञान और आवाज को धार देने का जतन करती रही। मेरी मॉं ने मेरी संगीत शिक्षा की पढ़ाई पूरी करवाई। उर्दू, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी की ट्यूशनें मुझे दिलवाई ताकि मैं बेहतरीन गायिका बन सकूँ।”
“ओह तो आप भी पढ़ी-लिखी हैं!”
“उस जमाने में लड़कियों को विधिवत् तालीम कहॉं दी जाती थी! जो कुछ भी पढ़ना-लिखना है, घर पर ही पढ़-लिख लो, और क्या! मगर मेरी मॉं काफी जीवट वाली महिला थी। जमाने को देखा था उसने। उसने ही ये सारी व्यवस्था की। और क्यों न करे? मेरी आवाज के बदौलत ही जैसे लक्ष्मी घर में रूपयों की बरसात करती थी। इंग्लैंड का राजकुमार जॉर्ज पंचम जब भारत आया, तो इलाहाबाद भी आया था। उसके स्वागत में मुझे भी बुलाया गया था। वह मेरे गाने को सुनकर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने मुझे सोने की सौ अशर्फियॉं दी थी। और यह बहुत बड़ा सम्मान था।”
“वो सब तो अपनी जगह ठीक है। मगर मनुष्य बाह्य स्वरूप तो देखता ही है।”
“ओह, तुम बार-बार एक ही राग क्यों अलापती हो बेटी” जानकीबाई बोली- “मैं यही तो समझाने आई हूँ कि तुम अपने अंतर्मन को पहचानो। अच्छा, जब तुम हिन्दी साहित्य पढ़ी हो, तो जायसी के बारे में जानती ही होगी। ये जायसी जब शेरशाह के बुलावे पर उसके दरबार में गये, तो उनकी कुरूपता देख शेरशाह ठठाकर हँस पड़ा था। इसपर जायसी बोले, ‘को हरिहों, को हसिहों… मो पर हँसि कि हँसि कुम्हारा!’ मतलब क्यों हर्षित होते हो और हँसते हो? तुम मुझपर हँस रहे हो या उस बनाने वाले ईश्वर पर हँस रहे हो? इसपर शेरशाह काफी लज्जित हुआ और फिर उन्हें यथोचित सम्मान दिया था।”
“सचमुच आपने अपने जमाने में गायकी को उच्च स्तर पर पहुँचा दिया।”
“इसके लिए मैं खूब पढ़ती और गानों का चयन स्वयं करती थी। उसे लय में बॉंधने, संगीतबद्ध करने का काम भी मैं करती थी। मैंने कुछ गाने लिखे और उन्हें इसी इलाहाबाद से किताब के रूप में छपवाया भी था।”
“वाकई आप एक महान महिला हैं।”
“हूँ नहीं, थी” जानकीबाई वितृष्णा से भरकर बोल उठी- “आजकल के गानों को देखो। उसका कोई अर्थ नहीं।और जो संगीत है, उसे सुनकर ऐसा लगता है कि अगर यही ‘संगीत’ है. तो ‘शोर’ किसे कहते हैं?”
सुधा को हँसी आ गई।
“मैं महान-वहान कुछ नहीं। राजों-नवाबों के यहॉं अपने पूरे लाव-लश्कर, साजो-सामान ही नहीं, पूरी ठसक के साथ जाती और गाने गाकर अपनी पूरी फीस वसूलती थी। रीवा रियासत तो यहीं बगल में है, वहॉं अक्सरहॉं जाना होता था। इसके अलावा बेतिया, दरभंगा से लेकर ग्वालियर, पटियाला तक जाना होता था। मेरे साथ मेरे साजिंदे ही नहीं, अंगरक्षक भी होते थे। मुझे वहॉं शाही सम्मान के साथ ठहराया जाता। भारी- भरकम इनाम-इकराम भी मिलते। बाद में ग्रामोफोन कंपनी से जुड़ी, तो कलकत्ता भी उसी ठसक और रोब के साथ जाती-आती थी।
“वापस इलाहाबाद लौटने पर अपने जरूरी खर्चों के बाद जो बचता, उससे मैं खाने-पीने और ओढ़ने-पहनने के कपड़े खरीद यहॉं के धर्मशालाओं, सरायों में बॉंट आती थी। जरूरतमंदों के बीच खर्च करने में मुझे काफी सुकून हासिल होता था।”
“आपकी हजार रूपये की तगड़ी फीस उस जमाने में थी?”
“हॉं! लेकिन वहीं जब मुझे मंदिरों या धार्मिक समारोह में गाने के लिए बुलाया जाता, तो मैं फीस के लिए एक रूपया भी नहीं लेती थी। आखिर सामान्य जन मुझे दे क्या सकता था? मुझे वहॉं भजनादि गाकर काफी चैन और सुकून मिलता था। मैं यह काम किसी लोकप्रियता के लिए नहीं करती थी, बल्कि मुझे इससे एक रूहानी सुकून जो मिलता था। अब इसके लिए तुम कबीर का यह कवित्त ही सुन लो-
रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया बूँद पड़े घुल जाना है।”
“सचमुच आपकी आवाज में गजब की कशिश और माधुर्य है।”
“अब इन बातों को न ही दुहराओ, तो ज्यादा अच्छा है। मेरे इसी आवाज पर ही रीझकर एचएमवी कंपनी ने मुझसे अपने गाने रिकॉर्ड करवाये। इसके लिए मुझे कलकत्ता या दिल्ली जाना होता था, जिसका सारा खर्च वही उठाते थे। बाद में यहॉं इलाहाबाद में भी रिकॉर्डिंग की जाने लगी। मैं अपने एक गीत की रिकॉर्डिंग के लिए ढाई सौ लेती थी। और बाद में इसी इलाहाबाद में अपने बीस गानों की रिकॉर्डिंग के लिए पॉंच हजार तक वसूल किया है।”
ओह! क्या से क्या हो गया उसके साथ! कहॉं तो वह किताबों को कलेजे से लगाये सौ-सौ सपने देखती थी। कबीर के कितने ही दोहे उसे कंठस्थ थे। सभी उसे कबीर साहित्य का विशेषज्ञ ही कहने लगे थे। विगत तीन मास पूर्व वह वाराणसी भी हो आई थी। क्योंकि कबीर से संबंधित जानकारियों को वह स्वयं जॉंच-परख करना चाहती थी। कभी अपनी बड़ी बहन सविता के साथ, तो कभी अपने जीजाजी के साथ कबीर से संबंधित जगहों में जाती और घूमती रही। उन सभी जगहों को जॉंचा-परखा उसने और ढेरों जानकारी प्राप्त की थी। वह मगहर भी जाने वाली थी कि ये हादसा हो गया।
जानकीबाई ने धीरे से पहले एक किताब उठाया। फिर पुनः दूसरी किताब उठा उसे देख मुसकुराने लगी। उसने एक-एक कर सभी किताबों को व्यवस्थित कर सजा कर रख दिया। कुछ नोट्स के कागजात भी थे, जिसे उसने सहेज दिया। सभी कबीर से ही संबंधित आलोचना की पुस्तकें और नोट्स थे। सामने ही कबीर ग्रंथावली थी। वह उसे उठाकर उसके हाथ में देती हुई बोली- “दिल छोटा नहीं करते मेरी प्यारी बच्ची। मेरी हार्दिक इच्छा है तुम यह काम पूरा करो और प्रोफेसर बनो। मेरी शुभकामना, मेरा आर्शीवाद तुम्हारे साथ है।”
वह जानकीबाई को एकटक देखती रह गई। और अचानक ही उसे ऐसा लगा जैसे वह साया उस रिकॉर्ड की ओर बढ़कर उसमें समा गया हो!
अचानक वह अचकचा कर उठ खड़ी हुई। यह सपना था या हकीकत, जो ‘जानकीबाई इलाहाबाद’ उसे आकर इतनी समझाइश दे गई थी? नहीं यह सपना ही था, क्योंकि कमरे में कोई था ही नहीं। कमरे का दरवाजा भी बंद था। मगर उसके हाथ में ‘कबीर ग्रंथावली’ थी, जो उसे कुछ सोचने पर मजबूर कर रहा था।
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चितरंजन भारती,
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