एकात्म मानववाद
जब
तत्व एक
सत्व एक हो
जीने का महत्व एक हो
एक आत्मा एक परमात्मा
गणना गणित गुणत्व एक हो
संपूर्ण जगत घर बन जाए
ब्रह्मांड सिमट धरा पर आए
ऊंच-नीच का भेद मिट जाए
जन जीवन जीवंतता एक हो
पूजा प्रेम पावनता एक हो
मन मानव मानवता
हो जाएं एकात्म
दिखे एकत्व
तब
मैं क्या हूं
तुम क्या हो भाई
फिर सामने कैसा पर्वत
फिर किनारे कैसी खाई
हाथ पकड़ चढ़ जाएंगे
साथ पकड़ उतर जाएंगे
होगी खत्म लड़ाई
सबकी जीत
एक बधाई
लड़ रही स्त्री
फिर प्रेरित मांएं
काल से लड़ने को आतुर
पीछे उनके खड़ा पुत्र है
सुनो यमराज
तुम्हें वापस जाना ही होगा
भूखी प्यासी हैं किंतु वे
थकी नहीं हैं
मां योद्धा है
प्रतिद्वंदी मृत्यु
पुत्र जीविता लक्ष्य
अस्त्र तपस्या शस्त्र उपवास
समय साक्षी है
नर रक्षित नारी रक्षक
साक्ष्य प्रमाण
विगत समीक्षक
यह वर्तमान पाठक है
आगत अनुबंधों में लिखवाता
वह हारी नहीं कभी भी
मां हो बहन हो चाहे पत्नी
निरंतर लड़ रही स्त्री——
मन लड़ने को आतुर
जब सप्तदल श्वेत कमल
मनधरा से निकल खिल उठें
फिर भी संपूर्ण जगत
कीचड़ कहे उसे
कैसे मानूं?
सब कह रहे
आराम करो सो जाओ ना!
रात अंधेरी सपनों के गढ़ में
जाकर कहीं खो जाओ ना!
मन ना माने तो मैं कहिए
कैसे मानूं?
जगराता करूं भूल जगत को
रहूं व्योम में विचरण करता
लौटूं नहीं धरा पर
ज्ञानी कहते करो समर्पण
ईश्वर ही सब करता-धरता
मन लड़ने को आतुर
फिर मैं किसी की
कैसे मानूं?
उपवन की फिक्र कहां
मिथ्या अहंकारमयी
वैभव की गाड़ी ने कुचल दिया है
पैदल पथगमनी जिजीविषा को हठात
भीतर बैठे चौंक तन्द्रा से जागे युगल
लौट गए हैं पुनः वापस
उसी कंदरा में पूर्ववत
पद-मद की चाल अजब है
पैसा पाओं को टिकने नहीं देता
रौंद देती है सुचिता
अल्पवयी पाई शक्ति
सामंती सोच जगाते हूटर
बहरी कर देते हैं संवेदना को
वेेदना बेचारी
रिरिआती रह जाती है
नितांत अकेली
परिवर्तन के वृक्ष पर उगे
विकास के बंझों को
उपवन की फिक्र कहां
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डाॅ.एम डी सिंह, गाजीपुर, उत्तरप्रदेश