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Lahak Digital > Blog > Literature > डॉ. श्यामबाबू शर्मा की लघुकथाएं
Literature

डॉ. श्यामबाबू शर्मा की लघुकथाएं

admin
Last updated: 2023/10/05 at 3:37 PM
admin
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10 Min Read
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                     ज्ञान के दग्ध बीज

इंदू मैम के स्थानांतरण के बाद कुछ दिन तक अरेंजमेंट से क्लासेज चलती रहीं। जब किसी मुस्तकिल ने ज्वाइन न किया तो संविदा में आराध्या ने ज्वाइन किया। अप्रछन्न बेरोजगारी ने अब तक उनका साथ न छोड़ा था। एम फिल की डिग्री और टीजीटी। तनख्वाह इतनी कि बंधुआ मजदूर उनसे अच्छा। इधर व्यवस्था ने एजूकेशन, हेल्थ, ट्रांसपोर्ट, रेल और अनेक क्षेत्रों में क्रांति का संकल्प लिया हुआ था। नई-नई योजनाएं और स्वशुरूआती नौकरी-चाकरी, धंधा- रोजगार! इन्हें मासिक नियत वेतन, महंगाई भत्ता, चिकित्सकीय सुविधाएं तथा प्रमोशन आदि से मुक्त रखा गया। और ऊपर से न इनका कोई यूनियन न आंदोलन की खिचखिच। जब जिसको निकाल दें जिसको भर्ती करें उनकी मर्जी। यहां गलतियों के लिए सीधे सेवा समापन। रहा होगा कोई काल खंड जब अध्यापन रोजगार नहीं सामाजिक वैचारिक समृद्धि का केंद्र बिंदु था। परंतु यह काल खंड नये इतिहास नये विधानों पर वंदन करवाने को कटिबद्ध था। शुरुआती ज्ञानवर्धन हेतु जहां संविदा की परिपाटी चल रही थी तो उच्च कक्षाओं हेतु विद्वता के मानक व्यवस्थाबरदार तय करते थे। दीगर कि जो वैचारिक समन्वयपोषक उसका चयन पूर्व निर्धारित होता।

Contents
                     ज्ञान के दग्ध बीज                        जोकर                  अमृत की प्यास
      आराध्या मैम ने बच्चों का इंट्रोडक्शन लिया। मार्निंग असेंबली में अलग-अलग एसाइनमेंट निर्धारित किए गए। औरव को न्यूज रीडिंग, आद्विक को स्पेशल आइटम, राशि को हिस्ट्री ऑफ द डे और समृद्ध को थॉट फार द डे, कमांड के लिए…नाम एनाउंस होने के पहले समृद्ध ने इंट्रप्ट किया।  ‘मैम इस बार मुझे कमांड दीजिए न!’
आराध्या मैम ने समृद्ध को देखा और कुछ न बोलीं तो समृद्ध ने अपनी बात पर जोर दिया। ‘प्लीज मैम.. प्लीज़ मुझे हर बार थॉट ही मिलता है..।’
‘यस आई नो। पर बेटा.. कमांड तो कोई भी कर सकता है।’

                       जोकर

गढ़ी बहुराजमऊ का रजवाड़ा तो खतम हो गया था लेकिन गांव जवारि के लोग राजा रघुपति के परपोते दलपति सिंह को राजा बच्चा ही कहते और परंपरानुसार वे ही देवी मां का पूजन करते। इनके पुश्तैनी अंबिका और काली महरानी के बड़े-बड़े मंदिर थे। दोनों के साथ बड़े-बड़े तालाब। कहते हैं कि राजा रघुपति के समय जन्माष्टमी में तोप का गोला ठाकुरद्वारा के तालाब में दगाये जाने के बाद ही श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जाता। महल के बाहर सबको दो-दो पूरी और गुड़ परसाद में मिलता।
    बैशाख की पंचमी को अंबिका मइया के चढ़ौका के बाद मेले की शुरुआत होती। बरदहाइ (पशु मेला), ठठरहाइ (बर्तन गली), बारदाना (तेल मसालों की दूकानें), हेलवाही (जिसमें खाजा, जलेबियों की पूरी लाइन), बजाजा (कपड़ा, दरी-गलीचा), बिसाती, चिकवाही, फोटो स्टूडियो और नाटक नौटंकी के टेंटों से मील भर की चौहद्दी में फैला मेला। आस पास के गांवों के लोग साल भर की जरूरत की चीजें यहां से खरीदकर रख लेते। अबकी दफा शहर से आये एशियन सर्कस ने बाकी तमाशबीनों की रेढ़ मार दी। इसके कलाकारों ने ऐसे करतब दिखाए कि पहले के सब तमाशे बौने हो गये। लगा कि पहले कुछ हुआ ही नहीं, असली मजा तो अब है। जिसको देखिए सर्कसबाजों का मुरीद। बच्चे, युवा, बूढ़े, स्त्री, पुरुष हर कौम जाति के लोग सर्कस की ही चर्चा करते। ना किसी को पढ़ाई लिखाई की चिंता ना रोज़ी रोजगार की फिकर। लोग भूलने लगे कि सर्कस शाश्वत नहीं होता।
हंसाने, बहलाने वालों के साथ-साथ जान जोखिम में डालकर अवाम को हंसाने वाले कलाकार ना हों तो सर्कस नहीं चल सकता। बाहर टिकट बेचने वाला एक, भीतर हंसाने बरगलाने वाले विविध जोकर। किसी का बौनापन हंसाता तो किसी की चाल ढाल और कोई अपनी बातों से दर्शकों को फंसाने में माहिर। हारी-बीमारी, पारिवारिक घटनाओं-दुर्घटनाओं में भी अविचलित सर्कस के जोकर। जुगल किशोर जोकर को इस सर्कस कंपनी में शेर के साथ हंसाते हुए तीस बरष बीत गये थे। उसके पिता नहीं चाहते थे कि बेटा उनके पेशे में आये। मगर जब मुकद्दर में लिखा हो तो! कैसे भी सही पेट तो भरना ही पड़ेगा। शो के पहले मेकअप और भाव भंगिमा बनाए बिना जोकर कैसे कमाएगा!
शो चल रहा था कि मैनेजर के पास जुगल की मां के अवसान का समाचार आया। साथियों ने घर जाने की टिकट और कुछ पैसों का इंतजाम किया। मैनेजर ने दिलासा दी,’लाख तूफान हों मगर शो होना चाहिए।’ जुगल जोकर ने मेकअप गाढ़ा किया। शेर के साथ करतब किये और दर्शकों ने तालियां पीटीं। नाइट शो पूरा हुआ। जुगल ने मुंह धोया और बस पकड़ी। ऐसे हालात में कितना कठिन रहा होगा शेर ए बब्बर के साथ खेलना और हंसाना या इससे भी ज्यादा खतरनाक-डरावनी है ग़रीबी और भूख!

                 अमृत की प्यास

गढ़ी रियासत का लोचहा गांव। ज्यादातर पथरकटों के घर। भगाने दिन भर सिलबट्टा, दंरेती और चकिया-जांत छीन कर परिवार पालते। इनके बाप दादा यही करते आये थे। इस गांव का रहन-सहन, बोली-भाषा, कुल देवी-देवता, शादी-ब्याह, जन्म-मृत्यु, गाना-बजाना, खान-पान सब कुछ बाकी जातियों से अलग। कुल गोत्र ब्याहुति के अनुसार ही इनके सारे संस्कार संपन्न होते।‌ बड़ी-बड़ी गाड़ियां, जहाज होंगे देश के विकास को नापने का जरिया। लोचहा गांव से चार मील पैदल चलने के बाद ही डामर वाली पक्की सड़क के दर्शन होते। दोपहर के खाने के लालच ने कुछ घरों के बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखा दिया था मगर ये सब ऐन खाने के समय पहुंचते। थाली समेटी और वापिस घर। बाकी दिन मेहनत मजूरी। मास्टर मुंशी का करते! कभी कोई आंकड़ा देना होता तो जहां जैसी जरूरत होती भर-भरा दिया जाता। हाकिम हुक्काम को कागज चाहिए सो सब चकाचक। घर योजना, रसोई योजना, वृद्ध पेंशन, विधवा पेंशन, शौचालय योजना सब ऐसे आईं कि बाबू लोगों की तरी वली कमाई कम हो गई। सबने मिलकर बैठक की। विचार हुआ और सर्वसम्मति से आनलाइन का तोड़ निकाला गया। जो कोई सरपंच सैक्रेटरी को पहले मना लेता उसके कागज लिंक हो जाते। खाते में पैसा आते ही बाकी पैसा तुरंत पहुंचा देने की ईमानदार परंपरा। बेईमानी में विशुद्ध ईमानदारी। गाय, भैंस, पशुपालन और कुछ विशेष वर्ग के लिए शुरू की गई औजारों आदि की खरीददारी में ऋण योजना में भी यही सम्मति लोचहा गांव में चल रही थी।भगाने जैसे अनगिनत परिवार इस दमघोंटू व्यवस्था में बसर कर रहे थे। कहने सुनने की न बिसात न हिम्मत। तमाम अतार्किक, अनैतिक, अवैधानिक कृत्यों के शिकार। इधर दो-चार बरस से इनके लिए फ्री राशन के नाम पर राजनीतिक षड्यंत्र। वोट, वोट बस वोट। सिल, चकिया-जांत? सिल चकिया-जांत! बच्चा मास्टर का फ्यारा हुआ तो गांव वालों को याद आया- झंडा ऊंचा रहे हमारा। इन्हें स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस से इतना ही मतलब था कि चार मील चलकर स्कूल के बाहर खड़े रहते तो बच्चा मास्टर की भलमनसाहत से स्कूली बच्चों के साथ दो चार बतासे इन्हें भी मिल जाते। सबको झंडा ऊंचा के दिन स्कूल आने की बात पर पूरे गांव ने बच्चा मास्टर को मन भर दुवायें दीं। ‘जरूर कउनो नेता अइहै।’ नित मारौ नित खाव वाले दर्शन से जीने वाले लोग इसके आगे कहां सोच पाते! कोई बांस लाया किसी ने गड्ढा खोदा और झंडा ऊंचा रहे हमारा। भगाने का अनुमान सच साबित हुआ। सफ़ेद कार से सफ़ेद खादी पहने नेता जी नीचे उतरे। उनके नीचे आते ही जनसमुदाय खड़ा हो गया। स्वर, ध्वनि और गगनभेदी गर्जन।
‘मेरे प्यारे गांव वासियों आप सबको मालूम है कि हम आज यहां क्यों इकट्ठा हुए हैं! आज हमारा देश चहुंओर विकास कर रहा है। आप सब लोग आज के दिन खुशी मनायें। यह दिन जश्न मनाने का है।’ लोगों ने हुंकारी भरी। भगाने ने हिम्मत जुटाई। कुछ लोगों के साथ आगे बढ़ा। शरीर पर एक पंचा। वही पहनना वही ओढ़ना। ‘मालिक आज इतना बड़ा त्योहार है, कुछ देंगे नहीं? बिना पिए काहे का त्योहार। नेता जी ठिठक गये। पीना, प्यास..और अमृत मानस पटल पर कौंधने लगे। चुनावी आहट सर पर और ये भले लोग। सेक्रेटरी ने बटुआ निकाला। धूल उड़ी और सफेदी खो गई।

—————–
डॉ. श्यामबाबू शर्मा, शिलांग, मेघालय

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