“शिवानी, मैं मार्केट जा रहा हूँ” अजय चौहान तैयार होते हुये बोले- “क्या कुछ लाना है बाजार से?”
“मैं इस समय किचन में व्यस्त हूँ” शिवानी किचन में से हाथ पोंछते हुए बाहर आई- “सामान की लिस्ट बनाकर मैंने पहले ही टेबल पर रख दी है। उसी अनुसार सामान लाना है।”
अजय चौहान ने टेबल पर से सामान की लिस्ट उठा ली। अचानक ही जैसे उन्हें कुछ खयाल आया। वह टेबल पर कुछ खोजने लगे। जेब में हाथ डाली। दराजों को जल्दी-जल्दी खोलते-बंद करते देख शिवानी उनकी परेशानी भांपते बोली- “क्या कुछ ढूँढ़ रहे हैं! कुछ खो गया क्या?”
“मैंने आज ही बैंक से दस हजार रुपये निकाले थे। दो-दो हजार के पाँच नोट थे।” वह शीघ्रतापुर्वक बोले- “कपड़े बदलते वक्त मैंने उन्हें टेबल पर रख दिया था। अभी देखता हूँ कि वह यहाँ नहीं हैं!”
“इतने सारे रुपये इस तरह खुले में रखने की क्या जरूरत थी? जानते ही हैं कि समय ठीक नहीं चल रहा। इतने सारे रूपये देख किसी की नीयत बदलते देर कितनी लगती है।”
“…तो क्या आदमी, वह भी पुलिस महकमे का आदमी अपने ही घर में सुरक्षित नहीं है, जो उसके घर से ही दिन-दहाड़े चोरी हो जाए?”
“अब मुझसे क्या पूछ रहे हैं! रोज-रोज टी.वी में समाचार देखते हैं, अखबार पढ़ते हैं। आप खुद अंदाजा लगा लें कि जमाना कैसा आ गया है।”
“मुझे घर आये घंटा भर भी हुआ नहीं है। पता करो कि इस बीच घर में कौन-कौन आया था” शिवानी की बात पर कुढ़ते हुए बोले- “पुलिस विभाग के एक डीएसपी के घर दिन-दहाड़े चोरी हो जाए, यह कितनी विचित्र बात है!”
“जहाँ तक मुझे याद है सुबह से बाहर का कोई आदमी नहीं आया” शिवानी अचानक पलट कर बोली- “ऐसा भी हो सकता है कि रुपये बाहर कहीं गिर-गिरा गये हों?”
“मैंने अपने पूरे होश में रूपयों को यहीं रखा था” अजय चौहान झल्लाकर बोले- “और तुम उल्टी बात कर रही हो?”
उसके चीखने से शिवानी घबरा गई। ‘पति है तो क्या हुआ। आखिर है तो पुलिस का आदमी’ उसने मन में विचार किया। फिर स्थिर होकर बोली- “शांताबाई कह रही थी कि उसे अपने घर का छप्पर ठीक कराना है, क्योंकि बारिश में वह चूने लगा था। छप्पर ठीक कराने में हजारों लगते हैं।”
“अभी यह बताने का क्या मतलब है?”
“मतलब है, तभी तो बता रहा हूँ। उसे रुपयों की जरूरत थी। उसने रूपये देखे हों, और चुपचाप रख लिये हों?”
“बात तो ठीक है। मगर अब शांताबाई कहाँ मिलेगी?”
शिवानी फटाफट उन जगहों पर फोन खटखटाने लगी, जहाँ-जहाँ शांताबाई काम करती थी। थोड़ी देर बाद ही भागती-हाँफती शांताबाई आ पहुँची और पूछने लगी- “क्या हुआ मेम साब! क्यों बुलाया मुझे?”
“बात यह है कि साहब ने दस हजार रूपये बैंक से निकाले थे। वह उन्होंने इस टेबल पर रखा था। वह रूपये तुमने देखे क्या? कहीं तुमने उठाकर रख दी हो?”
“क्या बात बोलती है मेम साब!” शांताबाई का मुँह एकदम से सूख गया- “मैं इस पुलिस लाइन में दसियों साल से काम करती आ रही हूँ। मगर मजाल कि किसी ने मुझपर एक पैसा छूने का आरोप लगाया हो?”
“देखो शांताबाई, मैं कोई आरोप नहीं लगा रही” शिवानी शांत स्वरों में बोली- “तुमने मुझे बताया था कि तुम्हें छप्पर ठीक कराने के लिये ज्यादा रुपये चाहिए। तो मैंने सोचा कि तुमने रूपये देखे हों और कहीं रख दिये हों। कभी-कभी ऐसा हो जाता है।”
“आपको मुझसे काम नहीं कराना, तो साफ-साफ बोल दो। मगर मुझपर चोरी का इलजाम तो मत लगाओ मेम साब! चाहो तो मेरा और मेरे घर की भी तलाशी करवा लो।” शांताबाई बोल रही थी। उसकी आवाज से उसकी नाराजगी साफ झलक रही थी। वह आगे बोली- “मुझे काम की कमी थोड़े ही है। इसी पुलिस लाइन में दसियों घर हैं, जहाँ मैं चाहूँ तो आज ही से काम करना शुरू कर दूँ।”
“मैं चोरी का इल्जाम थोड़े ही लगा रही हूँ” शिवानी सफाई देते हुए बोली- “आखिर पूरे दस हजार रूपये थे। इतने सारे रूपयों के खो जाने से कोई भी परेशान होगा ही। मगर अब तुम ही सोचो कि ये रूपये गए, तो गए कहाँ?”
“देखो, मेम साब! पियक्कड़ों का कोई भरोसा नहीं होता। मेरा मरद पीता है, तो क्या हुआ! मैं उसे अच्छी तरह से जानती हूँ।”
“मगर वह तो कभी इधर आया ही नहीं” शिवानी के सामने अब नई गुत्थी थी-“फिर तुम उसकी बात क्यों कर रही हो?”
“मैं उसकी नहीं, पियक्कड़ों की बात कह रही हूँ। आपका दूधवाला उनमें से एक है।”
शांताबाई ने एक इशारा कर अपने घर की राह ली। शिवानी ने अपने पति की ओर देखा। अजय चौहान बोले- “ठीक कहती है शांताबाई। वास्तव में इनका कोई भरोसा नहीं होता। दूधवाले को बुलाओ। मुझे अब याद आया कि मेरे आने के कुछ देर बाद ही वह यहाँ दूध देने पहुँचा था।”
शिवानी एक बार फिर फोन खटखटाने लगी थी।
थोड़ी देर में ही दूधवाला हाजिर था।
“रामू, तुमने एक दिन बताया था कि तुम्हें एक नई गाय खरीदनी है। एक अच्छी गाय कितने में आती होगी?” अजय चौहान उसके आते ही शुरू हो गये- “वैसे तुमने गाय खरीद ली क्या?”
“कहाँ सरकार, एक नई जर्सी गाय कम से कम दस हजार से नीचे नहीं मिलती” वह खीसें निपोर कर बोला-“अभी खरीदी नहीं। मगर जल्द ही खरीद लूँगा। रूपयों का इंतजाम हो गया है।”
“कहाँ से इंतजाम हुआ है?”
“बस इधर-उधर से हो गया है” रामू असमंजस का भाव लिये हुए अचानक पूछ बैठा- “मगर आपने मुझे क्यों बुलाया है?”
“देखो, आज तुम दूध देने आये थे। तो उसके थोड़ी देर पहले ही मैंने टेबल पर दस हजार रूपये रखे थे। और अब मैं समझ गया हूँ कि तुमने ही उसे उठाया है। वह रूपये तुम मुझे चुपचाप वापस कर दो, ताकि मुझे पुलिसिया टेक्नीक का इस्तेमाल न करना पड़े” अजय चौहान अपने पुलिसिया तेवर दिखाते हुये बोले- “मैं किसी से कुछ कहूँगा नहीं। आखिर इन्सान से गलतियाँ हो ही जाती हैं। मगर उसे समय रहते मान लेने में कोई बुराई नहीं है।”
रामू एकदम से सन्न रह गया था। काटो तो खून नहीं, वाली हालत हो गई थी उसकी। वह कातर निगाहों से अजय चौहान और शिवानी की ओर देखते हुए बोला- “दसियों साल से इस पुलिस लाइन में दूध देते आ रहा हूँ। मगर आज तक मैंने किसी के एक रूपये तक पर बिना पूछे हाथ नहीं लगाया है।”
“मैं तुम पियक्कड़ों को अच्छी तरह जानता हूँ” अजय चौहान उसे घुड़कते हुए बोले- “ज्यादा सफाई मत दो और बताओ कि रूपये कहाँ रखे हो? आखिर गाय खरीदने के लिये दस हजार रूपये तुम्हारे पास यकायक आ कैसे गये?”
“ओह! तो अब मैं समझा कि आप मुझपर संदेह क्यों कर रहे हैं!” वह सहज होते हुए बोला- “पंद्रह नंबर वाले बँगले में जो नये-नये थानेदार साहब आये हैं न, उन्हें एक बछड़ा खरीदना था। सो मैंने उनसे अपने एक बछड़े को उनसे तीन हजार में बेचने की बात तय कर ली है। बाकी दो हजार का इंतजाम मैं अगले माह दूध बेचने से मिलने वाले रूपयों से करता। बाकी पाँच हजार मैं किश्तों में देने वाला था।”
थोड़ी देर साँस रोककर वह पुनः बोला- “रहा सवाल पीने का, तो आपका ड्राईवर भी तो पीता है और जुआ भी खेलता है। आप उससे पूछ लीजिए और मुझे जाने दीजिए। मुझे अपने मवेशियों को चारा-पानी देने जाना है।”
शक की सूई अब ड्राईवर की तरफ घूम गई थी। ड्राईवर बाहर बैठा माली से बात कर रहा था। अजय चौहान ने कड़कती आवाज में उसे हाँक लगाई- “हरिनारायण, जरा अंदर तो आना।”
ड्राईवर हरिनारायण अंदर आया, तो वह उससे सीधे-सीधे पूछ बैठे- “मैंने तुम्हारे ही सामने बैंक से दस हजार रूपये निकाले थे। दो-दो हजार के पाँच नोट थे। उसे इसी टेबल पर रखा था। वह कहाँ गये?”
“अब मुझे क्या पता साहब कि वे कहाँ गये” हरिनारायण हँसते हुए बोला- “आपने उसे कहीं रख दिया होगा!”
“अब मैं उसे कहाँ रखने लगा?” वह झल्लाकर बोले- “कहीं तुमने तो नहीं रख लिये?”
“तो आप मेरी खाना-तलाशी ले लीजिए” वह तपाक से बोला। आखिर वह अदना सा ड्राईवर ही सही, मगर था तो पुलिस विभाग का ही। किंचित रोष से वह बोला – “सुबह से आपके साथ हूँ। कहीं आया-गया नहीं, जो मैं रूपये छिपाकर कहीं रख दूँगा? लेकिन आपको बता दूँ कि मैं ऐसी ओछी हरकत करने वाला नहीं। पुलिस विभाग की ड्राइवरी करते बारह बरस बीत गये। मेरी ईमानदारी और सच्चाइयों के अनेक सबूत और गवाह हैं। आपलोग खुद कई बार पर्स-बैग वगैरह गाड़ी में रखकर भूल जाते हैं, जिसे मैंने कई बार खुद अपने हाथों उठाकर आपलोगों को दिया है। कभी पाया है आपने कि उसमें से एकाध सामान या एकाध रूपया भी गायब हुआ हो? आपको आरोप लगाते इस संबंध में सौ बार सोचना चाहिए था!”
“मैं आरोप नहीं लगा रहा हरिनारायण भाई” अजय चौहान उसे पुचकारते हुये से बोले- “मैं तो बस पूछ भर रहा था। अच्छा, तो तुम ही बताओ कि यदि तुम्हारे रूपये गुम हो जाते, तो तुम क्या करते?”
उनके इस सवाल पर वह थोड़ा नरम पड़ा। सो वह अपनी आवाज में मिठास घोलते हुए बोला- “आपकी बात सही है। अभी मैंने माली भूलन पासवान से बात कर रहा था, तो वह अपनी माँ की बीमारी के बारे में बता रहा था। वह किसी ऑपरेशन की बात बता रहा था, जिसमें दस हजार रूपये लग सकते हैं।”
“ठीक है, तुम जाओ और भूलन को भेज दो।”
रूपये गुम होने की बात सुनते ही वह रो पड़ा – “एक तरफ मेरी माँ बीमारी में पड़ी है। दूसरी तरफ मुझपर इल्जाम लग रहा है! गरीब होने का यही तो एक दुख है कि सबकुछ सहना ही सहना है और चुप रहना है। मैं तो कहीं का नहीं रहा। एक तरह से अच्छा ही है कि रोज-रोज माँ की तकलीफ देखने से अच्छा है कि मैं जेल चला जाऊँ। वैसे राम कसम साहब जी! मैंने आजतक आपके बँगले की देहरी नहीं लाँघी, तो फिर आपके रूपये कैसे ले लेता?”
शिवानी शून्य में देख रही थी। अजय चौहान असमंजस में थे कि कहे क्या, करें क्या! वह स्वयं से सवाल कर रहे थे कि जब किसी को देखा नहीं, तो आरोप लगाना कहाँ तक उचित है? मगर त्योहार करीब था। इसलिये वह विचार कर रहे थे कि पूरे परिवार के लिये कपड़े बनवायेंगे। त्योहार के वक्त उन्हें सबके साथ गाँव भी जाना था। गाँव गये लंबा अर्सा हो गया है। मगर अब क्या हो? खाली हाथ गाँव जाना शोभा देगा क्या! घरवाले क्या सोचेंगे? मगर फिर यही सवाल था कि आखिर रूपये गये, तो गये कहाँ!
एक पुलिस अधिकारी के घर पुलिस तहकीकात करे, यह कुछ जमता नहीं था। ओझा-गुनी, झाड़-फूँक आदि की भी बात हुई। मगर अजय चौहान ने इन सबको सिरे से खारिज कर दिया। अब वह खुद को एक आम जनता की हैसियत से देख रहे थे, जिसके ऐन वक्त पर रूपये चोरी चले गये हों और वह कुछ कर नहीं पा रहा हो! क्या बीतती होगी उन लोगों पर, जिनकी गाढ़े पसीने की कमाई यूँ ही गायब हो जाती होगी। महीने का पहला हफ्ता चल रहा है और सबकी देनदारी भी बाकी है। क्या सोचेंगे लोग कि आखिर यह भी पुलिसवाला निकला, जो सबके पैसे हजम करना चाहता है। इसके लिये तो पुलिस विभाग पहले से ही बदनाम है।
ऐसे ही सोच-विचार करते समय निकला जा रहा था। और वह इस चक्कर में न बाजार और न ही पुलिस ऑफिस जा पाये थे कि अचानक ही फोन की घंटी बज उठी। उन्होंने लपक कर फोन उठाया। दूसरी तरफ आरक्षी अधीक्षक शर्मा जी थे। वह तुरंत अटेंशन की मुद्रा में आ गया।
“सुनो चौहान” एस.पी. शर्मा उधर से बोल रहे थे- “तुम उधर मार्केटिंग के लिये निकलने वाले थे न? तो लगे हाथ एक तहकीकात भी कर लेना। वहाँ बालाजी ब्रदर्स करके कोई कपड़े की दुकान है। उसके मालिक महेन्द्र प्रसाद ने रिपोर्ट लिखाई थी कि उसके दस हजार रूपये चोरी चले गये हैं। उसका संदेह अपने ही एक नौकर पर है, जिसका नाम शायद श्यामू है। चौदह-पंद्रह साल का वह लड़का है शायद, जिसे पुलिस ने हवालात में बंद कर दिया है। उसकी माँ मेरे पास आई थी। बहुत रो रही थी और फरियाद कर रही थी कि उसका बेटा निर्दोष है। तुम सच-झूठ का पता कर रिपोर्ट देना।”
वह “यस सर, यस सर” कहता रह गया।
“अपने रुपयों का पता तो चला नहीं, अब दूसरे के रूपयों का पता करो” वह झल्लाकर बोला और रिसिवर रख दिया। वह अपनी शिकायत करे, तो किससे करे! एसपी साहब क्या सोचेंगे कि जो अपने रूपयों की तलाश नहीं कर सकता, वह दूसरे की क्या करेगा! मगर ड्यूटी थी, जो बजानी ही थी। सो वह वर्दी पहनने लगा था।
पुलिस बल को देखकर बाजार में सनसनी सी फैल गई थी। बालाजी ब्रदर्स का मालिक उसके सामने हाथ जोड़े खड़ा था। एक पुलिस को भेजकर अजय चौहान ने हवालात में बंद श्यामु को बुलवाया। किशोर वय का वह मरगिल्ला सा श्यामु उसके सामने थर-थर काँप रहा था। उसके चेहरे-मोहरे को देखकर ही लग रहा था कि उसकी अच्छी धुनाई हुई है।
“मैंने रुपये नहीं लिये साहब” वह रोते हुये कह रहा था- “मुझे बचा लीजिए साहेब। ये लोग मुझे मार डालेंगे। मैं मर जाऊँगा।”
“तो वे दस हजार रूपये आकाश में उड़ गये क्या?” दुकान का मालिक महेन्द्र प्रसाद चिल्लाया- “तुम्हारे सामने ही मैंने अपनी जेब में रूपये रखे थे।”
“महेन्द्र प्रसाद जी, आप उस वक्त जो कपड़े पहने हुए थे, वह ले आइये” अजय चौहान धैर्य रखते हुए बोले- “उसे देखकर किसी को कुछ शायद याद आ जाए।”
दुकान के पीछे ही घर था। महेन्द्र तुरंत एक कमीज-पैंट उठा लाया। उसे देखते ही श्यामु चिल्लाया- “उस वक्त आप यह नहीं, कुर्ता-पाजामा पहने थे। अब मुझे याद आया कि आपने रूपयों को कुर्ते के अंदर वाली जेब में रखे थे।”
“क्या बेवकूफों की तरह बात करता है! मैंने जब ये पहना ही नहीं, रूपये उसमें कैसे रख सकता था?”
“वह जो कह रहा है, उसे कीजिये तो सही” अजय चौहान उसे गंभीर दृष्टि से देखते हुए बोले- “आप उस कुर्ते-पाजामा को भी ले आइए।”
महेन्द्र अंदर जाकर कुर्ता-पाजामा ले बाहर आये। श्यामु ने अचानक कुर्ते को झपट लिया और फिर उसके अंदर वाले जेब में हाथ डाला। उसके हाथ में दो-दो हजार के पाँच नोट थे। और थी, चेहरे पर चमक! वह सुबकते हुए कह रहा था- “मैं बता रहा था न कि मैंने रूपये नहीं लिये। मगर आपलोगों ने मेरी नहीं सुनी। आपने देख लिया ना साहेब कि मैं निर्दोष हूँ। मुझपर नाहक मार पड़ी और मुझे चोर बना दिया गया।”
“मुझे दुख है कि आपको मेरे कारण परेशानी उठानी पड़ी” अब उसके सामने महेन्द्र प्रसाद हाथ जोड़े खड़ा था- “मैं अपने किये पर शर्मिन्दा हूँ कि मैंने जल्दबाजी में अपने ही एक विश्वासी आदमी पर संदेह किया। अब आप जो कहें, मैं वो करूँगा। मैं वादा करता हूँ कि आगे से ऐसी गलती नहीं होगी। मैं माफी माँगता हूँ।”
“मुझसे नहीं, श्यामु से माफी माँगो। वह छोटा है, किशोर है। आपका नौकर है, तो क्या हुआ? उसकी भी इज्जत है, प्रतिष्ठा है” चौहान नाराजगी भरे स्वर में बोले- “बिना ठीक से जाने-समझे सभी को परेशान तो किया ही, एक निर्दोष को बदनाम भी कर दिया!”
महेन्द्र ने दो हजार का एक नोट श्यामु को पकड़ाना चाहा। मगर वह उससे मुँह फेरे रोते वहाँ से चला गया।
“तुम उसके घर जाओगे और उसकी माँ से माफी माँगोगे” उसने महेन्द्र प्रसाद को आदेश सा दिया- “मुहल्ले में उनकी नाहक बदनामी हुई होगी, जिसे खत्म करना तुम्हारा काम है।”
घर वापस आकर उसने सर्वप्रथम फोन पर ही एसपी श्री शर्मा को जानकारी दी। एसपी शर्मा उधर से “वेरी गुड, वेरी गुड” कहते रहे।
“दूसरों के रूपयों का पता चल गया। मगर अपने ही रूपयों का पता नहीं चल पाया।” अजय चौहान चाय का प्याला पकड़ते हुये शिवानी से बोले- “क्या अजीब बात है?”
“कहीं ऐसा तो नहीं कि आप भी ठीक से याद नहीं कर पा रहे हों कि आपने कौन सा कपड़ा पहन रखा था” शिवानी बोली-“आप फिर से अपने कपड़ों को देख डालिये।”
“अच्छा मजाक है!” वह किंचित रोष में बोला- “मैंने अपने होश में वही पैंट-शर्ट पहन रखे थे।”
“तो फिर यह क्या है” शिवानी उसके उतारे हुए वर्दी की जेब में से हाथ निकालते हुये बोली। उसके हाथ में दो-दो हजार के पाँच नोट लहरा रहे थे। हाँ, वही नोट, जो थोड़ी देर पहले गुम हुए बताए जा रहे थे।
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