अश्लीलता एक ऐसा शब्द है जिसकी कोई सर्वकालिक तथा सर्वमान्य परिभाषा संभव ही नहीं है। इस संसार में अलग-अलग कालखण्ड में संस्कृति के अलग-अलग रंग हावी रहे हैं; देश और समाज के भेद से भी एक संस्कृति में जो अभिव्यक्ति या आचरण का वाहक माना गया, वह समय बीतते-बीतते अलग ही दृष्टि से देखा जाने लगा या स्वीकार्य हो गया, एक संस्कृति का ‘अश्लील’ दूसरी संस्कृति में ‘सहज’ हो गया इत्यादि इत्यादि। शब्दकोश में ‘अश्लील’ का अर्थ ‘भद्दा’ , ‘कुत्सित’ या ‘फूहड़’ बताकर मामला निपटा दिया जायेगा पर हम भलीभांति जानते हैं कि ये अर्थ कितने सीमित और अपर्याप्त हैं। अब साहित्य में अश्लीलता का मुद्दा लें तो समस्या और विकट हो जाती है। लेखनी का कहाँ सदुपयोग हुआ, कहाँ दुरुपयोग हुआ; यह निर्धारण ही लेखकों ने बड़ा घुमावदार और मुश्किल बना रखा है, साहित्य में अश्लीलता का निर्धारण तो मुश्किल काम होगा ही। साहित्य मूलतः जीवन की संगति-विसंगति की पृष्ठभूमि में मानव के सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता, आशा-निराशा जैसे मूल संवेगों का चित्रण करने का ध्येय रखकर चलता है, यह साहित्यकार विशेष के सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि चित्रण कितना प्रामाणिक, स्वाभाविक या आरोपित हो पाता है। हम जिस मुद्दे पर विचार करने को प्रवृत्त हुए हैं उसमें भी ‘प्रामाणिक’ , ‘स्वाभाविक’ और ‘आरोपित’ जैसे शब्द बात की तह में जाकर सत्य जानने और समझने में हमारी मदद करेंगे।
पढ़े-लिखे अनपढ़ों से आच्छादित वर्तमान युग में कम ही लोगों को इस बात का अहसास होगा कि सहज, प्रामाणिक और स्वाभाविक चित्रण की दृष्टि से पूरे संसार में प्राचीन संस्कृत साहित्य का कोई सानी नहीं है। और; साहित्यिक उत्कृष्टता की दृष्टि से ‘बाल्मीकि रामायण’ के आसपास भी शायद ही कोई कृति ठहरती हो। जहाँ यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि उस प्राचीन काल में साहित्य हमारे देश में उत्कृष्टता के उस स्तर तक पहुंच गया था; तुरंत ही दुखद अनुभूति भी होती है कि हम दुनिया भर की रचनाओं को पढ़-पढ़कर तारीफों के पुल बांधते रहे, अपने ही उत्कृष्ट साहित्य को ढंग से पढ़ने का प्रयत्न नहीं किया। हमारे विचारणीय मुद्दे पर ‘बाल्मीकि रामायण’ से उदाहरण बहुत ही महत्वपूर्ण है। श्रीराम के आदेश पर महावीर हनुमान राक्षसराज रावण द्वारा अपहृत सीता की खोज में निकले हैं, विशाल समुद्र लांघते हुए लंका नगरी में प्रवेश कर चुके हैं और रावण के अंतःपुर में सीता को खोज रहे हैं। हनुमान रात्रि के समय अंतःपुर में विचरण कर रहे हैं, भोग-विलास को ही अब जीवन का पर्याय समझ बैठे रावण के अंतःपुर का दृश्य इस समय क्या हो सकता है, आदिकवि किस सहज, स्वाभाविक और प्रामाणिक रूप से चित्रित करते चलते हैं-
“ परिवृत्ते ऽ अर्धरात्रि तु पाननिद्रावशंगतम्।
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ प्रसुप्तं बलवत् तदा ।।“ ( सुंदरकांड नवम सर्ग/34)
( आधी रात बीत जाने पर वे ( रावण की स्त्रियाँ) क्रीड़ा से उपरत होकर, मधुपान के मद और निद्रा के वशीभूत होकर उस समय गाढ़ी नींद में सोयी हुई थीं ।)
“ चन्द्राशुकिरणाभाश्च हाराः कासांचिदुद्गताः।
हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम् ।।“ ( सुंदरकांड नवम सर्ग/48)
( चंद्रमा और सूर्य की किरणों के समान प्रकाशमान हार उनके वक्षस्थल पर पड़े हुए उभरे से प्रतीत होते थे, जैसे उन युवतियों के स्तनमंडल पर हंस सो रहे हों। )
“ रावणाननशंकाश्च काश्चिद् रावणयोषितः।
मुखानि च सपत्नीनामुपाजिघ्रन् पुनः पुनः ।।“ ( सुंदरकांड नवम सर्ग/57)
( रावण की अनेक तरुणी पत्नियाँ रावण के ही मुख के भ्रम में बार-बार अपनी ही सौतों का मुंह सूंघ रही थीं। )
“ अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित् पुनर्भुजम्।
अपरा त्वंकमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा कुचौ ।।“ (सुंदरकांड नवम सर्ग/60)
( एक स्त्री दूसरी स्त्री की छाती पर सिर रखकर सोयी हुई थी, तो कोई दूसरी उसकी भी एक बांह का तकिया बना कर सो गई थी। इसी तरह एक स्त्री दूसरी की गोद में सिर रखकर सोयी थी तो कोई दूसरी उसके भी कुचों का ही तकिया लगाकर सो गई थी। )
बाल्मीकि महाविलासी रावण के अंतःपुर में भोगोपरांत अस्त-व्यस्त अवस्था में निद्रामग्न स्त्रियों का विस्तृत वर्णन करते हैं, वह भी हनुमान की आंखों से। यह पूरा का पूरा प्रकरण सहज, स्वाभाविक और प्रामाणिक चित्रण का बेमिसाल नमूना है। अब हनुमान तो जितेन्द्रिय विख्यात हैं, नग्न-अर्धनग्न अवस्था में पड़ी हुई परायी स्त्रियों को इस तरह देखते चले जाना उनके लिए बड़ी चुनौती और धर्मसंकट प्रस्तुत कर रहा है। आदिकवि किस कुशलता से इसे भी चित्रित करते चलते हैं-
“ परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम्।
इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति ।।“ ( सुंदरकांड एकादश सर्ग/38)
( हनुमान सोचने लगे कि इस तरह गाढ़ी निद्रा में सोयी हुई परायी स्त्रियों को देखना अच्छा नहीं है, यह तो मेरे धर्म का पूरा विनाश ही कर डालेगा।)
“ कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः।
न तु मे मनसा किंचिद् वैकृत्यमुपपद्यते ।।“ ( सुंदरकांड एकादश सर्ग/41)
( हनुमान सोचने लगे कि इसमें संदेह नहीं कि रावण की स्त्रियाँ निःशंक सो रही थीं और उसी अवस्था में मैंने उन सबको अच्छी तरह देखा है, तथापि मेरे मन में कोई विकार नहीं उत्पन्न हुआ है। )
“ मनो हि हेतुः सर्वेषां इन्द्रियाणां प्रवर्तने।
शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् ।।“ ( सुंदरकांड एकादश सर्ग/42)
( सम्पूर्ण इंद्रियों को शुभ और अशुभ अवस्थाओं में लगने की प्रेरणा देने में मन ही कारण है, किंतु मेरा मन पूर्णतः स्थिर ( परस्त्री-दर्शन से भी अविचलित) है। )
“ नान्यत्र हि मया शक्या वैदेही परिमार्गितुम्।
स्त्रियो हि स्त्रीषु दृश्यन्ते सदा सम्परिमार्गणे ।।“ (सुंदरकांड एकादश सर्ग/43)
( वैदेही ( सीता) को मैं दूसरी जगह तो ढूंढ़ भी नहीं सकता था क्योंकि स्त्रियों को ढूंढते समय उन्हें स्त्रियों के बीच में ही देखा जा सकता है। )
हनुमान द्वारा सीता को ढूंढने के पूरे प्रसंग में बाल्मीकि रामायण का यह भाग एक रचनाकार के रचना-कौशल, संयम और प्रामाणिक चित्रण के प्रति निष्ठा का अद्भुत उदाहरण है। अश्लीलता को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से परोसने की पूरी गुंजाइश है पर कवि का ध्यान सहज, स्वाभाविक और प्रामाणिक चित्रण पर ही है। ऊपर से हनुमान द्वारा अंतःपुर में ही सीता को खोजने की तार्किक आवश्यकता और, बावजूद उद्दीपन के सारे सामान के, उनका अविचलित और जितेन्द्रिय ही बने रहना भी सहज-स्वाभाविक रूप से चित्रित होकर पाठक को बाल्मीकि की साहित्यिक प्रतिभा तथा साहित्य के प्रति निष्ठा का कायल बना देता है।
संस्कृत साहित्य में स्त्री-पुरुष प्रेम के विभिन्न रूपों का स्वाभाविक चित्रण है, प्रेम-निवेदन से लेकर शारीरिक संबंध के चरण दर चरण प्रेम को जीवन के सहज-स्वाभाविक अंग के रूप में मान्यता दी गई है। संस्कृत साहित्य की प्रमुख विशेषता है श्रृंगार रस और प्रकृति के बहुआयामी सौंदर्य का अद्भुत दिग्दर्शन। इस दिग्दर्शन के सर्वप्रमुख और सर्वश्रेष्ठ कवि हैं कालिदास। प्राकृतिक शक्तियों और वस्तुओं के सौन्दर्य का मानवीय सौंदर्य के पैमानों पर काव्यात्मक विवेचन कालिदास के काव्य का प्रमुख गुण है, जिसका बेहद सटीक उदाहरण उनके बेहद लोकप्रिय खंडकाव्य ‘मेघदूतम्’ में देखा जा सकता है। विरही यक्ष द्वारा मेघ के माध्यम से अपनी पत्नी को संदेश भिजवाने की परिकल्पना ही लाजवाब है, उतना ही लाजवाब है इस क्षीण काव्यतत्व पर ही प्राकृतिक सौंदर्य और प्रेम का अद्भुत काव्यात्मक आख्यान खड़ा कर देने का साहित्यिक कौशल। पर प्रथम खंड (पूर्वमेघः) के चौवालीसवें पद में कालिदास अश्लीलता परोसने के स्पष्ट दोषी हैं। पूरा पद गम्भीरा नामक नदी के सौन्दर्य का मानवीकरण करने पर केन्द्रित होकर उपमाओं के सटीक प्रयोग से सौन्दर्य का अद्भुत बिम्ब रचता ही है कि अंतिम पंक्ति बेहद आपत्तिजनक ढंग से आरोपित होकर अश्लीलता से आप्लावित टिप्पणी करती है-
“ ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः “
( स्त्री के, अनावृत्त जघन-प्रदेश ( नाभि से योनि तक का भाग) का स्वाद जानते हुए कौन उसे छोड़कर जाना चाहेगा ? )
इस पंक्ति का चौवालीसवें पद की ही पहले की पंक्तियों से कोई स्वाभाविक तारतम्य है ही नहीं। हिन्दी में इसका अनुवाद किसी के मुंह से निकला नहीं कि उसे परले दर्जे का शोहदा और टिप्पणी को परले दर्जे की अश्लील टिप्पणी मान लिया जायेगा। श्रृंगार और प्रकृति के अद्भुत कवि ( और संसार के सर्वश्रेष्ठ कवियों में निर्विवाद रूप से शामिल) कालिदास के क्षणिक ( या सायास ?) विचलन का उदाहरण है यह पंक्ति। साहित्य के संदर्भ रहित प्रक्षेपण का उदाहरण बनी यह टिप्पणी पूरे खंडकाव्य के सहज, स्वाभाविक और अद्भुत उपमाओं से समृद्ध श्रृंगार रस में वैसे ही खटकती है जैसे स्वादिष्ट दूध के ऊपर बेमतलब टपका दी गई नींबू के रस की बूंद।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को जीवन के विभिन्न चरणों के लिए आवश्यक मानते हुए समान रूप से महत्ता प्राप्त है। तदनुसार संस्कृत साहित्य भी अभिव्यक्ति में इनके तमाम रंगों का दिग्दर्शन कराने का उद्देश्य लेकर चला। इस सृष्टि का आधार और आगे वृद्धि का कारक गृहस्थ आश्रम है जो स्त्री-पुरुष के स्वस्थ मानसिक-शारीरिक सम्बन्ध पर ही टिका रहता है। इस संसार में तमाम किस्म के स्त्री-पुरुष हैं, प्रेम की अभिव्यक्ति भी तमाम किस्म की हो सकती है, शारीरिक सम्बन्ध की भी। कोई पुरुष धीरोदात्त हो सकता है तो कोई धीरललित भी। अश्लीलता स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंध से नहीं उपजती, उस संबंध को कुत्सित दृष्टि से देखने और दिखाने से उपजती है। राधा और कृष्ण की प्रेमकथा का आलम्बन लेकर चली जयदेव की प्रसिद्ध कृति ‘गीत गोविंद’ लौकिक प्रेम के अंतरंग दृश्यों तक को चित्रित करती हुई कृति ही तो है, ध्वनि-सौंदर्य से समृद्ध मधुरतम गीतों के माध्यम से लौकिक जीवन में श्रृंगार रस के दिग्दर्शन से ही तो हमारे हृदय के तार झंकृत करती है।
हिन्दी साहित्य में लगभग दो सौ वर्षों, संवत् 1700 से 1900 तक, का काल रीतिकाल के नाम से जाना जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘ हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में रीतिकाल की रचनाओं के बारे में उचित ही टिप्पणी की है –
“ वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार की ही रही। इससे इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है। श्रृंगार के वर्णन को बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुंचा दिया था। इसका कारण जनता की रुचि थी जिनके लिए कर्मण्यता और वीरता का जीवन बहुत कम रह गया था।“
अपने बेहद महत्वपूर्ण आलेख ‘कविता क्या है’ में भी शुक्ल जी ने आश्रयदाता की कामवासना जगाने मात्र के उद्देश्य से लिखी गई ‘श्रृंगारिक’ कविताओं की कटु आलोचना की है। दरअसल; ‘बाजारवाद’ शब्द तो बहुत बाद में आया, तब के कवि के लिए ‘बाजार ‘ बने राजाओं या सामन्तों की कामवासना जगाने में समर्थ अश्लीलता आरोपित कर ‘कविता’ पेश कर आर्थिक लाभ साधने प्रवृत्ति सुनियोजित रूप से रीतिकाल में ही शुरू हुई। यह साहित्य का अपनी महत्तर भूमिका से भटककर अश्लीलता की गड़ही में छपकी मारने का विचलन था जिसे शुक्ल जी जैसे समर्थ और सतर्क आलोचक ने बाकायदा नोट कर एक निंदनीय प्रवृत्ति के रूप में रेखांकित किया।
इस मुद्दे पर विचार करते हुए हम विश्व साहित्य से दो उदाहरण लेते हैं, फ्रांसीसी भाषा के दो महान लेखकों मोपासां और ईमिल ज़ोला के साहित्य से। साहित्य के सुधी पाठक जानते हैं कि मोपासां व्यक्तिगत जीवन में विकट वेश्यागामी थे, मृत्यु भी उनकी यौन-संक्रमण अर्जित सिफलिस रोग से हुई। पर एक रचनाकार के रूप में मोपासां ने वेश्यावृत्ति को एक सामाजिक समस्या और मानवीय त्रासदी के रूप में देखा ।उनको ख्याति दिलाने वाली प्रसिद्ध कहानी ‘बूल दे सूफ’ की नायिका भी वेश्या है और 1870 में जर्मनी के हाथों मिली फ्रांस की करारी हार की पृष्ठभूमि में एक वेश्या के अंदर छिपी मानवीयता को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर करती है। पर वेश्यावृत्ति या वेश्याओं की पृष्ठभूमि में लिखी गई मोपासां की कहानियों में बेहद संवेदनशील ढंग से लिखी गई एक कहानी है ‘ला मैसोन तेलियर’ (मदाम तेलियर का मकान)। इस कहानी में मोपासां बहुत मजबूती से आर्थिक-सामाजिक असमानता के शिकार बने इंसान के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं, वेश्याएं ऐसी इंसान हैं ही। चर्च में हो रहे धार्मिक समागम में वेश्याओं के मौजूद रहनेवाले भाग में जहाँ वे उनमें अब भी बची रही ‘सामान्य संवेदनाओं’ को बड़े मार्मिक ढंग से उजागर करते हैं, वहीं कहानी के अंत तक आते-आते वे वेश्याओं की आदत में अब शुमार हो चुकी उनकी वेश्यावृत्ति वाली ‘सामान्य जिंदगी’ में लौट आने की आर्थिक-सामाजिक मजबूरी पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं। कहानी मुख्य रूप से चकलाघर बने मदाम तेलियर के मकान में घटित हो रही है, देह-व्यापार कथ्य के केन्द्र में है और धंधे की बारीकियां सविस्तार वर्णित हैं पर मोपासां इस परिवेश में, अश्लीलता परोसने की पूरी सम्भावना मौजूद होने के बावजूद, अश्लीलता नहीं परोसते; कहानी का फोकस वेश्याओं की आर्थिक-सामाजिक मजबूरी या दयनीयता पर ही रखते हैं।
ईमिल ज़ोला का विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘नाना’ उसी नाम की रंगमंच-अभिनेत्री के उत्थान और पतन की कारुणिक गाथा है। इसमें पतनशील सामंती संस्कृति के केन्द्र बने तत्कालीन फ्रांस की ऊपर से सुसंस्कृत लग रही राजधानी पेरिस में व्याप्त नैतिक पतन को बहुत बारीकी से चित्रित किया गया है। उपन्यास की शुरुआत में ही, पढ़ने के लिए पेरिस आया नौजवान हेक्टर वैरायटी थियेटर के मालिक से कहना शुरू ही करता है- “ आपका थियेटर- – – -“ कि मालिक बोर्डनेव ‘ सही नाम से चीजों को पुकारने वाले व्यक्ति के ठंडेपन के साथ टोकता है- “ मेरा वेश्यालय कहो, बजाय इसके- – – -“। सो रंगमंच है, नाटक हैं, अभिनेत्रियां हैं पर यह सब होने-हवाने के बीच है एक पतनशील संस्कृति जिसमें देह को हथियार की तरह इस्तेमाल कर अभिनेत्रियां काउंट (सामंत) पटा रही हैं, काउंटेस ( काउंट की पत्नी) दूसरे ही आदमी के साथ रंगरेलियां मना रही है- – – – –
और; वैरायटी थियेटर पेश करता है एक नई अभिनेत्री को नाटक में ‘वीनस’ के रोल में, न उसका गला अच्छा है, न अभिनय की तमीज है पर अभिनय के नाम पर उस रोल में लगभग अनावृत्त शारीरिक सौंदर्य पेश कर नाना एकदम से हिट हो जाती है, अपने शरीर के सम्मोहन से पुरुष दर्शकों की वासना जगा देती है। ज़ोला अभिनय के नाम पर लगभग अनावृत्त शरीर पेश करने के खेल, उस खेल के सूत्रधार तथा शिकार हुए तमाम पुरुष दर्शकों की छटपटाहट का बेबाक और यथार्थवादी चित्रण करते चलते हैं, कहीं भी अश्लीलता ‘परोसने’ का प्रयास नहीं है। उपन्यास की असली ताकत वहां सामने आती है जब अपने देहरूपी अचूक हथियार के नशे में एक के बाद एक पुरुषों से ‘खेलती’ और उन्हें ‘जीतती’ जा रही, फैशन की ‘प्रतीक-स्त्री’ बन गई नाना का पतन शुरू होता है। बेहद खर्चीली और दुनिया भर की सजावटी ( पर मुसीबत में किसी काम की नहीं) वस्तुएं बटोर रखी नाना को नानबाई के बिल चुकाने के लाले पड़ जाते हैं, उसके तमाम नौकर उसको लेकर फूहड़ मज़ाक करते हैं। जिस-तिस से छोटी-छोटी राशि उधार मांग रही नाना चीज़ें तोड़ती-फोड़ती हुई “ सब गया- – – – सब चला गया- – -“ चिल्लाती है, दो सगे भाई उसके ‘प्रेम’ में पागल हैं जिनमें से एक उसकी ही कोठी में आत्महत्या कर लेता है और दूसरा उसे देने के लिए मुद्रा जुटाने के चक्कर में अपनी रेजिमेंट के खजाने से चोरी कर जेल जाता है – – – – ज़ोला बड़ी बारीकी से पतन की कड़ी दर कड़ी चित्रित करते चलते हैं। अश्लीलता परोसने के लोभ में पड़े बिना वे दैहिक आकर्षण को भुनाने के नतीजे में आकार ली मानवीय त्रासदी का रंग पर रंग उकेरते चलते हैं। हर तरह का संतुलन खो चुकी नाना अपने शयनकक्ष में तमाम लोगों का प्रवेश बेरोकटोक करवा रही है, आदमी दर आदमी को देह बेचती हुई आर्थिक बदहाली से निकलने की कोशिश कर रही है। फिर फर्नीचर, गहने, मकान, यहाँ तक कि कपड़े भी औने-पौने दाम पर बेच-बाचकर नाना तिरोहित हो जाती है। उपन्यास के अंत में चेचक से ग्रसित होकर वह मरने के लिए अवतरित होती है , और उस वक्त बीमारी की छूत लगने की परवाह किये बिना रंगमंच की उसकी पुरानी प्रतिद्वंद्वी अभिनेत्री रोज़ मिगनोन उसकी सेवा करती है। कोई भी सुधी पाठक ज़ोला की साहित्यिक निष्ठा और ईमानदारी का कायल हो जायेगा कि पूरे उपन्यास में अश्लीलता परोसने की पृष्ठभूमि और ‘मौके’ रहने के बावजूद उन्होंने अपनी देह के सम्मोहन को हथियार समझ बैठी नाना की मानवीय त्रासदी पर ही फोकस बरकरार रखा। मोपासां और ज़ोला के साहित्य से लिए गए ये दो उदाहरण हमारे मुद्दे के संदर्भ में मानक उदाहरण हैं।
मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद संस्कृति के प्रमुख केन्द्रों के रूप में जो शहर उभरे उनमें लखनऊ महत्वपूर्ण था। वाज़िद अली शाह के समय का लखनऊ साहित्य, संगीत, कला के मामलों में दुनिया के किसी भी शहर को टक्कर दे सकता था, वाज़िद अली शाह व्यक्तिगत रूप से बड़े गुणी तो थे ही, गुणग्राहक भी थे। उनके काल में लखनऊ की सांस्कृतिक समृद्धि का बेहद महत्वपूर्ण विवरण हमें अब्दुल हलीम ‘शरर’ की किताब ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में मिलता है। इस किताब का एक विवरण हमारे मुद्दे के सिलसिले में उल्लेखनीय है। ग़ज़ल उर्दू शायरी का एक बेहद लोकप्रिय स्वरूप है, प्रेम की विशिष्ट अनुभूतियों का वाहक बना हुआ। अरबी मूल की इस काव्य-शैली को उर्दू ने बहुत लोकप्रिय बनाया। ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में शरर इस शैली की वासनाजन्य विकृति का उल्लेख करते हैं जिसे ‘हज़ल’ कहा जाता था। उस समय ग़ज़लगो ( ग़ज़ल कहने वाले) की तर्ज पर भूजा के भाव ‘हज़लगो’ पैदा हो गए थे जो ग़ज़ल का फ्रेम उठाकर उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अश्लीलता दर्शाने वाले शब्द या बिम्ब भरकर विकृत मानसिकता वाले लोगों की वाहवाही लूटते फिरते थे। किसी काव्य-शैली के फ्रेम का ही दुरुपयोग कर अश्लीलता परोसने का यह ‘अनोखा’ उदाहरण है।
उर्दू साहित्य से ही एक उदाहरण और लेते हैं, सआदत हसन मंटो की कहानियों का। उनकी कहानियों पर अश्लीलता फैलाने का आरोप लगा, मुकदमे भी चले। अगर हम उनकी ‘खोल दो’ , ‘ठंडा गोश्त’ जैसी कहानियों को ध्यान से पढ़ें तो पायेंगे कि अश्लीलता परोसने का प्रयास नहीं है, वर्णित मानवीय त्रासदी को पूरी बेबाकी और स्पष्टता के साथ उद्घाटित करने का प्रयास ज़रूर है। अगर साम्प्रदायिक विद्वेष की पृष्ठभूमि में बलात्कार जैसा जघन्य कृत्य कहानी के केन्द्र में है तो उसकी पूरी मानवीय त्रासदी को घुमा- फिराकर या ढंक-तोपकर पेश करना कहानी की आत्मा पर ही कुठाराघात होगा। मंटो की तो तारीफ करनी चाहिए कि इतने संवेदनशील विषय को इतनी कुशलता से कहानी में उठाकर वे पाठक की संवेदना को आमूल-चूल झकझोर देने में समर्थ होते हैं, घोर मानवीय त्रासदी के उस पूरे दौर को इतिहास में दर्ज किसी भी विवरण से कहीं ज्यादा समर्थ तरीके से आनेवाली पीढ़ियों के जानने के लिए छोड़ जाते हैं। उदाहरण के लिए ‘खोल दो’ कहानी लें। शीर्षक सतही पाठक को उत्तेजक लग सकता है पर गंभीर पाठक कहानी के अंत तक पहुंचते-पहुंचते वर्णित त्रासदी से बुरी तरह हिल जाता है; साम्प्रदायिक हैवानों द्वारा लगातार बलात्कार ने लड़की को उस कृत्य के चलते लगभग बेजान और यंत्रचालित ढंग से नग्न होती देह में बदलकर रख दिया है पर अभागा बाप यही सोच कर खुश हो जाता है कि लड़की जिंदा तो है।
कभी युग का चरित्र बड़े बदलाव से गुजरता है तो साहित्य के उस बदलाव से अछूते रह जाने की कल्पना करना बेवकूफी होगी। 1990 के आसपास वैश्विक परिदृश्य पर बाजारवाद हावी हुआ और बाजारवादी शक्तियां अबतक कम ही प्रभावित या अछूते रह गए क्षेत्रों को भी फतह करने के लिए चारों दिशाओं में धावा बोलने लगीं। जिन लोगों को अबतक थोड़ा बहुत मुगालता होता था कि साहित्य तो बड़ा ‘पवित्र’ क्षेत्र है या साहित्य- कर्म तो ‘राह दिखाने वाला’ कर्म है , उनकी आंखों की पलकें चीरकर इन शक्तियों ने दिखा दिया कि वे क्या नहीं बदल सकती हैं। पहले जहां इक्का-दुक्का रचनाओं में अश्लीलता परोसने का खेल देखने को मिलता था, अब योजनाबद्ध तरीके से और थोक के भाव में ‘बाजार-लुभाऊ’ अश्लीलता परोसने वाले रचनाकारों से लेकर सम्पादक मैदान में आ गए, उसको तमाम तर्कों-कुतर्कों से सही ठहराने वाले शैतानी दिमाग़ के साथ। हिन्दी साहित्य में इस तरह के ‘बाजारू’ रचनाकारों और उनकी अश्लीलता परोसने वाली रचनाओं को प्लेटफार्म देने, प्रायोजित रूप से प्रशंसित करवाने और पाठकों को उस तरफ ‘आकर्षित’ करने का योजनाबद्ध और चालाकीभरा प्रयास ‘हंस’ पत्रिका के माध्यम से हुआ। राजेंद्र यादव ने प्रेमचंद की पत्रिका दो-तीन वर्ष तक तो ढंग से निकाली, फिर वे ‘बाजार’ जीतने के लोभ में आ गए। ऊपर से विमर्शों का मुलम्मा चढ़ाकर समाजोपयोगी दिखना था, और अंदर से, अश्लीलता योजनाबद्ध तरीके से, अक्सर वीभत्स रस के जुगुप्साजनक दिग्दर्शन के साथ, परोसने का खेल भी खेलना था। अवसरवादी और सतही किस्म के लेखकों ने जब भांप लिया कि इस प्लेटफॉर्म पर तो ‘खुला’ आमंत्रण है ‘खुलकर’ नंगे होने के लिए तो वे खुलकर ‘अश्लील-अश्लील’ खेलने लगे, गली-कूचों से ‘उभरकर’ एक से बढ़कर एक अश्लीलता परोसने वाली ‘साहित्यिक प्रतिभाएँ ‘ सामने आने लगीं। इस पूरे खेल का सबसे आश्चर्यजनक पक्ष ये था कि लेखिकाओं ने भी मैदान में आकर बताना शुरू कर दिया कि वे इस मामले में लेखकों से कम नहीं हैं। हर वयस्क व्यक्ति (थोड़े बड़े हो गए बच्चों को भी) मालूम होता है कि स्त्री-पुरुष के कौन-कौन से गुह्य अंग कहाँ-कहाँ हैं, उनका ‘साहित्यिक’ भाषा में ‘दिग्दर्शन’ कराने वाली ‘एक से बढ़कर एक’ रचनाएँ लेखक-लेखिकाएं ‘परोसने’ लगे। कुछ अन्य पत्रिकाएँ भी इस ‘सफल- माडल’ का अनुसरण कर और ‘प्लेटफॉर्म’ मुहैया कराने लगीं। ऐसा लगने लगा कि मानव शरीर का ‘ यौन-टूर ‘ लगवाना ही साहित्य का उद्देश्य हो गया है। आश्चर्यजनक बात यह थी कि इस वीभत्स बाजारवादी खेल की भर्त्सना करने वाले रचनाकार बहुत कम निकले, स्पष्ट रूप से भर्त्सना करने वाले तो बहुत ही कम । एक साहित्यकार-सम्पादक ने जब लेखिकाओं में व्याप्त इस प्रवृत्ति का किंचित स्पष्ट और सम्यक् देशज शब्द के साथ नामकरण किया तो दर्जन भर लेखिकाएं धरना-प्रदर्शन करने लग गईं, तमाम अधिकारियों को पत्र लिखकर ‘नारी-विरोधी’ व्यक्ति को उसके पद से हटाने की मांग करने लग गईं। इन ‘महान’ लेखिकाओं ने पहले कभी नारी-देह को बाजार-लुभाऊ ढंग से साहित्य में ‘परोसने’ के खिलाफ़ तो आवाज़ नहीं उठाई थी। यह होती है बाजार की साहित्य में आतंककारी आक्टोपसी उपस्थिति!
यहाँ उद्देश्य उन लेखक-लेखिकाओं का नाम गिनाना नहीं है ( बड़े ‘नामी’ और ‘पुरस्कृत’ नाम हैं इसमें ) जो साहित्य में अश्लीलता परोसने का काम कर रहे हैं। उद्देश्य है साहित्य को उसके मूल उद्देश्य से भटकाकर उस बाज़ार के कदमों में बिछा देने वाली प्रवृत्ति का विवेचन जिसका सूत्र-वाक्य है “ जो बिकता है, वही चलेगा”। सो; साहित्य-कर्म में निष्ठा रखने वाले सारे साहित्यकार, सम्पादक, आलोचक, पाठक इत्यादि इस बात पर गंभीरता से सोचें कि क्या साहित्य को उस क्षेत्र में घुसने की कोई मजबूरी है जो इन्टरनेट के ‘बहादुरों’ द्वारा पहले ही काफी फतह किया जा चुका है। इन ‘बहादुरों’ ने जुगुप्साजनक अश्लीलता को हर मोबाइल फोन तक पहुंचा दिया है, नाबालिग-बालिग सब मात्र सेकेंडों की बटनदबाउ ‘मेहनत’ से अश्लील मुद्राओं से लेकर वीभत्सतम अश्लील कृत्यों के बारे में पर्याप्त रूप से ‘शिक्षित’ हो जा रहे हैं। किसी समान रूप से ‘समृद्ध’कविता या कहानी के दो-चार पृष्ठों को पलटने की मगजमारी कोई क्यों करेगा ? आभासी-दुनिया पर डाला जा रहा ‘साहित्य’ इस तरह की ‘रचनाओं’ को प्लेटफार्म दे ही रहा है, और उन्हें पढ़नेवाले वही यौनकुंठित ‘रचनाकार’ हैं, कोई सुधी पाठक नहीं।
2020 की शुरुआत में ही कोरोना महामारी ने पूरी दुनिया का ही परिदृश्य भयावह दुष्परिणामों के साथ जो बदलना शुरू किया वह 2021 में भी जारी है। करोड़ों लोग जो कोरोना विषाणु से संक्रमित हुए और उनमें से लाखों जो दुनिया छोड़ गए, वे अपने पीछे लुटे-पिटे और नाम के ही जीवित जो आश्रित छोड़ गए, उन सबकी त्रासदी मात्र आंकड़ों से नहीं समझी जा सकती। यह पूरी की पूरी मानवीय त्रासदी साहित्यकारों के सामने अपनी रचनाशीलता का स्तर बहुत ऊपर उठाकर बहुत संवेदनशीलता और ईमानदारी से सक्रिय होने की चुनौती पेश करती है। सुधी पाठकों को आल्वेयर कामू का उपन्यास ‘द प्लेग’ याद होगा ही। साहित्यकार अगर जीवन की संगति-विसंगति, वह भी इस अभूतपूर्व आयाम की , से उद्वेलित नहीं होता, उसके चलते सक्रिय होकर यथार्थ की सूक्ष्मतम परतों का प्रामाणिक और प्रभावी चित्रण अपनी रचनाओं के माध्यम से पाठकों तक पहुँचाने में प्रवृत्त नहीं होता तो फिर साहित्य-कर्म के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है।
यह तो वक़्त ही बतायेगा, यह तो आनेवाली पीढ़ियां ही देखेंगी कि इक्कीसवीं सदी के बेहद चुनौतीपूर्ण समय में साहित्यकार मानवीय त्रासदी पर कलम चलाने की चुनौतियों पर खरे उतरे या उन्होंने तब भी साहित्य में योजनाबद्ध तरीके से और वीभत्सतम शाब्दिक बाजीगरी के माध्यम से अश्लीलता परोसते चले जाने का विकल्प चुना।
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