आज अचानक सरजू लाला घंटाघर पर मिल गए, वह गाँव में रहते थे शहर बहुत ही कम आते हैं। वह गाँव में मेरे पड़ौसी भी हैं। उनसे पूछा,‘लाला जी गंगा नहाने आए थे क्या?’
‘यही समझ लो, घर में सब ठीक-ठाक है?’
‘हाँ सब ईश्वर की कृपा है। यह क्यों कहा कि यही समझलो, इसके माने आने का कोई दूसरा मकसद है।’
तब तक बस आ गई और हम लोग उसमे चढ़ गए। बस में बड़ी भीड़ थी इसलिए कोई बात नहीं हो सकी। लाला का लड़का भी मेरे घर से कुछ दूर आगे रहता था, जब हम लोग बस से उतरे तो मैंने लाला से अपने घर में चलने के लिए कहा, हम लोग अपने घर पहुँचे। चाय-पान के बाद मैंने लाला से पूछा,‘लाला अब बताओ तुम किस काम से आए थे,गंगा तो तुम नहाते नहीं।’
‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो मैं एक मुकदमें मे गवाही देने आया था।’
‘कैसा मुकदमा?’
‘तुम बिरजू लाला को तो जानते होगे?’
‘जानेगे क्यों नहीं, अपने ही टोले मे तो रहते हैं। हाँ उनको क्या हुआ?’
‘उनको क्या होगा ? उन्होंने ही किया है,यह जानते ही होगे कि वह तीन भाई थे।’
‘खूब जानते हैं, उनके छोटे भाई जसवंत की जवानी में टी.बी. में मृत्यु हो गई थी, उनके तो एक बेटी भी थी उसे मैं बिल्लो कहता था।’
‘हाँ-हाँ उसी बिल्लो ने मुकदमा दायर किया है।’
‘किस बात के लिए?’
‘यह बात शायद तुम्हें नहीं मालूम होगी बिरजू लाला नें जसवंत की पत्नी और बिल्लो को मरा दिखा कर उनके हिस्से की खेती दंद-फंद से अपने नाम करा ली है।’
‘यह तो बड़ा गलत काम किया बिरजू लाला नें।’
‘यह तो बात जगजाहिर है कि कोई बात छिपती नहीं है, जब उन लोगों यह बात मालूम हुई तो वह लोग गाँव आए, जानते हो बिरजू लाला ने उन्हें अपने घर में नहीं घुसने दिया तब वह लोग मेरे घर आए।’
‘यह तो बिरजू लाला ने और भी गंदा काम किया।’
‘दूसरे दिन वह लोग प्रधान के यहाँ गए, प्रधान बिरजू लाला से मिला हुआ था, उसने उन लोगों को टरका दिया।’
‘प्रधान तो गाँव मे रहने वाले का ही पक्ष लेगा।’
‘वह बेचारी निराश होकर लौट गई। चार दिन बाद बिल्लो के नाना गाँव आए और मेरे घर पर ठहरे, उन्होंने मुझसे बात की और बिल्लो के पक्ष में गवाही देने को कहा, मैं मान गया, उसी के सिलसिले में गवाही देने आया था। बड़ा खराब जमाना आगया है।’
‘जमाना अच्छा कभी नहीं था।’
‘क्यों अंग्रेजी राज में तो ऐसा नहीं होता था।’
‘क्यों नहीं था? आबादी कम होने के कारण केस कम दिखाई पड़ते थे,वह तो समय और भी खराब था,जज अंग्रेज होता था, बड़े लोग अंग्रेज वकील के द्वारा उनके पास घूस पहुँचा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते थे।’
‘पर भाई उस समय ऐसा नहीं होता था।’
ःअरे खूब था लाला जी,मैं अपने सहकर्मी रामप्रकाश का केस बताता हूँ।’
00
आज ब्राम्हण टोले में कुछ हलचल दिख रही थी। शिवाअधार पांड़े बहुत परेशान दिख रहे । बार-बार घर के भीतर बाहर हो रहे हैं। रामहरख पांड़े उधर से आते हुए दिखे तो राधेश्याम ने पूछा,‘का हो पांड़े ई शिवाअधार का का हुइगा?’
‘कुछ नहीं भाई, उसका छोटा भाई रामप्रकाश आया है।’ रामहरख ने कहा।
‘वह तो बहुत पहले कहीं गायब होगया था।’
‘हाँ-हाँ वही।’
‘तो इसमें पंाड़े को परेशान होने की जरूरत क्या है?’
‘है क्यों नहीं अभी तक उसका हिस्सा उनके पास था, अब रामप्रकाश अपना हिस्सा नहीं मांगेगा क्या?’
‘लेकिन उसकी जमीन तो वह अपने नाम करवा चुके हैं।’
‘यह शिवाअधार की सरासर बेईमानी है,रामप्रकाश आधे का हिस्सेदार है, ऐसा उन्हें नही करना चाहिए। अब वह क्या कह रहे हैं?’
‘अभी कहे तो कुछ भी नहीं हैं, पर परेशान बहुत हैं।’
‘परेशान काहे न होंगें, पंद्रह बीघे खेतों पर बन आई है। रामप्रकाश चुप थोड़े बैठेगा।’ रामहरख राम-राम कह के चले गए।
राधेश्याम, शिवाअधार के चचेरे भाई हैं, उनके पास भी शिवाअधार के बराबर जमीन थी, पर जब से शिवाअधार नें रामप्रकाश की जमीन हथिया ली है तबसे उसके पास उनसे दुगनी जमीन हो गई है, यह बात राधेश्याम को खल रही थी। पर करते क्या रामप्रकाश तो उनका सगा भाई है। अब रामप्रकाश के आने पर उनके मन में कुछ ठंड पड़ी। वह रामप्रकाश जब से अपने भाई के घर आया है स्वागत करना तो बहुत दूर किसी ने उसे पानी तक के लिए नहीं पूछा, वह सोच रहे थे कहाँ से यह भूत आगया। शिवाअधार को अपने पंद्रह बीघे खेत खिसकते हुए दिखाई दे रहे थे। रामप्रकाश सोच नहीं पा रहा था कि वह क्या कर,वह घर से बाहर निकला और खेतों की तरफ चल दिया, एक ट्यूबवेल चल रहा था वहीं उसने पानी पिया।जब से रामप्रकाश की आने की खबर मिली राध्ेाश्याम उससे मिलनेे का जुगाड़ ढूढ़ रहे थे ताकि उसको वह भड़का सकें। आज वह अपने खेतों पर थे कि बगल के खेत पर रामप्रकाश को खड़ा पाया, वह तो उसको खोज ही रहे थे, वह उसके पास पहुँच कर बोले,‘बेटा तुम कब आए?’
उसने उनके पैर छूते हुए पूछा,‘भइय्या पहचान लिए?’
‘क्यों नहीं पहचानेंगे कोई अपने भाई-भतीजों को भी भूल जाता है क्या?’ राधेश्याम ने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
‘भइय्या, गाँव वाले बता रहे हैं कि हमारे भाई ने मेरा हिस्सा अपने नाम करवा लिया है।’
‘बात तो ठीक है।’
‘अब क्या होगा?’
‘गाँव के मुखिया से बात करो, बात बन जाय तो ठीक है नही ंतो कोर्ट-कचहरी तो है ही।’
‘मेरी तरफ आप गवाही देंगे न?’
‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं, बिल्कुल देंगे, हमीं क्या गाँव के सभी लोग कहेंगे।’
‘सुबह से कुछ खाया-पिया है कि नहीं?’
यह पूछने पर रामप्रकाश चुप रह गया। उसके मन में संकोच था कि कैसे कहे कि उसके भाई ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। राधेश्याम उसे अपने घर लेकर गए। उनकी पत्नी सरस्वती ने रामप्रकाश का स्वागत किया और उसको भोजन करवाया। राधेश्याम ने उससे पूछा,‘रामप्रकाश इतने दिन तुम कहाँ रहे?’
‘भइय्या यह तो तुम को मालूम ही है कि भौजी का स्वभाव बहुत खराब है। वह रोज हमें कोसा करती थी कि हमारे वजह से ही अम्मा-बाबू जी मरे, अब तुम बताव उसी बस मे मैं भी था जिसमें अम्मा-बाबू थे अब उस एक्सीडेंट में मैं नहीं मरा तो इसमे मेरा क्या दोष? मुझे सांत्वना देना तो दूर मुझे दिन-रात कोसा करती थी। रोज-रोज की हाय-हाय से तंग आकर मैंने आत्महत्या करने की सोची, भइय्या यह तो जानते ही कि मरना कितना कठिन होता है, रेल की पटरी पर पहुँचते-पहुँचते मेरा मरने का भूत उतर चुका था, रात होगई थी मुझे उस सन्नाटे में डर लगन लगा था, वहाँ पहुँचने पर देखा कोई गाड़ी खड़ी थी, मैं मरने से डर गया था सो मैं उसमें बैठ गया। शाम होगई थी थोड़ी देर बाद अंधेरा होगया,मुझे नींद आगई। जब आँख खुली तो देखा कि हरिद्वार आगया। कुंभ चल रहा था, बहुत भीड़ थी उसी भीड़ के रेले मैं भी स्टेशन के बाहर निकल गया।’
‘मरने के लिए, राम-राम ऐसा कैसे सोच लिए?’
‘क्या करता भाभी के तानों से इतना परेशान होगया था कि मरने के सिवा कुछ दिख नहीं रहा था। स्टेशन के बाहर आया, जोर की भूख लगी थी जेब में पैसा नहीं था, भूख एक समय तक ही सही जा सकती है, कैसे खाना मिले यही सोच रहा था। तभी सामने दिखा कुछ लड़के हाफ पैंट, कमीज पहने लाठी लिए खड़े थे। मैंने उनसे पूछा,‘आप लोग कौन हैं?’
‘हम लोग स्वयंसेवक हैं और यहाँ मेले में पथ-संचालन करते हैं।’
‘क्या मैं भी स्वयंसेवक बन सकता हूँ?’
‘हाँ बन सकते हो।’
‘तो बना लीजिए।’
वह लोग मुझे लेकर एक स्वामी जी के कैंप मे लेगए, उन लोगों को स्वयंसेवकों की जरूरत थी उन्होंने मुझे रख लिया गया। मुझे भी हाफ पैंट, कमीज और लाठी दी गई, उस समय भोजन का समय हो रहा था मुझे भी भोजन कराया गया। भोजन करने के बाद जान में जान आई और दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ। मैंने सोचा जब तक मेला है तब तक काम चल जाएगा फिर क्या होगा। मैंने स्वामी जी से नजदीकी बनाने की सोची। मैं रात में उनके पैर दबाने लगा, सेवा से तो भगवान भी प्रसन्न हो जाते हैं स्वामी जी भी प्रसन्न हुए और उन्होंने मेरे बारे में पूछा मैंने उन्हे अपनी पूरी राम-कहानी बताई।’
‘स्वामी जी ने क्या किया?’
‘स्वमी जी बड़े प्रभावित हुए, उन्होंने मुझे कुछ कपड़े और दिलवाए। जब मैंने उनसे कहा कि मेले के बाद मेरा क्या होगा तो उन्होंने कहा कि मेले के बाद मैं उनके आश्रम में रहूँगा, मेले के बाद मैं उनके आश्रम सरसावा में चला गया। वहाँ मैंने उनसे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने वहाँ के हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया मैं पढ़ने में ठीक था, मेरा हाईस्कूल होगया। मेरी आगे पढ़ने की इच्छा थी मैंने स्वामी जी को बता रखा था। उनके आश्रम में उनके एक शिष्य जो सहारनपुर के जमींदार थे आया करते थे उनसे उन्होंनंे मुझे आगे पढ़ाने के लिए कहा, वे मुझे अपने साथ सहारनपुर ले आए और एक इंटर काॅलेज में भर्ती करवा दिया।
मैं उनके छोटे बच्चों को पढ़ा दिया करता था इसलिए जमींदार मुझसे बहुत प्रभावित थे और मुझे बहुत मानते थे। इंटर की परीक्षाएं हो चुकी थीं, सन 1943-44 की बात थी, उस जमाने मे साइकल एक दुर्लभ चीज हुआ करती थी केवल संपन्न लोगों तक सीमित थी। लोगों को साइकल चलाते मेरे मन में भी आया कि मैं भी साइकल चलाना सीखूं मैंने अपनी इच्छा जमींदार को बताई उन्होंने अपने नौकर से कहा कि वह मुझे साइकल चलाना सिखा दे, मैंने दो-तीन दिन में साइकल चलाना सीख गया। अब साइकल चलाने की लत पड़ गई। एक दिन साइकल चला रहा था सामने से एक गोरा अपनी साइकल से आ रहा था, मैं अपना संतुलन खो बैठा और उससे टकरा गया हम दोनों गिर पड़े, उसने हमको चार-पाँच हाथ मारे और तमाम गालियाँ दीं, मैं अपने को न रोक पाया एक ईंट का बड़ा टुकड़ा वहाँ पड़ा था उसे उसके सर पर दे मारा जिससे उसका सर फूट गया।’
‘अरे तुमने अंग्रेज को मारा,तुम्हें डर नहीं लगा?’
‘वहाँ कोई था नहीं जो हमें देखता मैं साइकल दौड़ाता हुआ घर पहुँचा और जमींदार को सब बता दिया, उन्होंने रात में ही बस से अपने एक आदमी के साथ मुझे आश्रम पहुँचा दिया।’
‘फिर?’
‘इसी बीच इलाहावाद में कुंभ पड़ा और हम उनके साथ इलाहाबाद आ गए। मैं स्वामी जी को रोज अखबार पढ़ कर सुनाया करता था और उनकी सेवा करता था। इसी कुंभ के मेले में गाँव के रामहरख मिले उन्होंने मुझे पहचान लिया, मैंने उनसे अपने घर के हाल-चाल पूछे तो उन्होंने बताया कि भैय्या ने मुझे मरा दिखा कर मेरा हिस्सा अपने नाम करा लिया। यह बात मैंने स्वामी जी को बताई और उनको मालूम हुआ कि मेरा गाँव पास में है तो उन्होंने गाँव जाने को कहा तभी तो मैं गाँव आया हूँ। अब आप बताओ कि हम क्या करें?’
‘देखो तुम्हारा हिस्सा तो वह अपने नाम करा ही लिए हैं, उसका दाखिल-खारिज भी होगया है, अब तो इसका फैसला दीवानी से ही होगा। पंद्रह बीघा खेती माने रखती है वह आसानी से तो नहीं देंगे,मुकदमा करना पड़ेगा इसमे रुपया भी बहुत खर्च होगा, सोच लो भाई।’
‘ठीक है हम स्वामी जी से बात करके आप को बताएंगे।’
00
धीरे-धीरे यह चर्चा गाँव भर में होने लगी कि अपने छोटे भाई के रहते शिवाअधार ने उसका हिस्सा अपने नाम करवा लिया। पूरा गाँव दो भागों में बट गया। रामअधार से हमदर्दी रखने वाले शिवाअधार को सही कह रहे थे और कुछ लोग रामप्रकाश को सही कह रहे थे। गाँव में दो तीन दिन राधेश्याम के यहाँ रुकने के बाद वह स्वामी जी के पास पहुँच कर सारी बातें बतलाईं। स्वामी जी ने कहा यह मामला बड़ा पेचीदा है इसकी पैरवी करने के लिए तुमको यहीं रहना पड़ेगा, देखो कुछ सोचते हैं। उसी समय इलाबाद के डाक विभाग के प्रवर अधीक्षक जो स्वामी जी के श्ष्यि थे उनसे मिलने आए। स्वामी जी ने उनसे रामप्रकाश के बारे में बात की। अंग्रेजी राज था उस समय प्रवर अधीक्षक किसी को भी बाबू बना सकता था, उन्होंने रामप्रकाश को बाबू बना दिया। ट्रेनिंग के बाद रामप्रकाश इलाहाबाद आर.एम.एस. में काम करने लगा। स्वामी जी उसे पर्याप्त पैसे दे गए थे उसने इलाहाबाद दीवानी में मुकदमा दाखिल कर दिया।
वह मुकदमें के सिलसिले में गाँव राधेश्याम से मिलने गाँव गया। वहाँ उसने अपने बारे में सब कुछ राधेश्याम को बताया। जब राधेश्याम को मालूम हुआ कि उसकी सरकारी नौकरी लग गई है तो उसके दिमाग में कुछ चलने लगा, एक तो शहर में रहने का पक्का ठिकाना होगया है दूसरे उसे अपनी साली की शादी के लिए अपने छोटे चचिया ससुर याद आए।
उस जमाने में अदालतें इतनी बेईमान नहीं थीं, आदमी भी इतना बेईमान नहीं था लोग धार्मिक थे। कोर्ट में गाँव वालों के सर्पोट और शिवाअधार के कोर्ट में गंगाजली न उठाने पर शिवाअधार मुकदमा हार गए और रामप्रकाश को उसका हिस्सा मिल गया। रामप्रकाश की खेती का सरकारी बंटवारा भी होगया। रामप्रकाश को शिवाअधार के घर में आधा हिस्सा मिला लेकिन उसने वहाँ मकान न बनवा कर राधेश्याम के मुहल्ले में मकान बनवाया।
राधेश्याम ने अपने चचिया ससुर को बुलाया और उनसे उनकी बेटी की शादी के लिए रामप्रकाश को सुझाया। पढ़ा-लिखा सरकारी नौकरी में लगा हुआ लड़का और क्या चाहिए वह फौरन तैय्यार होगए। राधेश्याम उनको लेकर रामप्रकाश के पास पहुँचे। चूँकि राधेश्याम रामप्रकाश की खेती देखते थे और जब भी रामप्रकाश गाँव जाता राधेश्याम के यहाँ रुकता और उन्हीं के यहाँ भोजन भी करता था, उसके ऊपर राधेश्याम का प्रभाव तो था ही, दूसरे राधेश्याम का निकट संबंधी होना भी उसके हित में था, उसने हाँ कर दी और राधेश्याम की चचेरी साली के साथ रामप्रकाश का विवाह तय होगया, उस शादी में शिवाअधार और उसका परिवार शामिल नहीं हुआ और उन्होंने राधेश्याम से भी अपने संबंध समाप्त कर लिए।
रामप्रकाश का जीवन चल निकला। शिवाअधार को बड़ा झटका लगा, पंद्रह बीघे जमीन का इस तरह निकल जाना शिवाअधार को पच नहीं रहा था, उसने वकीलों से राय लेकर रेवेन्यू बोर्ड में मुकदमा दायर कर दिया। रामप्रकाश के पास सम्मन आया, रामप्रकाश ने अपने पहले वकील से संपर्क किया, उसका केस समझा हुआ था उसने उसका जवाब लगा दिया। शिवाअधार की रामप्रकाश की खेती पर कब्जा करने की इच्छा पूरी नहीं हुई। रामप्रकाश तो इलाहाबाद में रहता ही था पर शिवाअधार को अब परेशानी हो रही थी। तारीखों पर तारीखें पड़ रहीं थी पर कोई हल नहीं निकल रहा था। लोग बताते हैं कि दीवानी के मुकदमे में पीढ़ियां बीत जाती हैं पर फैसला नहीं होता है।
शिवाअधार को पंद्रह बीघे खेत हाथ से निकल जाने का बड़ा मलाल था, दिन रात उनके दिमाग में पंद्रह बीघे खेत चलते रहते थे। राधेश्याम को देख कर वह हमेशा कुढ़ते रहते, उसको वह रामप्रकाश से बड़ा दुश्मन मानते थे क्योंकि यदि उसने रामप्रकाश को सहारा न दिया होता तो शायद उसकी खेती न जाती। उनकी पत्नी उन्हें हर तरह से समझाती पर शिवाअधार के ज्ञान में कुछ चढ़ता ही नहीं। शिवाअधार की बढ़ती उम्र और निरंतर अत्यधिक चिंतन से उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ और इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते उनकी मृत्यु हो गई।
शिवाअधार के लड़कों को मुकदमें में अपने पिता की जगह अपना सब्सीट्यूशन कराना पडा, फिर रामप्रकाश के पास सम्मन आए फिर रामप्रकाश ने अपने वकील से जवाब लगवाया। तारीखों पर तारीखें, न तो रामप्रकाश को कुछ हासिल हो रहा था और न रामअधार के लड़कों को। रामअधार के न रहने पर उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी काफी ढीली हो गई थी। मुकदमा परिवार पर अनावश्यक बोझ था। यह बात अब शिवाअधार की पत्नी की समझ में खूब आने लगा था। अतीत में रामप्रकाश के प्रति अपने व्यवहार को याद कर उसकी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी। एक दिन जब उसके बड़े लड़के राकेश ने उससे कहा,‘अम्मा यह मुकदमा कब खत्म होगा? अब तो इसका खर्चा बहुत भारी पड़ रहा है।’
‘बात तो तुम्हारी ठीक है, यह दीवानी है, जाने कब तक मुकदमा चले कुछ ठीक नहीं है।’
‘इस तरह तो हम बरबाद हो जाएंगे, फिर जमीन तो चाचा की है ही, वह तो हमें मिलेगी नहीं, फिर मुकदमा लड़ने से क्या फायदा?’
राकेश की बात सुन कर शिवाअधार की पत्नी सोचने लगी, फिर अपने राकेश से बोली,‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, जमीन तो रामप्रकाश की ही हैं, एक बार वह मुकदमा जीत भी चुका है, तुम ऐसा करो तुम इलाहाबाद जा कर रामप्रकाश से मिल कर यह मुकदमा खत्म करने की बात करो।’
‘यह बात तुम काहे नहीं करती हो।’
‘मेरा उसके साथ व्यवहार ठीक नहीं था, मुझे नहीं लगता है कि वह मेरी बात मानेगा।’
‘क्या वह मेरी बात मान लेगें?’
‘हाँ मान लेगा, वह आदमी खराब नहीं है,हमीं लोग अपने स्वार्थ मे अंधे थे।’
राकेश रामप्रकाश के यहाँ गया। उसकी की आशा के बिपरीत राकेश ने उसका स्वागत किया और उसके आने का कारण पूछा। राकेश ने कहा,‘चाचा क्या यह मुकदमा खत्म नहीं हो सकता है?’
‘क्यों नहीं हो सकता है?’
‘फिर चाचा इसे खत्म करो।’
‘भाभी क्या चाहती हैं?’
‘उन्होंने ही तो भेजा है।’
‘वह क्यों नहीं आईं?’
‘उन्हें संकोच था।’
‘किस बात का?’
‘उन्होंने बताया कि उनका आपके प्रति व्यवहार ठीक नहीं था, उन्हीं के कारण आपको घर छोड़ना पड़ा।’
‘यह सब बीते समय की बातें हैं, इन्हें याद करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता है, उनसे कहना कि रामप्रकाश को कुछ याद नहीं है, वह मेरे यहाँ आएं, यह भी उन्हीं का घर है। हाँ राकेश तुम आज यहीं रुकना, तुम अपने वकील से बात करके आओ, तब तक मैं भी अपने वकील से बात करके आता हूँ।’
00
राकेश अपने वकील के पास पहुँच कर मुकदमें को खत्म करने की बात कही तो वह उसके ऊपर बिगड़ कर बोला,‘तुम पागल हुए हो क्या? मेरी मेहनत पर पानी फेरना चाहते हो।’
‘आपकी मेहनत,क्या मतलब?’
‘अरे दो-चार महीने में तुम जीत जाओगे, तुम्हें अपना फायदा-नुकसान नहीं दिख रहा है और तुम्हारे पिता जी की इज्जत का क्या होगा? मेरे हिसाब से समझौता करना ठीक नहीं होगा, पहले ठीक से सोच लो फिर समझौते की बात करेंगे।’
राकेश की समझ में खूब समझ में आगया था कि वकील अपने फायदे की बात सोच रहा है, अगर समझौता हो जाएगा तो उसकी हर पेशी की फीस मारी जाएगी। उसने वकील से कहा,‘ठीक है बाबू जी सोच के बताता हूँ।’ इधर रामप्रकाश केे वकील ने भी मुकदमा न खत्म करने को कहा। राकेश के आने पर राकेश ने उससे पूछा, रामप्रकाश ने अपने वकील से हुई सब बातों को बताया। रामप्रकाश ने कहा,‘देखो राकेश, इस मुकदमें मे न तो मेरा लाभ होना है न तुम्हारा, इसमें फायदा होता है बस वकीलों का,मेरे वकील नें भी मुकदमा न खत्म करने को कहा है।’
‘फिर चाचा मुकदमा कैसे खत्म होगा?’
‘बहुत आसान, अब मुकदमा तुम्हारी तरफ से है,तुमको तारीख पर नहीं आना है, बस मुकदमा खत्म।’
‘ठीक है चाचा।’
राकेश चार-पांच पेशी पर नहीं आया, उसका वकील उसके पास खबर भेजता रहा, लेकिन राकेश नहीं आया इस लिए मुकदमा रामप्रकाश के हक में एक्सपार्टी फैसला होगया और अंतहीन दीवानी का अंत होगया।
‘अरे उस समय भी ऐसा था? काॅश बिल्लो के केस में भी ऐसा हो जाता, उसका भी कल्याण हो जाता।’ ऐसा कहते हुए सरजू लाला अपने बेटे के घर के लिए चले गए। पर मेरे लिए सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ गए।
0-0-0
‘यही समझ लो, घर में सब ठीक-ठाक है?’
‘हाँ सब ईश्वर की कृपा है। यह क्यों कहा कि यही समझलो, इसके माने आने का कोई दूसरा मकसद है।’
तब तक बस आ गई और हम लोग उसमे चढ़ गए। बस में बड़ी भीड़ थी इसलिए कोई बात नहीं हो सकी। लाला का लड़का भी मेरे घर से कुछ दूर आगे रहता था, जब हम लोग बस से उतरे तो मैंने लाला से अपने घर में चलने के लिए कहा, हम लोग अपने घर पहुँचे। चाय-पान के बाद मैंने लाला से पूछा,‘लाला अब बताओ तुम किस काम से आए थे,गंगा तो तुम नहाते नहीं।’
‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो मैं एक मुकदमें मे गवाही देने आया था।’
‘कैसा मुकदमा?’
‘तुम बिरजू लाला को तो जानते होगे?’
‘जानेगे क्यों नहीं, अपने ही टोले मे तो रहते हैं। हाँ उनको क्या हुआ?’
‘उनको क्या होगा ? उन्होंने ही किया है,यह जानते ही होगे कि वह तीन भाई थे।’
‘खूब जानते हैं, उनके छोटे भाई जसवंत की जवानी में टी.बी. में मृत्यु हो गई थी, उनके तो एक बेटी भी थी उसे मैं बिल्लो कहता था।’
‘हाँ-हाँ उसी बिल्लो ने मुकदमा दायर किया है।’
‘किस बात के लिए?’
‘यह बात शायद तुम्हें नहीं मालूम होगी बिरजू लाला नें जसवंत की पत्नी और बिल्लो को मरा दिखा कर उनके हिस्से की खेती दंद-फंद से अपने नाम करा ली है।’
‘यह तो बड़ा गलत काम किया बिरजू लाला नें।’
‘यह तो बात जगजाहिर है कि कोई बात छिपती नहीं है, जब उन लोगों यह बात मालूम हुई तो वह लोग गाँव आए, जानते हो बिरजू लाला ने उन्हें अपने घर में नहीं घुसने दिया तब वह लोग मेरे घर आए।’
‘यह तो बिरजू लाला ने और भी गंदा काम किया।’
‘दूसरे दिन वह लोग प्रधान के यहाँ गए, प्रधान बिरजू लाला से मिला हुआ था, उसने उन लोगों को टरका दिया।’
‘प्रधान तो गाँव मे रहने वाले का ही पक्ष लेगा।’
‘वह बेचारी निराश होकर लौट गई। चार दिन बाद बिल्लो के नाना गाँव आए और मेरे घर पर ठहरे, उन्होंने मुझसे बात की और बिल्लो के पक्ष में गवाही देने को कहा, मैं मान गया, उसी के सिलसिले में गवाही देने आया था। बड़ा खराब जमाना आगया है।’
‘जमाना अच्छा कभी नहीं था।’
‘क्यों अंग्रेजी राज में तो ऐसा नहीं होता था।’
‘क्यों नहीं था? आबादी कम होने के कारण केस कम दिखाई पड़ते थे,वह तो समय और भी खराब था,जज अंग्रेज होता था, बड़े लोग अंग्रेज वकील के द्वारा उनके पास घूस पहुँचा कर अपना उल्लू सीधा कर लेते थे।’
‘पर भाई उस समय ऐसा नहीं होता था।’
ःअरे खूब था लाला जी,मैं अपने सहकर्मी रामप्रकाश का केस बताता हूँ।’
00
आज ब्राम्हण टोले में कुछ हलचल दिख रही थी। शिवाअधार पांड़े बहुत परेशान दिख रहे । बार-बार घर के भीतर बाहर हो रहे हैं। रामहरख पांड़े उधर से आते हुए दिखे तो राधेश्याम ने पूछा,‘का हो पांड़े ई शिवाअधार का का हुइगा?’
‘कुछ नहीं भाई, उसका छोटा भाई रामप्रकाश आया है।’ रामहरख ने कहा।
‘वह तो बहुत पहले कहीं गायब होगया था।’
‘हाँ-हाँ वही।’
‘तो इसमें पंाड़े को परेशान होने की जरूरत क्या है?’
‘है क्यों नहीं अभी तक उसका हिस्सा उनके पास था, अब रामप्रकाश अपना हिस्सा नहीं मांगेगा क्या?’
‘लेकिन उसकी जमीन तो वह अपने नाम करवा चुके हैं।’
‘यह शिवाअधार की सरासर बेईमानी है,रामप्रकाश आधे का हिस्सेदार है, ऐसा उन्हें नही करना चाहिए। अब वह क्या कह रहे हैं?’
‘अभी कहे तो कुछ भी नहीं हैं, पर परेशान बहुत हैं।’
‘परेशान काहे न होंगें, पंद्रह बीघे खेतों पर बन आई है। रामप्रकाश चुप थोड़े बैठेगा।’ रामहरख राम-राम कह के चले गए।
राधेश्याम, शिवाअधार के चचेरे भाई हैं, उनके पास भी शिवाअधार के बराबर जमीन थी, पर जब से शिवाअधार नें रामप्रकाश की जमीन हथिया ली है तबसे उसके पास उनसे दुगनी जमीन हो गई है, यह बात राधेश्याम को खल रही थी। पर करते क्या रामप्रकाश तो उनका सगा भाई है। अब रामप्रकाश के आने पर उनके मन में कुछ ठंड पड़ी। वह रामप्रकाश जब से अपने भाई के घर आया है स्वागत करना तो बहुत दूर किसी ने उसे पानी तक के लिए नहीं पूछा, वह सोच रहे थे कहाँ से यह भूत आगया। शिवाअधार को अपने पंद्रह बीघे खेत खिसकते हुए दिखाई दे रहे थे। रामप्रकाश सोच नहीं पा रहा था कि वह क्या कर,वह घर से बाहर निकला और खेतों की तरफ चल दिया, एक ट्यूबवेल चल रहा था वहीं उसने पानी पिया।जब से रामप्रकाश की आने की खबर मिली राध्ेाश्याम उससे मिलनेे का जुगाड़ ढूढ़ रहे थे ताकि उसको वह भड़का सकें। आज वह अपने खेतों पर थे कि बगल के खेत पर रामप्रकाश को खड़ा पाया, वह तो उसको खोज ही रहे थे, वह उसके पास पहुँच कर बोले,‘बेटा तुम कब आए?’
उसने उनके पैर छूते हुए पूछा,‘भइय्या पहचान लिए?’
‘क्यों नहीं पहचानेंगे कोई अपने भाई-भतीजों को भी भूल जाता है क्या?’ राधेश्याम ने आत्मीयता दिखाते हुए कहा।
‘भइय्या, गाँव वाले बता रहे हैं कि हमारे भाई ने मेरा हिस्सा अपने नाम करवा लिया है।’
‘बात तो ठीक है।’
‘अब क्या होगा?’
‘गाँव के मुखिया से बात करो, बात बन जाय तो ठीक है नही ंतो कोर्ट-कचहरी तो है ही।’
‘मेरी तरफ आप गवाही देंगे न?’
‘हाँ-हाँ, क्यों नहीं, बिल्कुल देंगे, हमीं क्या गाँव के सभी लोग कहेंगे।’
‘सुबह से कुछ खाया-पिया है कि नहीं?’
यह पूछने पर रामप्रकाश चुप रह गया। उसके मन में संकोच था कि कैसे कहे कि उसके भाई ने पानी तक के लिए नहीं पूछा। राधेश्याम उसे अपने घर लेकर गए। उनकी पत्नी सरस्वती ने रामप्रकाश का स्वागत किया और उसको भोजन करवाया। राधेश्याम ने उससे पूछा,‘रामप्रकाश इतने दिन तुम कहाँ रहे?’
‘भइय्या यह तो तुम को मालूम ही है कि भौजी का स्वभाव बहुत खराब है। वह रोज हमें कोसा करती थी कि हमारे वजह से ही अम्मा-बाबू जी मरे, अब तुम बताव उसी बस मे मैं भी था जिसमें अम्मा-बाबू थे अब उस एक्सीडेंट में मैं नहीं मरा तो इसमे मेरा क्या दोष? मुझे सांत्वना देना तो दूर मुझे दिन-रात कोसा करती थी। रोज-रोज की हाय-हाय से तंग आकर मैंने आत्महत्या करने की सोची, भइय्या यह तो जानते ही कि मरना कितना कठिन होता है, रेल की पटरी पर पहुँचते-पहुँचते मेरा मरने का भूत उतर चुका था, रात होगई थी मुझे उस सन्नाटे में डर लगन लगा था, वहाँ पहुँचने पर देखा कोई गाड़ी खड़ी थी, मैं मरने से डर गया था सो मैं उसमें बैठ गया। शाम होगई थी थोड़ी देर बाद अंधेरा होगया,मुझे नींद आगई। जब आँख खुली तो देखा कि हरिद्वार आगया। कुंभ चल रहा था, बहुत भीड़ थी उसी भीड़ के रेले मैं भी स्टेशन के बाहर निकल गया।’
‘मरने के लिए, राम-राम ऐसा कैसे सोच लिए?’
‘क्या करता भाभी के तानों से इतना परेशान होगया था कि मरने के सिवा कुछ दिख नहीं रहा था। स्टेशन के बाहर आया, जोर की भूख लगी थी जेब में पैसा नहीं था, भूख एक समय तक ही सही जा सकती है, कैसे खाना मिले यही सोच रहा था। तभी सामने दिखा कुछ लड़के हाफ पैंट, कमीज पहने लाठी लिए खड़े थे। मैंने उनसे पूछा,‘आप लोग कौन हैं?’
‘हम लोग स्वयंसेवक हैं और यहाँ मेले में पथ-संचालन करते हैं।’
‘क्या मैं भी स्वयंसेवक बन सकता हूँ?’
‘हाँ बन सकते हो।’
‘तो बना लीजिए।’
वह लोग मुझे लेकर एक स्वामी जी के कैंप मे लेगए, उन लोगों को स्वयंसेवकों की जरूरत थी उन्होंने मुझे रख लिया गया। मुझे भी हाफ पैंट, कमीज और लाठी दी गई, उस समय भोजन का समय हो रहा था मुझे भी भोजन कराया गया। भोजन करने के बाद जान में जान आई और दिमाग कुछ सोचने लायक हुआ। मैंने सोचा जब तक मेला है तब तक काम चल जाएगा फिर क्या होगा। मैंने स्वामी जी से नजदीकी बनाने की सोची। मैं रात में उनके पैर दबाने लगा, सेवा से तो भगवान भी प्रसन्न हो जाते हैं स्वामी जी भी प्रसन्न हुए और उन्होंने मेरे बारे में पूछा मैंने उन्हे अपनी पूरी राम-कहानी बताई।’
‘स्वामी जी ने क्या किया?’
‘स्वमी जी बड़े प्रभावित हुए, उन्होंने मुझे कुछ कपड़े और दिलवाए। जब मैंने उनसे कहा कि मेले के बाद मेरा क्या होगा तो उन्होंने कहा कि मेले के बाद मैं उनके आश्रम में रहूँगा, मेले के बाद मैं उनके आश्रम सरसावा में चला गया। वहाँ मैंने उनसे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो उन्होंने वहाँ के हाईस्कूल में भर्ती करवा दिया मैं पढ़ने में ठीक था, मेरा हाईस्कूल होगया। मेरी आगे पढ़ने की इच्छा थी मैंने स्वामी जी को बता रखा था। उनके आश्रम में उनके एक शिष्य जो सहारनपुर के जमींदार थे आया करते थे उनसे उन्होंनंे मुझे आगे पढ़ाने के लिए कहा, वे मुझे अपने साथ सहारनपुर ले आए और एक इंटर काॅलेज में भर्ती करवा दिया।
मैं उनके छोटे बच्चों को पढ़ा दिया करता था इसलिए जमींदार मुझसे बहुत प्रभावित थे और मुझे बहुत मानते थे। इंटर की परीक्षाएं हो चुकी थीं, सन 1943-44 की बात थी, उस जमाने मे साइकल एक दुर्लभ चीज हुआ करती थी केवल संपन्न लोगों तक सीमित थी। लोगों को साइकल चलाते मेरे मन में भी आया कि मैं भी साइकल चलाना सीखूं मैंने अपनी इच्छा जमींदार को बताई उन्होंने अपने नौकर से कहा कि वह मुझे साइकल चलाना सिखा दे, मैंने दो-तीन दिन में साइकल चलाना सीख गया। अब साइकल चलाने की लत पड़ गई। एक दिन साइकल चला रहा था सामने से एक गोरा अपनी साइकल से आ रहा था, मैं अपना संतुलन खो बैठा और उससे टकरा गया हम दोनों गिर पड़े, उसने हमको चार-पाँच हाथ मारे और तमाम गालियाँ दीं, मैं अपने को न रोक पाया एक ईंट का बड़ा टुकड़ा वहाँ पड़ा था उसे उसके सर पर दे मारा जिससे उसका सर फूट गया।’
‘अरे तुमने अंग्रेज को मारा,तुम्हें डर नहीं लगा?’
‘वहाँ कोई था नहीं जो हमें देखता मैं साइकल दौड़ाता हुआ घर पहुँचा और जमींदार को सब बता दिया, उन्होंने रात में ही बस से अपने एक आदमी के साथ मुझे आश्रम पहुँचा दिया।’
‘फिर?’
‘इसी बीच इलाहावाद में कुंभ पड़ा और हम उनके साथ इलाहाबाद आ गए। मैं स्वामी जी को रोज अखबार पढ़ कर सुनाया करता था और उनकी सेवा करता था। इसी कुंभ के मेले में गाँव के रामहरख मिले उन्होंने मुझे पहचान लिया, मैंने उनसे अपने घर के हाल-चाल पूछे तो उन्होंने बताया कि भैय्या ने मुझे मरा दिखा कर मेरा हिस्सा अपने नाम करा लिया। यह बात मैंने स्वामी जी को बताई और उनको मालूम हुआ कि मेरा गाँव पास में है तो उन्होंने गाँव जाने को कहा तभी तो मैं गाँव आया हूँ। अब आप बताओ कि हम क्या करें?’
‘देखो तुम्हारा हिस्सा तो वह अपने नाम करा ही लिए हैं, उसका दाखिल-खारिज भी होगया है, अब तो इसका फैसला दीवानी से ही होगा। पंद्रह बीघा खेती माने रखती है वह आसानी से तो नहीं देंगे,मुकदमा करना पड़ेगा इसमे रुपया भी बहुत खर्च होगा, सोच लो भाई।’
‘ठीक है हम स्वामी जी से बात करके आप को बताएंगे।’
00
धीरे-धीरे यह चर्चा गाँव भर में होने लगी कि अपने छोटे भाई के रहते शिवाअधार ने उसका हिस्सा अपने नाम करवा लिया। पूरा गाँव दो भागों में बट गया। रामअधार से हमदर्दी रखने वाले शिवाअधार को सही कह रहे थे और कुछ लोग रामप्रकाश को सही कह रहे थे। गाँव में दो तीन दिन राधेश्याम के यहाँ रुकने के बाद वह स्वामी जी के पास पहुँच कर सारी बातें बतलाईं। स्वामी जी ने कहा यह मामला बड़ा पेचीदा है इसकी पैरवी करने के लिए तुमको यहीं रहना पड़ेगा, देखो कुछ सोचते हैं। उसी समय इलाबाद के डाक विभाग के प्रवर अधीक्षक जो स्वामी जी के श्ष्यि थे उनसे मिलने आए। स्वामी जी ने उनसे रामप्रकाश के बारे में बात की। अंग्रेजी राज था उस समय प्रवर अधीक्षक किसी को भी बाबू बना सकता था, उन्होंने रामप्रकाश को बाबू बना दिया। ट्रेनिंग के बाद रामप्रकाश इलाहाबाद आर.एम.एस. में काम करने लगा। स्वामी जी उसे पर्याप्त पैसे दे गए थे उसने इलाहाबाद दीवानी में मुकदमा दाखिल कर दिया।
वह मुकदमें के सिलसिले में गाँव राधेश्याम से मिलने गाँव गया। वहाँ उसने अपने बारे में सब कुछ राधेश्याम को बताया। जब राधेश्याम को मालूम हुआ कि उसकी सरकारी नौकरी लग गई है तो उसके दिमाग में कुछ चलने लगा, एक तो शहर में रहने का पक्का ठिकाना होगया है दूसरे उसे अपनी साली की शादी के लिए अपने छोटे चचिया ससुर याद आए।
उस जमाने में अदालतें इतनी बेईमान नहीं थीं, आदमी भी इतना बेईमान नहीं था लोग धार्मिक थे। कोर्ट में गाँव वालों के सर्पोट और शिवाअधार के कोर्ट में गंगाजली न उठाने पर शिवाअधार मुकदमा हार गए और रामप्रकाश को उसका हिस्सा मिल गया। रामप्रकाश की खेती का सरकारी बंटवारा भी होगया। रामप्रकाश को शिवाअधार के घर में आधा हिस्सा मिला लेकिन उसने वहाँ मकान न बनवा कर राधेश्याम के मुहल्ले में मकान बनवाया।
राधेश्याम ने अपने चचिया ससुर को बुलाया और उनसे उनकी बेटी की शादी के लिए रामप्रकाश को सुझाया। पढ़ा-लिखा सरकारी नौकरी में लगा हुआ लड़का और क्या चाहिए वह फौरन तैय्यार होगए। राधेश्याम उनको लेकर रामप्रकाश के पास पहुँचे। चूँकि राधेश्याम रामप्रकाश की खेती देखते थे और जब भी रामप्रकाश गाँव जाता राधेश्याम के यहाँ रुकता और उन्हीं के यहाँ भोजन भी करता था, उसके ऊपर राधेश्याम का प्रभाव तो था ही, दूसरे राधेश्याम का निकट संबंधी होना भी उसके हित में था, उसने हाँ कर दी और राधेश्याम की चचेरी साली के साथ रामप्रकाश का विवाह तय होगया, उस शादी में शिवाअधार और उसका परिवार शामिल नहीं हुआ और उन्होंने राधेश्याम से भी अपने संबंध समाप्त कर लिए।
रामप्रकाश का जीवन चल निकला। शिवाअधार को बड़ा झटका लगा, पंद्रह बीघे जमीन का इस तरह निकल जाना शिवाअधार को पच नहीं रहा था, उसने वकीलों से राय लेकर रेवेन्यू बोर्ड में मुकदमा दायर कर दिया। रामप्रकाश के पास सम्मन आया, रामप्रकाश ने अपने पहले वकील से संपर्क किया, उसका केस समझा हुआ था उसने उसका जवाब लगा दिया। शिवाअधार की रामप्रकाश की खेती पर कब्जा करने की इच्छा पूरी नहीं हुई। रामप्रकाश तो इलाहाबाद में रहता ही था पर शिवाअधार को अब परेशानी हो रही थी। तारीखों पर तारीखें पड़ रहीं थी पर कोई हल नहीं निकल रहा था। लोग बताते हैं कि दीवानी के मुकदमे में पीढ़ियां बीत जाती हैं पर फैसला नहीं होता है।
शिवाअधार को पंद्रह बीघे खेत हाथ से निकल जाने का बड़ा मलाल था, दिन रात उनके दिमाग में पंद्रह बीघे खेत चलते रहते थे। राधेश्याम को देख कर वह हमेशा कुढ़ते रहते, उसको वह रामप्रकाश से बड़ा दुश्मन मानते थे क्योंकि यदि उसने रामप्रकाश को सहारा न दिया होता तो शायद उसकी खेती न जाती। उनकी पत्नी उन्हें हर तरह से समझाती पर शिवाअधार के ज्ञान में कुछ चढ़ता ही नहीं। शिवाअधार की बढ़ती उम्र और निरंतर अत्यधिक चिंतन से उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ और इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते उनकी मृत्यु हो गई।
शिवाअधार के लड़कों को मुकदमें में अपने पिता की जगह अपना सब्सीट्यूशन कराना पडा, फिर रामप्रकाश के पास सम्मन आए फिर रामप्रकाश ने अपने वकील से जवाब लगवाया। तारीखों पर तारीखें, न तो रामप्रकाश को कुछ हासिल हो रहा था और न रामअधार के लड़कों को। रामअधार के न रहने पर उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी काफी ढीली हो गई थी। मुकदमा परिवार पर अनावश्यक बोझ था। यह बात अब शिवाअधार की पत्नी की समझ में खूब आने लगा था। अतीत में रामप्रकाश के प्रति अपने व्यवहार को याद कर उसकी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं होती थी। एक दिन जब उसके बड़े लड़के राकेश ने उससे कहा,‘अम्मा यह मुकदमा कब खत्म होगा? अब तो इसका खर्चा बहुत भारी पड़ रहा है।’
‘बात तो तुम्हारी ठीक है, यह दीवानी है, जाने कब तक मुकदमा चले कुछ ठीक नहीं है।’
‘इस तरह तो हम बरबाद हो जाएंगे, फिर जमीन तो चाचा की है ही, वह तो हमें मिलेगी नहीं, फिर मुकदमा लड़ने से क्या फायदा?’
राकेश की बात सुन कर शिवाअधार की पत्नी सोचने लगी, फिर अपने राकेश से बोली,‘तुम बिल्कुल ठीक कहते हो, जमीन तो रामप्रकाश की ही हैं, एक बार वह मुकदमा जीत भी चुका है, तुम ऐसा करो तुम इलाहाबाद जा कर रामप्रकाश से मिल कर यह मुकदमा खत्म करने की बात करो।’
‘यह बात तुम काहे नहीं करती हो।’
‘मेरा उसके साथ व्यवहार ठीक नहीं था, मुझे नहीं लगता है कि वह मेरी बात मानेगा।’
‘क्या वह मेरी बात मान लेगें?’
‘हाँ मान लेगा, वह आदमी खराब नहीं है,हमीं लोग अपने स्वार्थ मे अंधे थे।’
राकेश रामप्रकाश के यहाँ गया। उसकी की आशा के बिपरीत राकेश ने उसका स्वागत किया और उसके आने का कारण पूछा। राकेश ने कहा,‘चाचा क्या यह मुकदमा खत्म नहीं हो सकता है?’
‘क्यों नहीं हो सकता है?’
‘फिर चाचा इसे खत्म करो।’
‘भाभी क्या चाहती हैं?’
‘उन्होंने ही तो भेजा है।’
‘वह क्यों नहीं आईं?’
‘उन्हें संकोच था।’
‘किस बात का?’
‘उन्होंने बताया कि उनका आपके प्रति व्यवहार ठीक नहीं था, उन्हीं के कारण आपको घर छोड़ना पड़ा।’
‘यह सब बीते समय की बातें हैं, इन्हें याद करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता है, उनसे कहना कि रामप्रकाश को कुछ याद नहीं है, वह मेरे यहाँ आएं, यह भी उन्हीं का घर है। हाँ राकेश तुम आज यहीं रुकना, तुम अपने वकील से बात करके आओ, तब तक मैं भी अपने वकील से बात करके आता हूँ।’
00
राकेश अपने वकील के पास पहुँच कर मुकदमें को खत्म करने की बात कही तो वह उसके ऊपर बिगड़ कर बोला,‘तुम पागल हुए हो क्या? मेरी मेहनत पर पानी फेरना चाहते हो।’
‘आपकी मेहनत,क्या मतलब?’
‘अरे दो-चार महीने में तुम जीत जाओगे, तुम्हें अपना फायदा-नुकसान नहीं दिख रहा है और तुम्हारे पिता जी की इज्जत का क्या होगा? मेरे हिसाब से समझौता करना ठीक नहीं होगा, पहले ठीक से सोच लो फिर समझौते की बात करेंगे।’
राकेश की समझ में खूब समझ में आगया था कि वकील अपने फायदे की बात सोच रहा है, अगर समझौता हो जाएगा तो उसकी हर पेशी की फीस मारी जाएगी। उसने वकील से कहा,‘ठीक है बाबू जी सोच के बताता हूँ।’ इधर रामप्रकाश केे वकील ने भी मुकदमा न खत्म करने को कहा। राकेश के आने पर राकेश ने उससे पूछा, रामप्रकाश ने अपने वकील से हुई सब बातों को बताया। रामप्रकाश ने कहा,‘देखो राकेश, इस मुकदमें मे न तो मेरा लाभ होना है न तुम्हारा, इसमें फायदा होता है बस वकीलों का,मेरे वकील नें भी मुकदमा न खत्म करने को कहा है।’
‘फिर चाचा मुकदमा कैसे खत्म होगा?’
‘बहुत आसान, अब मुकदमा तुम्हारी तरफ से है,तुमको तारीख पर नहीं आना है, बस मुकदमा खत्म।’
‘ठीक है चाचा।’
राकेश चार-पांच पेशी पर नहीं आया, उसका वकील उसके पास खबर भेजता रहा, लेकिन राकेश नहीं आया इस लिए मुकदमा रामप्रकाश के हक में एक्सपार्टी फैसला होगया और अंतहीन दीवानी का अंत होगया।
‘अरे उस समय भी ऐसा था? काॅश बिल्लो के केस में भी ऐसा हो जाता, उसका भी कल्याण हो जाता।’ ऐसा कहते हुए सरजू लाला अपने बेटे के घर के लिए चले गए। पर मेरे लिए सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ गए।
0-0-0
जयराम सिंह गौर
180/12 बापूपुरवा कालोनी,किदवईनगर,
पी.ओ. टी.पी.नगर,कानपुर-208023
मो9451547042, 7355744763
वरिष्ठ कथाकार जयराम सिंह गौर जी की यह ‘मुकदमा’ कहानी लहक में प्रकाशित होने से पहले ही मैंने पढ़ा था। इसे पढ़ते हुए मुझे अपने पिता जी के साथ घटित घटना याद आती रही थी,जिनके 10 बीघे खेतों को उनके सगे भांजे ने उनको मृत होने का हलफनामा देकर लिखा लिया था। आज उनकी कीमत लगभग चालीस करोड़ है। गौर साहब का पात्र जागरूक है। अपने खेतों के लिए भाई और भतीजों से मुकदमा लड़कर खेत वापस पा लेता है लेकिन मेरे पिता जागरूक नहीं थे। कलकत्ता में नौकरी को ही सब मान लिया था और यह कहकर कि भांजा भी बेटा होता खेतों के लिए कोई प्रयास नहीं किया था।
इस अच्छी कहानी के लिए गौर साहब को हार्दिक बधाई।