भीम कहां है?
द्रोपदियों का देश है यह
गत का अब भी परिवेश है यह
घूम रहा दुशासन गली-गली
बदले हुए बस भेष है वह
जल मरने को हैं सतियां
हरण होने को सीताएं हैं
जो यम से भी लड़ जाएं
फिर भी स्त्रियां यहां हैं अबला
कहने को बस मांएं हैं
बना दी गईं लांछनों से पत्थर
कोई पुरुष राम बन आएगा
दिख रहे सभी दुर्योधन से
जो धोए केश रक्त से उसका
भीम कहां है?
बातें !
जिसे झूठ भी
बोलने नहीं आता
वह हाहाकारी सत्य का
सामना कैसे करेगा
कैसे करेगा
मशालों के सामने खड़ा होकर
जलने से बचा लेने की बातें !
कैसे करेगा वह
सन-सन चल रहे पत्थरों से
शीश महल में बैठकर
कांच को टूट कर
बिखरने से बचा लेने की बातें !
जिसके गले में
प्रत्यावर्ती शब्दों की कर्कशता नहीं
वह विष-बुझे आवर्ती शब्द-बाणों से
कैसे करेगा मन को
आखेट होने से बचा लेने की बातें !
कहां गईं
जिनके दम पर
उसकी ताजपोशी हुई थी,
झूठ के जादुई डोर में बंधी बातें !
महाकाल ! महाकाल !
महाकाल ! महाकाल !
झटक झटक झटक बाल
तांडव फिर कर प्रचंड
कामुकता हो खंड-खंड
खोल नेत्र तीसरी
आज अभी इसी घड़ी
जला जला जला डाल
झटक झटक झटक बाल
विषवमनी भावों को
अनहद विपदाओं को
उठ प्रलयंकर भूत कर
जला श्वेत-भभूत कर
रगड़ रगड़ रगड़ भाल
झटक झटक झटक बाल
चेतना के खाल पर
वेदना के ढाल पर
उग रहे हैं रक्तबीज
उठ रुद्र अब तो खीझ
ठोंक ठोंक ठोंक ताल
झटक झटक झटक बाल
डमक डमक डमक बजा
छमक छमक छमक नचा
जगत आ रहा न बाज
विप्लव मचा नटराज
पीट पीट पीट नाल
झटक झटक झटक बाल
भूतनाथ ! भूतनाथ !
उठो उठो भूतनाथ
प्रलय अब जरूरी है
काल-गति अधूरी है
बदल बदल बदल चाल
झटक झटक झटक बाल।
समय
समय किसी
संतरे का छिलका नहीं
कि जब चाहा उधेड़ दिया
और कूड़ेदान के हवाले किया
समय कोई
कटा हुआ नीबू नहीं
कि जब चाहा निचोड़ लिया
और झाड़ी की ओर उछाल दिया
समय वह
जो गदेलियों पर बैठ रहा
पर्त दर पर्त साल दर साल
कलम कुदाल बन्दूक लिए कर्मी के
समय वह
जो काल के पन्ने भर रहा
इतिहास की अमिट-स्याही बन
यथा-कथा लिखता जन्म-मृत्यु तक निरंतर
जटायू
चंद्र सतह पर कल फिर
सहज ही उतरा जटायू
विक्रम और प्रज्ञान पर उसके
जगत अचंभित, हम नहीं
अंतरिक्ष का तो रहा है
भारत पुरोधा आदिकाल से
जाग गए हम आज फिर से
कर रहे कुछ नया नहीं
संपाती भी सूरज तक गया था
फिर हो रहा तैयार वो
गगनयान ले कर निकल
जाने को अगले मिशन पर वहीं
विश्वामित्र ने तो बना दिया था
आकाश से गिरते त्रिशंकु के लिए
एक जो स्पेस स्टेशन नया
याद किसको है नहीं
अंतरिक्ष और ग्रहों के
आकाश गंगाओं में नहा कर
गणित गणना ज्योतिष सिखाते
आर्यभट्ट भी भूले नहीं
मैं लिख रहा हूं
समय के
श्वेतपट पर
निलय के नीचे
बैैठ तरुवरों के पास धरा पर
गत अगत आगत को बुला
अपनी अपनी बातों सहित
अपने अपने विषयों के गट्ठरों संग
उग आए चेहरों पर उनके
कौतुहल उत्साह उत्सव उमंग
मैं लिख रहा हूं
प्रश्न यह नहीं किसको चुन रहा
किसकी सुन रहा हूं
प्रश्न यह भी नहीं
क्या लिख रहा क्यों लिख रहा हूं
सत्य यह है कि लिख रहा हूं
श्याम रातों की कथाएं
दहकते दिनों की व्यथाएं
सांझ ढलने को अतुर
धुंधलातीं उषाएं
मैं लिख रहा हूं
अतीत जीवी हो अथवा
वर्तमान का प्रहरी हो सम्मुख
या हो भविष्य का गोताखोर कोई
सहज हूं असहज किंचित नहीं
अभिव्यक्तियों ने मुझे चुन लिया है
मौलिकता ने मुखरता को
समय एक दिन मेरा परिचय देगा
मैं लिख रहा हूं—–
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डाॅ. एम डी सिंह, गाजीपुर, उत्तरप्रदेश