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Reading: प्रतीक-कविता में नए अर्थ भरता है : गोवर्धन यादव
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Lahak Digital > Blog > Literature > प्रतीक-कविता में नए अर्थ भरता है : गोवर्धन यादव
Literature

प्रतीक-कविता में नए अर्थ भरता है : गोवर्धन यादव

admin
Last updated: 2023/08/19 at 10:32 AM
admin
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24 Min Read
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(परिभाषा)

प्रतीक का अर्थ है” चिन्ह” किसी मूर्त के द्वारा अमूर्त की पहचान. यह अभिव्यक्ति का बहुत सशक्त माध्यम है. अमूर्त का मूर्तन अर्थात जो वस्तु हमारे सामने नहीं है, उसका प्रत्यक्षीकरण प्रतीकों के माध्यम से होता है. मनुष्य अपने सूक्ष्म चिंतन को अभिव्यक्त करते समय इन प्रतीकों का सहारा लेता है. इस तरह ““मनुष्य का समस्त जीवन प्रतीकों से परिपूर्ण है
(२)अथवा-किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ठ चिन्ह को प्रतीक कहते हैं, जो संबंध सादृष्य या परम्परा द्वारा किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है. उदाहरण- एक लाल कोण, अष्टकोण (औकटागौन), रुकिए( स्टाप) का प्रतीक हो सकता है. सभी भाषाओं में प्रतीक होते है, व्यक्तिनाम, व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतीक होते हैं.
प्रयोगवाद के अनन्त समर्थक अज्ञेय ने अपने चिंतन से कविता को नयी दिशा दी. उन्होंने परम्परागत प्रतीकों के प्रयोग पर करारा प्रहार करते हुए शब्दों मे नया अर्थ भरने की बात की. उनकी वैचारिकता से बाद के अशिकांश कवियो ने दिशा ली.और कविताओं में नए रंग भरने लगे. (इससे पूर्व महादेवी वर्मा ने अपनी कविता में “दीपक” को प्रतीक बनाया और एक नए चिंतन, नए आयाम, नए क्षितिज रचे थे.
प्रयोगवाद के के अनन्य समर्थक अज्ञेय की एक छोटी से कविता की बानगी देखिए
उड गई चिडिया
कांपी
स्थिर हो गई पाती
चिडिया का उडना और पत्ती का कांपकर स्थिर हो जाना बाहरी जगत की वस्तुएँ है. परन्तु कवि इस बात को कहना नहीं चाहता. वह इसके माध्यम से कुछ और ही कहना चाहता है. जैसे- किसी के बिछुडने पर मन के आंगन में मची हलचल, बैचेनी, घबराहट, असुरक्षा का भाव आदि का होना. फ़िर मन की हलचलों के शांत हो जाने के बाद की प्रतिक्रिया को वे बाहरी वस्तु जगत की वस्त्यों के लेकर एक प्रतीक रचते हैं.
यथार्थ के धरातल पर यदि हम चीजों को देखें तो लगता है कि कहीं जडता सी आ गयी है. हमारी अनुभूतियां, संवेदनाएं, यदि यथार्थपरक भाषा में संप्रेषित हो रही हैं, तो सपाटबयानी सा लगता है. दरअसल हम जो कहना चाहते हैं वह पूरी तरह से संप्रेषित नहीं हो पा रहा है…कुछ आधा-अधूरा सा लगता है. यदि वही बात हम “प्रतीक” के माध्यम से कहते हैं तो वह उस बात को नए अर्थों में खोलता सा नजर आता है. दूसरे शब्दों में कहें कि मनुष्य अपने सूक्ष्म चिंतन को अभिव्यक्त करते समय प्रतीकों का सहारा लेता है. इस तरह मनुष्य का समस्त जीवन प्रतीकों से परिपूर्ण है. और वह प्रतीकों के माध्यम से ही अपनी बात को सोचता है. वैसे भी भाषा के प्रत्येक शब्द किसी न किसी वस्तु का प्रतीक-चिन्ह ही होते हैं. सामान्य शब्द का अर्थ जब तक वह सार्थक एवं प्रचलित रहता है- विभिन्न व्यक्तियों एवं विभिन्न प्रसंगों में भिन्न-भिन्न हो जाता है. “प्रतीक” की विवेचना करते हुए डा. नगेन्द्र कहते हैं कि, ”प्रतीक” एक प्रकार से रुढ उपमान का ही दूसरा नाम है, जब उपमान स्वतंत्र न रहकर पदार्थ विशेष के लिए रुढ हो जाता है तो “प्रतीक” बन जाता है. इस प्रकार प्रत्येक प्रतीक अपने मूल रुप में उपमान होता है. धीरे-धीरे उसका बिम्ब-रुप संचरणशील न रहकर स्थिर या अचल हो जाता है. डा. नामवरसिंहजी भी मानते हैं कि, बिम्ब पुनरावृत्त होकर “प्रतीक” बन जाता है.
उदाहरण स्वरुप= प्रयोगवाद के अनन्य समर्थक अज्ञेय की की एक कविता “सदानीरा” सादर प्रस्तुत है.
’ “सबने भी अलग-अलग संगीत सुना इसकी
वह कृपा वाक्य था प्रभुओं का
उसको आतंक/मुक्ति का आश्वासन
इसको/वह भारी तिजोरी में सोने की खनक
उसे/बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सौंधी खुशबु
किसी एक को नई वधू की सहमी-सी पायल ध्वनि
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी
एक किसी जाल-फ़ांसी मछली की तडपन
एक ऊपर को चहक मुक्त नभ में उडती चिडिया की
एक तीसरे को मंडी की ठेलमठेल,ग्राहकों की अस्पर्धा भरी व
चौथे को मंदिर की ताल युक्त घंटा-ध्वनि
और पांचवे को लोहे पर- सधे हथौडॆ की सम चोंटें,
और छटे की लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की
अविराम थपक
बटिया पर चमरौंधों की संघी चाप सातवें के लिए
और आठवें की कुलिया की कटी मेंड से बहते जल की
इसे नमक…की एडी के घुंघरु की
उसे युद्ध का ढोल
इस संझा गोधूली कर लघु-चुन-दुन
उसे प्रलय का डमरुवाद
इसको जीवन की पहली अंगडाई
असाध्य वीणा में बिम्ब और प्रतीकों की जो गहन गहराती ध्वनि है वह बाद की कविता में दुर्लभ होती गई है.. इस देश की पूरी परम्परा और रीति-रिवाजों का और इस देश के भूभाग का विस्तृत अध्ययन अगर आपको करना हो तो यह कविता आपको वह सब बतला सकती है, जो बडॆ-बडॆ साहित्यकारों, इतिहासकारों और नृत्तत्वशास्त्रियों के बस का नहीं है,.देश केवल भौगोलिक मानचित्र पर बना देश नहीं होता, वह उस देश के असंख्य जीव-जंतुओं का भी होता है.
अज्ञेय की एक नहीं बल्कि अनेक कविताएं–मसलन-रहस्यवाद, समाधिलेख, हमने पौधे से कहा, देना जीवन, जितना तुम्हारा सच है, हम कृती नहीं है, मैंने देखा एक बूंद, नए कवि से, दोनो सच है, कविता की बात, पक्षधर, इतिहास बोध, आदि कविताएं हैं, जिनमें दर्शन या विचार अनुभूति की बिम्बभाषा में पूरी तरह आत्मसात हो जाते हैं.
अज्ञेय की एक कविता “कलगी बाजरे की’ की बानगी देखिए
“अगर मैं तुमको
ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता
या शरद के भोर की नीहर-न्हायी-कुंई
टटकी काली चम्पे की
वैगरह तो
नही कारण कि मेरा हृदय उथलाया कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है
बल्कि केवल यही
ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है.
(२) नदी के द्वीप
हम नदी के द्वीप हैं
हम नहीं कहते कि हमको छॊडकर स्त्रोतस्विनी बह जाए
वह हमें आकार देती है
हमारे कों,गलियाँ, अंतरीप,उभार,सैंकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढी हैं
माँ है वह ! है उसे से हम बने हैं……मातः उसे फ़िर संस्कार तुम देना

यह पूरी कविता बिम्बों और प्रतीकों से सम्प्रेषित कविता है… एक विचार है. इससे पहले हिन्दी में एक रुढ मान्यता यह रही है कि आधुनिक काव्यभाषा बिम्बधर्मा होती है और वक्तव्य उससे अकाव्यात्मक चीज है, लेकिन नई कविता के शीर्ष कवि और सिद्धांतकार अज्ञेय ने महज इस कविता में ही नहीं बल्कि अपनी अनेक कविताओं में प्रतीक-बिम्ब और वक्तव्य की परस्पर अपवर्ज्यता को अमान्य किया है. कई दौरों में लिखी गई कविताएँ=जैसे= रहस्यवाद, समाधि-लेख, सत्य तो बहुत मिले, हमने पौधे से कहा, देना जीवन, अकवि के प्रति कवि, हम कृती नहीं है, मैंने देखा एक बूंद ,नए कवि से, चक्रांत-शिला, पक्षधर, कविता की बात आदि कविताओं में निःसन्देह कुछ ऎसी कविताएं है, जिनमे दर्शन, अनुभूति की बिम्बभाषा अपनी संपूर्णता के साथ समाए हुए हैं.
अपनी विचार-कविता (भवन्ती-१९७२) में वे लिखते हैं
“विचार कविता की जड में खोखल यह है कि विचार चेतन क्रिया है जबकि कविता की प्रक्रिया चेतन और अवचेतन का योग है, जिसमें अवचेतन अंश अधिक है और अधिक महत्वपूर्ण है……”विचार कविता” का समर्थक यह कहे कि उसमें एक स्तर रचना सर्जना का है, साथ ही दूसरा स्तर है जिसमें कल्पना से प्राप्त प्राक-रुपों बिम्बों में चेतन आयास से वस्तु या अर्थ भरा गया है, तो वह उस प्रकार की कविता को अलग से पहचानने में योगदान देगी, पर यह आपत्ति बनी रहेगी कि यह दूसरा स्तर तर्क-बुद्धि का स्तर है, रचना का नहीं. अर्थात “विचार कविता” कविता नहीं, कविता विचार है और ऎसी है तो उसकी “कविता” पर विचार करने के लिए “उसके विचार” को अलग देना होगा या [रसंगेतर मान लेना होगा.”
देश और प्रदेश के ख्यातिलब्ध कवि श्री चन्द्रकांत देवतालेजी ने जातीय जीवन में व्याप्त क्रूरता और निरंकुशता को महसुस करके लिखी गई कविता “उजाड में संग्रहालय” की अन्तिम कविता का शीर्षक है=”यहाँ अश्वमेघ यज्ञ हो रहा है”. आज के घटित यथार्थ से मुठभेड की कविता. इसमें अश्वमेघ का घोडा और घण्टाघर की सार्वजनिक घडी “प्रतीक” बनकर वातावरण और ज्यादा तनावपूर्ण बनाते हैं. बरसों पहले मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” भी एक शोभा यात्रा का वृतांत आया था, यहाँ भी है
जिस शोभा यात्रा में पिछलग्गुओं की भीड थी कित्ती
उसी का तो उत्तरकाण्ड इस महापंडाल में
नहीं,नहीं इस महादेश में भी
हर तरफ़ “अंधेरे में” का उत्तरकाण्ड
तब तो बस एक था डॊमाजी उस्ताद
अब तो देखो जिसे वही वही वही…
हर दूसरा काजल के बोगदे में
तीसरा तस्कर मंत्र-जाप करता
चौथा आग रखने को आतुर बारुद के ढेर पर
और पहला कौन है क्या सत्तासीन अथवा बिचौलिया
बिका हुआ सज्जन
पाँचवा-छठा-सातवां फ़िर गिनती के बूते के बाहर संख्या में
शामिल होते हैं अन्दर जाते हैं—बाहर जाते हैं
पवित्र गन्ध से आच्छादित है नगर का आकाश
जिसका नगर कोई नहीं जानता
यहाँ अश्वमेघ यज्ञ हो रहा है (पृ.१५०)

विश्व विख्यात कवि श्री विष्णु खरे की एक कविता सिलसिला (“सब की आवाज के पर्दे में” संग्रह से)
कहीं कोई तरतीब नहीं
वह जो एक बुझता हुआ सा कोयला है
फ़ूँकते हुए रहना है उसे
हर बार राख उडने से
जिससे भौंहे नहीं आँख को बचाना है
वह थोडा दमकेगा
जलकर छॊटा होता जाएगा
लेकिन कोई चारा नहीं फ़ूँकते रहने के सिवा
ताकि जब न बचे साँस
फ़िर भी वह कुछ देर तक सुलगे
उस पर उभर आई राख को
यकबारगी अंदेशा हो लम्हा भर तुम्हारी साँस का
अंगारे को एक पल उम्मीद बँधे फ़िर दमकने की
इतना अंतराल काफ़ी है
कि अप्रत्याशित कोई दूसरी साँस जारी रखे यह सिलसिला

इस कविता में कोयला एक प्रतीक है. उसमें धधकती आग को जलाए रखना जरुरी है ताकि उस पर रोटियाँ सेकी जा सके. देश में व्याप्त गरीबी-मुफ़लिसी-बेहाली-तंगहाली को बयां करती यह कविता अन्दर तक उद्वेलित कर देती है.

विश्व विख्यात कवि श्री लीलाधर मंडलोई की कविता की बानगी देखिए

पहले
माँ चाँवल में से कंकर बीनती थी
अब
कंकड में से चाँवल बीनती है.
यहाँ कंकड गरीबी का और चाँवल अमीरी का प्रतीक है. घर में जहां कभी सम्पन्नता थी, अब वहाँ गरीबी का ताण्डव है. दोनो ही परिस्थितियों को उजागर करती यह कविता आत्मा को हिलाकर रख देती है.

अपनी कविताओं में प्रतीक का उपयोग करने श्री अरुणचंद्र राय की एक कविता की बानगी देखिए.
“शर्ट की जेब/होती थी भारी/सारा भार सहती थी/कील अकेले
नए बिम्बों के प्रयोग में संदर्भ में इस कविता को देखें. उन्होंने कील को प्रतीक के रुप में लिया है. कील का विशिष्ठ प्रयोग यहां एक मानवीय संवेदना की प्रतिमुर्ति बनकर सजीव हो उठी है. जड-बेजान कील यहां कील न रहकर सस्वर हो जाती है.- एक नए अर्थ से भर उठती है. अपनी अर्थवत्ता से विविध मानसिक अवस्थाओं –आशाओं, आवेग, आकुलता, वेदना, प्रसन्नता, स्मृति, पीडा व विषाद आदि के मार्मिक चित्र उकेरती है.
कविता को पढते ही एक चित्र हमारी आंखों के सामने थिरकने लगता है. कील पर जो पिता की कमीज टंगी है, उस टंगी कमीज में निश्चित ही जेब भी होगी. और जेब है तो उसमें पैसे भी होंगे. वे कितने हो सकते है, कितने नहीं, इसे बालक नहीं जानता. संभव है वह खाली भी हो सकती है लेकिन उसके मन में एक आशा बंधती है कि जेब में रखे पैसों से चाकलेट खरीदी जा सकती है, पतंग खरीदी जा सकती है. और कोई खिलौना भी लिया जा सकता है. यह एक नहीं अनेक संवेदनाओं को एक साथ जगाता है. लेकिन बच्चा नहीं जानता कि उस जेब के मालिक अर्थात पिता को कितनी मुश्किलों का सामना करना पडा होगा, अनेक कष्टॊ को सहकर उसने कुछ रकम जुटाई होगी और तब जाकर कहीं चूल्हा जला होगा और तब जाकर कहीं वह अपने परिवार का उत्तरदायित्व संभाल पाया होगा.
अपने आशय को साफ़ और सपाट रुप में प्रस्तुत करने के बजाय कवि ने सांकेतिक रुप से उस मर्म को, बात की गंभीरता.को मूर्त जगत से अमूर्त भावनाओं को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया है.
शाश्वत सत्य की व्यंजना प्रस्तुत करना हो तो वह केवल और केवल प्रतीकों के माध्यम से की जा सकती है. ऎसा किए जाने से अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्तरीयता की संभावनाएं बढ जाती है
शंकरानन्द का कविता संग्रह “दूसरे दिन के लिए” एक नए तरह के प्रतीक और बिम्ब के जरिए प्रभावित कर देने वाला काव्य-लोक है. छोटी-छॊटी कविताएं अपने विन्यास में भले ही छोटी जान पडॆ, पर अपनी प्रकृति में अपनी रचनात्मक शक्ति के साथ, चेतना को स्पर्ष करती है और बेचैन भी. बानगी देखिए
माँ चुल्हा जलाकर बनाती है रोटी या छौंकती है तरकारी कुछ भी करती है कि उसमें गिर जाता है पलस्तर का टुकडा फ़िर अन्न चबाया नहीं जाता पलस्तर एक दुश्मन है तो उसे झाड देना चाहिए मिटा देना चाहिए उसे पूरी तरह
डा रामनिवास मानव की काव्य रचनाओं में, वे कविता, दोहा, द्विपदी, त्रिपदी, हायकू आदि में से चाहे किसी भी विधा की क्यों न हो, प्रतीकों का सुदृढ एवं सार्थक प्रयोग करते हैं. प्रतीकों के माध्यम से वे ऎसा बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, जिनमे यथार्थ हो, प्रतिभासित हो ही जाता है. पाठक की कल्पना भी अपना क्षेत्र विस्तृत करने के लिए विवश हो जाता है. उनकी एक जानदार कविता है-“शहर के बीच”. इसकी बानगी देखिए
जब भी निकलती है बाहर कोई चिडिया घोंसले से बाज के खूनी पंजे दबोच लेते हैं उसे.
यहां बाज और चिडिया का प्रयोग बहुआयामी है. बाज-प्रशासक, शोषक या आतंकवादी कोई भी हो सकता है. चिडिता- जनता शोषित या आतंकवाद का शिकार, कुछ भी हो सकता है.
इनकी काव्य रचना में दिन-रात, घटा-बिजली, बाघ-भेडिये, बन्दर-भालू, कौवे-बगुले, गिद्द-गिरगिट, फ़ूल-कांटे अदि न जाने कितने प्रतीक आते है और पूरी अर्थवत्ता के साथ आते हैं.
एक बानगी देखिए- कौवे,बगुले,गिद्द यहाँ हैं/ सारे साधक सिद्ध यहाँ है
डा. मानव की एक और रचना देखिए जिसमें प्रेमचंदजी का गाँव है. गाँव है तो उसमे होरी है, गोबर है. गरीबी है, मुफ़लिसी है, अभाव है, भूख है, मजबूरियां है. इतनी सारी बातें मात्र तीन लाइन मे कवि अपने अन्तरमन की बात,- अपने मन की पीडा कम से कम शब्दों में “प्रतीकों” के माध्यम से कह जाता है.
प्रेमचंद के गाँव मे (२) भाग्य खिचता डोरियाँ पडी है आज भी बेडियाँ होरी तडपे भूख से है होरी के पाँव में गोबर ढोता बोरियाँ देश में नेताओ, दलालों, अफ़सरों आदि के कारनामे और व्ववस्था में आई गिरावट और विसंगतियों को देखकर वे लिखते हैं
धूर्त भेडिये/ और रंगे सियार/करते राज (२) भालू के बाद बन्दर की बारी है तभी देश समूचा /लगे जंगल राज राजनीति के मंच पर घटिया प्रदर्शन जारी है.
मंगलेश डबराल की एक कविता (स्मृति से साभार)
रात भर हम देखते हैं
पत्थरों के नीचे
पानी के छलछला का स्वपन
यहाँ पत्थर कठोरता, पानी का छलछलाना करुणा का प्रतीक है.

श्रीकांत वर्मा “हस्तिनापुर” से साभार
संभव हो
तो सोचो
हस्तिनापुर के बारे में
जिसके लिए
थोडॆ-थोडॆ अंतराल में
लडा जा रहा है महाभारत. (यहाँ हस्तिनापुर प्रतीक है सत्ता का)

मंगलेश डबराल की एक कविता की बानगी देखिए.

मेरे बचपन के दिनों में
एक बार मेरे पिता एक सुन्दर सी टॉर्च लाये
जिसके शीशे में गोल खांचे बने हुए थे जैसे आजकल कारों कि हेडलाईट में होते हैं
हमारे इलाके में रोशनी कि वह पहली मशीन
जिसकी शहतीर एक चमत्कार कि तरह रात को दो हिस्सों में बाँट देती थी।
एक सुबह मेरी पड़ोस की दादी ने पिता से कहा
बेटा इस मशीन से चूल्हा जलाने कि लिए थोड़ी सी आग दे दो

पिता ने हंसकर कहा चाची इसमें आग नहीं होती सिर्फ उजाला होता है
यह रात होने पर जलती है
और इससे पहाड़ के उबड़-खाबड़ रास्ते साफ दिखाई देते हैं

दादी ने कहा बेटा उजाले में थोडा आग भी रहती तो कितना अच्छा था
मुझे रात को भी सुबह चूल्हा जलाने की फ़िक्र रहती है
घर-गिरस्ती वालों के लिए रात में उजाले का क्या काम
बड़े-बड़े लोगों को ही होती है अँधेरे में देखने की जरूरत
पिता कुछ बोले नहीं बस खामोश रहे देर तक।
इतने वर्ष बाद भी वह घटना टॉर्च की तरह रोशनी
आग मांगती दादी और पिता की ख़ामोशी चली आती है
हमारे वक्त की कविता और उसकी विडम्बनाओं तक इसमें टार्च केवल एक प्रतीक भर है, लेकिन इसके भीतर से कितने कोलाज बनते हैं और एक नया अर्थ यहां देखने को मिलता है,
(२) चाहे जैसी भी हवा हो /यदि हमें जलानी है अपनी आग/ जैसा भी वक्त हो/ इसी में खोजनी है अपनी हँसी/ जब बादल नहीं होंगे/ खूब तारे होंगे आसमान में / उन्हें देखते हम याद करेंगे/ अपना रास्ता.
यहाँ हवा परिस्थितियों की प्रतीक है, आग क्रांति की और बादल परेशानियों का.
गोवर्धन यादव की एक कविता
(शेरशाह सूरी के घोडॆ से साभार)
पत्र पाते ही खिल जाता है
उसका मुरझाया चेहरा
और बहने लगती है एक नदी हरहराकर
उसके भीतर.

(इसमे घोडॆ प्रतीक है जो उजाड और नीरस जीवन में खुशियां लाते है औरजिनके आते ही वह प्रसन्नता से भर उठती है

(२ मेरे अन्तस में बहती है एक नदी
ताप्ती
जिसे मैं महसूसता हूँ अपने भीतर
जिसकी शीतल, पवित्र और दिव्य जल
बचाए रखता है,मेरी संवेदनशीलता
खोह,कन्दराओं,जंगलों और पहाडॊं के बीच
बहती यह नदी
बुझाती है सबकी प्यास
और तारती है भवसागर से पापियों को
इसके तटबंधों में खेलते हैं असंख्य बच्चे
स्त्रियाँ नहाती हैं
और पुरुष धोता है अपनी मलीनता
इसके किनारे पनपती हैं सभ्यताएँ
और, लोकसंस्कृतियाँ लेती है आकार
लोकगीतों और लोकधुनों पर
मांद की थापों पर
टिमकी की टिमिक-टिमिक पर
थिरकता है लोकजीवन (यहाँ नदी एक प्रतीक के रुप में आती है) ०
पुलिस महानिदेशक श्रीविश्वरंजनजी की एक कविता की बानगी देखिए

वह लडकी नही पूछती है (२) आसमान से बाजारी शमशीर
यह सब अब खतरनाक तरीके से
वह आँखें नीची रखती है काट रही थी हवा को
उसने खुद को बचा रखा है ऊर्जारहित, शक्तिहीन,तेजस्वितारहित
बडॆ-बुजुर्गों के आदेशानुसार वह एक भारी झूठ-सा गडा रहा दलदल में
आदिम बलि के लिए बाजार की मार झेलने के लिए/वह बेचारा आदमी
वह लडकी सचमुच बडी हो गई
हर भारतीय कस्बे की लडकी की तरह (३) मैं जानता हूँ बहुत गरीबी है
और मैं जानता हूँ बहुत मुफ़लिसी है, यहाँ दर्द है,तडपन है..
बहुत अंदर से हार गई है. चलो बाहों में बाहें डाल अपने अपने न बोले जाने वाले सत्यों और अनुभूतियों के/
साथ घूम आयें क्षितिजों से पार
डा.बलदेव कि कविता की एक बानगी
पॆड छायादार, पेडॊं की संख्या में एक पेड और
बच्चा पूछ रहा- माँ कहाँ है ?
वृक्ष में तब्दील हो गयी, औरत के बारे में
मैं क्या कहूँ, कैसे कहूँ, वह कहाँ है
युवा कवि रोहित रुसिया की कविता की एक बानगी
सहेज लेना चाहता हूँ जब मिलेंगे हम दोनो
अपने पिता की तस्वीर के साथ किसी ने कुछ भी नहीं कहा
थोडा सा धान और कुछ गेहूँ की बालियाँ तुम आयीं, बहने लगा झरना
कि भरपूर हाईब्रीड के जमाने भी तुम मुस्कुरायीं
मेरी आने वाली पीढियाँ महसूस कर सकें खिल गए सारे फ़ूल
अपनी जडॊं की महक मैं चुपचाप महसूस करता रहा
वसन्त अपने भीतर

उपरोक्त कविताओं के माध्यम से हमने देखा की “प्रतीक” के माध्यम से हम अपने आशय को साफ़- सपाट रुप में प्रस्तुत करने की जगह सिर्फ़ सांकेतिक रुप में अर्थ की व्यंजना करते हैं तो हमारे कहन में अर्थ की गहनता, गंभीरता तथा बहुस्तरीयता बढ जाती है और साथ ही कविता का सौंदर्य भी. बस यहाँ ध्यान दिए जाने की जरुरत है कि कि कविता की विशिष्ट लय बाधित नहीं होनी चाहिए.


गोवर्धन यादव, छिंदवाड़ा,

 

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