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Lahak Digital > Blog > Literature > कलम आज उनकी जय बोल … डॉ. श्यामबाबू शर्मा
Literature

कलम आज उनकी जय बोल … डॉ. श्यामबाबू शर्मा

admin
Last updated: 2023/08/14 at 4:10 PM
admin
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16 Min Read
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                      हिमालयं समारभ्य यावत् इंदु सरोवरम् |

                       तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते ||

ऋग वेद के ब्रहस्पति अग्यम में कहा गया है कि हिमालय पर्वत से शुरू होकर भारतीय महासागर तक फैला हुआ ईश्वर निर्मित देश है-हिंदुस्तान, यही वह देश है जहाँ ईश्वर समय-समय पर जन्म लेते हैं और सामाजिक सभ्यता की स्थापना करते हैं। एक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय आधुनिक युग की घटना है लेकिन भौगोलिक दृष्टि से भारत एक इकाई के रूप में बहुत पहले से मौजूद रहा है। इस भौगोलिक क्षेत्र में बाहर से विभिन्न जातियों का आवागमन निरंतर होता रहा है। इतिहास में बहुत पीछे ना भी जायें तो इतिहासकार यह मानते हैं कि ईसा के तीन हजार से डेढ़ हजार साल पहले के दौर में मध्य एशिया से जो लोग आए और जिन्हें आर्य कहकर जाना गया वे सबसे पुराने ज्ञात समूह थे जो इस धरती पर बसे। हालांकि यहां इससे पहले भी कई जातियां रह रही थीं। इन्हीं में वे लोग भी थे जिनके अवशेष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले थे। आर्यों के आगमन के बाद भी कई जातियां-समूह इस धरती पर आते रहे। इनमें शक, हूण, यवन, मंगोल आदि प्रमुख हैं। इनमें से अधिकांश जातियां यहीं बस गईं और यहाँ की संस्कृति में घुलमिल गईं। आज उनकी अलग से पहचान करना बहुत मुश्किल है। लेकिन इस बात को स्वीकार करना होगा कि पहले से रह रही जातियों के साथ घुलने-मिलने की प्रक्रिया में उन्होंने एक-दूसरे से काफी कुछ लिया-दिया होगा।

यूरोप से आने वाले यहां व्यापार करने आए थे। यहां का कपड़ा और दूसरी वस्तुएँ वे यूरोप में बेचते थे। बाद में यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति ने स्थितियों को बदल दिया और वे यहाँ से कच्चा माल निर्यात करने लगे और वहाँ के कारखानों में बना माल यहाँ बेचने लगे। भारत में व्यापार के इरादे से आने वाले सिर्फ अंग्रेज ही नहीं थे वरन् फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच लोग भी थे। लेकिन अंग्रेजों की तुलना में वे भारत के बहुत छोटे से हिस्से पर ही अधिकार जमाने में कामयाब हो सके। प्लासी के युद्ध में सिराजुदौला के परास्त होने के साथ ही भारत पर अंग्रेजी साम्राज्य की नींव पड़ गई। उन्होंने अपने को राजनीतिक रूप से ही मजबूत करना शुरू नहीं किया बल्कि प्रशासनिक रूप से भी मजबूत करना जरूरी समझा। इसके लिए उन्होंने प्रशासन का वही ढाँचा यहाँ स्थापित किया जो उनके देश में कायम था। अंग्रेजों ने लगभग पूरे भारत पर अधिकार कर लिया और भारत को अपना उपनिवेश बनाने में कामयाब रहे। 1857 से पहले तक भारत पर ब्रिटेन का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत था जो एक व्यापारिक कंपनी थी इस कंपनी की अपनी सेना थी और इसने भारत की विभिन्न रियासतों के साथ संघर्ष और समझौते की नीति पर चलते हुए अपने पाँव जमाने शुरू किए। 1857 तक इस कंपनी का शासन लगभग पूरे भारत पर हो गया था। जो रियासतें सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं थीं, उनके साथ भी अंग्रेजों ने कई तरह के समझौते कर रखे थे जिसके तहत वे इन राज्यों का इस्तेमाल युद्ध के दौरान अपने पक्ष में करने में कामयाब होते थे।

विदेश में बने माल को बेचने के लिए जरूरी था कि भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को नष्ट किया जाए। भारत के किसानों और शिल्पकारों को अपने परंपरागत रोजगार से अलग किया जाए। अंग्रेजों ने यही काम किया। शिक्षा, विधि, नागरिक सेवाएँ आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने यहाँ की प्रणाली को लागू किया। और भारतीयों के बीच हीन भावना पैदा करने की कोशिश की। भारतीयों के बीच इसकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। धर्म और अध्यात्म का वह क्षेत्र जिसमें हम दूसरों की तुलना में सदैव श्रेष्ठतर रहे हैं; के  दर्शन ने उस आंदोलन की शुरुआत की जिसे हम आज नवजागरण के रूप में जानते हैं। इसी ने लोकतंत्र, समानता और बंधुत्व के दर्शन से भारतीयों को परिचित कराया। यही नहीं उन्होंने प्राचीन भारतीय साहित्य और इतिहास में से इस दर्शन के अनुकूल बातें भी खोज निकाली। यही वह पृष्ठभूमि है जिसने भारत में नवजागरण और स्वाधीनता के आंदोलन को संभव बनाया। अंग्रेजी शासन से आजिज जनमानस गरीबी और भुखमरी से हलकान था। तत्कालीन शिक्षा का उद्देश्य केवल सरकारी तंत्र को मजबूत करना और लाभान्वित करना था। किसान अपनी उपज का लाभ नहीं उठा पाते थे और मजदूर को भरपेट भोजन भी मयस्सर नहीं था। हताश-निराश युवा विदेशी साम्राज्य के शोषण का लगातार शिकार हो रहा था। परिणामस्वरूप साहित्य में राष्ट्र प्रेम, देशभक्ति के स्वर गूँजे। राष्ट्रीय चेतना की भावना साहित्य में स्वर और सुर के रूप में प्रवाहित होने लगी।

हम जानते हैं कि देश भक्ति का उद्वेलन कभी समर्पण तो कभी आंदोलन का रूप धारण कर लेता है, जिससे व्यक्ति के स्वत्व से लेकर राष्ट्र तथा देश की स्वतंत्रता और समानता की सुरक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण तक के भाव समाविष्ट होते हैं। जनमानस में राष्ट्रीय चेतना को उत्तेजित तथा सुदृढ़ करने के पुनीत कार्य में इस साहित्य सदैव अग्रणी की भूमिका रही है। इसलिए राष्ट्र निर्माण में साहित्य की अति महत्वपूर्ण भूमिका है। किसी भी देश का साहित्य वहाँ की राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों के परिणामस्वरूप बनता व बदलता है। ज्यों-ज्यों   परिस्थितियाँ बदलती  हैं हमारा साहित्य   भी  उसी   के   अनुरूप   नया   रूप लेने   लगता है। भारत का अतीत बड़ा ही समृद्ध और वैभवपूर्ण रहा है। भारत की सभ्यता एवं संस्कृति भी बहुत प्राचीन है। स्वदेश धर्म का निर्वहन मातृभूमि के प्रति अपार लगाव, राष्ट्रीयता से ओतप्रोत निडर कलम निश्चित ही कालजयी हो जाती है। साहित्यकारों ने स्वाधीनता संग्राम के समय जहां एक ओर भारत के स्वर्णिम अतीत से लोगों की आस्था जगाने का प्रयास किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों का खुलकर विरोध भी किया। इन रचनाकारों का स्वर उदात्त देश प्रेम और बलिदान की भावना का रहा है। यह कलमकार जेल भी गए। राष्ट्र निष्ठा की प्रतिष्ठा ही इनके साहित्य का ध्येय था। देश की पराधीन बेड़ियों को आंसुओं या याचना से नहीं काटा जा सकता था उसके लिए पुरुषार्थ और बलिदान ही आवश्यक थे। देश में व्याप्त अन्याय अनीति और अत्याचार को समाप्त कर स्वचिंतन सुव्यवस्था के लिए जनमानस को उनके अधिकारों के प्रति जिजीविषा का संचार करना कलमकारों का महती उद्देश्य था। राष्ट्र चेतना एवं क्रांति के संवाहक के रूप में स्वाधीनता का साहित्य विशेष महत्व रखता है। निश्चित ही यह एक वैचारिक क्रांति का द्योतक था। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर उन रचनाकारों और शब्द साधकों को रेखांकित करना हमारा दायित्व भी है और कर्तव्य भी।

अंग्रेजी शासन का कठोर नियंत्रण क्रूर नीति का दृश्य तत्कालीन साहित्य में स्पष्ट दृष्टिगत होता है। अंग्रेज सरकार ने अपने स्वार्थ के लिए जो परिस्थितियाँ उत्पन्न की उनसे राष्ट्रीय भावना स्वतः ही विकसित होती चली गई।  सम्पूर्ण भारतीय जनता स्वराज्य प्राप्त करना चाहती थी। पूरे समाज में आक्रोश विद्रोह की भावना, राष्ट्र के प्रति चेतना, स्वराज्य की भावना जाग्रत हो रही थी। जन सामान्य में राष्ट्र के प्रति जाग्रत प्रेम और अनुराग के कारण ही स्वराज्य प्राप्ति की कामना उत्पन्न हुई। फलस्वरूप जनता राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग ले रही थी। तत्कालीन समाज देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत था। उस समय भारतीय समाज राष्ट्रीय प्रेमानुराग एवं आत्मोसर्ग की भावना से भरा हुआ था। साहित्य, अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्ध बिगुल फूँकने का कार्य कर रहा था। युवाओं में राष्ट्र के प्रति अनुराग, भक्ति, प्रेम जाग्रत हुआ जिसके कारण वे अंग्रेजों के विरूद्ध संघर्ष हेतु प्रस्तुत हुए। सभी स्वदेशी अपनाने लगे थे तथा विदेशी वस्तुओं की होलियां जलाई जा रही थीं। लोगों में देश के प्रति अनुराग और हिलोरें लेने लगा। भीड़ नारे लगाती हुई जगह-जगह एकत्रित हो रही थी-भारत छोड़ो!! भारत माता की जय!!इन्कलाब जिन्दाबाद!! चारों ओर नारे ही नारे सुनाई पड़ रहे थे।  सम्पूर्ण भारतीय जनता स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए लालायित थी। लाखों लोग, बच्चे, बूढ़े, नर-नारी, व्यापारी, नौकर सम्पूर्ण जनसमूह एकत्रित होकर स्वतंत्रता संघर्ष में उतर गये। राष्ट्र के प्रति आत्मोत्सर्ग करने में देश के प्रत्येक व्यक्ति ने अपना योगदान दिया। लिहाजा राष्ट्र का प्रत्येक वर्ग, समुदाय तथा सम्पूर्ण समाज स्वतंत्रता की लड़ाई में पूर्ण रूपेण संलग्न हुआ। और राष्ट्रानुराग की इस भावना को साहित्य ने सफल रूप में व्यक्त किया।

उस समय संचार के साधन नाम मात्र के थे ऐसे में साहित्य ने अंग्रेजों के विरुद्ध एकजुट होकर समाज को इनके प्रतिकार में खड़े होने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रचार प्रसार और उन आन्दोलनों की कामयाबी में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही। कई पत्रों ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रवक्ता का रोल निभाया। समाचार पत्रों के मालिक और संपादक जानते थे कि वे अंग्रेजों की  तोपों का मुक़ाबला कर रहे हैं इसके लिए उन्हें जुर्माना,जेल और मृत्यु दंड के साथ ही उनके परिवार को भी यातनाएं दी जा सकती हैं। पत्रकार मूलतः स्वयं को जनता का प्रतिनिधि मानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए थे। वे देशभक्त थे। देश के समक्ष सभी अवरोधों, प्रतिरोधों एवं बाधक विचारों का खंडन उनका उद्देश्य था। क्रूरता, अन्याय, क्षोभ, विरोध, क्लेश एवं गतिरोध उनकी दिनचर्या थी, फिर भी वे अटल थे, अडिग थे, क्योंकि उनके समक्ष एक लक्ष्य था। पत्रकारिता के अग्रदूतों का लक्ष्य अपनी लेखनी और विचारों के जरिए भारतीय संस्कृति, मूल्य, प्रतिमान और सारगर्भित विचारों की विरासत को सहेजना और एक सामर्थ्यवान भारत का स्वप्न था। राष्ट्रवादी संपादकों, पत्रकारों एवं लेखकों ने अपने संपादकीय, लेखों और खबरों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिलानी शुरु कर दी। उनका लक्ष्य ब्रिटिश पंजे से भारत को मुक्ति दिलाना ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता बाद एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज का निर्माण करना भी था।

स्वतंत्रता आंदोलन के लिए राजनेताओं को जितना संघर्ष करना पड़ा, उससे तनिक भी कम संघर्ष कलमकारों को नहीं करना पड़ा। बुद्धिजीवी, ऋषियों की मौन साधना, तपस्या और त्याग इतिहास की धरोहर है, जिसे मात्र साहित्य तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि स्वतंत्रता की बलिवेदी पर आहूति करनेवालों को शृंखलाबद्ध समूह के रूप में भी माना जाना चाहिए। लोक साहित्य की स्वीकार्यता लोगों तक बिल्कुल सीधे थी। स्वाधीनता की क्रांति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूँज लोक साहित्य में भी सुनाई पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित  करने में प्रमुख भूमिका निभाई। घर-घर में आजादी की चिंगारी सुलगी हुई थी। जहां पुरुष वर्ग घर से बाहर अपना योगदान दे रहा था वही महिलाएं भी अपनी भूमिका का निर्वहन करने में पीछे न थीं। स्त्रियां भी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार को आत्मसात कर अपने वस्त्र और सौंदर्य प्रसाधनों में भी स्वदेशी को वरीयता देने के लिए तत्पर थीं। साड़ी न पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा देउ। देसी चुनरिया देसी ओढ़निया देसी लहंगवा सिला देउ हो पिया देसी मंगा देउ। साड़ी न पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा देउ।  देसी चोली देसी रोली देसी ही रंग में रंगा देउ हो पिया देसी मंगा देउ।  साड़ी न पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा देउ।

यह आंदोलन स्व के अस्तित्व की खोज था, अनुसंधान था। स्व के पुनर्जागरण था सृजन था। भारत की विभिन्न भाषाओं की समृद्ध परंपरा ने यहां के सामाजिक, नैतिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र को हमेशा संबल दिया है और सभ्यता, जीवन-मूल्य तथा परंपरा की रक्षा की है। इसने प्राणि मात्र के मानस पटल पर राष्ट्रीयता की भावना को सुदृढ़ एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया है। प्रस्तुत ग्रंथ  में अवधी, उर्दू, असमिया, उड़िया, कन्नड़, कश्मीरी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, बघेली, बुंदेलखंडी, बांग्ला, निमाड़ी, मणिपुरी, मराठी, मलयालम, मैथिली, संथाली, संस्कृत, सिंधी, हिन्दी सहित कश्मीर से कन्याकुमारी तक की विविध भाषाओं के साहित्य और उनके लोक साहित्य, लोक बोलियों लोक गीतों के साथ-साथ क्रांतिकारी साहित्य, प्रवासी साहित्य, नाटक-रंगमंच, सिनेमा और हिन्दी साहित्य की विविध विधाओं इत्यादि के माध्यम से स्वाधीनता के प्रति जो बिगुल फूंका गया उसका दस्तावेजीकरण ही नहीं वरन उन अनछुए प्रसंगों का शोध अनुशीलन-भी है जो अभी तक अनुद्घाटित रहे हैं। सभी भारतीय भाषाओं के साहित्य में एक असाधारण समानता है । यह समानता पूरे  देश में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति भावनाओं एवं विचारों की व्यापक एकात्मता दर्शाती है। इसने लोगों को प्रेरणा दी कि आपसी मतभेद और भय दूर करके अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति और देश की गरिमा की रक्षा करें। विदेशी शासन की असलियत को ऐसी भाषा में पेश किया गया जिसे लाखों भारतीय तुरंत समझ सके और उससे प्रेरणा प्राप्त कर सके।

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के पवित्र अनुष्ठान पर देश की अस्मिता और अस्तित्व के आख्यान को राष्ट्र के सम्मुख रखना ही इस ग्रंथ का उपजीव्य है। उन तथ्यों विचारों, प्रसंगों को सामने लाना आवश्यक है जिनके माध्यम से हम जान सके कि भारत को आजादी कितने लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त हुई। समाज जब तक अपने अतीत से परिचित नहीं होगा ना तो उसे वर्तमान का भान हो सकेगा और न ही वह अपने भविष्य को गढ़ सकेगा। कहते हैं- एक आदमी क्या कर सकता है? मैं मानता हूँ कि एक आदमी क्या नहीं कर सकता है!  बापू एक थे। नेता जी एक थे…। विश्वास है कि यह कोठरियों में कैद हमारे स्वर्णिम इतिहास-संस्कृति भाषाई वैभव की परख का विकल्प बनेगी। सुख है, संतुष्टि है माँ भारती को राष्ट्र के बहुभाषाई वाङ्मय के इस पुष्प गुच्छ को समर्पित करते हुए। गर्व है हमें उस भारत भूमि में जन्म लेने का जिसका गुणगान मनुष्य तो क्या देवता भी करते हैं।

गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।

स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्।।

जय हिन्द। जय माँ भारती।

————————-

डॉ. श्यामबाबू शर्मा, शिलांग, मेघालय

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