अख़बार
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अख़बार पढ़ते हुए अचानक लगा
कि मैं नहीं
अख़बार मुझे पढ़ रहा है
अख़बार का पहला पन्ना
अब पहला पन्ना नहीं होता
जैसे होकर भी पहला नागरिक
पहला नहीं
अख़बार में चेहरा धंसाए मैं
असहज सा हो गया
जैसे होता होगा कोई चौरीचौरा निवासी
कनाट प्लेस के ज़मींदोज़
वातानुकूलित बाज़ार में गमछा ख़रीदते
कई गुना दाम बढ़े बिना भी
इतना मंहगा हुआ जा सकता है
कि छूते झिझक लगे
जैसे अख़बार
इन दिनों अख़बार पर रख कर रोटी खाओ
तो फोटो से आवाज़ आती है
भाइयों और बहनों !
अपने पेट पर हवाई जहाज उतारती
छ:-छ: गलियां सड़कें दिखीं अख़बार में
तापमान की चेतावनी भी
मगर कटे पड़े पेड़ कहीं नहीं
न पसीने से तर नदी
लड्डू गोपाल का बुखार नापता डाक्टर ज़रूर दिखा
अख़बार पढ़ते अचानक मुझे लगा
कि मैं सोलह पृष्ठों में लपेटा जा रहा हूँ
काइनात की तरह नहीं
क़नात की तरह
घूर रही अख़बार की लीड पढ़ते
इन दिनों लगा कि ख़बरों के पीछे से
आंखों में आंखें डाल झांक रहा पत्रकार का चेहरा
मेरा चेहरा ख़बरों में कहीं नहीं
हंसते खिलखिलाते किसान चेहरे दिखे
मई दिवस भी दिखा
मगर धर्मपुर लेबर चौराहे पर बिकाऊ मजदूर
कहीं नहीं
इन दिनों अख़बार पढ़ते मुझे लगा
कि मैं ख़बर नहीं
डिजिटल सम्पादक की मजबूरी पढ़ रहा हूँ
क़लम कूंच दी गई है जिसकी
पैकेज की ईंट से
मगर कोई राजेन्द्र माथुर नहीं दिख रहा
जो कूंची हुई क़लम को कूची बना ले
इन दिनों अख़बार पढ़ते मुझे लगा
कि विज्ञापन को ख़बर की तरह पढ़ा जाना चाहिए
मैं सीख रहा हूँ
ख़बर को विज्ञापन की तरह पढ़ना इन दिनों
(2)
इतिहास का सपना
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रात सपने में दिखा इतिहास !
कपड़े इतने ढीले-ढाले कि समा जाएं
एक साथ कई इतिहास
रंग इतने चटक कि तथ्य हो जाएं रंगीन
विह्वल इतना
कि बह जाए ‘इति’ रह जाए ‘हास’
नाक जैसे घोड़े पर बैठा कोई फ़क़ीर
होंठ थोड़े विरूपित
बस उतने
जितना ‘जय श्री राम’ के लिए ज़रूरी हो
एक आंख में गोरी की लाश
दूसरे में पृथ्वीराज की तलवार से टपकता लहू!
ठुड्डी
जैसे निर्माणाधीन संसद का कबाड़
प्रवासी मज़दूरों से पात झरे गाल
अम्बेडकर की उंगली
होंठों पर चिपकाए
दिखा इतिहास सपने में आज
गांधी के टूटे दांतों वाले चेहरे सा भयानक
बटन होल में सूखे गुलाब की तरह ऐतिहासिक
डर गया मैं
इतना कि डर के मारे
कमरे की खिड़कियां बंद कीं
दरवाजे़ की चिटकनी दुबारा
एक घूंट बोतलबंद गंगा हलक से उतारी
और इतिहास से ध्यान हटाने के लिए मोबाइल में
मौसम ढूंढने लगा
जैसे कोई ढूंढता है रोज़गार
दुबारा कोशिश की
बहुत कोशिश की
पर नींद
विड्राल की लिमिट क्रास कर चुकी थी
(3)
मैं हिन्दू हूं
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इतना हिंदू तो हूं ही कि मंदिर से लौटी
पत्नी के प्रसाद देने पर उसे माथे से छुआ कर ग्रहण करूं
पूजा-पाठ न सही
पर्व-त्यौहार पर गोड़ रंगा लूं
पियरी में रहूं टाई न बांधू
इतना हिंदू तो हूं ही कि पंडित जी की
सुेंदुर-अच्छत सनी मध्यमा के आगे सर पर हाथ रख कर माथा आगे कर दूं
नहीं मानता गाय को मां
पर काटो तो याद आए उसका दूध
मेरे हिंदू होने में इतनी प्रगतिशीलता बची है
कि किसी की फ़्रीज की तलाशी का विरोध करूं
खाए जिसको जो पसंद
पर बीफ़ खाने का सामूहिक प्रोपेगंडा क्यों ?
पोर्क खाने की कोई बड़बोली प्रगतिशील पोस्ट
क्यों नहीं डालता कोई
तौबा ! तौबा !
मगर बीफ़
वकअप !
हिंदू हूं पर इतना हिंदू नहीं
कि न कहने पर भड़क जाऊं
देशद्रोही मान लूं
पर इतना हिंदू तो हूं ही कि वंदेमातरम् से परहेज़ पर
दुखी होऊं
इतना आज़ाद ख़याल भी नहीं कि आज़ादी को
चीवर बना दूं
ग़ुलामी को गलदोदई
प्रगतिशीलता को चिढ़ौनी
हिंदू हूं पर ऐसा हिंदू भी नहीं
कि जय श्रीराम की चिकोटी काटूं
हिंदू हूं पर इतना कट्टर नहीं कि
मुंह में पेशाब की तरह श्री राम घुसेड़ दूं
पीट-पीट कर जान ले लूं
उतना हिंदू नहीं हूं
जितने की आपको सरकार बनाने
चलाने गिराने की दरकार है
पर उतना हिंदू तो हूं कि हिंदुत्व को
पागल हाथी बनते देख दुखी होऊं
मैं हिंदू हूं
और अस्तित्व आस्था अस्मिता के सवाल को
हिंदुओं के लिए भी ज़रूरी समझता हूं
इतना कम हिंदू भी नहीं कि देवेन्द्र आर्य की जगह
अपना नाम दानिश अरशद रख लूं
इतना कुटिल हिंदू भी नहीं
कि दानिश अरशद को देवेन्द्र आर्य बनने पर
मजबूर करूं ।
(4)
कबीर दास की लाइब्रेरी
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किताबें किसी को क्या से क्या बना देती हैं
नाना पुराण निगमा
पत्थर पढ़ ले तो बहने लगे
नदी पढ़ ले तो झील बन जाए
मगर बिना किताब का मुंह देखे
कोई कबीर बन जाए
कैसे सम्भव है ?
इत्ती इत्ती सी बात बताने वाले
किसी न किसी बहाने अपनी लाईब्रेरी की चर्चा करते हैं
और इ कबीर !
अनपढ़ होने की सार्वजनिक घोषणा !
कहीं यह कपड़ों से पहचान छुपाने का मामला तो नहीं
जुलाहे के भेस में
या शायद कबीर समझ चुके थे
कि आम जनता आलिम फ़ाज़िलों से दहशत खाती है
पांव लगी करके किनारे
अमल का तो प्रश्न ही नहीं उठता
साधारण का सम्मान
अनपढ़ के ज्ञान का भान
ज्ञान की सादगी का संज्ञान
कबीर ले चुके रहे होंगे
सो उन्होंने बुड़बक बने रहने का फैसला किया
ज्ञान प्रदर्शन के लोभ से मुक्त
भजन युक्त हुए होंगे कबीर
बाद में जिसकी नकल गांधी ने की
यह सब क्या बिना किताब सम्भव है ?
जीवन से अच्छी कोई किताब नहीं में भी ‘किताब’ है न !
इसलिए शंका होती है कि कबीर दास की
अपनी कोई समृद्ध लाइब्रेरी ज़रूर रही होगी
वे भी रैदास की तरह किताबों के दास रहे होंगे
वैसे भी वह समय
लाइब्रेरी फूंकने वालों का नहीं था
किताबें बिना कमीशन सम्मान पाती थीं
दरबार में अच्छी कविताएँ बिना हिन्दू मुसलमान
दलित सवर्ण सराही जाती थीं
तो बाबू कबीर दास
ई अजन भजन आधो साधो की तान के पहले
और बाद में कूटनीतिक रूप से
किताबों से जाकर हाथ ज़रूर मिलाते रहे हों
वरना उनकी बात का अर्थात जानने के लिए
इतने शोध !
इतनी किताबें !
कबीर की खर पतवारी भाषा पर इतनी माथा पच्ची !
अब तक किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया
सब उल्टीबानी
भीगे कम्बल बरसे पानी के आकर्षकण में
कबीरवाद पर रगड़ घिस्स करते रहे
कोई जात खोजता रहा कोई पात
कोई उनके राम का उद्गम
मूलाधार की खोज हुई ही नहीं
मुझे लगता है
जल्दी ही साहित्य का कोई उत्खननजीवी
कबीर दास की गुप्त लाईब्रेरी के
पुरातात्विक सबूतों के साथ आएगा
और मसि कागद छूयो नहीं के रहस्य का सच बताएगा
किताबी ज्ञान से वंचित लोग
किताब-पढ़े को छू कर ज्ञानी हो सकते हैं कि नहीं
यह कबीर दास की गुप्त गोदावरी वाली
लाइब्रेरी से पता चल जाएगा
(5)
काव्य-यात्रा
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राजा ने कहा
जागीर ले कविता लिख
ज़मीर सोता रहा मैं लिखता रहा
कबीर ने कहा
जीवन करघा है
मैं करघे पर कविता बुनता रहा
कविता मेरी लुआठी थी
रैदास ने कहा
करतब की अंकुसी में सांसों का डोरा है जीवन
मैं जूते गांठता रहा कविता की तरह
मेरी कठवत का पानी गंगा बन गया
बस गया बेगमपुरा
तुलसी ने कहा
मांग के खा मसीत में सो
कविता लिख
मैंने कविता की पंजीरी गदोरी-गदोरी बांट दी
क्षुधित मन
तृप्त मानस
आज लाखों का रोज़गार
करोड़ों का बिजनेस
गांधी ने कहा
चर्खा चला प्रेम कात
मैं सूत से शब्दों के तन ढकता रहा
ग़रीबी का पेट पालता
कविता लुआठी से लाठी बन गयी
न डूबने वाला डुबकी मारने लगा
पार्टी ने कहा
ख़र्च की चिंता हमारी
क़लम तुम्हारी
जागरण के बहाने वोट बन गयी मेरी कविता
चौकीदार ने गाँव वालों से कहा
थोड़ा सुस्ता लो भाई !
और भेड़िये हाथ में नींद की मशाल थामें निकल पड़े
सरकार ने कहा
पैकेज ले कविता लिख
अमर हो जा
मुझे लगा ई-कचरा से बेहतर है
कविता को कंठ बना देना
लम्बी काव्य यात्रा में ज़िन्दगी को परखता
जन-गरल गले में रख लिया मैंने
आज मेरे पास सब है
कविता नहीं तो क्या!
(6)
सो गईं क्या तुम ?
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आख़िर इतना नाराज़ क्यों हूं मैं
सो ही तो गईं थीं तुम रात
बिना मुझे सुलाए
रात तो वही थी
रोज़ वाली
मगर तुम्हारे लिए सोने के लिए
मेरे लिए सुलाने के लिए
तो क्या अब नींद भी मोहताज़ है खाने कपड़े के अलावा
कि तब तक न आए तुम्हें
जब तक मैं न चाहूं
तुमने दवा ली थी नींद की
सो गईं
बिना मेरी नींद को थपकी दिए
नींद की माती भूल गईं कि मेरी नींद की दवा तो तुम हो !
पर रात गई
बात क्यों नहीं गई ?
आख़िर इतना स्वार्थी क्यों हूं मैं
कि रात करवटें बदलते चाहता रहा
कि ख़लल पड़े तुम्हारी नींद में
तुम जाग जाओ
पर जगाने का इल्ज़ाम मुझ पर न आए
अजीब ज़बरदस्ती है
नींद मुझे न आए और चाहूं कि तुम जागती रहो
मुझे एहसास है कि एहसास है तुम्हें
अपने सो जाने से अधिक त्रासद
मेरे न सो पाने का
पर रात गई
बात क्यों नहीं गई ?
मैं जानबूझ कर क्यों नकार रहा हूं
तुम्हारी उपस्थिति
जागने के साथ ही मनौवल की मुद्रा में मौन
घर को मकान बनने से बचाने में लगी हो तुम
मेरा आंखें चुराना तुमसे
तुम्हारे मौन को गाढ़ा कर रहा है
ये दिन इतना लम्बा क्यों हैं
शिकायत की तरह ?
सिमट क्यों नहीं जाता घर चौके समेत
बिस्तर में
एक बोसे की तरह
ॲंकवार में भर क्यों नहीं जाता मीलों लम्बा अबोलापन
पता है मुझे कि नहीं देखी जा रही तुमसे
मेरी उदासी
मेरी चुप्पी तुम सुड़क रही हो भीतर-भीतर
ख़ुद को दोषी ठहराते
हम चाय पीते साथ-साथ
खिलखिला भी तो सकते थे सुबह सुबह
रात बर्बाद हुई के एहसास से
दिन को तो बचा सकते थे
चुहुल कर सकते थे आंखों में आंखें डाल
अपने बूढ़े होते जाने को ठुनकियाते
कल की उबासी के लिए कह सकते थे एक ‘साॅरी’
और एक ‘कोई बात नहीं’
बस !
जानता हूं
नींद तुम्हें नहीं आएगी आज रात
बिना मुझे सुलाए दो रातों की नींद
भले ही मैं कितना भी याद दिलाता रहूं तुम्हें
‘दवा खा ली है न !’
(7)
मणिपुर
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मणिपुर किस ग्रह में पड़ता है भाई ?
मणिपुर उस ग्रह में है
जहाँ महिला दिवस मनाये बिना
पूरी नहीं होती तीन सौ पैंसठ की गिनती
मणिपुर कौन से देश में है भाई ?
मणिपुर उस देश में है
जहाँ समूची धरती माँ होती है
मणिपुर कौन से क्षेत्र में है भाई ?
मणिपुर उसी क्षेत्र में है जहाँ औरतें
मजबूरी की स्वेक्षा से नंगी होकर
सेना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करती हैं
किस धर्म के माननेवाले है मणिपुरी ?
मनीपुरी उसी धर्म के अनुयायी हैं
जहाँ नारी देवी है
शक्ति स्वरूपा है स्त्री
पांव पखारे जाते हैं जहाँ कन्या के
मणिपुर किस समाज का हिस्सा है भाई ?
मणिपुर उसी समाज से है
जहाँ औरतें निर्भय निवस्त्र होकर
हल चलाती हैं बादलों के सीने पर
उस रात कोई बलात्कार नहीं होता खेतों में
मणिपुर में कौन सा तंत्र है भाई ?
मणिपुर में लोकतंत्र है
जहाँ एक ही वोट का अधिकार सबको है
सरकार बनाने के लिए
पुरुष हो या महिला
सामान्य हो या आदिवासी
मणिपुर में किसकी सरकार है भाई ?
शी ऽ ऽ ऽ !!
यह ख़तरनाक सवाल है
बचो इससे
मेरठ में किसकी सरकार थी
और भागलपुर में
और कश्मीर में
और दिल्ली में
और और और……. ?
सरकारें सब पुरुष होती हैं
औरतों की कोई सरकार नहीं होती भाई
मणिपुर में भी नहीं
(8)
बारिश
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ढंक दो
पानी भींग रहा है बारिश में
ठंड न लग जाए
बरस रहे हैं पेड़ हज़ारों पत्तों से
भींग रही है हवा झमाझम खोले केश
छींक न आए
निर्वसन नदी तट से दुबकी दुबकी लगती
बादल अपनी ओट में लेके चूम रहा है बांह कसे
चोट सह रही हैं पंखुड़ियां
पड़ पड़ पड़ पड़ बूंदों की
अमजद खां के स्वर महीन पड़ते सरोद पर
जाकिर के तबलों की थापें
बारिश है ले रही अलापें बीच बीच में भीमसेन सी
गंध बेचारी भींग न जाए इस बारिश में
बहुत दिनों के बाद खेलतीं बैट-बाल
गलियां सड़कों पर उतर आई हैं
तड़ तड़ तड़ तड़ बज उठती बूंदों की ताली
बिजली चमकी
या चमका है सचिन का बल्ला
या गिर गया सरक के पल्ला स्वर्ण कलश से
बोल रही है देह निबोली भीगी भीगी
सिहर उठे मौसम के सपने
ढंक दो
यह काला चमकीलापन शब्दों का
खुरच न जाए इस बारिश में
ढंको ना ढंको झोपड़ियों को
लेकिन ढंक दो बहुमंजिला रिहाइश को
बिल्डिंग सरक न जाए नींव से अपने
सरक गए धुटनों के जैसे
(9)
कविता को प्यास होना चाहिए
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पेड़ नहीं कहता
कि मैं पृथ्वी का फेफड़ा हूँ
कविता को पेड़ होना चाहिए
नदी नहीं कहती कि मैं प्यार हूँ
प्रवाह जीवनदायिनी
ऊर्जा संकेत
मैं ने सींचे हैं सभ्यताओं के खेत
कविता को नदी होना चहिये
हवा नहीं कहती
कि मैं न रहूँ तो उठ नहीं सकतीं आंधियाँ
अग्नि-बीज अंकुरित नहीं हो सकते
पसीना सूखता है तो मेरे दम
कविता को हवा होना चाहिए
हवाई नहीं
चिराग कभी दावा नहीं करते
कि उनकी मुठभेड़ अंधेरों से है
कविता चिराग का मौन है
जयकारा नहीं
जीभ, स्वाद के व्याकरण पर
विमर्श नहीं करती
कविता को मनुष्यता का स्वाद होना चाहिए
तृप्ति से सीखती है कविता
प्यास की भाषा
कविता को प्यास होना चाहिए
(10)
बाज़ार
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जिसका कोई न हो
उसका बाज़ार होता है
अटपटा लगेगा आपको
मगर सच यही है
कि ऐन मौक़े पर ख़ुदा नहीं बाज़ार काम आता है
कहने को बेटी बेटा हैं भी
तो बैरी पइसवा के मारे रहते परदेस
बहुत हुआ तो भेज दिया कोरियर से
बुके संदेश
अगर नहीं हैं
तो बात ही ख़त्म
नाता-बात रिश्तेदार अपना देखें
कि आपका
एक बाज़ार है अकेला
जो हर समय आस पास रहता है आपके
रखता है साबका रोज़मर्रा का
विज्ञापनी बधाई संदेश भेज
आपकी मनहूसियत तोड़ता है बाज़ार
आदमी और चाहता क्या है
यही न कि कोई तो याद करे
फ़ोन पर दौड़ा चला आता है बाज़ार
मौक़े बेमौक़े
बहुत हाय तौबा मचा रखी थी कवियों ने
कि बाज़ार आंगन में घुस आया
देखो देखो घुस आया घर में
रहते थे एक कमरे में
कविता में चिंता थी आंगन में घुसते बाज़ार की
अब कोई नहीं गरियाता
सब ने प्लाट मकान लिया तो बाज़ार के नज़दीक
समझ में आ गया फंडा
कि जिसका कोई नहीं
उसका बाज़ार होता है
हाँ मगर बाज़ार उसी का होता है
जिसके पास पैसा हो
पैसा न हो तो बाज़ार क्या औलाद नहीं पूछती
कोई और न था
बाज़ार तो था न हमारा ‘डे’ मनाने को
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* देवेन्द्र आर्य
ए-127, आवास विकास कालोनी, शाहपुर, गोरखपुर -274006 मोबाइल : 7318323163