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Lahak Digital > Blog > Literature > राकेश भारतीय की कहानी : “काम”
Literature

राकेश भारतीय की कहानी : “काम”

admin
Last updated: 2023/07/31 at 3:24 PM
admin
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14 Min Read
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दरवाजे तक पहुँच कर लल्लू ठिठका। तभी सिर झुकाये-झुकाये कुछ गुनगुनाता आ रहा एक नौकरनुमा छोकरा दरवाजे से बाहर निकला और बिना उसकी ओर नज़र डाले पीछे हाथ फेंकते हुए बोला – “जाइये, जाइये। महफ़िल लगी हुई है।” कुछ क्षणों तक किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहने के पश्चात लल्लू ने दरवाजे का पल्ला हल्के से खोलने की कोशिश की।
दरवाजा खुलकर झटके से वापस बंद हो जाता था। जब तक यह प्रक्रिया लल्लू को समझ में आयी, वह दूसरी ओर पहुँच चुका था।

सामने आठ-दस लोग गोल घेरा बनाकर बैठे हुए नज़र आये। आँखें और ठीक से स्थिर हुईं तो लल्लू को बीच की बड़ी सी गोल मेज पर रखी बड़ी सी बोतल भी लोगों की संख्या के बराबर गिलासों से घिरी हुई नज़र आ गयी। तरह-तरह के स्पष्ट-अस्पष्ट शब्दों से कमरा गूँज रहा था और बैठे हुए लोगों की श्रवणेंद्रियों में जैसे उसके अंदर घुसने की आहट दर्ज ही न हुई। बेवकूफ़ों की तरह वह खड़ा-खड़ा ही चारों ओर नज़रें दौड़ाता रहा पर वहाँ बैठे लोगों की नज़र उसकी ओर घूमी ही नहीं।
कुछ बेहद असहज मिनटों के बाद उसके मन में आया कि कहीं वह कुमार साहब के बताये पते के बजाय कहीं और तो नहीं पहुँच गया है। यह विचार आते ही वह और असहज होने लगा।
अब उसके नथुने शराब की गंध से त्रस्त भी होने लगे थे।

उन लोगों में से काया तथा भंगिमा से सर्वप्रमुख लग रहे व्यक्ति के मुँह से जोर से
“कहाँ मर गया – – – -” उच्चारित हुआ नहीं कि लल्लू के सामने अंदर से बाहर निकला वह नौकरनुमा छोकरा वापस अंदर घुसा और उससे लगभग टकरा ही गया।
अब सारे लोगों की नज़रें एकसाथ लल्लू पर केंद्रित हो गयीं।
घबड़ाकर लल्लू के मुँह से निकला – “मैं आया हूँ – – – – -”
“आइये”,”आइये” कहते हुए कुछ लोग उससे मुख़ातिब हुए। तब भी उसे अपनी जगह से न हिलता देख कर एक खल्वाट व्यक्ति हाथ से अपने दाहिने खाली पड़ी जगह दिखाते हुए बोल पड़ा – “आइये, इधर बैठिये।”
अपनी दुखने लगी टाँगों को समेट कर लल्लू तुरंत वहाँ बैठ गया। उसके बैठते ही छोकरे ने एक गिलास उसके सामने रख दिया। लल्लू ने पहले गिलास और फिर नौकर को घूरा और झटके से बोला –
“मैं – – – नहीं। मैं नहीं पीता।”
उसके इतना कहते ही “कहाँ मर गया – – – – – – – – – – – – -”
उच्चारित कर छोकरे को बुलाने वाले व्यक्ति को सम्बोधित कर दाहिने हाथ की चारों अंगुलियों में अंगूठी डाले एक व्यक्ति ने हाथ नचाते हुए कहा –
“ये तो समस्या पैदा हो गई, दीवान साहब!”
“ओह्, यही दीवान साहब हैं!” लल्लू डर गया कि इन्हीं से मिलने आया था और कहीं इनको नाराज़ कर वह बताने से पहले ही अपना काम न बिगाड़ बैठे।
“मैं आपसे ही मिलने आया था, साहब। माफ़ी चाहता हूँ, मैं नहीं पीता। मैंने ज़िंदगी में कभी शराब को हाथ – – – – -”
दीवान साहब की त्यौरियाँ चढ़ गयीं, जैसे अच्छे-खासे पेग में मक्खी टपक पड़ने से उपजे क्रोध की लहर अंदर उठ रही हो।
बैठे हुए बाकी सुराप्रेमी मेजबान की दिलदार मेहमाननवाज़ी में पड़े इस खलल से आशंकित-अचंभित से हुए आँखों-आँखों में एक-दूसरे से मशविरा करने लगे।
कुछ असहज क्षणों तक चुप्पी बनी रही तो उनमें से एक विनोद के लहज़े में बोल पड़ा –
“अर्ज किया है –
गिलास छोड़ कर आँखों से पीने लगे बेहोश क्या – – – – –
हाथ से इशारा कर कवि कुतुकानंद को रोकते हुए दीवान साहब ने छोकरे की दिशा में देखा।
खाली-अधखाली गिलासों को एक राउंड भर चुकने के बाद वह लल्लू के ठीक बगल में अगले आदेश की प्रतीक्षा में कमर अकड़ाये खड़ा था।
“यहाँ कोई भी बिना पिये नहीं बैठ सकता। ये शायद पहली बार आये हैं यहाँ। इनके गिलास में कोई शरबत ही बनाकर भर दो।”
मालिक का स्पष्ट आदेश मिलते ही छोकरा कमरे से और अंदर जाने वाले दूसरे दरवाजे की ओर बढ़ लिया।
जैसे इस अल्पकालिक व्यवधान को पीने-पिलाने के दीर्घकालिक आनन्द का परे फेंका जा चुका बेजायका हिस्सा समझते हुए सुराप्रेमी लोग वापस सुरूर में आने लगे। शब्द पर शब्द, वाक्य पर वाक्य उछलने लगे। जुमले को जुमला काटने लगा, ठहाके से ठहाका ताल मिलाने लगा।
लल्लू ने लगभग कट ही चुके पट्टे में बमुश्किल फँसी हुई अपनी पुरानी घड़ी में नये सिरे से समय देखा और चिंतित हुआ।
वहाँ बैठे बाकी लोग उसका अस्तित्व ही भुलाये बैठे उस तरल पदार्थ के घूँट ले रहे थे जो सब कुछ भुलाने में मददगार मशहूर है।
उधर लल्लू न भूलने के लिए कटिबद्ध था कि उम्मीदों की राख से करियाये पड़े कलेजे में केशव चाचा के सुझाव से कौंधी आख़िरी इस उम्मीद के केंद्र यही दीवान साहब हैं।

इस घर में शराब के अलावा कोई पेय पदार्थ ढूँढ़ पाना लगभग असम्भव सा काम था। बेमतलब का काम करने की चिढ़ से खदड़-बदड़ करते हुए छोकरे ने आख़िरकार एक अधसड़े नींबू का बेहतर हिस्सा काट कर उसे बेदर्दी से निचोड़ा तथा चीनी-पानी झोंक कर शरबत के सौतेले भाई के रूप में लल्लू के सामने प्रस्तुत कर दिया।

निरन्तर सूखते जा रहे गले के बावजूद लल्लू ने चुस्की का बेहद संक्षिप्त संस्करण अंजाम देते हुए जीभ से शर्बत को छुआ। नींबू जैसा ही कोई स्वाद पाकर वह आश्वस्त हुआ।
“सुड़!”
शब्द पर शब्द, वाक्य पर वाक्य उछल रहे थे।
“सुड़! सुड़!”
शब्द पर शब्द, वाक्य पर वाक्य, जुमले पर जुमला – – – – -”
“सुड़! सुड़! सुड़!”
शब्द पर शब्द, वाक्य पर वाक्य, जुमले पर जुमला, ठहाके पर ठहाका – – – – –
“सू S S S ड़!
अफना कर लल्लू ने खाली गिलास नीचे रखा और निकट बैठे खल्वाट का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हुए बोल पड़ा – सुनिये!”
उसकी फुसफुसाहट जब उन्होंने सुनी ही नहीं तो लल्लू ने और जोर लगाकर कहा –
“सुनिये S S S जरा।”
ज्यादा ही जोर से कही गई बात सारे सुराप्रेमियों की श्रवणेंद्रियों पर ‘ठक्’ से जाकर बज गई।

दीवान साहब की नज़रें लल्लू के चेहरे पर गड़ गयीं। फिर उन्होंने तर्जनी लल्लू के कपाल की दिशा में पिस्तौल की तरह तानते हुए पूछा –
“ये कौन?”
इसके पहले कि कोई और कुछ बोलता लल्लू शताब्दी एक्सप्रेस की रफ़्तार से बोलता गया –
“मैं, लल्लू – – – – यानी लालबहादुर सिंह। गाँव खोरी, जिला मीठापुर का रहने वाला और जंगबहादुर सिंह का बेटा। स्नातक-प्रतिष्ठा पास कर चुका हूँ, कम्प्यूटर पर काम कर सकता हूँ। घर का काम, बाहर का काम, मेज पर बैठ कर करने वाला काम, कोई भी काम करने में मुझे कोई – – – – -”
“ब S S स्स्!” दीवान साहब ने दोनों हाथ उठाकर उसे चुप रहने को कहा तो दाहिने हाथ में फँसी गिलास से कुछ बूँदें उछलीं और उनकी नाक पर टपक गयीं।
सारे सुराप्रेमियों ने बूँदों की बदमाशी को देख कर भी नहीं देखा पर इस छोटे से हादसे के बाद दीवान साहब ने छोकरे को घूर कर देखते हुए लल्लू के गिलास की ओर तर्जनी तान दी।
नौकर की प्रत्युत्पन्नमति का नायाब नमूना पेश करते हुए छोकरा फिर अंदर की ओर भागा और अधसड़े नींबू का बाकी बचा बदतर हिस्सा सिंक में से उठाकर निचोड़ते हुए लल्लू के खाली गिलास की सेवा में शरबत का नाम डुबाने वाला पेय प्रस्तुत कर दिया।
लल्लू का गिलास भरा नहीं कि सुराप्रेमियों ने ‘सामान्य’ होते हुए चेहरों को एक-दूसरे की ओर घुमाया तथा मूक सहमति से वापस अपने-अपने गिलास पर ध्यान केंद्रित किया।
शब्द पर शब्द – – – – –
वाक्य पर वाक्य – – – – –
जुमले पर जुमला – – – – –
ठहाके पर ठहाका – – – – –
लल्लू की आँखें ये सब होने-हवाने के बीच अचंभित से विस्फारित होने की ओर बढ़ रही थीं और उसका कलेजा घड़ी की बढ़ती हुई सुई से ताल मिलाकर तेजी से मुँह की ओर आने के प्रयास में था।
“आखिरी बस छूट जायेगी। मेरी बात बस दो मिनट सुन लें, साहब। मैं कोई भी काम करने – – – – -” अधसड़े नींबू के बदतर हिस्से का सत्व एक साँस में अंदर करने के नतीजे में उपजी झोंक से लटपटाये उसके वाक्य सुराप्रेमियों की श्रवणेंद्रियों पर गोबर से सने थप्पड़ की तरह पड़े तो उनमें से कई के गिलास छलक-छलक गये।
फिर लाल-लाल आँखों को बमुश्किल लल्लू के हुलिये पर केंद्रित करते-करते दीवान साहब अपने ठीक दाहिने बैठे दढ़ियल की ओर मुड़े और उससे पूछ बैठे – “ये कैसे आये यहाँ?”
दढ़ियल के कुछ कहने से पूर्व ही लल्लू फिर शुरू हो गया – “साहब! गाँव के रिश्ते के मेरे चाचा केशवानंद ने मुझे कुमार साहब के पास भेजा। कुमार साहब ने छह महीने तक मुझसे काम करवाया पर मेरा काम बना नहीं। फिर केशव चाचा ने कुमार साहब से बात की किसी और के यहाँ काम दिलवा देने की। फिर कुमार साहब ने छह महीने मुझे दौड़ाया। अब जाकर उन्होंने मुझे आपका पता देकर भेजा है। साहब कहीं का भी काम, कैसा भी काम, बस मुझे काम – – – – -”
इस बीच दीवान साहब से मिले मूक निर्देश के तहत दढ़ियल आहिस्ता से उठा, एक नज़र अपने अब भी आधे भरे गिलास की ओर देखा और लल्लू के पास दुलकी चाल से आकर उसका कंधा थपथपाता हुआ बोला – “आइये, बाहर चलते हैं।”

दरवाजे से बाहर निकलने के पश्चात दढ़ियल बिना कुछ बोले लल्लू के साथ सड़क तक चलता रहा। सड़क आते ही वह लल्लू के कंधे को फिर थपथपा कर बोला – हूँ S S S । क्या काम था आपको दीवान साहब से?”
“साहब, मैं पढ़ा-लिखा होकर बेकार घूम रहा हूँ। घर का काम, बाहर का काम, मेज़ पर बैठ कर करने वाला काम, बाहर दौड़-भाग कर होने वाला काम, मुझे कोई भी काम चाहये।”
“हाँ S S हाँ। हाँ S S हाँ।” दढ़ियल ने मुंडी हिलाकर इतना कहा तो लल्लू ने अपनी घड़ी पर जोर से आँखें गड़ाईं और शताब्दी एक्सप्रेस की रफ़्तार से फूट पड़ा –
“अब मेरी बस छूट जायेगी, साहब। बस मुझे काम चाहिये। कुमार साहब ने दीवान साहब की बड़ी तारीफ़ करते हुए इस पते पर मुझे भेजा था। मेरी आख़िरी उम्मीद यहीं पर टिकी हुई है। घर का काम, बाहर का काम, कोई भी काम। केशव चाचा ने कहा था कि इस शहर में काम तुम्हें – – – – – – – -”
“हाँ S S S हाँ। हाँ S S S हाँ। कभी न कभी, कोई न कोई काम मिल ही जायेगा। “दढ़ियल ने लगभग गाने के अंदाज़ में इतना कहकर उसे ऐसे देखा जैसे वापस जाने की जल्दी में हो।
“तो साहब, मैं उम्मीद रखूँ? फिर कब आऊं पूछने? मैंने बताया न आपको कि घर काम। बाहर का काम – – – – -”
“हाँ S S S हाँ। हाँ S S S हाँ। कभी न कभी, कोई न कोई काम मिल ही जायेगा।” इतना कहकर दढ़ियल परेड के ‘अबाउट टर्न’ के अंदाज में वापस मुड़ गया।
बेतहाशा दौड़ते हुए लल्लू ने अंदाज़ लगाया कि बस अब स्टॉप के करीब पहुँचने ही वाली होगी।

बस-स्टॉप पर लल्लू पहुँच तो गया पर वहाँ से आखिरी बस निकल चुकी थी। वह वहीं ‘धम्म्’ से बैठ कर अपने दोनों हाथों से सिर पकड़ कर बड़बड़ा उठा – “काम बिगड़ गया।”

*****
सम्‍पर्क : 590, डीडीए फ्लैट्स, पाकेट -।, सेक्‍टर – 22, द्वारका, नई दिल्‍ली – 110077

ई-मेल : bhartiyar@ymail.com

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