*राजनीति और साहित्य -रामचंद्र ओझा
अशोक वाजपेयी हिंदी के जाने माने कवि और आलोचक हैं। उनका मानना है – “पश्चिम की तरह भारतीय भाषाएं चिंतन और विचार का माध्यम नहीं बन पाई हैं। जो कुछ थोड़ा- बहुत सोच विचार है वह अंग्रेजी में ही है।”
सवाल है कि हिंदी भाषा-भाषी विद्वान यदि विचार ही नहीं करेंगे तो हिंदी विचार की भाषा कैसे बनेगी? इसमें भाषा का क्या दोष। और फिर वाजपेयी जी , किस चिंतन और विचार के बारे में कह रहे हैं? राजनीति में , साहित्य में या कि ज्ञान -विज्ञान की सभी धाराओं से उनका संबंध है।
मैंने अपनी पुस्तक पाहन ‘फोरि गंग एक निकरी में’ की भूमिका और पुस्तक के अंदर भी इस आशय का उल्लेख किया है। किंतु मेरा संदर्भ यह था कि मुझे अपने विचार व्यक्त करने के लिए समुचित पदवर्ग नहीं मिल रहे थे। फिर भी मैने कला और साहित्य संबंधी कई पहलूओं पर मौलिक रूप से विचार किया था।
वाजपेयी जी को मैंने यह पुस्तक भेजी भी थी, किंतु उन्होंने पुस्तक मिलने की सूचना भी नहीं दी थी। नोटिस नहीं लिया क्योंकि मैं किसी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर नहीं हूं। किंतु मेरे लिए मान-अपमान कोई अर्थ नहीं रखता, पर यह प्रवृत्ति शायद ठीक नहीं।
बहरहाल उनका कहना सही है कि हिंदी विचार की भाषा नहीं बन पाई है। पर क्यों नहीं बन पाई? इसकी जवाबदेही किसकी है?
पहले हम साहित्य की बात कर लें। हिंदी भाषा नवोन्मेष में यदि विफल रही तो इसके कई एक कारण है । हमारे यहां अपने दिल की बात कहने सुनने की परंपरा नहीं है। अनुकरण की परंपरा है। हम समझते हैं कि सोचने विचारने का काम यूनिवर्सिटी प्रोफेसरों और ऊँची कुर्सी पर जो विराजमान हैं उनका है, और हमारा काम उनका अनुकरण है। इस कारण यहां वैचारिक ‘फ्री लांसिंग’ नहीं पनप पाई है।
और फिर साहित्य में जिनकी विशिष्ट पहचान थी , और यह पहचान चंद दिनों की नहीं, बल्कि दशकों से रही, उनमें नए विचार देने का माद्दा नहीं था।
न तो उनकी ओर से कोई विचार आया, और न ही नव्यता के लिए युवाओं को उनकी ओर से प्रोत्साहन ही मिला। कारण कि अंतिम विचार के रूप में हमारे यहां के अधिकांश विद्वानों ने मार्क्सवाद को अपना लिया है। नतीजतन हिंदी साहित्य संसार तरह-तरह की भ्रांतियों में डूबा रहा, और डूबा है। साहित्य के होने का प्रारंभिक कारण क्या है, इसकी आधार भूमि क्या है, इसे खोजने की कोशिश नहीं हुई।
साहित्य को दलगत राजनीति का अखाड़ा बनाएं , रचनाकारों को वाम-दक्षिण शिविरों में बांटे , अपने-अपने मठ भी चलाएं और मौलिक विचारों की अपेक्षा भी रखें, यह सब शायद एक साथ नहीं हो सकता।
इस संवंध में वरिष्ठ साहित्यकार भगवान सिंह द्वारा श्री अशोक वाजपेयी को दी गई चुनौती ध्यान देने योग्य है। अपनी पुस्तक, हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य का हवाला देते हुए इन्होंने कहा है कि (उद्धरण प्रारंभ )
”मैं आज भी चुनौती देता हूं कि वह ( अशोक वाजपेयी) यह बताएं कि अंग्रेजी में लिखी किस पुस्तक को इन्होंने उससे गहन पाया था।“ उद्धरण समाप्त।
मैं इस पुस्तक के बारे में नहीं जानता। श्री भगवान सिंह को भी बहुत अधिक नहीं। किंतु इधर ‘साहित्य और राजनीति’ शीर्षक से उनका लिखा एक आलेख पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने साहित्य और राजनीति के अंतर्संबंधों को लेकर जो सवाल उठाए हैं, वे प्रासंगिक हैं। उन पर विमर्श होना चाहिए।
यह आम धारणा है कि साहित्य का काम सत्ता का विरोध है। सवाल है कि यह कैसे पता है कि साहित्य का काम सत्ता का विरोध है। जब साहित्य क्या है, इसकी खबर नहीं ली गई, जब इसपर स्वतंत्र रूप से विचार ही नहीं हुआ, तो कैसे कहें कि सहित्य का काम सत्ता का विरोध है। बात यह है कि किताब पढ़के, किताब लिखने से कुछ हासिल होनेवाला नहीं है।
यदि यही परिभाषा है सहित्य की, कि जिसमें सत्ता का विरोध होता हो, वही साहिय है तो सत्ता के समर्थन में जो साहित्य रचा गया, उसका क्या होगा? उसे हम क्या नाम देंगे?
सोवियत रूस काल में पूरा का पूरा साहित्य सत्ता के पक्ष में लिखा गया। लेनिन की नीतियों की सरहना पर ही समकालीन साहित्य केन्द्रित रहा। आलम यह हुआ कि मायकोव्स्की जैसे रचनाकार को आत्महत्या करनी पड़ी। कितने देश निकाला हुए। उसी समकालीनता को हम पकड़ हुए हैं।
वस्तुतः सत्ता का समर्थन और सत्ता के विरोध में साहित्य का विभाजन वही कर सकता है, जिसे साहित्य की स्वायत्तता का भान ना हो। भगवान सिंह ने भी इस ओर संकेत किया है। भगवान सिंह ने भारतीय रचनाकारों, और परोक्ष रूप से वाजपेयी जीे को भी भावना प्रबल और वैचारिक दरिद्र साहित्यकार कहा है।
बात सही है। वैचारिक दरिद्रता का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि हिन्दी जगत ‘साहित्य एक स्वायत्त’ विधा है, इस समझ से महरूम है। वस्तुतः यह दरिद्रता इसलिए भी है कि हिन्दी जगत इसका अर्थ तक नहीं जानता। इसका अर्थ यदि जान पाता तो साहित्य को स्वायत्त मानने में कोई कठिनाई भी नहीं होती। सर्वहारा और बुर्जुआ साहित्य जैसे तमाम दरबों में साहित्य को बाँटने की तब शायद नौबत ही न आती।
अतः यह बात सही है कि हिंदी में बढ़िया कविता, कहानी और उपन्यास इत्यादि कलात्मक विधाओं में पारंगत रचनाकार, भले कम सही मिल भी जाएं, पर हिंदी जगत का सैद्धांतिक पक्ष बेहद कमजोर है और इसका कारण है शिविर बंदी और इसके आधार पर मठाधीश बनने की चाहत।
हमें कविता, कहानी, उपन्यास जो साहित्य की कलात्मक विधाएं है और अन्य ‘नन-फिक्शनल’ यानी गैर-कलात्मक लेखन में फर्क करना होगा। और कला क्या है, इसके सैद्धान्तिक पक्ष को भी समझना होगा। हम किसे कलात्मक साहित्य कहेंगे और किसे नहीं, इस भेद को भी जानना होगा।
ऐसा नहीं हाने से हम साहित्य और इस्तेहारी साहित्य में किंचित फर्क नहीं कर पाएंगे । फलतः इस्तेहारी साहित्य लिखकर , उसे ही साहित्य समझने की भूल करे हैं। और उसी पर ख्याति भी बटोर रहे हैं। पुरस्कार, पदक से भी शोभित हो रहे हैं।
अब बात विचारधारा की! अव्वल तो विचार और विचारधारा एक नहीं है। विचारधारा एक तकनिकी पदावली है, जिसका निहितार्थ राजनीतिक है। यह पदवर्ग फ्रांस की क्रांति के बात प्रचलन में आया। किंतु साहित्य में विचार, उसका एक महत्वपूर्ण पहलू है। अभिप्राय है कि विचारों को विचारधारा समझने की भूल करना उचित नहीं।
प्रगतिशील लेखक संघ , जन संस्कृति मंच और जनवादी लेखक संघ तीनों मार्क्सवाद की उपज है और साहित्य में प्रगतिशीलता की भाव भूमि से प्रेरित हैं। किंतु दुर्भाग्य है कि वे मार्क्स की प्रगतिशीलता की अवधारणा से रत्ती भर परिचित नहीं। मार्क्स के अनुसार प्रगतिशीलता क्या है, काश! वे जान पाते तो इस कदर प्रगतिशीलता के नारे नहीं लगते।
यह जानना जरूरी है कि समाज की प्रगति नहीं होती, परिवर्तन होते हैं। इसलिए कि समाज की संरचना बहुमुखी है। कोई एक मानक ऐसा नहीं, जिसके बढ़ने और घटने को हम प्रगतिशील और प्रतिगामी कहें।
साहित्य में प्रगतिशील और प्रतिगामी मायने नहीं रखता। प्रतिगामी समझे जानेवाले विषय पर ऊच्चतर कोटि की साहित्य रचना संभव है। उदाहरण के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। प्रेमचंद की निनानबै प्रतिशत रचनाओं का विषय परंपरा और भारतीय मूल्य, मान्यताओं की प्रतिष्ठा है।
वस्तुतः रचना में प्रेरणा बहुत पहत्वपूर्ण है। बिना इसके रचना नहीं होती। जितना बारूद होगा, फुलझड़ी उतनी ही देर तक नाचेगी। प्रेरणा एक ताकत है, जो भावनाओं को गतिमान रखती है, उसमें त्वरा देती है किंतु यह रचना की गुणवत्ता का पर्याय नहीं है। और महत्वपूर्ण यह भी कि रचना की प्रेरणा कहीं से भी ली जा सकती है।
रामायण की रचना के लिए बाल्मीकि ने क्रोंच बद्ध से प्रेरणा ली। वही वेदना उन्हें अभिप्रेरित करती रही। किंतु क्या वाल्मिकी का रामायण केवल इसलिए अच्छा है एक जोड़े-पक्षी की विरह वेदना से वे अविभूत थे।
टालस्टाय की बहुत सी रचनाओं का प्रेरणास्रोत ईसाइयत रही है। ईसाइयत से प्रेरणा तो लेते हैं, पर रचना में यह दृष्टिगाचर नहीं होता। फ्लेवेयर ने मैडम बुआरी लिखा। प्रेरणा थी, फ्रांस के मध्य वर्गीय जीवन में औरतों का खालीपान। जीवन की निरसता और नीरवता को भरने के लिए नायिका जगह-जगह प्रेम करती है। व्यभिचार की हदें पार करने के बाद भी उसकी रिक्तता नहीं जाती। किंतु यह उपन्यास एक क्लासिक माना जाता है।
एक नारी के व्यभिचारपूर्ण जीवन को अपनी कलात्मक प्रतिभा से लेखक इसे जायज ठहरा देता है। कहीं से भी नायिका के प्रति घृणा का भाव नहीं उभरता। मन में उसके प्रति सहानुभूति होती है। कहने का अभिप्राय यह है कि रचना केवल विषय स्वायत्त ही नहीं बल्कि नैतिक स्वायत्त भी होती। साहित्य निर्नैतिक होता।
रही बात सत्ता के विरोध की, तो यह एक नैतिक मामला। एक प्रवुद्ध नागरिक होने के कारण लेखक का यह दायित्व है कि वह हर तरह के प्रभुत्व की मुखालफत करे। किंतु यह मुखालफत दल विशेष का नहीं। सत्ता मात्र का हो। सत्ता परिवर्तन सत्ता का विरोध नहीं है। बल्कि यह एक सत्ता के हाथ से दूसरे हाथ में सत्ता का स्वार्थपूर्ण हस्तानांतरण कहलाएगा।
जनतंत्र में सत्ता जनता बदलती है, इसके लिए इंक्लाब की आवश्यकता नहीं है कि हर स्तर पर लोगों में हम साहित्य के माध्यम से विक्षोभ पैदा करें। नफरत फैलाएं। हिंसा को प्रश्रय दें। और यदि हमें इंक्लाब पसंद है तो यह भी बताना होगा कि हम इंक्लाब से लाना क्या चाहते हैं। समाजवाद या साम्यवाद! यदि यह हमारा लक्ष्य है तो यह भी देखना हमारा कर्तव्य है कि क्या इन शासन-तंत्रों में मनुष्य को वह आजादी प्राप्त है जिसे हम सत्ता विरोध से पाना चाहते हैं।
वस्तुतः पूंजीवाद बुरा है किंतु समाजवाद और साम्यवाद क्या कोइ इसका विकल्प है। क्या यह नहीं लगता कि दोनों में कोई अंतर नहीं।
रही बात राष्ट्र और राष्ट्रवाद की। तो राष्ट्र की अवधारणा फ्रांस की क्रांति का एक बहुत बड़ा अभिशाप है। यह जबरन आरोपित है हमपर। हम इससे निजात नहीं पा सकते। किंतु जब राष्ट्र है और यह हमारी एक ऐसी पहचान है, जिससे हम मुकर नहीं सकते, तो हमारी भलाई इसे कमजोर करने में कतई नहीं।
वस्तुतः साहित्य का उद्देश्य, राजनीति से अलग है, उसकी स्वायत्तता का बनाए रखना ही हमारा अभीष्ट हो सकता है। यह भी स्मरण रहे कि दलगत और राजनीतिक कारणों से साहित्यकारों की उपेक्षा से हिंदी की दरिद्रता ही बढ़ेगी।