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Lahak Digital > Blog > Literature > रमेश ऋतंभर की कविताएं
Literature

रमेश ऋतंभर की कविताएं

admin
Last updated: 2023/07/23 at 5:57 PM
admin
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10 Min Read
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1.

Contents
मैं कोई व्‍यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी व राष्ट्रद्रोही नहीं?2.अपने हिस्से का सच (पलायित बिहारी युवाओं को समर्पित)3.एक उत्तर-आधुनिक समाज की कथा4.मृत्यु-दौड़ (दारोगा की नौकरी की दौड़ में हताहत युवाओं की सजल स्मृति में)5.कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा?6.एक पिछङा हुआ आदमी7.पिता की विरासत8.मेरा बयान

मैं कोई व्‍यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी व राष्ट्रद्रोही नहीं?

(सभी सुधीजनों से निवेदन है कि यह रचना अपने युग के व्‍यक्ति की आत्मालोचना है, इसे इसी रूप में पढेंगे तो आपकी भावनाएँ शायद नहीं होंगी)

मैं एक राष्ट्रवादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे अपने महान देश पर बहुत गर्व है
मुझे अपने देश के गौरव को बढ़ाना है
मुझे अपने देश के स्वर्णिम अतीत से नई पीढ़ी को अवगत कराना है
मुझे अपने देश की प्राचीन परंपरा एवं विरासत को अक्षुण्ण रखना है
मुझे अपने देश को सोने की चिड़िया बनाना है
पर ठहरिए…

पहले मुझे दुनिया के सबसे ऐश्वर्यशाली देश की नागरिकता का जुगाड़ करना है
पहले मुझे महंगे विदेशी ब्रांडों से सुसज्जित एक ऐशगाह बनानी है
पहले मुझे अपनी सारी काली कमाई विदेश के बैंकों में छिपानी है
पहले मुझे विदेशी कंपनियों के हित में लाभकारी कदम उठाना है
पहले मुझे देश की गोपनीय सूचनाएँ पड़ोसी देश के हाथों बेचनी हैं
मैं कोई राष्ट्रद्रोही नहीं.

मैं एक सर्वधर्म समभाववादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे दुनिया के सभी सम्प्रदायों का आदर करना है
मुझे सम्प्रदाय के आपसी झगड़ों का निबटारा करना है
मुझे सभी सम्प्रदायों में आपसी भाईचारा व सदभाव कायम करना है
मुझे ईद की सेवइयाँ और दीपावली की मिठाइयाँ खानी हैं
मुझे चर्च में कैंडल जलाना और गुरुद्वारे में मत्था टेकना है
पर ठहरिए…

पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के रक्षार्थ चंदा इकट्ठा करना है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के अमीर मठ का महंत बनना है
पहले मुझे धर्मगुरु की पदवी हासिल करनी है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के लिए लाठी, डंडा व बंदूक जमा करना है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय की एकता के लिए दंगे का पूर्वाभ्यास करना है
मैं कोई सम्‍प्रदायवादी नहीं.

मैं एक समाजवादी सोच का व्‍यक्ति हूँ
मुझे दुनिया में गरीबों, पिछड़ों, दलितों व अल्प–समूहों को
सामाजिक-न्याय दिलाना है
मुझे सदियों से समाज के वंचित लोगों को सत्ता-संस्थानों में
भागीदारी दिलानी है
मुझे एक शोषणमुक्त समतामूलक समाज बनाना है
पर ठहरिए…

पहले मुझे जाति के सम्मेलन का उद्घाटन करने जाना है
पहले मुझे अपनी जाति के प्रधान का पद हथियाना है
पहले मुझे अपने परिवार के लिए एक पार्टी बनानी है
पहले मुझे पार्टी और सरकार में अपने बेटे-बेटियों का भविष्य सुरक्षित करना है
मैं एक परिवारवादी नहीं.

मैं एक साम्यवादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे दुनिया में व्याप्‍त अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटना है
मुझे धन-धर्म-जाति के भेदभाव को खत्म‍ करना है
मुझे गरीबों-मजदूरों के हक-हकूक की लड़ाई लड़नी है
मुझे एक वर्गविहीन समाज बनाना है
पर ठहरिए…

पहले मुझे अपनी फाजिल जमीन को अजन्मी पीढ़ी के नाम पर
बंदोबस्त कराना है
पहले मुझे अपनी बिरादरी के सबसे रईस परिवार से बेटे का रिश्ता
तय करना है
पहले मुझे अपनी जाति के लेखक को पुरस्कार दिलवाना है
पहले मुझे अपने सम्बन्धी को संगठन के अध्यक्ष पद पर बिठाना है
मैं कोई जातिवादी नहीं.

मैं एक मानवतावादी सोच का व्‍यक्ति हूं
मुझे धर्म-जाति-लिंग-भाषा भेदरहित एक दुनिया निर्मित करनी है
मुझे गांव, शहर, प्रदेश व देश की सीमाओं से ऊपर उठकर
सम्‍पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए सोचना है
मुझे साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मुहिम छेड़नी है
मुझे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श को साकार करना है
पर ठहरिए…

पहले मुझे अपने भाइयों से जायदाद का बंटवारा करना है
मेरा भाई एक इंच जमीन अधिक हड़प नहीं ले
पहले इसका उपाय ढूंढना है
पहले मुझे पड़ोसियों की निगाह से बचने के लिए
अपने घर की चहारदीवारी ऊँची उठानी है
पहले मुझे अपने घर के दरवाजे पर लोहे का एक मजबूत ताला लगाना है
मैं कोई व्यक्तिवादी नहीं.

आप कृपया मेरी मजबूरी को समझिए श्रीमान!
मैं कोई व्यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी व राष्ट्रद्रोही नहीं??

2.अपने हिस्से का सच
(पलायित बिहारी युवाओं को समर्पित)

दिल्ली में भी कई-कई नरकटियागंज* हैं
सिर्फ़ सेंट्रल दिल्ली ही नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ गंदगी भी है
कूड़ा-करकट भी है
धूल-धुंआ भी है
पानी का हाहाकार भी है
सिर्फ चकाचौंध नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ बीमारी भी है
परेशानी भी है
ठेलमठेल भी है
और भागमभाग भी है
सिर्फ एयरकन्डीशड नहीं है दिल्ली
आखिर किस दिल्ली की आस में
हम भागे चले आये दिल्ली
यह सेंट्रल दिल्ली तो नहीं आयेगा
हमारे हिस्से कभी.
चाहे हमारे जैसे लोग, जहाँ भी रहे
उनके हिस्से तो नरकटियागंज ही आयेगा
यह सेंट्रल दिल्ली नहीं….
तो फिर किसी दिल्ली की आस में
हम भाग चले आये दिल्ली।

*कवि का कस्बा।

3.एक उत्तर-आधुनिक समाज की कथा

एक आदमी सुबह से शाम तक खेत जोतता है
एक आदमी सुबह से शाम तक फावड़ा चलाता है
एक आदमी सुबह से शाम तक बोझ ढोता है
एक आदमी सुबह से शाम तक जूता सिलता है
तब भी उसे दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती
वही एक आदमी खाली झूठ बोलता है
एक आदमी खाली बेईमानी करता है
एक आदमी खाली दलाली करता है
एक आदमी खाली आदर्श बघारता है
तो वह चारों वक्त खूब घी-मलीदा उड़ाता है
प्रिय पाठको! यह किसी आदिम-समाज की कथा नहीं
एक उत्तर-आधुनिक सभ्य समाज की कथा है,
जिसके पात्र, घटना और परिस्थितियाँ
सबके सब वास्तविक हैं
और जिनका कल्पना से कोई भी सम्बन्ध नहीं।

4.मृत्यु-दौड़
(दारोगा की नौकरी की दौड़ में हताहत युवाओं की सजल स्मृति में)

वह दौड़ रहा है
वह पूरी जान लगाकर दौड़ रहा है
पाँव लड़खड़ा रहे हैं
कंठ सूख रहा है
आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं
फिर भी किसी अदृश्य शक्ति के सहारे
वह लगातार दौड़ रहा है
उसकी आँखों के आगे बूढ़े पिता का थका-झुर्रीदार चेहरा कौंध रहा  है
उसकी आँखों के आगे बीमार माँ की खाँसती हुई सूरत झलक रही है
उसकी आँखों के आगे अधेड़ होती कुंवारी बहन का उदास मुखड़ा तैर रहा है
उसकी आँखों के आगे वह दारोगा की वर्दी में खुद खड़ा दिखाई दे रहा है
उसकी आँखों के लक्ष्य-रेखा करीब आती हुई नज़र आ रही है
उसकी आँखें धीरे-धीरे मुंदती जा रही है
और सारा दृश्य एक-दूसरे में गड्मड हो रहा है
अब उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है
वह दौड़-भूमि में भहरा कर गिर पड़ा है
और उसकी चेतना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है
माँ-पिता, बहनें, दोस्त सब
एक-एक कर याद आ रहे हैं
उसकी चेतना में लक्ष्य-रेखा धंस-सी गयी है
और वह अपने को लगातार दौड़ता हुआ पा रहा है
उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं
अब वह अपनी मृत्यु में दौड़ रहा है
वह लगातार दौड़ रहा है।

5.कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा?

एक छोटी-सी गलती पर
मेरा कलेजा कांपता है
एक छोटे-से झूठ पर
मेरी जुबान लड़खड़ाती है
एक छोटी-सी चोरी पर
मेरा हाथ थरथराता है
एक छोटे-से छल पर
मेरा दिमाग़ गड़बड़ा जाता है
कैसे कुछ लोग
बङा-सा झूठ
बङी-सी चोरी
बङा-सा छल कर लेते हैं
और विचलित नहीं होते
क्या उनका कलेजा पत्थर का है
या आत्मा लोहे की?
अब मैं कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा
और कैसे बनाऊं पत्थर का कलेजा??

6.एक पिछङा हुआ आदमी

कभी वह किसी अन्धे को सड़क पार कराने में लग गया
कभी वह किसी बीमार की तीमारदारी में जुट गया
कभी वह किसी झगडे के निपटारे में फंसा रह गया
कभी वह किसी मुहल्ले में लगी आग बुझाने में रह गया
कभी वह अपने हक-हकूक की लङाई लङ रहे लोगों के जुलुस में शामिल हो गया….
और अन्ततः दुनिया की घुड़दौड़ में वह पिछड़ता चला गया….
मानव-सभ्यता के इतिहास में दोस्तों
वही पिछङा हुआ आदमी कहलाया।

7.पिता की विरासत

पिता जिन्दगी में किसी से बात-बेबात
झूठ नहीं बोले
कभी किसी से छल नहीं किया
कभी किसी का दिल नहीं दुखाया
हमेशा जरूरतमंदों की मदद की
हमेशा लोगों के बीच रहे.
पिता
दुनिया की घुड़दौड़ में कभी
शामिल नहीं हुए
थोड़ा ही कमाया, थोड़े में ही खुश रहे
उन्हीं की सन्तान मैं
उनकी विरासत में
जमीन-जायदाद नहीं
कोठा-अटारी नहीं
वहीं सब कुछ पाया….
जिनके साथ मैं रोज
दुनिया के बाजार में निकलता हूँ
और ठगा जाता हूँ।

8.मेरा बयान

किसी के सपने में मेरा सपना शामिल है
किसी की भूख में मेरी भूख
किसी की प्यास में मेरी प्यास शामिल है
किसी के सुख में मेरा सुख
इस दुनिया में करोड़ों आँखें, करोड़ों पेट, करोड़ों कंठ
और हृदय ऐसे हैं
जो एक सपना, एक भूख और एक प्यास
लिए जीते हैं
और मर जाते हैं
उन्हीं के बयान में मेरा बयान शामिल है
उन्हीं के दुख में मेरा दुख।


मुजफ्फरपुर, बिहार

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