मैंने कमरे में प्रवेश किया और अपना बस्ता एक तरफ फेंक कर बिस्तर पर लेट गई। पूरे दिन की भागा दौड़ी दिन के इस छोर पर आकर खत्म हो जाती पर इंस्टीट्यूट से रूम तक का ये सफर हर दिन जारी रहता .एक- डेढ़ साल हो गया होगा मुझे यहाँ रहते रहते, पर आज भी जब इस रूम की बात आती है तो होंठ इसे ‘घर’ कहने से कतराते हैं। शायद इसलिए क्योंकि शहर से लगभग एक किमी दूर पर बना ये हॉस्टल कभी भी मेरे होम टाउन की गलियों में छुपे हुए घर की बराबरी नहीं कर सकता। पर हाँ, एक बात तो है कि भविष्य में चाहे मैं कितना भी बड़ा घर क्यों न ले लूं, इस चार दीवार के रूम के आगे वह सदा ही कमतर दिखेगा.इस कमरे में मेरा संघर्ष छुपा है। अपना भविष्य लिखने का सफर छुपा है। अकेले जागती रातें छुपी है तो मेरी अँधेरी सुबहें भी छुपी है। मेरा होम टाउन का घर इस रूम की बराबरी शायद कभी न कर पाए.उस घर ने सबकी जान यानि मुझको ज़िद करते देखा है पर इस रूम ने मुझे कामयाब बनने के लिए दिन-रात एक करते हुए। खैर छोड़ो, मैं भी कहाँ इस बारे में सोचने लग गई। सच बोलूं तो मैं भी बहुत पागल हूँ। कहाँ की बात कहाँ खींच ले जाती हूँ।
“धत्त बुद्धू …” यह कहते हुए मैंने अपने सिर को जोर से हिलाया। मैं सोच उठी… …
यार! भूख लग रही है मुझे.पर कुछ अच्छा खाना है.एक काम करती हूँ कि बाज़ार से बढ़िया -ताजी लौकी खरीद लाती हूँ। अपने हाथों से बनाऊँगी और पेट भर के खाऊँगी। साथ में टीना और मीषा को भी बुला लूँगी , तीनों मिलकर बढ़िया पार्टी करेंगे। मैं खुश हो गई और अपने बस्ते से फोन निकाल कर बाजार जाने ही वाली थी कि तभी मेरी नज़र फोन पर आए नोटिफिकेशन पर पड़ी – माँ के तीन मिस्ड कॉल! |
“ओह नो,….” मैं बुदबुदायी .तो माँ ने तीन बार कॉल किया था, पर मैं ख़्वाबों की शहजादी, सोचने से छुट्टी मिले तो माँ को फोन करूँ?
“जिया..,आज तो तू गई काम से”।सोचते हुए मैंने फौरन माँ को कॉल बैक किया और दोबारा बैड पर पसर गई।
“हैलो माँ… ”
” मैं न तेरे फोन को आग लगा दूंगी। फोन उठाना तो तुझे है नहीं। फिर फोन रखने का क्या काम ?” माँ ने प्यार भरे गुस्से से कहा.
“ओह माँ। अभी अभी तो इंस्टीट्यूट से वापस आई हूँ। फोन साइलेंट पर लगा रहता है इसलिए पता ही नहीं चलता कि किसका, कब और क्यों फोन आया था ।” मैंने उनको समझाया।
“अच्छा.अब झूठ भी बोल रही होगी तो हमें क्या पता चलने वाला.है न?” उन्होंने मेरी चुटकी लेते हुए कहा।
“आपको यकीन नहीं हो रहा न, फोटो भेज दूँ अपनी? अभी तक कपड़े भी चेंज नही किए मैंने। वही इंस्टीट्यूट की टी-शर्ट पहने बैठी हूँ.” मैंने कहा ।
“ठीक है – ठीक है। अच्छा, दिन कैसा गया आज का ?” उन्होंने पूछा.
” बढ़िया था मम्मा. आप सभी कैसे हो?” मैंने भी हाल-चाल पूछा .
“अब क्या बताएँ बेटा? तेरी याद आती है बस। तुझे क्या लगा मैं ऐसे बोलूँगी ? बिलकुल नहीं। जब से तू गई है, सब बढ़िया चैन से रह रहे हैं। रोज़ ही मलाई कोफते, काजू कतरी, मटर पनीर ,नान रोटी बनवा रहे हैं तेरे डैडी.हर रोज़ तो मलाई टिक्की लाते हैं। देखा तेरे जाने की खुशी बर्दाश्त नहीं हो रही.” माँ हंसने लगीं।
” मम्मी….” मैंने चिढ़ते हुए कहा।
” खाना खा लिया ?” मम्मी ने प्रश्न सौंपा.
” अभी कहाँ ?अभी-अभी तो इंस्टीट्यूट से लौटे हैं। आप सुनाओ, आपने क्या बनाया? ” मैंने पूछा।
“मैंने आज… टिंडे बनाए हैं।” माँ ने कहा।
“माँ, शानू को इतना ज्यादा पनीर न खिलाओ, बेचारा छ्क जायेगा मलाई कोफ्ता, काजू करी, पनीर खाते खाते.” मैंने तंज कसते हुए कहा।
‘तू न बिलकुल नहीं बदली.” माँ ने मुस्कुराते हुए कहा.
“और न ही कभी बदलूँगी.” मैंने कहा.
“अच्छा, ये बता तू रक्षाबंधन पर आ रही है या नहीं। अपने इंस्टीट्यूट वालोंं से कह देना कि इस बार मैं कुछ नहीं सुनने वाली। वैसे भी गर्मियों में कितने कम दिनों के लिए आई थी तू। इस बार तो कम से कम ढंग से रुकना.” माँ लगातार बोले जा रही थी। मैं उनको कुछ बताने वाली थी कि तभी वे बोली ..
“इस राखी पर हम तेरी नानी के घर चलेंगे। गर्मियों में तुम तो आ ही नहीं पाईं थी, और शानू की भी छुट्टियाँ बहुत सीमित थीं .इसलिए जा नहीं पाए थे.पर अब तेरी नानी को हमारी बहुत याद आ रही है। वे तुझसे मिलना चाहती हैं। मामा भी पूछ रहे थे कि जिया की छुट्टियां कब लग रही हैं? इसलिए मैं चाहती हूं कि तू भी हमारे साथ राखी वहीं की मनाए।” मौम ने कहा।
“नानी के यहाँ….?? ” माँ के इन शब्दों ने मुझे मेरे नानी के घर से जुड़ी कुछ ऐसी कड़वी यादों में धकेल दिया जिनमें से निकलने के लिए मैंने बहुत मेहनत की थी।
नानी का घर हर बच्चे के लिए स्वर्ग की कल्पना होता है । इन शब्दों को किसी भी बच्चे की मुस्कान का जादुई मंत्र कह सकते हैं। नानी का घर, एक ऐसी जगह जहाँ प्यार का एक बहुत बड़ा खज़ाना छुपा होता है जो कभी खत्म नहीं होता। ‘नानी का घर’ गरमियों की छुट्टियों का मकसद । पापा के मम्मी-पापा के साथ तो पूरे साल रहती हो, कभी माँ के मम्मी-पापा के साथ भी रह लिया करो.यह कहकर माँ मुझे वहाँ ले जातीं। जहाँ हमें देखते ही सभी के चहरे खिल जाते। नानाजी हमारे पहुंचने से पहले ही मेरेे लिए झूला टांग देते। नानी पहुँचते ही हमारे लिए गुजिया बनाकर रख देती । मौसी टाॅफियों का ढेर लगा देती और मामा…..मामा तो चिप्स, कुरकुरे, फ्रूटी, चॉक्लेट और न जाने कितनी चीजें खरीद-खरीद कर रखते जाते ।
मेरी हर एक ज़िद को अपने सर आंखों पर रखते नाना जी । आखिर उनकी पहली नातिन जो थी। माँ, मौसी और मामा तीन भाई-बहन है। माँ सबसे बड़ी, मौसी बीच की और मामा सबसे छोटे ।जब मौसी की शादी हुई थी, तब मेरी उम्र मुश्किल से 5……6 वर्ष की रही होगी। उनकी शादी के बाद नानी के घर में हमारा इंतजार करने वाला एक सदस्य कम हो गया। लेकिन अच्छा ये हुआ कि मौसी की शादी हमारे ही शहर में हो गई.
समय अपनी गति से धीरे-धीरे बीतने लगा,चीज़ें बदलने लगी। अब मौसी और माँ साथ में मायके जाने लगे। नाना-नानी का प्यार हम तीन भाई-बहनों में बंट गया, क्योंकि अब माँ और मौसी दोनों की गोद में मेरे छोटे-छोटे भाई आ गए। दावेदारी जरूर बढ़ गई थी पर नाना का प्यार ज्यों का त्यों रहा | मामा की शादी भी हो गई। और जानते हैं उनकी शादी तक में चिप्स – कोल्ड ड्रिंक पर केवल मेरा ही अधिकार था, क्योंकि शानु, मनु के तो दाँत तक नहीं निकले थे अभी.अपनी शादी के समय में भी मामा ने मुझे बाइक पर बिठाकर घुमाना बंद न किया था। सच में स्वर्ग था वह घर ।
मामी के आने के बाद तो रौनक और भी बढ़ गई। अपनी ज़िदों के कारण मुझे कई बार डॉंट पड़ी . पर वह भी केवल माँ से पड़ी। नाना, नानी, मामा, मामी, मौसी उन सभी ने तो एक बार भी मुझे आँखें तक न दिखाई होंगी। ओफ्फ……उन दिनों को बीते समय की कब्र से निकाल लाने का मन करता है।
मुझे अच्छे से याद है ….माँ और मौसी तो सैटल हो ही चुके थे.अब बारी मामा की थी। उनकी शादी भले ही हो चुकी थी, पर नौकरी उन्हें अभी तक नहीं मिली थी। नानाजी की इच्छा थी कि वे नौकरी की खोज करें, जिम्मेदारी लें, पर मामा अपने उस समय को मस्ती करते हुए गुज़ारना चाहते थे। फिर भी नाना जी का खौफ उनको इतना था कि रात के नौ बजे के बाद घर से बाहर न निकलते। सब कुछ खुशी-खुशी गुज़र रहा था।
नानाजी में भी थोड़ा परिवर्तन आया, उन्होंने नानी के कहने पर भगवानों को मानना, पूजना शुरू कर दिया। मिलिट्री की नौकरी में रहकर उन्होंने हमेशा विज्ञान की दृष्टि से दुनिया देखी . पर जैसे – जैसे बालों ने अपना रंग बदला , वैसे-वैसे वे भी बदलते चले गए। उनकी पत्नी यानि नानी खुद को ‘काली माँ की दूत’ मानती थीं। अब उन्होंने भी शनिवार के शनिवार मंदिर में गुजारना शुरू कर दिया। मुझे इससे कुछ खास असर न हुआ बल्कि मैं तो खुश थी, जहाँ पर वे मंदिर जाते थे वहाँ पर समोसों का एक स्टाल लगता, गजब के समोसे। शनिवार को रोज मन भरकर समोसे खाते। नानी प्रसाद के रूप में पेड़े भी लाया करती। कुल मिलाकर मुझे गर्मियों के उन दिनों का इंतजार जैसे पहले रहा करता था, वैसे ही अब भी रहता| लेकिन एक दिन सब बर्बाद हो गया। जब मैं अपने बचपन की दहलीज़ पर खड़ी थी तब हमने अपने नाना जी को खो दिया। उस समय मैं तेरह साल की रही होऊंगी जब एक दिन नानी का फोन आया,
“अंतिम दर्शन करने आ जाओ.”
उस समय सर्दियाँ अपने चरम पर थीं और मुझे जुखाम भी था. लेकिन इनमें से कोई भी चीज़ इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं कि मैं अपने नानाजी के अंतिम दर्शन करने वहाँ नहीं गई। मैंने हमेशा अपने नानाजी को हष्ट – पुष्ट और उत्साह से भरा पाया है.और उस दिन अगर मैं वहाँ जाती तो उनका वह बंद आँखों वाला रूप हमेशा-हमेशा के लिए मेरी नज़रों में बनी उनकी छवि को बिगाड़ देता। और मैं ऐसा कतई नहीं चाहती थी।
नाना जी के जाने के बाद नानी पूरी तरह टूट-सी गईं। पर फिर भी उन्होंने सारे घर की जिम्मेदारी अपने सर पर उठा ली। हम सभी को यह उम्मीद भी थी कि नानी सारी व्यवस्था को भली-भांति संभाल लेंगी। और नानाजी के जाने के बाद भी सब कुछ वैसा ही रहेगा। लेकिन कौन जानता था कि आगे सब कुछ………मैंने एक गहरी सांस ली.
नानी को नाना जी के जाने से एक झटका- सा लग गया। वे लगभग हँसना-खेलना भूल गईं। एक बार तो ऐसा लगा कि वे अवसाद में चली गईं हैं। माँ का हाल भी यहाँ कुछ ऐसा ही था। वे छोटी-छोटी बातों पर रोने लगती और मृत्यु जैसे समाचार मिलने पर तो उनको संभालना असंभव मालूम पड़ता। पहले वे ऐसी नहीं थीं पर अपने पिता को खोने का दर्द उनको ऐसा बना गया।
यहाँ पर तो माँ के पास हम सब थे भी, पर वहाँ नानी के पास कोई नहीं था। हाँ, मामा जरूर थे पर वो भी उनकी टेंशन को बढ़ाने के लिए। नानाजी का खौफ जैसे ही उनके सिर से गया, वे गलत संगति में पड़ गए। नाना जी की पेंशन नानी के नाम करवाने में तीन साल लग गए । तब तक घर खर्च चलाने के लिए कोई साधन न बचा इसलिए मामा को कर्ज़ लेना पड़ा और देखते ही देखते वह कर्ज़ इतना बढ़ गया कि उसकी गिनती लाखों में हो गई। उनकी स्थितियाँ बहुत दयनीय हो गईं। और यहाँ मामी अपने खर्चों को कम करने तैयार नहीं हो रही थीं। अब तो वे भी ‘मम्मी’ बन चुकी थीं तो उनकी बच्ची का खर्च भी उस घर खर्च की लिस्ट को भारी बनाता रहा। मामा की नौकरी अभी तक नहीं लगी थी इसलिए वे आराम से दस बजे तो सो कर उठते थे। फिर तुरंत तैयार होकर घर से निकलते तो सीधे दोपहर दो बजे खाना खाने आते । उसके बाद तीन घंटे की बेफिक्र नींद………और फिर शाम को जो बाइक पर सवार हुए तो समझ लो कभी रात के बारह बजे रहे, तो कभी एक बजे.
मामी ने भी नानी से अपनी बातचीत बहुत सीमित कर ली। जब कुछ काम होता तब ही बोलती। बेचारी नानी……- नानाजी का गम कौन सा कम था जो मामी-मामा उसे और बढ़ा रहे थे। मामा-मामी आपस में भी खुश न थे। उनके झगड़े भी आये दिन होते रहते| नानी जी बस नाना जी की तस्वीर को देखकर अपने आँसू बहाती रहती। नाना के जाने के बाद सब कुछ इस तरह बिखर जायेगा किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। इसमें मुझे सबसे ज़्यादा गलती मामाजी की लगती। उनको अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहिए। वो स्टेटस पर तो……Miss you Papa , पापा आप कहाँ चले गए, मैं भी आपके पास आना चाहता हूँ पापा ……इस तरह लिखकर रोज नियम से मोबाइल पर डालते, पर अपनी माँ जो घर में एकदम अकेली रहती है उनसे दो शब्द भी प्यार के न बोलते. खुदा न खास्ता अगर आज नानी को कुछ हो जाए तो..,…….आप उनके लिए भी स्टेटस डालना। और स्टेटस-स्टेट्स खेलकर ही अपनी जिंदगी यूँ ही गुजारना .
पर मैं उनसे खुलकर कभी कुछ न कह सकी. कहना चाहकर भी हमेशा चुप रही.वह इसलिए कि एक तो मैं अभी बहुत छोटी हूँ , और दूसरी बात कि यदि मैं ऐसा कहने की जुर्रत करूँ भी तो मामा जी मुझे एक थप्पड़ मार कर चुप कर देंगे।
“छोटी हो, छोटी बनकर रहो. ज्यादा मुंह न चलाया करो.” यही बोलेंगे वे।
इस बात में मेरा घर थोड़ा नहीं बहुत अच्छा है, यहाँ मेरे विचारों का, मेरे मत का, कोई मूल्य तो है। और वैसे भी जिन्दगी मामा की अपनी है। उनको उसे जैसे चलाना हो, चलायें. मैं कौन होती हूँ कुछ कहने वाली। यह सोचकर भी मैं चुप रह जाती.
ये सारी बातें मुझे किसी ने बताई न थीं । बस माँ जो भी फोन पर कहती-सुनती, उससे ही अंदाजा लगाया। भले ही नानी के यहाँ सब मुझे छोटा समझते थे पर 14-15 वर्ष के इस पड़ाव पर मैंने दुनिया को देखने के लिए अपना दृष्टिकोण बनाना शुरू कर दिया था। इस बात को माँ भांप गई और अब उन्होंने भी सारी ढंकी छुपी बातों को मेरे सामने निवस्त्र कर दिया। मेरा अंदाजा सही निकला | मामा के ऊपर वास्तव में बहुत कर्ज हो चुका था जो कि नानी को चुका पाना मुश्किल हो रहा था। माँ अब जो बातें मौसी, नानी से करती थी. उन्होंने उन बातों को भी मेरे साथ साझा किया। नानाजी के रहते वह घर मुझे एक खुशहाल जगह मालूम पड़ती, पर अब जब वे नहीं हैं तो वही घर दुनिया का सबसे बेरंग कोना लगने लगा। फिर भी जब माँ ने मुझे यह बताया कि हम नानी के घर जाने वाले हैं तो मेरी खुशी किसी आसमान में उड़ने जैसी थी। उस समय में दसवीं कक्षा की छात्रा थी। अपने सभी दोस्तों को उछलकर बताया था मैंने कि मैं अपनी नानी के घर जा रही हूं .इतना उत्साह भर गया था मेरे अंदर कि मैं इस बारे में सब कुछ भूल गई कि अब वहाँ कुछ भी पहले जैसा नहीं रह गया है .
पहली फटकार मुझे मामा से ट्रेन में मिली जब वे मुझे बुला रहे थे और ज्यादा भीड़ होने के कारण मैं उस भारी सूटकेस को उठाकर मामा के पास नहीं पहुंच पा रही थी.फिर भी परिस्थितियों को समझते हुए मैंने रुआंसे होकर डैडी को बाय-बाय कहा .
मेरी मां भी मुझे एक बात बहुत समझा-बुझाकर ले गईं थी……”देख जिया, नानी के यहां तुझे रोज नहाना पड़ेगा ,चाहे कुछ भी हो. वरना रोज़ तेरे कानों से खून निकलना आम बात हो जाएगी . वहां नाटक न करना.”
अपने घर मुझसे कभी किसी ने किसी चीज की जबरदस्ती न की.दादा दादी का तो मानना यही था कि प्रार्थमिकताओं के हिसाब से ही सारे काम होने चाहिए . फालतू में एक बाल्टी पानी और एक घंटा रोज़ बर्बाद करने की कोई तुक नहीं है. उनकी बातों से तो मैं इस बात पर 100% श्योर हो गई कि नहाना हमारी दिनचर्या का भाग नहीं, आवश्यकता के हिसाब से होना चाहिए.अब यह बात नानी के घर के लोगों को कौन समझाए.इसलिए जैसे तैसे उनकी सोच, उनकी विचारधारा को सम्मान देने हेतु मैं नहा लिया करती.
वैसे मम्मी के मायके और डैडी के मायके में भौगोलिक दूरी तो थी ही पर वैचारिक दूरी उससे ज्यादा थी.जहां एक तरफ हम नास्तिक लोग ठहरे तो वहां दूसरी तरफ नानी पर काली माता की सवारी आती.पहले मुझे ऐसा कभी नहीं लगता कि मैं कहीं बाहर जा रही हूं.पर इस बार मैं नानी के यहां गई तो मुझे घुटन महसूस हो रही थी.मेरे लिए वहां रहना असंभव मालूम पड़ने लगा.एक दिन तो जैसे ही मैं खाने के लिए बैठी, नानी ने मुझे डांट कर खड़ा कर दिया और मुझे उनके द्वारा बताई गई जगह पर बैठने को कहा.पहले तो मुझे लगा कि वे ऐसा इसलिए कर रही हैं ताकि कमरे से बाहर आने जाने के लिए रास्ता खुला रहे. पर उनकी एक बात ने मुझे चौंका दिया.वह माँ से कह रही थी,
“अपनी बेटी को कुछ समझाओ.उस ओर मुंह करके बैठने से घर में लक्ष्मी नहीं आती है.और अपने पुरखे नाराज़ हो जाते हैं .”
“क्या…..?..?…?”मेरी भी प्रतिक्रिया कुछ ऐसी ही थी……”गुरुवार और शनिवार को नाखून नहीं काटते , मंगलवार और गुरुवार को बाल नहीं धोते, सोमवार को नंगे पैर मंदिर जाने से नौकरी लग जाती है. बुधवार को लाल साड़ी नहीं पहना करते, सामने वाली गली से मत जाना वहां आत्माएं घूमती हैं. आप की सूची यहां खत्म हो जाती है ना, या फिर मैं कुछ भूल रही हूं”
मैंने अपनी बात कहते हुए नानी की ओर देखा.वे मुझे घूरे जा रही थीं.और माँ आंखें दिखाकर मुझे चुप होने को कह रहीं थी.
यहां पढ़े-लिखे लोग तो बहुत हैं पर भगवान को मानने वाले आस्तिकों की संख्या उनसे कई गुना ज्यादा है.उनके लिए पढ़ाई केवल एक डिग्री है. नौकरी दिलाने वाली.उसका असल जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है.असल जिंदगी में तो जो होता है उसका जिम्मेदार भगवान है.कुछ अच्छा हुआ तो भगवान की कृपा और कुछ बुरा हुआ तो पुरखे नाराज.इसी अंधविश्वासी माहौल के कारण ही यहां कोई हेल्थ, एजुकेशन के महत्व को नहीं समझता. आज भी नानी रोती हैं कि कोई हमारी शुगर की जांच करवा दो.क्योंकि मामा तो ऐसा करने से रहे उनको तो हर सोमवार मंदिर जाने से फुर्सत मिले तब जाए ना. यदि भगवान गुस्सा हो गए तो उनको कौन मनाएगा.गलती इसमें कुछ नानी की भी है यदि मामा को बचपन से ही रामायण या किसी भी पवित्र ग्रंथ को पढ़ने से ज्यादा विज्ञान या दूसरे अन्य लेखकों की किताबें पढ़ने को दी होती तो शायद आज का दिन ही कुछ और होता.मैं यह नहीं कहती कि भगवानों को मत मानो यह आपकी व्यक्तिगत समझदारी है पर आज कम से कम आप अपनी जिम्मेदारियों से मुंह तो ना मोड़ो.
मुझे अच्छी तरह याद है वह दिन, जब मौसी पर भूत आए थे.दोपहर से उनकी तबीयत खराब थी. डॉक्टर को दिखाने का सुझाव किसी ने न दिया पर उनके ऊपर कोई भूत आ गया यह सब ने कहा . धीरे-धीरे थोड़ी देर के बाद मौसी ने अजीब तरह से हंसना शुरू कर दिया.वे अपने बालों को नोच रही थीं.उन्होंने किसी छोटे बच्चे की तरह बात करना शुरू कर दिया……”मुझे तुम्हाले कंगन अच्छे लग लहे हैं, मैं ले लूं? ”
माँ ने उनको कंगन देने से इंकार कर दिया तो उन्होंने मां को जोर से एक चांटा मार दिया.……”माल दिया…..माल दिया.”
यह कहकर मौसी तालियां बजाने लगी.मां ने डरकर कंगन उनको दे दिए और तभी नानी मंदिर में गई और वहां से अपनी स्पेशल भभूत ले आई……”देखती हूं तू कौन है” यह कहते हुए मौसी पर राख डालने लगी. बाद में मौसी को मंदिर में लाया गया और उनको भगवानों को प्रणाम करने को कहा….”नहीं करूंगी,नहीं करूँगी.”
अचानक मौसी की आवाज़ बदल गई. उन्होंने हनुमान जी की तस्वीर देखी और हंसते हुए बोली… “लाल मुंह का बंदर, लाल मुंह का बंदर” कहते हुए अचानक उठीं और हाथ हवा में उठाकर डांस करने लगी.
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि आखिर यह हो क्या रहा है.और तभी मामा अपने ताऊ के साथ वहां आ गए. ताऊ जी खुद को बहुत बड़ा तांत्रिक बताते और कहते हैं कि मुझे हनुमान जी सब कुछ पहले ही बता देते हैं. वे सीधे मंदिर में चले गए और कुछ प्रश्न उत्तर के पश्चात मंदिर से मौसी के साथ बाहर निकले जो अब पूरी तरह ठीक हो चुकी थी.गजब.
उसके बाद एक बैठक बुलाई गई. ताऊ जी ने नानी से कहा कि अब उनको और भी ज्यादा पूजा में लीन होना पड़ेगा.तब जाकर पुरखे प्रसन्न होंगे.और खोई हुई खुशियाँ वापस मिलेगी.तभी नानी ने हाथ जोड़ते हुए पूछा …….”दाऊ, आप तो हमें ये बताओ कि बेटे की नौकरी के लिए मैं क्या करूं ?”
” आने वाली पूर्णिमा बहुत शुभ है.तुम्हारे बेटे को उस दिन नंगे पैर एक लोटा गाय का दूध और चार घी में सिकी पूड़ियाँ लेकर मंदिर जाना होगा.बड़ी माता का मंदिर.फिर वहां एक पूड़ी चढ़ाकर सारे शहर की परिक्रमा करते हुए वापस आना है.और बाकी की पूड़िया अपने पुरखों, गायों को,और एक ऐसे इंसान को खिलानी है जो तुमसे नफरत करता हो. इस बीच तुम एक बार भी पीछे नहीं देखोगे वरना तुम्हारी सारी मेहनत व्यर्थ हो जावेगी.” उन्होंने यह कहकर अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा. इन सब में सच बताऊं तो मुझे कोई रुचि नहीं थी.अगर मैं वहां बैठी रहती तो दो-चार प्रश्न कर बैठती.जिसके बाद मेरी पिटाई पक्की थी. इसलिए मैं वहां से उठकर कमरे में आकर अपना होमवर्क करने लगी.
“अच्छा ताऊ जी,आप कोई ऐसा उपाय बताओ न जिससे मेरे पति की नौकरी लग जाए”. माँ के इस प्रश्न ने मुझे गुस्से की नदी में इस कदर डूबा दिया कि मेरा चेहरा लाल पड़ गया.
मेरे डैडी ने सात साल से भी ज्यादा समय सिविल सर्विसेज की परीक्षाएं देने में निकाला.लेकिन हमेशा पासिंग मार्क्स पाते पाते रह जाते हम जनरल कास्ट से हैं तो उन्हें आरक्षण का लाभ भी न मिल पाता और डैडी इसी वजह से बार-बार चूक जाते.मेरे डैडी ने कई रातें जागकर पढ़ाई की है.अभी भी मुझे वो रातें याद आती है जब डैडी आंखें मलते हुए और उबासियां लेते हुए भी आंखें बंद न होने देते थे. मां के इस प्रश्न ने उनके संघर्ष को एक पल में मृत घोषित कर दिया.अब डैडी अपनी लेब चलाते हैं और खुश हैं.फिर इस प्रश्न का क्या मतलब?
“आने वाली पूर्णिमा शुभ है.उस दिन तुम्हारे पति को सुबह पांच बजे उठकर स्नान करके बेल पत्री को शिवलिंग पर चढ़ाना है वो भी उस मंदिर जो तुम्हारे शहर के बाहर हो.” उन्होंने आंख बंद करके कहा.
“वह नहीं करेंगे ताऊ. कुछ ऐसा बताइए जो मेरे हाथों में हो” .मां की इस बात ने मुझे रुला दिया.
“देखो रोग उनका है तो दवाई भी उनको ही लेना होगी.” यह कहकर वे हंसने लगे.
मां भी पूरे मन से भगवानों को मानती हैं पर उनकी यह आस्था कभी-कभी अंधविश्वास में तब्दील हो जाती है.यही नहीं, मेरी मां गुरुवार को व्रत करती हैं हमारे लाख पूछने पर भी हमें यही सुनने मिला कि वह ऐसा अपनी खुशी के लिए करती हैं.पर सच्चाई कुछ और ही थी.उन्होंने एक दिन मौसी और नानी को बताया कि मेरी चाची ने जैसे ही इन व्रतों को करना शुरू किया वैसे ही मेरे चाचा जी की नौकरी लग गई . मतलब दादी दादाजी ने उनको जो पढ़ाया लिखाया वह सब व्यर्थ है.चाची के व्रतों की वजह से ही चाचू की नौकरी लगी है.वाह.और तो और चाची ने व्रतों के दम पर ही चाचू का ट्रांसफर बड़े शहर में करवा लिया है.मतलब कुछ भी.
अब मुझ से रहा न गया और मैं बोल पड़ी …..”अच्छा, पर मुझे तो अभी तक ऐसा लगता था कि चाचू ने अपनी कमाई के एक लाख कुर्बान किए थे ट्रांसफर करवाने के लिए”.
“सुनो तुम चुप रहा करो.पैसे तो तुम्हारे चाचा के पास पहले भी होंगे न.फिर ट्रांसफर तब क्यों हुआ जब तुम्हारी चाची ने व्रत करना शुरू किये”. अपनी पढ़ी-लिखी मौसी के मुख से यह बात सुनकर मैं चौंक गई.
“पैसे तो चाचू के पास पहले भी थे पर ट्रांसफर उनका तब हुआ जब वे पैसे देने को राजी हो गए.” मैंने उनको मुस्कुराकर देखा.
“बेटा, अब मुझे समझ में आ रहा है कि तुम जो व्रत रखती हो वे फलते क्यों नहीं है.बात यह हो जाती है न कि तुम्हारी देवरानी को कोई टोकता काटता नहीं इस पूरी व्रत की प्रक्रिया में. जबकि तुम्हारे लिए सब की उंगलियां उठ जाती हैं.”अचानक नानी ने गंभीर मुद्रा में कहा.
लो साहब अब इनके आगे आप क्या कहोगे? दादा-दादी, हम सब मां की फिक्र करते हैं, परवाह करते हैं इसलिए उनको रोकते हैं कि व्रत बगैरा न रखो.वरना तबीयत खराब हो जाएगी.अब उस पर भी नानी ने प्रश्न खड़े कर दिए.
उस दिन के बाद तो मैंने यह तय कर लिया कि अब मैं भैंस के आगे कभी बीन बजाऊंगी ही नहीं.पर जब माँ ने मेरे पापा की मेहनत पर पानी फेर दिया.मुझसे रहा न गया और मैं फूट-फूट कर रो पड़ी.
“क्या हुआ तुम्हें? रो क्यों रही हो ?”नानी ने पूछा.
“लो दो शब्द इन के डैडी पर क्या बोल दिए यह मैडम तो रोने लगी”.मामा उठकर वहां से चले गए.
“बात यह नहीं है नानी.बात माहौल की है.जब से यहां आई हूं तब से एक ही चीज सुन रही हूं – भगवान, भगवान, भगवान .यह मत करो, वह मत करो, पूजा करो, मंदिर जाओ, बाबा लोगों के प्रवचन सुनो और अब यह भूत प्रेत.आपको क्या लगता है आप अगर मुझे दूसरे कमरे में भेज देंगे तो क्या मुझे कुछ सुनाई नहीं देगा.?कान पर दोनों हाथ लगाने के बाद भी मुझे नानी की आवाज साफ साफ सुनाई दे रही थी जब वे यह कह रही थी कि कल रात को ग्यारह बजे तुम्हारे मृत पापा की आत्मा यहां हॉल में घूम रही थी.मुझे मौसी का हर एक लफ़्ज़ सुनाई दे गया.जब वह कह रही थी कि रात को मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मेरे पास आकर लेट गया हो.जबकि वहां कोई न था.मुझे मां की भी आवाज साफ सुनाई दे गई जब वह बता रही थी कि रात दो बजे उन्हें ऐसा लगा कि कोई पायल पहने पूरे घर में नाच रहा हो.यह क्या है यार?रात को चैन से सोना भूल गई हूं .हर पल दिमाग में यही बातें घूमती रहती हैं.और आज यह भूतनी का खेल.आप नहीं जानते हैं कि आपकी इन सारी बातों का मुझ पर क्या असर होता है? मैं यह नहीं कहती कि ईश्वर को न मानो.यह आपकी व्यक्तिगत पसंद है पर कम से कम अंधविश्वासी तो ना बनो.कितनी बार आपने मंगलवार के व्रत रखे हैं पर क्या उनमें से किसी एक का भी पुण्य आज नाना जी को बचा पाया? आपको तो किसी ने नहीं रोका था न. आप मेरे बारे में भी तो थोड़ा सोचो.रोज रात को डर पूरी नसों में घुल जाता है.अब तो अपनी परछाई को देखकर भी चीख निकलने लगी है. जिन नाना जी को देखने के लिए कभी यह आंखें तरसती थी आज उन्हीं के नाम से रूह कांप जाती है.मैं एक नास्तिक परिवार में पली आजाद पंछी हूं नानी. मैंने कभी नाखून काटने के लिए , बाल कटवाने के लिए, इन बालों को धोने के लिए दिन नहीं देखा कि आज गुरुवार है या बुधवार.मेरे घर में केवल अनुशासन की दहलीज बनी है जिसे कोई पार नहीं करता.पर यहां आकर मैं धर्म की बेड़ियों में इस कदर जकड़ा हुआ पा रही हूं खुद को, कि एक एक सांस लेना मुश्किल होता जा रहा है.”
“जिया” मां ने मुझे टोकते हुए समझाया……”समझौता करना सीखो.नानी तुम्हारे भले के लिए कहती हैं.”
“मां मैं यह बात भली-भांति जानती हूं कि नानी मुझसे बेहद प्यार करती हैं पर उनका यह अंधविश्वास किसी भी एंगल से मेरा भला नहीं कर रहा.आपने मुझे जो कुछ करने को कहा वह मैंने किया पर अब और नहीं होता मां. अब मुझे अपने घर जाना है.” मैं सिसक रही थी.
“लो भैया, हम तो इन्हीं के पापा के भले के बारे में सोच रहे थे.अब इनकी यही इच्छा है तो खूब चली जाओ.कल ही गाड़ी मंगवाए दे रहे हैं.” नानी का उत्तर कुछ इस प्रकार था.
नानी के यहां एक दिक्कत है.वहां बच्चों को डांटने ,उनको सिखाने का अधिकार तो सब लेना चाहते हैं पर बच्चों से सीखने में सबका कद नीचा हो जाता है.उस दिन भी सब ने मुझे ही डांटा.अब मैंने यह सोच लिया था कि बस कुछ दिन और. फिर यह परिंदा दोबारा आज़ाद हो जाएगा.
लेकिन फिर एक दिन मामा ने हमारे बीच की दूरियों को विस्तार दे दिया.हमारे जाने का समय निकट आ गया था.मैं बैठी-बैठी मौसी को मेहंदी लगा रही थी.तभी शानू और मनु हॉल में आ गये. शानू सोफे पर बैठ गया और मनु भी उसी सोफे पर शानू की गोद में बैठ गया. शानू चिल्लाकर खड़ा हो गया और दूसरी ओर जाकर बैठ गया.वहां एक कागज का टुकड़ा डला था जिसे उसने उठा लिया . तभी मनु आया और दोनों उसी कागज के पीछे लड़ने लगे.आखिर दो बच्चों को लड़ने की वजह ही कितनी चाहिए.यहां तक तो सब ठीक था जब तक मनु ने शानू को मारना शुरू न कर दिया.मुझसे यह देखा न गया.मैं उठकर उसके पास गई और मनु को डांट दिया और उन दोनों से वह कागज का टुकड़ा छुड़ा लिया.थोड़ी ही देर बाद न जाने क्यों फिर दोनों की लड़ाई हो गई. मनु शानू को दोबारा मारने लगा.शायद इस बात पर कि तुम्हारी वजह से मैं उस कागज के टुकड़े के साथ नहीं खेल पाया.इस बार शानू को गुस्सा आ गया और उसने जमकर मनु में एक थप्पड़ जड़ दिया सब एकदम सन्न रह गए. मौसी मनु को चुप कराने लगी और मैं शानू को आंखें दिखाने लगी.तभी वहां मामा, जो कि चुपचाप बैठ कर यह सब देख रहे थे, बोल पड़े ……”जिया अब कुछ नहीं बोलोगी.तुम्हें भी अपना पराया आने लगा है न.” उनकी इस बात को सुनकर मेरी आंखें मचल-मचल कर रो पड़ी.
बात दरअसल यह थी कि मनु मेरी मौसी का लड़का था और शानू मेरा सगा भाई लेकिन मैंने कभी दोनों में भेदभाव नहीं किया.आज जब उनकी लड़ाई शुरू हुई तो मुझे लगा कि यदि मुझे मनु को प्यार करने का अधिकार है तो उसे डांटने का भी अधिकार अवश्य होगा.इसलिए मैंने मनु को डांट दिया, पर आज मामा ने ‘अपना-पराया’ शब्द का प्रयोग करके मेरे प्यार का मजाक बनाकर रख दिया.यह उन्होंने जल्दी देख लिया कि मैंने उसे डांटा पर तब वह कहां थे जब मौसी की नवजात को मैं पूरी रात अपनी गोदी में सुलाये रही थी.तब वह कहां थे जब मनु को मैं उंगली पकड़कर नहीं बल्कि गोद में उठाकर स्कूल ले गई थी.इसमें तो अपना-पराया आप कर रहे हो.मुझे प्यार करने का हक है पर डांटने का अधिकार नहीं .मेरे सीने में एक आग सी जल उठी.
“आज तुम्हें अपने मामा की इतनी सी बात बुरी लग गई .गजब है भाई आजकल की पीढ़ी.” नानी ने मां को देखा .
“नानी बात इतनी सी नहीं है.बात मेरे प्यार पर उठे प्रश्न की है .और जानती हैं कि यह शब्द मुझे इतने क्यों चुभे? अगर आज राह चलता आदमी मुझसे यह बात कहता तो मुझे बिल्कुल बुरा न लगता.पर यह बात उस इंसान ने कही है जो मुझे दिन-रात देख रहा है.मेरे मामा ने कही है यह बात.आप बताइए मुझे तकलीफ कैसे ना हो.बातें हमेशा अपनों की ही बुरी लगती हैं.”
मैंने आंसुओं से भरी आंखों से उनको देखा.उस दिन के बाद भी बहुत सारी बातें वहां की मुझे अच्छी न लगी.जैसे नानी का यह कहना इसको सारी चीजें खुद करना सिखाओ.पराए घर जाना है. वहां जाएगी तो क्या करेगी?
खैर छोड़ो.बस इतना कह सकती हूं कि जो मन बदलती तारीखों को देखकर विचलित हो रहा था कि जाने की घड़ी निकट आ गई है, अब वही मन उड़ते वक्त को देखकर मंद मंद मुस्काता .उस एक महीने में मुझे अपने घर की अहमियत समझ में आ गई और इतने सालों का उस नानी के घर से जो लगाव था उसकी लाश मुझे दूर कहीं पड़ी मिली.मैं यह नहीं कहती कि मुझे उस घर से नफरत है, बस पहले की तरह लगाव न रहा.इसीलिए वहां जाने से मुझे अब डर लगता है.पिछली बार लगाव तोड़कर आई थी, कहीं अगली बार नफरत न जोड़ लाऊँ.अब तो लगता है कि उस घुटन में दोबारा जीने की शक्ति मुझ में नहीं है.इसलिए वह नानी के घर की यात्रा मेरी अंतिम यात्रा थी उस घर की. उस दिन के बाद मैंने फिर कभी उस घर की ओर मुड़कर न देखा.
“जिया……..सो तो नहीं गई”. अचानक मां की आवाज फोन से आई.
“नहीं मां”…मैंने शब्दों पर जोर दिया .
“अरे! मैं तो भूल ही गई . आज तेरे इंस्टिट्यूट वाले बताने वाले थे न कि रक्षाबंधन पर छुट्टी है या नहीं. बता न कितने दिनों की छुट्टी मिली.उस हिसाब से फिर हम नानी के यहां की रिजर्वेशन करवा लेंगे.” मां ने उत्साहित होकर पूछा .
“नहीं मां…..मैं आपको यही तो बताने की कोशिश कर रही थी कि इस बार राखी पर हमें केवल एक दिन की छुट्टी मिली है.एक दिन तो वहां जाते जाते लग जाएगा.मुझे नहीं लगता कि इस बार मैं राखी पर आपके साथ नानी के यहां चल पाऊंगी.मुझे माफ करना.” मैंने उनसे कहा.
“अरे यार……हां अभी आई. अच्छा जिया, तेरे पापा बुला रहे हैं.मैं बाद में बात करती हूं.अच्छे से रहना और खूब मन लगाकर पढ़ते रहना. मिलना- मिलाना तो होता रहेगा.” माँ ने यह कहते हुए फोन काट दिया.
“बाय माँ” मैंने फोन को एक तरफ बिस्तर पर रख दिया और उस कागज को पढ़कर डस्टबिन में फेंक दिया जो आज हमें इंस्टिट्यूट से नोटिस के तौर पर मिला था.उसमें लिखा था…….’रक्षाबंधन के पावन पर्व पर सभी विद्यार्थियों को एक सप्ताह की छुट्टी प्रदान की जाती है.मजे करना.’
लगता है इस बार राखी हॉस्टल में ही मनानी होगी.चलो, कोई बात नहीं.अगली बार देखेंगे.मुझे खुशी बस इस बात की है कि माँ का दिल दुखाए बिना मैंने अपनी बात रख ली.
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बीना, मध्यप्रदेश