आप…बुद्ध हैं न!
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इस वीराने देस में
आप किसे ढूंढ रहे हैं भंते…
करुणा को?
नहीं, अब वह यहां नहीं रहती
हां, आती रहती थी पहले
पर अब नहीं
मायके का रिवाज बदल गया है न!
कौन…दया?
वो तो अब आती ही नहीं
घर निकाला हो गया न कब का
बहुत समय हो गया…दिखाई नहीं पड़ी
हां, दिशा रहती है
मगर काफी बदल गई है
सच नहीं बोलती अब
बल्कि काफी हिंसक हो गई है…बेमुरव्वत
कौन…प्रेम?
उसकी दशा तो बहुत ही खराब है
बुनियाद हिली हुई है उसकी
किसी कोने में पड़ता रहता है
समझिए…बस आभास होता है
उसके होने का
कौन वो…जो ठिठिया रहे हैं?
वैशाखनंदन हैं
और बगल में जो खीसें निपोड़े बैठे हैं
मर्कटों के दलपति हैं
इस विकट घड़ी की सुई इन्हीं के हाथों में है..
ना…ना, आप इधर ही ठहरें
उधर कतई न जाएं
भिक्षापात्र तो छीन ही लेंगे
आपके शुभ्र वस्त्र भी फाड़ डालेंगे
बेचने के लिए
आपके चेहरे की आभा, भावमुद्रा भी नोंच लेंगे..
सुनिए…
आप…बुद्ध हैं न!
हमें आपसे बहुत प्यार है
पर कैसे स्वागत करूं आपका
यहां कदम कदम पर पहरा
वाणी पर आघात गहरा है
कैसे कहूं…
उदयन की नेकी को चीथ रहा अंधकाल है
प्रसेनजित की गद्दी पर काबिज अंगुलीमाल है।
जंतर मंतर
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वक्त की नजाकत और ग्रहों की चाल
अब नहीं बता पा रहा
जंतर मंतर का सम्राट यंत्र
इसके तंतु ढीले
उपकरण कठोर हो गए हैं
दुर्योग से जंतर मंतर के शाखा शहरों की हवा भी गर्म
दिशाहीन और बेलज्जत बह रही है
खगोलीय ग्रहों की गति की जगह
सहभागी राम यंत्र के राजकीय पिंडों की मति बूझने से
जय प्रकाश यंत्र का असर कम हो गया है
यंत्र से षडयंत्र
तंत्र का अभिमंत्र
समरकंद के विपरीत है
नैसर्गिकता खो रही वेधशाला पर
बधशाला बनने का खतरा मंडरा रहा है।
बारिश की बूंदें
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बारिश की बूंदें
अपनी मूसलाधार गति से
पहले रोमांच भरती हैं
धीरे धीरे सिहराती हैं
फिर आतंकित करती हैं
अपनी सामूहिकता के शोर से
विशाल प्रपात का बोध कराती हैं
एकरस द्रुत आलाप भरती प्रतीत होती हैं
झरना और गिरना
नए सृजन के ही प्रतिरूप हैं
एक गढ़न
एक प्रस्फुटन के दृश्यांकन हैं
अकेली बूंद भी
अपनी बनावट और असर में
उतनी ही शक्तिमान होती है
छवि ऐसी कि
आंखों में बस जाती है
खुद गिरने से पहले
पलकों को गिरने नहीं देती
आधार बिंदु पर अटकी रहने तक
आंगन ओसारे के हर रंग को
खुद में समाहित और प्रतिबिंबित करती है
अकेली बूंद
पूरी बारिश का प्रतिनिधित्व करती है
वास्तव में
बारिश के आनंद के बाद के बोझिलपने को दर्शाती है
उस कार्य व्यवहार को इंगित करती है
जिसे जीवन की गति कहते हैं
बारिश की बूंदें
अपनी सामूहिकता में कल्पना के रंग भरती हैं
अपने अकेलेपन में यथार्थ को गतिमान करती हैं.
परिवर्तन की चाबियाँ
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वक्त की कई क्रॉसिंग पर
टंगी हैं परिवर्तन की चाबियाँ
गौर करना
और ध्यान से उठाना
बगल की बहुरंगी दीवारों पर
लिखी हैं उद्गारों की किताबें
पढ़ते जाना
और मर्म को समझना
चाबियां हाथों को खूब पहचानती हैं
दीवारें आँखों को भलीभाँति पढ़ती हैं
मर्म भरे शब्दों को कभी क्रॉस न करना
क्रॉसिंग पर खड़ी भीड़ का
कतई उपहास न करना
रुला देंगे वक्त के बेलौस थपेड़े
उमड़ पड़ेगा भावनाओं का ज्वार
और
हुंकार कर उठेंगी मूक खड़ी दीवार।
-सत्यकेतु , प्रयागराज