1. नदी अपनी रेत मांगने आई है
बहुत फूले थे
सीना भी खूब चौड़ाया था
टिकाएं थे नींबू भी
वटदार मूंछों पर
कलफ लगा, साफे को
हुनर से बांधा था माथे पर
झुकाई थी अपनी
कई कई हवेलियां
आने वाली अपनी नस्लों के वास्ते
तब नदी कुछ नहीं बोली थी
मगर जब बड़े अत्याचारों से
आजिज आ गई
वह आई है अपनी रेत मांगने
अपनी जमीन मांगने
बाढ़ कह कर उसकी
तोहीन तो मत करो
2. माफ़ करना दोस्त !
जिस वक्त तुम्हारा फोन घनघनाया
मैं अपने पुराने पड़ोसी का नाम याद कर रहा था
जिनके बारे में अभी अभी सूचना मिली थी कि
वे अपना बसा बसाया घर छोड़ कर
कुछ गठरियों में जरूरी चीज बस्त बांधकर घर को
बिना ताला लगायें
राहत शिविरों में चले गए हैं
परिवार के एक सदस्य को खोकर
हत्यारों ने उसे
कपड़ों से पहचान बड़ी लिया था
दाढ़ी – चोंटी के जारी विमर्श में
माफ़ करना दोस्त !
जिस वक्त तुम अनवरत फोन घनघना रहें थे
मैं कालोनी के रिटायर्ड अंकिलों के द्वारा
फारवर्डेड वाट्स अप मैसेजेस * को
गुस्से और ग्लानि से डिलीट कर रहा था
जो सभ्यता और संस्कृति के अब तक अर्जित ज्ञान को
गुड़ गोबर कर रहे थे
अपने अदृश्य हाथों से मेरे भीतर के बचे हुए मनुष्य को निचोड़ कर
गढ़ रहे थे आदिम बर्बर खालिस शरीर में
माफ़ करना दोस्त !
उस वक्त मैं एक जरूरी और
न टाली जा सकने वाली लड़ाई के
दो पाटों से लड़ रहा था
* पत्रकार रवीश कुमार द्वारा व्यवह्रित शब्दावली
3. लड़की जो चित्र बनाती है
सोचो वह कभी युद्ध का चित्र क्यों नहीं बनाती
क्यों नहीं बनाती तोप या तलवार या
छुरी चाकू या भाले बर्छी
लड़की जो चित्र बनाती है
उसमें सैनिक जो होता है
उसके हाथ पर दो हाथ होते हैं
जनाने बांधते हुए उसपर
रक्षा सूत्र
लड़की जो चित्र बनाती है
उसमें किसान होता है
खेत जोतता फसल उगाता हुआ
उसके चित्रों में होते हैं
उगता सूरज ढलती सांझ
उसमें होते हैं अपनी सहेली का हाथ पकड़कर
झूला झूलती एक दूसरी लड़की
विध्वंस नहीं रचती लड़की चित्र में
कभी संवारती खुद को तो कभी
दुनिया को सुन्दर रंगों से रचती
लड़की चित्र बनाती है
4. कविता में लिखता हूं घर
कविता में लिखता हूं घर
लिखता हूं बच्चे, पेड़, फूल
तभी पतझड़ की तरह झर जाते हैं
बिम्ब प्रतीक अक्षर
भाषा का सारा कोश खाली हो जाता है
कविता में लिखता हूं प्यार
चिड़िया और कबूतर सफेद
किसी विलुप्त हो चुकी नदी – सी
खोजने पर भी नहीं मिलती कविता
भाषा को माँ की गोद देने के जितने करता हूं प्रयत्न
क्षमा करने दया करने के देना चाहता हूं संस्कार
वह भूखी शेरनी के जैसी झपट पड़ती है मुझ पर
गांधी के स्मरण के बीच
वह भगतसिंह को लेकर हो जाती है उपस्थित
एक कवि को हारना चाहिए अपनी कविता से!
जैसे हार जाता है पहाड़
सबसे हल्की पानी की धार से
5. मरा हुआ घोड़ा
उसने घास से यारी की थी
और दौड़ने से ठान ली थी रार
विरोध किया नहीं आँखों को ढंकने का
मुंह में लोहे को लुक्मे के जैसा थामें रहा
वह पटक सकता था सवार को
मगर चने से भरे अलिक के लालच में
सहता रहा गालियां और चाबुक की मार पीठ पर
कभी कभी माँ की कोंख को याद करता है
आंसू बहा लेता है बिना आवाज किए
पूँछ के बाल तोड़कर ले गए हैं कापालिक
मक्खियां उड़ानें जितने भी बचे नहीं है अब
मांस पेशियां और टांगों के खम
विगत का वैभव है जो
उसके सपनों में उतर आता है कभी
जब वह खड़े खड़े बैचेनी से पहलू बदलता है
लेकिन उसके कान अब भी खड़े और कड़े हैं
ऐसे घोड़ों की मौत पर मर्सिया कौन पढ़ता है
6. गांव बोएं
आओ गांव बोएं
बोते हैं कविता में जैसे चिड़िया
धान रोपें छुटी हुई पंक्तियों के बीच
बादलों से करें गुहार कि
वे आए और बरसाएं पानी
कविता में कोकिल से कहें
कूंके वे सुरीले कंठ से
मोर आएं और दिखाएं
अपना मनोहारी नृत्य
नाम पुकारे कविता में ही
ग्रामीण समाज के किताबों से पढ़े हुए पात्रों के
धीरे धीरे स्मृति में आ रहे
गोदान के , बलचलमा के , परति परीकथा के
आधा गांव के , रागदरबारी के
कविता में बोएं घट और पनघट को
नदी और उसके कछार को
नाव और मल्लाह को
गांव के प्रेमी और प्रेमिका के
मिलन स्थलों को
कविता में बोएं और खुश हो जाएं
हमने बचाली अपनी महान संस्कृति को
7. कविता
एक कवि ने गिरने के
सभी श्वेत स्याह दृश्यों को समेटकर
अपनी कविता में
फिर खुद से कहा – गिरो
और वह कविता चर्चित कविता की पंक्ति में शामिल हो गईं
एक कवि ने
अकाल और उसके बाद के
तमाम दृश्यों को समेटकर
अपनी कविता में
अलग से कुछ नहीं कहा और
वह कविता
कालजयी हो गई
कविता में इसी तरह
एक कवि ‘ इत्यादि ‘ को
दर्ज़ करता है पूरे सम्मान से
और कविता अर्थ प्राप्त करती है
निरर्थकताओं के घटाटोप में
यहीं पर खुलते हैं द्वार
यहीं पर होती है दीक्षा
पार्टनर यहीं से जन्म लेता है यह प्रश्न
कि – तुम्हारी पालिटिक्स क्या है
8. कहीं भी चला जाऊं
मैं कहीं भी चला जाऊं
चाहे कितनी दूर चाहे कितने भी समय के लिए
घर की छत पर तारें रखेंगे अपनी नज़र
चांद अपना नियमित फेरा करेगा ही
अमावस्या को वह
तारों को कर जाएगा ताक़ीद
” मैं छुट्टी पर रहूंगा कल
तुम जरा निगाह रखना ”
पूर्णिमा को तारों को भेज देगा छुट्टी पर
हवा सूरज सभी रखेंगे ख्याल
मैं कहीं भी चला जाऊं
चाहे कितनी दूर चाहे कितने भी समय के लिए
घर अपने अंक में भरे रहेगा
मेरी उपस्थिति
मेरा हलन चलन
उबलती चाय की गंध
मेरे पसीने की गंध
मसालों की गंध
मेरे स्वाद की गंध
बंद घर में ये सब
मेरी प्रतीक्षा में और
छत जो खुली है
और जिसके ऊपर तना है आसमान
उसके दिन रात
लोटकर आते ही समा जाएंगे उसी तरह
जैसे कथित विश्व विराट रुप में
देखा है घर की भिंत पर
जिसे कल्याण पत्रिका से निकाल कर
जड़वाया था कभी पिता ने
9. आवाज़
नहीं … थकना नहीं है
भीतर दौड़ती हुई हर रक्तिम बूंद
दौड़ने का मौन आवाहन है
उस दिशा में जहां से आ रही है
पानी की आवाज़
जिसमें सम्मिलित हैं
मिट्टी की , हवा की , व्योम की
और आग की आवाज़
ये एक माँ के –
बच्चे के जनने की आवाज़ है
जिसे सुन रहा हूं
वहां भी उपस्थित है पानी की ,
पंच महाभूतो की आवाज़
निष्क्रियता के सारे जमावड़े
दुश्चिंताओं के छतनार
अंदेशों के तंबू
सन्नद्ध है बाज़ू में
तब भी पक रहा है नींबू
अप्रैल के महीने का
पलाश लटालूम है
बाहर भले बारुद हो पानी की छाती पर
गहरी बह रही स्त्रोत्स्विनी की आवाज सुनाई देगी
धरा से जरा कान तो सटाईये
10. खुलकर
पास बैठे दोस्त को जोर से पुकारा उसका नाम लेकर
वह चौंका उसने आश्चर्य से देखा
मैंने कहा फुसफुसा कर बात करने से
आत्मा और रीढ़ दोनों
घायल हो गए हैं
स्कूल से लौट कर घर आई पत्नी को
जोर से पुकार कर कहा –
आज लेट हो गई
उसने चौंक कर आश्चर्य से देखा
घर में तो जोर से बोलो , नहीं तो
दीवारों के कान भी बंद कर देंगे
सुनना
बोलने को कला नहीं
किसी अवांछित सभ्यता का मुखौटा नहीं
शिक्षित के उद्गार नहीं
आर्ष ग्रन्थों के वचन नहीं
खांटी भाषा में
उसके पूरे ओज और
बलाघात् सहित कहो
जिससे भी मिलों
खुलकर मिलों
खुलकर हँसों
खुलकर जोर जोर से करो बातें
भय का भूत इसी से वापस जाकर
उल्टा लटकेगा
निर्जन में खड़े पुराने बरगद पर
जनेश्वर, रतलाम, मध्यप्रदेश