तब मैं मिडिल स्कूल का छात्र रहा होऊँगा। स्कूल के पुस्तकालय का मैं ही प्रभारी था। किताबें पढ़ने का शौक पहले ही जड़ जमा चुका था। गाँव-घर के लोग मुझे इसी उम्र में किताबी कीड़ा कहने लगे थे। तब मेरे हाथ लग गयी थी एक खूबसूरत किताब। उस किताब का आवरण पृष्ठ अब भी मेरे मस्तिष्क में स्थायी चित्र की तरह बसा हुआ है। पूर्णिया जिले के भित्ति चित्र पूरे पृष्ठ पर बने हुए थे और अनगढ़ अक्षरों में ऊपर लिखा हुआ था ’मैला आंचल‘। किताब मेरे हाथ लगी और इस किताब के गाँव की दुनिया में मैं रच-बस ही नहीं गया था बल्कि घुल-मिल सा गया था। एकदम नया आस्वाद, ताजा खिले हुए फूलों की गंध और एक अनहद संगीत मेरे मन के भीतर गुंजता रह गया था। कैसा प्रभाव पड़ा था मेरे मन के भीतर, आज का मेरा शिक्षक इसकी व्याख्या करने में पूरी तरह असमर्थ है। मुझे नहीं पता कि ’मैला आंचल‘ को लेकर हिन्दी आलोचना साहित्य में क्या हलचलें मची थीं। आज जबकि एम॰ ए॰ की कक्षाओं में उसी ’मैला आंचल‘ को पढ़ा रहा हूँ तो हिन्दी आलोचना की एक ऐसी दुनिया का पता चल रहा है, जिसने ’मैला आंचल‘ की लानत-मलामत ही की थी, उस समय जब मैं इसके अपूर्व और अनहद संगीत के सागर में गोते लगा रहा था। रेणु की कहानियाँ मैंने बाद में पढ़ीं और रिपोर्ताज तो और भी बाद में। रेणु को तो मैंने सबसे बाद में देखा। सिर्फ देखा ही। नजदीक पहुँचकर देखने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था। पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में उन्हें बेहोशी की हालत में देखा था, वह भी वार्ड की खिड़कियों से। पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी के पाठ्यक्रम में रेणु को बहुत बाद में शामिल किया गया। प्राध्यापक आलोचक, रेणु के कथाकार रूप को प्रारंभ से ही स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे और आज जब स्वीकार करने की स्थिति में हैं तो उनमें से अधिकांश रेणु के कमजोर पक्ष के कारण ही उन्हें स्वीकार कर रहे हैं। आज मैं यह कह सकने की स्थिति में हूँ कि रेणु की रचना की नई दुनिया को सवर्ण मानसिकता के प्राध्यापक तब भी स्वीकार नहीं करते थे, आज भी स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। हिन्दी अध्यापकों का बड़़ा समूह आज भी तोता-रटंत की तरह छात्रों को बताता है कि रेणु आंचलिक कथाकार थे। रेणु पर देश भर के विश्वविद्यालयों में जितने शोध कार्य हुए हैं उनमें से 95 प्रतिशत में यही प्रमाणित किया गया है कि रेणु का संपूर्ण कथा साहित्य आंचलिक है। विश्वविद्यालयों में रेणु से संदर्भित जितने भी प्रश्न पूछे जाते हैं, उनमें से 99 प्रतिशत यही कि-आंचलिकता की कसौटी पर ’मैला आंचल‘ का विश्लेषण कीजिए। एमए की कक्षाओं में ’मैला आंचल‘, ’ठुमरी‘ की कहानियाँ और ’पटना जल प्रलय‘ से लेकर ’तीसरी कसम के सेट पर तीन दिन‘ जैसे रिपोर्ताज मैं पढ़ाता हूँ छात्रों को। मेरे अध्यापन की 75 प्रतिशत शक्ति सिर्फ इस तथ्य पर खर्च होती है कि रेणु आंचलिक कथाकार नहीं थे या कि आंचलिक कथाकार कहकर रेणु की शक्ति और संभावनाओं को एक साजिश के तहत सीमित करने की कोशिष की जाती रही है, या कि रेणु हिन्दी उपन्यास की यथार्थवादी परम्परा की कड़ी हैं, जो परम्परा प्रेमचंद से शुरू होती है। मैं यह प्रमाणित करने में अपनी शक्ति का अधिकांश हिस्सा लगाता हूँ कि ’मैला आंचल‘ उस वाक्य का टुकड़ा है जिसे पंत ने ’भारत माता‘ शीर्षक कविता में अभिव्यक्त किया था। यह मैला सा आंचल भारत का गाँव है। धूल भरा गाँव। मैला आंचल उपन्यास इसी धूल भरे गाँव की कहानी है न कि आंचल विशेष की कहानी। कृपया आंचल और अंचल का अर्थ विभेद कीजिए।
’मैला आंचल‘ पर बात करते हुए अपनी कक्षाओं में मैं बहुत तटस्थ रह भी नहीं पाता। मैं अपने छात्रों से कहता हूँ कि चूँकि यह शिक्षक उसी माटी-पानी की ऊपज है, उसी पर्यावरण ने इस शिक्षक का निर्माण किया है इसलिए तटस्थता की बहुत मांग आप न कीजियेगा। पूर्णिया की जलवायु, वहाँ का पर्यावरण, वहाँ का समाज, वहाँ की राजनीतिक स्थिति, वहाँ की बोली वाणी, वहाँ का गीत संगीत, यानी पूर्णिया जिले की संपूर्ण लोक लय से मेरे जैसे शिक्षक का निर्माण हुआ है तो आप बहुत उम्मीद न करें कि रेणु के पाठ को आपके सामने विश्लेषित करने में मैं बहुत तटस्थ रह पाऊँगा। कई बार रेणु के पाठ को सामने रखते हुए मैं अपना पुनर्पाठ करने लग जाता हूँ। मैं एक नई बात रखता हूँ छात्रों के सामने। वह यह कि बु़द्धजीवियों और छात्रों को रेणु के पाठ में धंसने में प्रारंभिक कठिनाइयाँ क्यों होती हैं? रेणु को पढ़ाते हुए मैं अक्सर पूछता हूँ छात्रों से कि ’मैला आंचल‘ पढने में या ’तीसरी कसम‘ पढ़ने में आपके सामने क्या प्रारंभिक कठिनाइयाँ आती हैं। अधिकांश छात्र, जो कोसी जनपद के नहीं हैं, वे उपन्यास में धंसने में असुविधा महसूस करते हैं। मैंने छात्रों के सामने उदाहरणों के जरिए अपनी बात रखी। मैं उन्हें बताता हूँ कि रेणु की भाषा संभ्रान्तों की खड़ी बोली, ’हिन्दी की संभ्रान्त भाषा‘ नहीं है। उनका रचना शिल्प पारम्परिक क्लासिक रचनाओं का शिल्प नहीं है। उनके पात्र कुलीन वर्ग से आए हुए पात्र नहीं हैं। मुसहरों, पिछड़ों और दलितों के बीच से उभरे नायक संभ्रान्त समाज के स्वीकार्य नायक नहीं हैं।
रामायण-महाभारत और संस्कृत के क्लासिक पढ़ने वाले शिक्षक ’मैला आंचल‘ को क्यों कर पचाएँगे? हिन्दी के आलोचक इसे क्योंकर हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों में गिनेंगे? एक नई बात और है कि कोसी जनपद की बोली वाणी समझे बगैर ’मैला आंचल‘ में प्रवेश नहीं किया जा सकता।
’मैला आंचल‘ उपन्यास में जहाँ कथाकार भाषा को अभिव्यक्ति देने में असमर्थ होते हैं संकेतों का सहारा लेते हैं। शब्दकोषों की सहायता से मूर्ख शिक्षक इन संकेतों का अर्थ कब से ढूंढ रहे हैं और कब तब ढ़ूंढते रहेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। ’मैला आंचल‘ की भाषा खड़ी बोली हिन्दी की आम भाषा नहीं है। ’मैला आंचल‘ उपन्यास का शिल्प विन्यास हिन्दी उपन्यास का स्वीकृत शिल्प विन्यास नहीं है। इसलिए बुद्धिजीवियों को और कक्षाओं में बैठे हुए छात्रों को ’मैला आंचल‘ समझने में पहले कठिनाई होती है लेकिन हिन्दी के सहज सरल पाठकों और कक्षाओं के अनुशासन से बाहर बैठे हुए छात्रों को ’मैला आंचल‘ पढने-समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। उन्हें नए तरह का आस्वाद मिलता है।
* कक्षाओं में रेणु : एक पुनर्पाठ * : सुरेंद्र स्निग्ध

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