निर्भय देवयांश
भारतीय अर्थव्यवस्था में चुनावी रेवड़ियों के बीच जीत की गारंटी असुविधा पैदा कर रही है। यह किसी के लिए शोभनीय नहीं है। सत्तापक्ष हो या विपक्ष। संकट देश पर बढ़ेगा तो यह जीत बहुत कारगर नहीं होगी। दुनिया की अर्थव्यवस्था में भारत पांचवें स्थान पर आ गया है! यह खुशियाँ कब तक टिकेगी यह देखना होगा। दुनिया के देशों में भारत आज भी विकासशील देश ही है। इसी रूप में इसकी गिनती होती है।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कोरोना जैसे संकटकाल में 80 करोड़ देशवासियों को 5 किलो मासिक अनाज की व्यवस्था की गयी। याद रहे यह संकट का समय था। इस संकटकालीन सुविधा पर हजारों करोड़ वार्षिक किए जा रहे हैं। चुनाव में रेवड़ियों की घोषणा संकटकालीन व्यवस्था तो नहीं ही कही जाएगी। आपका प्रशासन कुशलतम नहीं होगा तो कितनी रेवड़ियां बांटेंगे और कब तक बांटेंगे? देश और राज्यों के पास क्या कुबेर का मुद्रा भंडार है कि कभी खत्म नहीं होगा? यह विचार सभी के लिए जरूरी है कि रेवड़ियों के सहारे चुनावी घोषणाओं की परिपाटी बंद हो। कर्नाटक हो चाहे मध्यप्रदेश। बिहार हो चाहे दिल्ली।
अंत में इतना ही कहा जाना उचित है कि उच्च वर्ग के लोग यदि अपनी सुविधाओं से कुछ रेवड़ियां बांटते हैं तो उनके मानवीय पक्ष सामने आएंगे और आमजन के करीब पाए जाएंगे। लेकिन विशेष दिखते हुए अति विशेष सत्ता की चाहत रेवड़ियों के सहारे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए मुश्किल घड़ी है।
लहक डिजिटल ब्यूरो