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Lahak Digital > Blog > Literature > भारतीय प्राचीन ज्ञान-परम्परा में प्रसव पूर्व मनोविज्ञान (Prenatal Psychology)- यूरी बोत्वींकिन
Literature

भारतीय प्राचीन ज्ञान-परम्परा में प्रसव पूर्व मनोविज्ञान (Prenatal Psychology)- यूरी बोत्वींकिन

admin
Last updated: 2025/03/30 at 6:25 AM
admin
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26 Min Read
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यूरी बोत्वींकिन, हिंदी शिक्षक एवं भारतविद्, (तरास शेव्चेंको कीव राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, यूक्रेन)

“ज्ञान ही शक्ति है” – मेरी मातृभाषा यूक्रेनी में यह कथन अनेक शैक्षिक संस्थाओं में एक नारे के रूप में बड़े अक्षरों में लिखा मिलता है। हिंदी में एक कहावत के रूप में यह शायद कम प्रचलित है किंतु जिस भाषा में शास्त्र और शस्त्र शब्दों की व्युत्पत्ति एक ही जड़ से विकसित होती है उसमें निस्संदेह यही सिद्धांत सहस्राब्दियों से बरता जाता आया है। अधुनिक विज्ञान जीतना भी विकसित होता जा रहा है उतना ही अक्सर वह अपनी नई नई प्राप्त हुई खोजों का पूर्व उल्लेख भारतीय प्राचीन शास्त्रों में पाकर अचंभित रह जाता है। वेदों, उपनिषदों, इतिहासों, शिक्षाशास्त्र, नीतिशास्त्र अथवा धर्मशास्त्र, नाट्यशास्त्र, वास्तुशास्त्र , खगोलशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, व्याकरणशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कलाशास्त्र, धनुर्वेद आदि ग्रंथों में प्राचीन ऋषियों ने जो ज्ञान बटोरा है उससे लगता है कि आधुनिक विज्ञान के अस्तित्व में आने से पहले ही मानव-जीवन के प्रत्येक पहलू तथा क्षेत्र का गहनतम वैज्ञानिक विश्लेषण सनातन परंपरा में हो चुका था। फिर प्रश्न ये उठते हैं कि इस विशाल वैज्ञानिक धरोहर का अनावरण अभी क्यों हो रहा है, विश्व-गुरु बनने की क्षमता रखते हुए भी भारतीय ज्ञान परंपरा इतनी शताब्दियों तक उपेक्षित या नज़रअंदाज़ क्यों रही है, स्वयं भारत ने विज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्रों में नवकृत पश्चिमी विचार-धाराएँ एवं प्रवृत्तियाँ क्यों अपनाई हैं… इत्यादि। यदि इस सब का उत्तरदायी केवल उपनिवेशवाद को ठहराया जाए तो उत्तर सरल सा होगा किंतु बहुत अधूरा भी… पूरा उत्तर पाने के लिए हमें मानव-चेतना के विकास को गहरे से समझना होगा।
सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि विज्ञान का भिन्न-भिन्न विभागों में विभाजन मात्र शैक्षिक सुविधा के लिए किया गया था, न कि विज्ञान की अनेक धाराएँ बनाने के लिए। अपने मूल में ज्ञान एक है, अखंड तथा संपूर्ण। प्राचीन ग्रीस में भी पूरी ज्ञान परंपरा को फ़िलोसफ़ी ही कहते थे, अर्थात ज्ञान के प्रति लगाव। बहुत बाद में वही फ़िलोसफ़ी पूरी ज्ञान-परंपरा का बस एक विषय बनकर रह गई, गणित, रसायन, भाषाविज्ञान आदि बहुत से विषयों के साथ एक पंक्ति में खड़ा होकर। पहले उसी फ़िलोसफ़ी के अंदर कला भी आती थी जिसको बाद में विज्ञान से अलग कर दिया गया। फिर ज्ञान-परंपरा को विज्ञान तथा मानविकियों में विभाजित किया गया। धर्म-आध्यात्म-रहस्यवाद को भी हटाया गया वैज्ञानिक विचार-धारा से। अर्थात आरंभ में ऐसा कोई विभाजन नहीं था, जीवन को जानने की मनुष्य की जिज्ञासा में व्यावहारिकता, भौतिकवाद, कलात्मकता, ध्यानात्मकता तथा धार्मिकता मिल-जुलकर रहा करती थी, इन सभी पहलुओं की ज्ञान को प्राप्त करने की प्रक्रिया में अपनी-अपनी भूमिका हुआ करती थी, ये मानव-चेतना में बनते जीवन-चित्र में अपना-अपना स्थान और स्तर बनाया करती थी। विज्ञान, कला तथा आध्यात्म एक ही दृष्टिकोण में समाए रहते थे। सरल शब्दों में कहें तो भौतिक प्रकृति, प्रकृति को समर्पित कविता तथा प्रकृति में देखी हुई ईश्वरीय शक्ति – ये तीनों एक ही ज्ञान के समान पूरक थे, न कि एक दूसरे से पृथक विचार-धाराएँ।
जैसे ऋग्वेद में अग्नि की स्तुति में कहा जाता है –
काली रात और उजला दन अपनी प्रवृत्तियों द्वारा धरती व आकाश को पृथक करते हैं। वैश्वानर अग्नि तेजस्वी के समान उत्पन्न होकर अपने प्रकाश से अंधकार का नाश करते हैं।। (9-1)
इसीलिए भारतीय प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में हमें ब्रह्मांड तथा प्राकृतिक तत्वों का ज्ञान भी मिलता है, उनको समर्पित सुंदर काव्यात्मक रचनाएँ भी तथा प्रतीकवादी दृष्टि से उनमें देखी गई दैविक छवियों की आराधना भी। विज्ञान, कला तथा आध्यात्म – इन तीनों के एक होने पर ही बनी है पूरी सनातन ज्ञान-परंपरा। पश्चिम में जैसे विभाजन इस परंपरा का कभी नहीं हुआ है। तथाकथित आधुनिक विज्ञान में ज्ञान का भौतिकवादी व्यावहारिक पहलू ही विज्ञान की क्षेणी में रह गया है, कला और आध्यात्म को मनुष्य की व्यक्तिगत रुचि तक सीमित रखा गया है। इसीलिए भारतीय शास्त्रों में अपस्थित बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों को पश्चिमी विज्ञान देख ही नहीं पाया क्योंकि जिन ग्रंथों में स्पष्ट भौतिकवादी अवधारणा नहीं दिखती हो, जो ग्रंथ काव्यात्मक तथा प्रतीकात्मक शब्दावली के प्रयोग से रचे गए हों, जिनमें देवी-देवताओं की स्तुति भी संलग्न हो, वे कैसे वैज्ञानिक हो सकते हैं…
इसीलिए, उदाहरण के लिए, अभी थोड़े पहुंचे हुए वैज्ञानिकों को अचानक दिख गया है कि पृथ्वी तथा सूर्य के बीच की दूरी का उल्लेख हनुमान-चालीसा में मिलता है और वही दूरी आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के द्वारा भी प्रमाणित की गई है। पहले क्यों किसी ने ध्यान नहीं दिया था उस बात पर? बस इसीलिए कि भारतीय ज्ञान-परम्परा को उपेक्षित रखना था? नहीं, वास्तव में बात यही है कि व्यावहारिक पशचिमी वैज्ञानिक चेतना के अनुसार जिस रचना का नाम “हनुमान-चालीसा” है वह खगोल-शास्त्र का कोई विश्वासनीय स्रोत हो ही नहीं सकता है। जहाँ काव्य-पाठ तथा देव-स्तुति हों वहाँ विज्ञान नहीं होता, यह विभाजित, सीमित तथा असंतुलित आधुनिक मानव-चेतना का दृष्टिकोण है। स्पष्ट और सीधि वैज्ञानिक शब्दावली के सिवा अन्य सभी अभिव्यक्ति-शैलियों को गंभीर दृष्टि से देखा ही नहीं गया था उन सभी कृतियों को मिथकीय, धार्मिक या मात्र साहित्यिक घोषित करके।
इसी कारण से चार्ल्ज़ डार्विन के ही जैसे विकास-सिद्धांत के स्पष्ट से संकेत विष्णु के दशावतार में किसी को नहीं दिखे थे पहले, क्योंकि “मिथकों” का विज्ञान से क्या संबंध है! सूखी वौज्ञानिक शब्दावली को मानक न मानती और प्रतीकवादी तथा काव्यात्मक अभिव्यक्ति के प्रति भावुक रहती चेतना ही भारतीय शास्त्रों में शुद्ध तथा बहुआयामी ज्ञान-स्रोत पहचान सकती है। इसलिए विज्ञान-जगत में भारतीय शास्त्रों को तथा भारतीय ज्ञान-परंपरा को उनका सम्मानित स्थान वापस दिलाने के लिए हमें सबसे पहले अपनी चेतना में ज्ञान के उस आधारहीन विभाजन का पुनर्विश्लेषण करके उसको ज्ञान की विविध समपूर्णता में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
आज की सभ्यता में बढ़ती हुई भौतिक सुविधाओं के साथ साथ गहरी हो रही मानव की आत्मखोज तथा स्वयं को समझने की प्रक्रिया भी वैज्ञानिक प्राथमिकता बन रही है। सामूहिक प्रगति के साथ साथ बढ़ते हुए मानसिक संकटों को ध्यान में रखते हुए आधुनिक मनोविज्ञान मानव की व्यक्तिगत संतुष्टि तथा सिद्धि को अधिक महत्व देता जा रहा है। हम कह सकते हैं कि विज्ञान समाज से व्यक्ति की ओर बढ़ता जा रहा है, अर्थात संतुलित तथा सफल समाज का प्रथम कारक संतुलित तथा सफल व्यक्ति में देखा जाने लगा है, सभ्यता को विकसित करने के माध्यमों से अधिक स्वयं सभ्यता विकसित करनेवाले मानव के विकास में ही गहन रूप से झांका जाने लगा है, विश्व भर की सभी परिस्थितियों से प्रथम हमारी मनोस्थिति को ही ठहराया जाने लगा है। किंतु जीवन-दृश्य की हमारी प्राप्ति में हमारे ही मानस तथा इंद्रियों की प्राथमिकता तो सहस्राब्दियों पहले उपनिषदों में घोषित की गई थी। बस “आध्यात्मिक” या “धार्मिक” साहित्य की क्षेणी में रहकर वह प्राचीनतम ज्ञान-स्रोत आधुनिक मनोविज्ञान का आधार नहीं बन पाया था जिस कारण से मनोविज्ञान को शताब्दियों तक अंधेरों में भटकना पड़ा मनुष्य की आत्मपहचान की जिज्ञासा से उत्पन्न होती कठिनाइयों को और उलझाते हुए उनको सुलझाने के बजाय।
आधुनिक मनोविज्ञान की बात करें तो आजकल इस विधा की एक नवीनतम उपधारा लोकप्रिय होती जा रही है जिसको कहते है प्रसव पूर्व मनोविज्ञान (Prenatal Psychology)। इस का सार यदि थोड़े शब्दों में समझाएँ तो इसके आधार में यह मान्यता रखी हुई है कि मनुष्य की शारीरिकता के साथ साथ उसकी मानसिकता भी गर्भाधान के क्षण से ही बनना शुरु करती है और पूरी गर्भावस्था के समय होनेवाली माँ जो कुछ मानसिक अनुभव प्राप्त करती है उसका सीधा सा प्रभाव होनेवाले बच्चे पर पड़ता है। अर्थात माँ का ही एक भाग होकर भ्रूण भी भावात्मक स्तर पर वह सब जी लेता है जो माँ पर बीतता है और उसी से उसके होनेवाले स्वभाव, भावुकता, बुद्धिमता तथा मानसिक संतुलन की रूप-रेखा भी बनती है। महिला के लिए गर्भावस्था का समय जितनी सुखद, आनंदपूर्ण तथा सौंदर्यपूर्ण अमुभूतियों से जुड़ी हो, उतनी ही बड़ी संभावना है कि जन्मे बच्चे के स्वभाव में संतुलन, संतुष्टि, कलात्मकता, प्रसन्नता तथा सकारात्मक दृष्टि सहज रूप से उपलब्ध होंगे। और उल्टा, गर्भावस्था के समय माँ के पाए नकारात्मक अनुभव से बच्चे में डर, असंतुलन, हीन-भावना आदि मानसिक विकृतियाँ विकसित होती है। माँ का प्रत्येक अनुभव भ्रूण में विक्सित हो रही मानसिकता की नींव में लगाई हुई एक दृढ़ सी ईंट होती है जिसका योगदान और प्रभाव बच्चे के साथ फिर जीवन भर के लिए रह जाता है।
उतना ही नहीं, गर्भाधान के समय भी माँ के मन में रखे भाव, उद्देश्य और इच्छाएं भी बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। सरल शब्दों में कहें, तो संतान को जन्म देने का सुखद सपना मन में लिए सुखी प्रेमियों के मिलन से सुखी, स्वस्थ और सफल बच्चे पैदा होते हैं, जबकि बलात्कार या अन्य प्रकार के विवशतापूर्ण संबंध से पैदा हुए बच्चों में आरंभ से ही एक गहरा सा मानसिक सदमा बना रहेगा जिसके कारण अनेक मानसिक रोग विकसित हो सकते हैं। या फिर अनचाहे हुए गर्भाधान का पता चलने पर होनेवाली माँ का डर जाना, पछतावा करना या भ्रूण-हत्या के बारे में सोचना, इस सब से भी बच्चे की मानसिकता में इस संसार में स्वयं के अनचाहे होने का भाव और हीन-भावना जन्मती है। अतः प्रसव पूर्व मनोविज्ञान मानव मानसिकता के विकास में हो सकती समस्याओं का जड़ में ही रोकथाम करने की बात करता है संबंधों तथा संतान की संभावना को लेकर सचेत और सकारात्मक रहना सिखाते हुए।
सतही दृष्टि से देखकर कोई यह भी कह सकता है कि इस मनोवैज्ञानिक विचार-धारा के संकेत प्राचीन भारतीय साहित्य में तो नहीं मिलते हैं। हाँ, निस्संदेह हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में प्रसव पूर्व अवधि का महत्त्व बड़े स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है। गर्भाधान संस्कार, पुंसवन संस्कार तथा सीमन्तोन्नयन संस्कार – ये तीन अंतर्गर्भ संस्कार शिशु के स्वस्थ शारीरिक तथा मानसिक विकास के लिए ही बरते जाते हैं और उनमें रखी मानव-प्रकृति की गहरी समझ तथा सकारात्मक व्यावहारिकता स्पष्ट दिखती है। पर कोई यह भी कह सकता है कि यह सब रीति-रिवाजों तथा लोक-संस्कृति के दायरे में आता है और विज्ञान से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है। किंतु यह सत्य नहीं होगा। वही बात है, गहरी वैज्ञानिक जानकारी परिचित वैज्ञानिक शब्दावली में न कही हुई हो, कलात्मक-प्रतीकवादी शैली में कही हुई हो तो आधुनिक “विभाजित” चेतना उसमें विज्ञान नहीं पहचान पाती है। जबकि भारतीय इतिहासों तथा पुराणों में भी हमारे सामने प्रसव पूर्व मनोविज्ञान के कई सशक्त उदाहरण प्रस्तुत होते हैं।
संभवतः इस प्रसंग में आपको सर्वप्रथम महाभारत का वीर अभिमन्यु याद आया जिसने माँ की कोख में ही रहकर अपने पिता अर्जुन से अपनी माँ के कानों के माध्यम से चक्रव्यूह तोड़ने का सैन्य रहस्य सुना था जिसका दूसरा भाग अनसुना रह गया था माँ के बीच में सो जाने के कारण। यह एक छोटा सा उदाहरण है जिसका वैज्ञानिक मूल्य हमें माँ-भ्रूण के उस गहन बौधिक तथा भावात्मक जुड़ाव में स्पष्ट दिखता है। किंतु महाभारत की कथा में यह इकलौती ऐसी घटना नहीं है।
वास्तव में महाभारत के उस पूरे भीष्म युद्ध की जड़ें ही यदि हम ढूंढने चलें तो वापस उसी प्रसव पूर्व मनोविज्ञान पर आएंगे। युद्ध का मुख्य कारण पाण्डवों और कौरवों के बीच हुई अनबन बताई जाती है किंतु कोई भी अनबन बिना मनोवैज्ञानिक आधार के उत्पन्न नहीं होती। और उस आधार को समझने के लिए सत्ता-मोह, लोभ या ईर्ष्या जैसे सरलता से समझ में आनेवाले शब्द प्रयाप्त नहीं होंगे। हमें पाण्डवों और कौरवों के आनुवंशिक इतिहास में जाकर उनके दादा ऋषि व्यास से आरंभ करना होगा।
स्वयं एक अवैद्य और अपने माता-पिता से परित्यक्त बच्चा होकर तथा स्वयं की कुरूपता का बोध रखकर ऋषि व्यास लोगों से दूर रहकर तपस्या में लीन रहते हैं। अर्थात आरंभ से ही वे स्वयं ही इस वैज्ञानिक विचार-धारा के लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं। आध्यात्मिक साधना ही उनके लिए आंद्रूनी संतुलन एवं शक्ति पाने में सहायक बन जाती है जो कि हमें आधुनिक मनोविज्ञान की सीमाओं से बाहर ले जाकर इस प्रकार की समस्याओं के श्रेष्ठ समाधान का भी संकेत देता है। फिर सिद्धि प्राप्त करके व्यास एक महान तपस्वी के रूप में जाने जाने लगते हैं। और जब उनकी माँ सत्यवती उनका दो विध्वा राजवधुओं से नियोग करवाना चाहती हैं तो व्यास स्वयं कहते हैं माँ से कि योग्य संतान प्राप्त करने के लिए संबंध के लिए महिला का तैयार होना अति आवश्यक है।
माँ! पुत्र अकालिक मुझको यदि भ्राता को करना है प्रदान।
मेरी विरूपता सह लें वे दोनों आवश्यक व्रत-विधान।।
यदि मेरे गंध-रूप को सहन वेष को भी करतीं।
आज भी गर्भ में कौसल्या बालक विशिष्ट है पा सकतीं।। (आदिपर्व 46-47)
अर्थात स्वयं महाभारत के रचेता ऋषि व्यास ही स्पष्ट, वैज्ञानिक तथा तार्किक ढंग से प्रसव पूर्व मनोविज्ञान मूल सिद्धांत समझाते हैं तथा कुपरिणामों की चेतावनी देते हैं। और हम यह भी कह सकते हैं कि इस सब की उतनी गहरी समझ रखने के पीछे तपस्या से प्राप्त अंतर्ज्ञान के साथ साथ व्यास का सव्यं का अनुभव तथा आत्मविश्लेषण रहे होंगे…
फिर हम वही देखते हैं कि धृतराष्ट्र तथा पाण्डु शारीरिक (किंतु हम अनुमान लगा सकते हैं कि पर्याप्त सीमा तक मानसिक भी) विकृतियाँ लेकर जन्म लेते हैं। यहाँ से राजवंश की आनुवंशिक धरोहर बिगड़ जाती है और आगे चलकर हम देख सकते हैं कि दुष्टता तथा क्रूरता के रूप में वही मानसिक विकृतियाँ धृतराष्ट्र के पुत्रों कौरवों में भी आ जाती हैं जिस कारण से राजपरिवार में शांतिप्रियता तथा भाईचारा नष्ट हो जाते हैं। और यदि यह प्रश्न उठे कि पाण्डव फिर कैसे उतने सुशील, भद्र एवं धर्म के प्रति निष्ठावान रह पाए तो स्मरण करें कि महाभारत में ऐसे ही तो नहीं बताया गया है कि उन पांचों के वास्तविक पिता पाण्डु नहीं, किंतु कई शक्तिशाली तथा गुणवान देवता थे। महाभारत में एक एक छोटी बात का गहरा अर्थ होता है और यदि हम इस सारे घटनाक्रम को प्रसव पूर्व मनोविज्ञान की भी दृष्टि से देखेंगे तो चौंक जाएंगे कि इस विज्ञान के मूल सिद्धांत प्राचीन भारतीय दर्शन में कितने विश्लेषित तथा स्वीकृत रहे हैं…
अब यदि हम इतिहासों के उन पात्रों पर आएं जिनको हिंदू परंपपरा में विष्णु-अवतार माना जाता है तो उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण चुनौतीपूर्ण हो सकता है क्योंकि प्रचलित मान्यता के अनुसार राम तथा कृष्ण प्रारंभ से ही सिद्धि प्राप्त किए हुए प्राणि थे जो मानव लोक में केवल न्याय तथा सुव्यवस्था स्थापित करने के उद्देश्य से देवलोक से उतरे थे। किंतु यदि हम इस धार्मिक विचार-धारा को भी प्रतीकात्मक रूप से देखें और राम तथा कृष्ण के मानव होते हुए उनको भी मानवीय नियमों के अनुसार व्यक्तित्व का विकास होने का अधिकार देंगे तो उन दोनों चरित्रों के संदर्भ में भी हमें बहुत रोचक सी मनोवैज्ञानिक बातें देखने को मिलेंगी।
जैसे श्री राम। रामायण के आरंभ में हम राजा दशरथ को निस्संतान तथा उत्तराधिकारी प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखते पाते हैं। संतान-प्राप्ति के लिए वे भिन्न-भिन्न यज्ञ तथा पूजा-पाठ करते हैं। राम का जन्म पूरे राजपरिवार के लिए एक उत्तम आशीर्वाद बनकर घटित होता है। वह बच्चा जन्मने से पहले ही सब का चाहा हुआ, प्रतिक्षित तथा प्यारा होता है। रानी कौशल्या की कोख भर जाने के दिन से ही पूरा राजमहल एक उत्सव की अवस्था में रहने लगता है और वह बच्चा जब जन्म लेता है तो यह जगत पहले से ही उसके लिए प्रेम तथा स्वीकृति भरा रहता है।
अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी॥
(राम जी के जन्म के बाद अवधपुरी ऐसे सुशोभित हो रही जैसे मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देख सकुचा गई हो. इस तरह मन में विचारकर वह संध्या बन गई). (बालकांड)
राम का सुदृढ़, सुविकसित, आत्मविश्वास भरा व्यक्तित्व, उनकी नैतिकता, उनका हर काम में अतुलनीय होना, उनका पुरुषोत्तम हो पाना, यह सब उन्हीं सकारात्मक कारकों के आधर पर सिद्ध होता है जो उनकी प्रसव पूर्वावस्था, प्रसव के समय की अवस्था तथा शिशु-अवस्था में स्थापित रहता है। दूसरे शब्दों में कहें तो पहले से ही भक्तिपूर्ण वातावरण में जन्म लेकर वे भगवान बन जाते हैं…
किंतु श्री कृष्ण के साथ यह विषय थोड़ा जटिल सा लगता है, क्योंकि हम जानते हैं कि भगवात-पुराण के अनुसार कृष्ण जिन परिस्थितियों में जन्मे थे वे आधुनिक प्रसव पूर्व मनोविज्ञान की दृष्टि से सकारात्मक तो बिल्कुल नहीं थे। कारागार में बंद हुई और अपने सात बच्चों की हत्या की साक्षी बनी उनकी माँ देवकी की मानसिक अवस्था की कल्पना करने का मात्र प्रयास करने से हमें डर लग सकता है। फिर माँ की उस मनोदिशा में अपना प्राथमिक मानसिक विकास प्राप्त करके कृष्ण वह कृष्ण कैसे बन पाए जिनको बाद में जीते जी ही लोग भगवान मानने लगे ? क्या यही है वह एक बात जिसके आधार पर आधुनिक विज्ञान शास्त्रों को गंभीर वैज्ञानिक स्रोत न मानकर उन्हें “मिथक” कह सकता है? नहीं… उतनी बड़ी चूक शास्त्रों में नहीं हो सकती थी वह भी कृष्ण जैसे चरित्र को लेकर।
उल्टा, मुझे लगता है कि यह वही बात है जिसमें भारतीय प्राचीन ज्ञान-परंपरा आधुनिक विज्ञान से अधिक दूरदर्शी तथा गहरी प्रमाणित हुई है। इस विश्लेषण में अधिक न जाते हुए मैं यहाँ कृष्ण को समर्पित “अंतिम लीला” नाम के मेरे स्वरचित एक नाटक का एक अंश प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिसमें उसी संदर्भ में कृष्ण तथा शक्ति (काली) देवी के बीच संवाद हो रहा है। अतः भारतीय ज्ञान-परंपरा के प्रकार ही मैं कुछ तथ्यों को कलात्मक तथा प्रतीकात्मक रूप से पाठकों के सामने प्रस्तुत करके उन्हें कुछ बातों पर स्वयं विचारने के लिए प्रेरित करना चाहता हूँ –

शक्ति – हाँ, शिव ने काम का वध किया है! किंतु अर्धनारीश्वर को भी तो वही प्रकट कर पाया, न?! और तुम?! तुमने तो प्रेम कभी नहीं ठुकराया, न? स्वयं को देखो! विस्थापित, श्रापित, विचलित, अकेले!.. अब भटककर यहाँ फिर आए यह भ्रम लेकर कि पूर्व समय की भांति प्रतीक्षारत मिलेगी राधा?.. अब वह रही कहाँ इस लोक में!..(यह बोलते हुए शक्ति की आँखों में आँसू निकलते हैं)

कृष्ण सिर नीचे करके हथेलियों में चेहरा छुपा लेता है।

शक्ति (आँसू पोंछते हुए) किंतु एक बात तो अवश्य है तुम में, कृष्ण… इस काली को तुम्हीं रुला सकते हो…

कृष्ण (सिर उठाकर, आँसू भरी आँखों से उसको देखते हुए) – मैंने तुम्हें दुखी किया है, देवी!..

शक्ति (न रोने के प्रयास में आँखें बंद करते हुए और हाथ से कृष्ण को रुकने का संकेत देते हुए) – चुप !! यही हो तुम!.. यही तुम्हारा सार है!.. लहू-लुहान हो स्वयं का हृदय फिर भी सब की पड़ी रहती है!.. तुम्हारा क्या करूँ?!

शांत हो लेने के लिए शक्ति गहरी साँस लेते हुए इधर-उधर चलने लगती है, कृष्ण फिर चेहरा हाथों में छुपा लेता है।

शक्ति (थोड़े शांत भाव से) – तुम्हारे अंदर मेरी जिस गहरी उपस्थिति की बात कही थी मैंने, उसका तुम पूरा अर्थ नहीं समझे हो… मैं वह स्त्री-रूप हूँ जो तुम्हारे साथ भिन्न-भिन्न शरीरों में रहा जनम से और उससे पहले से भी… सर्वप्रथम मैं देवकी हूँ, तुम्हारी माँ, जिसका तुम्हारे इस व्यक्तित्व में योगदान लोगों के ठीक से समझ पाने के परे रह जाएगा… बहुत फिर बोलेगा विज्ञान गर्भावस्था में माँ-बच्चे के नाते पर… कि माँ का प्रत्येक भाव, सुख-दुख, भय-साहस, हँसना-रोना कितना गहरा प्रभाव छोड़ जाते हैं बच्चे के मानस पर गर्भावस्था में ही… अब सोचो, कारागार में डाली हुई स्त्री घोर आतंक में तथा अपने इतने बच्चों के मारे जाने की अकथ्य पीड़ा में रहती हुई… वह कैसे भाव अपने पेट में पलते उस नवीन जीव के साथ बांट पाती?.. मनोविज्ञान की तुम सुनो तो अवश्य तुमको जन्मना था किसी मानसिक अस्थिरता या फिर विकलांगता के साथ!..

कृष्ण (आश्चर्य से चेहरा उठाकर) – किंतु… कैसे कर पाई तुम?!..

शक्ति (दुखपूर्वक हँसकर) – यही होती है स्त्री-शक्ति! दबते-दबते, दुखते-दुखते एक सीमा आती है अचानक जिसके उस पार भाव ही नहीं रहते हैं… विचित्र, अलौकिक स्थिरता… तथा असीम शक्ति… तब स्त्री बनती है काली!.. हाँ, तुम्हें उस कारागार के आतंक से बचाने के लिए देवकी ने मेरी ही चेतनावास्था अपनाई थी!.. तुम्हें पहचाना सा लगा सुनने में, न? वही तो होती है तुम्हारी भी मनोस्थिति जब किसी संकट का करते हो सामना! समग्र, निडर, उर्जावान, उत्साहित, बंधन-मुक्त!.. एकसाथ अतिभयानक एवं अतिसुंदर!.. देवों के भी अपने और राक्षसों के भी!.. क्या सोचा सब ने? कि तुम्हारी यह विशेषता विष्णु-अवतार होने से आई है?! नहीं! यह मेरी देन है!! माँ की देन!..

अतः मानव की मानसिकता की गहराइयाँ जो आधुनिक विज्ञान में आजकल प्रथम स्थान पर आती प्रतीत होती हैं, वास्तव में भारतीय ज्ञान-परमपरा में सदा से प्रथम स्थान पर रही हैं। चेतना की अवधारणा में मानस के सभी पहलुओं को न केवल समेटा गया है किंतु बड़े सुंदर कलात्मक एवं प्रतीकात्मक ढंग से उनको शास्त्रों में समझाया भी गया है। बस उन पौराणिक प्रतीकों एवं चरित्रों में वैज्ञानिकता को पहचान पाने के लिए हमें अपनी चेतना को वापस उस अखंड अवस्था में पहुंचाने की आवश्यकता है जहाँ विज्ञान, कला तथा आध्यात्म एक ही विचार-धारा के परस्पर पूरक बनकर रहते हैं।


लेखन यूक्रेन वासी हिन्दी प्रेमी और लेखक हैं।

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