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Reading: संस्मरण : * पिता… * – यूरी बोतविन्किन
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Lahak Digital > Blog > Literature > संस्मरण : * पिता… * – यूरी बोतविन्किन
Literature

संस्मरण : * पिता… * – यूरी बोतविन्किन

admin
Last updated: 2025/03/16 at 9:59 AM
admin
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38 Min Read
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सोवियत आर्मी के सैन्य अभ्यास चल रहे थे खुले मैदान में। नवशिक्षित जवान टैंक चलाने की परीक्षा दे रहे थे। हर परीक्षार्थी के साथ एक अनुभवी निर्देशक, एक सैनिक अफ़्सर, टैंक में बैठकर उसका चलाने का और व्यवधानों से निपटने का ढंग निहार रहा था, निर्देशन दे रहा था और आवश्यकता पड़ने पर डांट भी रहा था। सेना में सिखाने का ढंग तो हमेशा से कठोर रहा है, अपेक्षित रणभूमि पर बड़े अफ़्सर स्कूली मेडम की भांति “बच्चों” को प्यार से नहीं समझाते, न वह परिस्थिति होती है, न वह स्वभाव… उस दिन एक जवान आया था जिसकी टैंक चलाने से विल्कुल नहीं जम रही थी, पता नहीं कौनसी बार परीक्षा दे रहा था। बहुत घबराया हुआ था पहले जो निर्देशकों की बहुत डांट सुन चुका था, यहाँ तक कि मार भी खा चुका था। किंतु टैंक में उसके साथ जो नए अफ़्सर बैठे थे एकदम शांत थे। फिर भी जवान के हाथ कांप रहे थे। पहली ग़लती करके वह एकदम सिकुड़ गया और निर्देशक पर डरी हुई नज़र डाली, डांट खाने की स्थिति में पहले से ही जो आ गया था। अफ़्सर किंतु बिल्कुल नहीं भड़के, शांति से समझाया कि “ऐसा नहीं, ऐसा…”। आगे भी जवान की कई गलतियों पर वही प्रतिक्रिया रही तो जवान चौंकने लगा, उससे नहीं रहा गया – “सर, आप तो मुझे गाली नहीं देते, मारते नहीं!” अब अफ़्सर चौंके – “क्यों, ज़रूरी है क्या? बेहतर सीखोगे उससे?” –“नहीं सर, आदत पड़ चुकी है मुझे। जितने भी निर्देशक साथ बैठे हैं सबने वही किया है। यहाँ तक कि मेरे परीक्षा के फ़ार्म में जहाँ अंक लिखने होते हैं वे “मूर्ख” शब्द लिख डालते थे गुस्से में।” अफ़्सर उसी शांत और मैत्रीपूर्ण स्वर में बोले – “कोई बात नहीं, तुम घबराना मत, सीख जाओगे।“ जवान के हाथ अब नहीं कांप रहे थे, दिल लगाकर वह अफ़्सर के सभी निर्देशों का पालन करने में समग्र हो गया और आख़िर पास हो गया… समय बीतता गया, उस जवान की पोस्टिंग कहीं और हो गई। फिर इस सैन्य प्रभाग के कमांडर के नाम उसकी चिट्ठी आई। कमांडर ने सभी अफ़सरों को बुलाकर उनके सामने वह चिट्ठी पढ़ी। उस में यह था कि – “सर, मैं आपके प्रभाग में पाया हुआ अनुभव साझा करना चाहता हूँ। मुझे तो लगा था कि मैं बिल्कुल निकम्मा हूँ, सारे निर्देशक मुझे डांटते रहे, गाली देते रहे, हाथ भी उठाते थे। पर एक अफ़्सर थे सबसे भिन्न, उन्होंने मुझे शांति और प्यार से समझाया बिना क्रोध किए, उससे मेरी ग़लतियाँ कम होती गईं और अब मैं एक अच्छा टैंक-चालक बन गया हूँ। हृदयतल से मैं उनका (अफ़्सर का नाम बताया) आभार व्यक्त करना चाहता हूँ।” पढ़कर कमांडर ने उस अफ़्सर से खड़े होने को कहा और सबको उनका उदाहरण देते हुए उनकी प्रशंसा की। वे अफ़्सर स्वभाव से विनम्र और थोड़े शर्मीले थे, उन्हें थोड़ा विचित्र सा भी लग रहा था यह सब… वे अफ़्सर मेरे पिता थे।
पिता का यह एक उल्लेखनीय गुण है कि सेना के कठोरता भरे वातावरण में दशकों तक रहकर भी उन्होंने अपने नर्म और दयालु स्वभाव को नहीं बदलने दिया है। तीन भाइयों में सब से बड़े होकर वे बचपन से ही मेहनत, दूसरों की देखभाल और उत्तरदाइत्व सीख गए थे। अपने जवानों का भी नेकी से ख़्याल रखते थे, बिना किसी दादागीरी या अत्याचार के। कई सिपाहियों के तो माता-पिता तक पिता से मिलने और उनको धन्यवाद देने आते थे। कुछ तो हमारे परिवार के मित्र भी बने…
मेरे भाई और मुझे जब गाड़ी चलाना सिखाने का समय आया था तो पिता ने वही नरमता और सब्र अपनाई थी, शायद इसीलिए प्रौद्योगिकियों के प्रति कोई सहज प्रतिभा या शौक न रखते हुए भी मैं भी आख़िर सीख गया। अपनी पहली सेकंड-हेंड गाड़ी चुपके से खरीदकर एक सुबह मैं बिना किसी को बताए कीव से गांव तक 200 की.मी. चलाकर पहुंच गया सबको अचंभित करके। पिता को श्रेय देते हुए गाड़ी की चाबी उनके हाथ में रख दी। उनका ख़ुशी से फूले न समाना भी विनम्र सा था, शांत और अंदरूनी चमक से भरा… फिर जब उनकी अपनी पुरानी गाड़ी खराब हो गई तो यही गाड़ी मैंने उनको हमेशा के लिए सौंपी, फिर वह भी खराब हुई तो एक और सौंपी अपने लिए तीसरी खरीदकर। ज़रूरत पर वह भी पिता को दे दूंगा, यद्यपि उससे भी उनके प्रति मेरी कृतज्ञता कहाँ पूरी हो जाएगी…
ऐसा नहीं है कि आवश्यकता पड़ने पर सख़्त नहीं होते थे, दो लड़कों के पिता के लिए वह तो असंभव ही है। पर उनकी सख़्ती भी अक्सर स्वाभाविक नहीं, विवशपूर्ण लगती थी। कभी कभी तो अनचाहे भी, बस पिता की मर्यादा बरतने के लिए डांटते थे। मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो दादी बड़े मज़े से बता रही थी कि छोटा जब था तो मेरी किसी नटखटी के कारण मुझे डांट पड़ना अनिवार्य था, पर मैंने जो किया था (मुझे याद भी नहीं है क्या) उससे पिता को क्रोध से अधिक हंसी आ रही थी, तो मेरे सामने चेहरा गंभीर करके वे मुझे डांट रहे थे और फिर तुरंत चेहरा दूसरों की ओर मोड़कर, कि मैं न देख सकूँ, हंसी को फुटने दे रहे थे।
कभी कभी तो ज़ेन-गुरु की जैसी बुद्धिमता भी कहीं से आ जाती थी अनायास उनके सिखाने के ढंग में। मेरे भाई मुझसे चार वर्ष बड़े हैं, बचपन में बहुत झगड़ा-लड़ाई होती थी हम दोनों में। एक बार जब मैं बिल्कुल छोटा था तो किसी बात पर बहुत झगड़ पड़ा था भैया से, इतना कि वे पिता से शिकायत करने गए थे। पता नहीं बच्चों की उस अनबन में और बड़े भैया की शिकायत में पिता को ऐसा क्या दिखा था पर उन्होंने कुछ अनोखा ही किया था। “अच्छा, वह इतना बिगड़ रहा है, – बोले थे. – फिर तो पिटाई करनी पड़ेगी उसकी। जाओ एक डंडी लेकर आओ, देखेंगे उस नटखट को!” यह सुनकर कि मेरी पिटाई लगनेवाली है भैया बड़ी प्रसन्नता से दौड़कर एक डंडी ढूंढकर लाए थे। यह देखकर पिता बोले थे – “अच्छा, तुम तो बहुत ख़ुश हो रहे हो! इतना प्यार करते हो अपने भाई से?” और अगले क्षण वह डंडी भैया के ही पिछवाड़े पर पड़ गई थी…
अब सोचकर विचित्र लगता है पर ऐसा भी समय आया था मेरे जीवन में जब पिता के उसी नरम स्वभाव के कारण मैं उनसे नाराज़ होने लगा था। युवावास्था के आत्मविकास में स्वयं की सफलता-असफलताओं का विश्लेषण करते हुए मुझे लगने लगा था कि एक पुरुष के लिए मैं कुछ अधिक ही भावुक और कोमल स्वभाव का हूँ जिसके कारण आवश्यक सख़्ती और “मर्दानगी” की मुझमें बड़ी कमी है। मेरी आयु के लड़कों के बीच मैं स्वयं को थोड़ा हीन अनुभव करता था, आत्मविश्वास और दुस्साहस जो दुर्लभ थे मेरे लिए। और यह लगता था कि “मर्द” वाला स्वभाव मुझमें इसलिए विकसित नहीं हो पाया था कि अधिकतर पिता ही रहे थे मेरे लिए एक उदाहरण, उन्होंने मुझे वह पौरुष्य नहीं सिखाया था जो युवकों के प्रतिस्पर्धा भरे जीवन में सहायक होता है। अच्छा हुआ कि उस समय भी मेरी बुद्धि पर्यापत विकसित थी कि उस अपनी नाराज़गी को अपने ही भीतर पनपने और फिर बुझने दिया था, पिता को नहीं सुनाया था कुछ। अब मैं समझता हूँ उनके नरम हृदय के लिए उस प्रकार का आरोप कितना घाटक होता… दादी याद आती है जो बचपन में ही पिता से किसी छोटी बात पर हमारे रुठने पर कह रही थीं – “धन्य हो तुम लोग तुम्हारे पिता जो इतने दयालु हैं। बहुत कम लोगों के भाग्य में ऐसे पिता होते हैं”… कितनी सही थीं वे, अपने बड़े बेटे का जो सर्वश्रेष्ठ गुण जानती थीं अच्छे से। और जहाँ तक मेरे स्वभाव की बात है तो भावुक और कोमल मैं पिता के परवारिश से नहीं हुआ था, माँ पर जाकर हुआ था… और उस भावुक स्वभाव के विक्सित होते समय यदि पिता ने उस पर कठोरता डाली होती तो उसका परिणाम बस मेरा मानसिक सदमा होता, और कुछ नहीं… यह भी समझ में आया फिर कि जो स्वभाव मुझे मिला था उसी में वह संभावना छुपी थी उद्देश्यपूर्वक, हठ करके, कठिनाइयों का उत्साहपूर्वक सामना करके, संसार के सुदूर कोनों में भाग्य के भरोसे घूम-फिरकर, स्वयं के बल अपने में वह आत्मविश्वास और दुस्साहस विक्सित करने की जिससे पहले से आत्मविश्वासियों-दुस्साहसियों के अब मुंह खुले रह जाते हैं कभी कभी… और साथ में कोमलता-भावुकता को भी बचाए रखने की, जो अब किसी भी पौरुष्य से अधिक मूल्यवान धरोहर लगती है मुझे…
पिता की कुछ व्यावहारिक कुशलताएँ या क्षमताएँ आज की पीढ़ी को अद्भुत लग सकती हैं। यहाँ कि समाज-प्रणाली में, विशेषकर गांव में, पिछली कई पीढ़ियों में घर से जुड़े समस्त कामों के संदर्भ में नौकर-मज़दूरों की अवधारणा थी ही नहीं, बचपन से ही लोग अपने ही हाथों से सब कुछ करना सीखते थे। मकान बनाना, खेती करना, हर तकनिकी की मरम्मत करना – यह सभी काम सहजता से आते थे लोगों को चाहे उनका पेशा जो भी हो। आर्मी का अफ़्सर होते हुए मेरे पिता को मैंने बचपन से देखा है ईंट लगाते, फावड़े से धरती खोदते, सब्ज़ी-पौधे लगाते, साइथ (scythe) से घास काटते और कुल्हाड़ी से लकड़ी काटते, पालतू जानवरों के लिए पिंजरे-अहाते बनाते, ढेर सारे घरेलू जानवरों को पालते और उनकी गंदगी साफ़ करते, गाड़ियाँ और दूसरे तकनिकी उपकरण माहिरता से ठीक करते, फ़्लेट-मकान के अंदर-बाहर के सभी मरम्मत-सजावट के काम करते, कुआँ खोदते, पानी का पंप लगाते, मधुमक्खियों के छत्ते बनाते और फिर मधुमक्खियों को पालकर मधु निकालते… इत्यादि। सब स्वयं। हर औजार, हर मशीन चलाना आता था उनको। वैसे मैंने न केवल देखा, बहुत कुछ स्वयं भी किया, और अधिक कामों में सहायक की भूमिका निभाई है। मैं और भैया, हम बचपन से ही हर काम में पिता की सहायता करते आए हैं। पर आधुनिकता के दौर में, गांव से अधिक शहर में पले-बढ़े, विज्ञान से अधिक मानविकियों में रुचि रखनेवाले हम दोनों व्यावहारिक कुशलताओं में पिता जैसे निपुण नहीं बन पाए हैं। काफ़ी कुछ तो हमें भी आता है पर किसी बनावट-मरम्मत में हमें करने से अधिक पैसे देकर करवाने की आदत पड़ चुकी है। और जहाँ कर तकनिकियों की बात है तो बहुत कुछ आता भी नहीं। पिता किंतु मरम्मत वाली अड्डों में गाड़ी इत्यादि बहुत ही कम ले जाते रहे हैं, स्वयं ही मेकैनिक का भी काम करते आए हैं। कितनी बार ऐसा भी हुआ है भैया के साथ और मेरे साथ कि बड़े होकर और अपनी गाड़ियाँ रखकर अचानक कुछ तकनिकी गड़बड़ होने पर हमने स्कूल के लड़कों की तरह तुरंत पिता को फ़ोन लगाया है निर्देशण के लिए…
कुछ कुशलताएँ होती है जन्म से या फिर जन्म से नहीं भी होती। जैसे कभी कभी गाड़ी की मरम्मत में या किसी और काम में पिता की सहायता करते हुए मैं उनकी बातें सुनता हूँ। वे बहुत विस्तार से हर तकनिकी प्रक्रिया को समझाते हैं अपनी आदत से उस प्रक्रिया से जुड़ी अपने अनुभव की कई कहानियाँ जोड़कर। सुनता हूँ सम्मान के साथ पर एक विचित्र सी अनुभूति आती है कि ये सब बातें मेरे लिए पराई हैं, ये मेरे समझने या याद रखने के लिए नहीं है, मेरे कार्य-क्षेत्र से जुड़ी नहीं हैं। आवश्यकता पड़ने पर मैं यह सब करवाऊंगा किसी से। हाँ, यह सब जानना अच्छा होता है। पिता के मस्तिष्क में यह सब बारिकी से समाया रहता है। पर यह भी सच है कि उनके मस्तिष्क में यह सब करते समय कविता नहीं रची जा रही होती है, वैश्विकरण के दौर में संस्कृतियों-अस्मिताओं के मिल-जुलने की चुनौतियाँ नहीं उत्पन्न हो रही होती हैं, बोल्लिवुड-मोल्लिवुड के चलचित्रों की गुणवत्ता का तुलनात्मक विश्लेषण नहीं हो रहा होता है, पढ़ी जा रही हिंदी कवयित्री के साक्षात्कार के लिए प्रश्न तैयार नहीं हो रहे होते हैं, समाज की कुप्रवृत्तियों के समाधान नहीं तलाशे जा रहे होते हैं… इत्यादि-इत्यादि। हाँ, यह शायद मेरी ही समग्रता की कमी है। हम “आर्ट्स” वालों के साथ यही समस्या है। हमसे बस कहो कि यहाँ से वहाँ तक फावड़ा चलाओ, इन पुर्जों को यहाँ ऐसे लगाओ, वह बटोरकर एक जगह रखो, सीमेंट के लिए रेत भरकर लाओ फिर पानी डालकर मिश्रण बनाओ… सब करेंगे अच्छे से, बस हमारी सोच को मुक्त होने दो उस समय। पिता की जीवन-दृष्टि और अनुभव बहुत भिन्न हैं और मुझे पता है कि मेरे मन में चलते विमर्शों की उनको आवश्यकता नहीं है, वे अपने आप में जो पूर्ण और अनूठे हैं। भैया की अधिक जमती है उनसे दोनों की आवृत्ति-गति-दृष्टिकोण में जो तालमेल है। मैं भिन्न हूँ। तभी तो बचपन से यह भी होता आया था कि कभी कभी गराज में किसी काम में पिता की सहायता भैया कर रहे होते थे जब कि मैं रसोई में माँ का सहायक बनकर हाथ बंटा रहा होता था। बेटी न होने पर तो वह भी आवश्यक होता था और शायद मेरी ही अधिक प्रतिभा थी उसके लिए। आज तक भोजन बनाना मेरे सर्वप्रिय कामों में से एक है। माँ कविताएँ भी लिखती थीं, मेरा तालमेल उन्हीं से अधिक रहा हमेशा… पिता से किंतु व्यावहारिक मुद्दों को छोड़कर अधिक बातें नहीं होतीं। पर व्यावहारिकता ही तो जीवन का प्रथम पूरक होता है। इस जगत में किसी भी आध्यात्मिक या कलात्मक विकास के लिए दृढ़ भौतिक आधार आवश्यक होता है। और यदि वह आधार होने पर मेरा ऐसा कोई विकास थोड़ा-बहुत हो पाया है तो इसका श्रेय पिता को भी समान रूप से जाता है…
नानी जब गुज़र गई थीं तो गांव में उनके पुराने मकान को गंभीर मरम्मत की आवश्यकता थी, लगभग पुनर्निर्माण की। पुरानी मिट्टी की दीवारों को ईंटों से ढक दिया गया, खिड़कियाँ बदली गईं, नींव को और गहरा और दृढ़ किया गया सीमेंट-पत्थरों के मिश्रण से, छत बदली गई, पुराने गोशाले को एक और रिहायशी कमरे में परिवर्तित किया गया, पानी का प्रबंध घर में पहुंचाया गया… इत्यादि-इत्यादि। मेहनत तो यथासंभव हम सबने की जब अपनी-अपनी नौकरियों से फुर्सत मिलती थी पर मुख्य निर्माता और मुख्य मज़दूर भी पिता ही थे जो तब तक सेवानिवृत्त हो चुके थे। वैसे आर्मी से तो बहुत पहले ही निवृत्त हुए थे, उसके बाद बहुत वर्षों तक अपने सगे भाइयों की बस्ती में रूस के उत्तर में अलग-अलग करोबार करने जाते रहे जिसमें सर्वाधिक रहा था रूस की ओब नाम की विशाल नदी के किनारे रहकर मछली पकड़ने का धंधा। वह भी एक घनिष्ठ सा अनुभव है पिता का जिसके वे बहुत किस्से सुनाते हैं… पर अभी बात है नानी के मकान के नवनिर्माण की। सब से कठिन बाहर का काम जब हो चुका था बाकी था अंदर का कुछ काम जिसमें कमरे से रसोई में प्रवेश द्वार भी था। उस रात मैं आया हुआ था और मेहनत भरे दिन के बाद हम सब सोने के लिए एक ही कमरे में लेट गए थे, बाकी स्थान जो अभी रहने योग्य नहीं बना था। सो जाने से पहले उन्हीं सारे कामों को लेकर कुछ बातें हो रही थीं तो माँ ने मज़ाक में कहा कि इस नवीकृत मकान में यदि किसी चीज़ की कमी है तो महल वाली शैली के आर्कनुमा प्रवेश द्वार की, रसोई में ऐसा होता तो कितना अच्छा होता। हमें मज़ाक ही लगा पर पिता अचानक बोले – “सच में चाहती हो ऐसा? होगा!” हम हंसे, हमें अभी भी मज़ाक ही लग रहा था। एक तो यूक्रेनी गांव के अधिकतर एकमंज़िले छोटे मकानों के संदर्भ में आर्क वाली वस्तुकला की परिकल्पना ही व्यंग्य लगती थी। और दूसरे तो यह कि आर्क के आकार में प्रवेश को बनाने में ईंट लगाने की जो कुशलता चाहिए होती है वह तो हमारे हर काम में निष्णात पिता ने भी कहीं नहीं सीखी थी। किंतु एक सप्ताह बाद जब भैया के साथ हम फिर गांव आए तो माँ ने बड़े गर्व से हमें अपने रसोई का सुंदर, निपुणता से बनाया हुआ आर्कनुमा प्रवेश दिखाया… एक तो पिता के लिए यह काम चुन्नौती सा था और उन्होंने इसमें भी हाथ आजमाना चाहा था। और दूसरा तो… यह माँ की व्यक्त की हुई इच्छा थी।
माँ… प्रत्येक लड़की के जीवन में पहला पुरुष होता है उसका पिता और पिता से ही पाए हुए अनुभव के आधार पर भविष्य में पुरुषों से संबंध बनाने की उसकी संकल्पना भी बनती है। वैसे तो माँ से स्वस्थ प्रेम-संबंध की स्पष्ट दृष्टि की अपेक्षा रखना सही नहीं होता, उनके अपने पिता ने जो घर पर आतंक का वातावरण बना रखा था। हिंसक होकर अपाहिज भी बना दिया था अपनी बेटी को… आज तक डॉक्टर लोग माँ के निदान से परिचित होकर चौंक जाते हैं कि इसके होते आप इतनी सक्रिय, गतिशील, ऊर्जावान तथा मस्तिष्क की तीव्र कैसे रह सकती हैं! सारी पृष्ठभूमियों के बावजूद एक जीवन-प्रेमी हैं मेरी माँ… मेहनती, हंसमुख, भावुक, फुर्तीली, सृजनशील। निश्चय ही उस सब के पीछे एक घायल बच्ची भी रहती है, घबराई और असंतुलित… इस अवस्था में माँ के जीवन में कोई आदर्श, फ़िल्मी वाली प्रेम कथा का रचा जाना शायद ही संभव था। अचेतन स्तर पर ही शायद वे अपनी युवावस्था में पौरुष्य भरे किसी दुस्साहसी नायक की बजाय एक नरम हृदय वाले संवेदनशील पुरुष को ढूंढ रही थीं जो उन्हें समझ सके, सहारा बन सके, अपने शांत स्वभाव से उनकी चिंताग्रस्त मानसिकता को सुरक्षित होने का आभास दिला सके… वैसे गांव में एक और युवक था जिसका स्वभाव माँ के ही जैसा तीव्र और रोमानी था, जो नृत्य-गाने-काव्य में माँ के साथ अद्भुत तालमेल बनाने की क्षमता रखता था, माँ से बहुत प्रेम भी करता था, और हम आज तक तो यह भी जान चुके हैं कि वास्तव में माँ का भी पहला प्रेम वही था… किंतु संभवतः किसी अंतर्ज्ञान से या किसी दिव्य हस्तक्षेप से, या फिर अपने ही गहरे में छुपे डर के कारण, माँ ने यह अनुभव किया होगा कि उस “हीरो” प्रकार के, अनेक लड़कियों के चाहे हुए मस्त युवक से कहीं अधिक उनके भावों तथा उनके अस्तित्व का ध्यान रखेगा यह शांत, दृढ़, सीधा-सादा और विनम्र लड़का… विवाह से पहले भी वह दूसरा माँ को उसके साथ भागने के लिए मनाने आया था, नहीं मानीं। पर वह पहला प्रेम भी पूरी तरह नहीं भूल पाईं जीवन-भर। पिता को यह भी श्रेय देना चाहिए कि उस बात को जानते हुए भी उन्होंने कभी उसको मुद्दा नहीं बनाया था। शांति से प्रेम, सुरक्षा और सहारा देते गए अपने ऊपर एक घायल आत्मा की देखभाल का उत्तरदायित्व लेकर…
पत्नी-व्रत की सीमा को छूता पत्नी-प्रेम क्या होता है वह भी मैंने पिता से सीखा है। माँ के सच्चे भक्त हैं पिता। ये दोनों स्वभाव में जितने भिन्न-भिन्न हैं उतना ही अधिक स्नेह भर जाता है हृदय में इनको साथ देखकर। भिन्नता के कारण दोनों में बहस भी होती है, किंतु कभी यह गंभीर या लंबे झगड़े का कारण नहीं बनता। पिता ही अक्सर बात को हलका बनाने के लिए उसको मज़ाक में बदल देते हैं, माँ का मन रखने के लिए कभी कभी चुप भी रह लेते हैं। उनकी यह सहज उदारता भी मुझे देर से समझ आने लगी, पहले तो लगता था कि उतनी भी मातृसत्ता नहीं होनी चाहिए दंपति में। मैं स्वभाव से माँ जैसा फुर्तीला, गतिशील और थोड़ा भड़काऊ भी हूँ, इसलिए पिता के तौर-तरीक़े अपनाना मेरे लिए थोड़ा कठिन रहा है। अनुभव और परिपक्वता के साथ ही आती है समझ-स्वीकृति। और श्रद्धा भी…
आयु बढ़ने के साथ साथ माँ-पिता दोनों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ भी बढ़ती गईं। ये उस समाज और उस पीढ़ी के लोग हैं जिन्होंने कभी अपनी जीवन-शक्ति और स्वास्थ्य को बचाए रखने के लिए न स्वयं का अत्य़ाधिक ध्यान रखना सीखा था, ना ही जीवन ने ऐसा कोई अवसर दिया था। संकट के समय बहुत ध्यान रखते आए हैं एक दूसरे का। अंतिम दशक में तो यह होता रहा है कि बारी बारी से अस्पतालों में रहे तो दूसरा हमेशा साथ, सहायता-देखभाल के लिए तत्पर। हम लोग भी आते हैं ऐसे समय पर, साथ भी रहे यथासंभव। रोग, सर्जरियाँ, ठीक होने में लगते अरसे… एक विचित्र आदत सी हो गई है। पर थोड़ा ही ठीक होते ही तुरंत सब वही, खेती, पेड़-पौधों की देखभाल, निर्माण-मरम्मत, मेहनत भरी नई-नई परियोजनाएँ। हमारे डांटने पर माँ का एक ही उत्तर – “गति ही जीवन है। जब तक है दम, हिलते रहेंगे।“ पिता तो बोलते हैं कभी कभी मज़ाक में कि काश आलस करने को भी मिलता, पर माँ के विपक्ष में कभी नहीं जाते, उल्टा जितना हो सके अधिक काम अपने ही ऊपर लेते हैं, माँ का जो स्वास्थ्य अधिक नाज़ुक है। दोनों के लिए शहर में एक फ़्लेट खरीदकर उनको गांव से ले जाना ही बेहतर होता, भैया और मेरा दोनों के घर जो छोटे से हैं साथ रहने के लिए, पर वह भी संभव नहीं लगता आजकल की परिस्थितियों में। दूसरी ओर से देखा जाए तो प्रकृति, गांव के वातावरण तथा मेहनत से ये लोग उतनी सहजता से मिल-जुल गए हैं कि एक शहरी फ़्लेट में दिन-भर सुस्त रहकर टीवी देखते रहते इन दोनों की तो कल्पना करना भी कठिन है। कभी कभी सच में लगता है कि गांव की गतिशीलता से ही मन-तन के उतने टिकाऊ रह पाए हैं आज तक। वे सब दैनिक गतिविधियाँ उनसे छीनी जाएँ तो क्या पता, जल्द ही मुरझा जाएंगे शायद…
बढ़ती आयु की समस्याओं के साथ साथ कुछ हादसे भी होते रहे कभी कभी। एक बार मधुमक्खियों का एक नया झुंड कहीं से उड़ आया और हमारे बग़ीचे के एक पेड़ पर बैठ गया था। मधुमक्ख्यपालक होते हुए पिता ने उस झुंड को पकड़कर अपने बनाए एक छत्ते में रखना चाहा था तो सोपान लगाकर और आवश्यक औजार लेकर ऊपर चढ़े थे। दुर्भाग्य से संतुलन बिगड़ गया था तो नीचे गिर पड़े थे पीठ के बल। रीढ़ की हड्डी टूट गई थी बुरी तरह… माँ ने एंबुलेंस बुलाया था, अस्पताल पहुंचवाया था। मेरा तब ग्रीष्म-अवकाश आरंभ हुआ था तो मैं तुरंत आ पहुंचा था कीव से गांव। भैया को सेवास्थान से छुट्टी नहीं मिल रही थी। पिता को गंभीर सर्जरी की आवश्यकता थी रीढ़ को जोड़ने के लिए, उसके लिए उन्हें हमारे प्रांत के मुख्य शहर ले जाया गया था जो गांव से पच्चास किलोमीटर दूर है। प्रतिदिन जाना-आना कठीन ही था तो माँ उधर ही अस्पताल में रही थीं पिता के साथ। और गांव का सारा काम मैं अकेला संभालता रहा था कुछ सप्ताहों तक। खेत-बग़ीचा, पशु-पक्षी, घास-लकड़ी, मकान-आंगन, दुकान-रसोई… तब सच्चा स्वाद चखने को मिला था उस जीवन का। उसके साथ रोज़ सुबह गाड़ी भगाकर माँ-पिता से मिलने उस दूर उस्पताल जाता रहा था, उनके लिए आवश्यकता का सामान लाता रहा था। गांव में तो फिर भी दो मौसियाँ थीं जो हर समय सहारा बनने को तत्पर रहती थीं और भोजन बनाकर लाती थीं कभी कभी, पर वैसे भी मुझे लगा था कि उस स्थिति में सब कुछ संभाल पाना मेरे वश में है ही, और उसका पूरा श्रेय माता-पिता की दी परवारिश को जाता है… सौभाग्य से पिता की चोट ने उनको भविष्य में हिलने-चलने की क्षमता से वंचित नहीं किया था, सर्जरी हो जाने पर वे ठीक होने लगे थे। फिर पहले जैसे ही सक्रिय भी हो पाए थे और हमारे पारिवारिक इतिहास में एक और दुख-संघर्ष-प्रेम-सुख भरी कथा जुड़ गई थी…
शांतिपूर्वक मेहनत करते जीना गांव के लोगों को सहजता से आता है किंतु यदि राजनैतिक और सामाजिक विचारधाराओं-विवादों से अप्रभावित भी रह सकते तो और अच्छा होता। मां-पिता की पीढ़ी की आँखों के सामने पूरी सोवियत प्रणाली की ऐसी की तैसी होकर एक स्वतंत्र देश के गौरवपूर्ण वासियों की अस्मिता, यूक्रेनी राष्ट्रीय चेतना तथा सांस्कृतिक पहचान का प्रचार आरंभ हुआ था। वह सब तो हमारी भी आँखों के सामने हुआ था, किंतु हम तब किशोर थे, पुराने साम्यवादी विचारों के अधिक पक्के भी नहीं बन पाए थे तो हमें नई धारा में समायोजित होने में अधिक देर न लगी थी। उल्टा, स्वतंत्रता-अंदोलन तथा राष्ट्रीय इतिहास के पुर्नावरण से उत्साह भरता था युवाओं में। बड़े लोगों के लिए यह सब थोड़ा कठिन था। कइयों ने तो स्वीकार ही नहीं किया था इन परिवर्तनों को, एक नए बने देश में रहकर भी पुराने संघ के प्रति निष्ठावान रहे। पिता भी उनमें से एक थे। राजनीति-इतिहास पर तो बहुत बातें होती हैं यहाँ लोगों में, सब के अपने अपने तर्क होते हैं। पर पिता की बातें सुनते हुए मैं एक बात समझ गया था कि पुराने विचारों को उनके पकड़े रहने के पीछे तर्क से अधिक हैं भाव। जीवन के बहुत वर्षों तक वे सोवियत सेना में कार्यरत रहे थे, उसी प्रणाली और उसी देश की सुरक्षा स्थापित रखना सीखते-सिखाते रहे थे, उसी विचारधारा में विकसित होकर उसी देश के लिए प्राण दे सकने की प्रतिज्ञा भी ली थी। फिर जब इतिहास पलट जाता है और उस सोवियत प्रणाली के अब तक छुपे दोष सामने आते हैं, बड़े सोवियत नेताओं के रक्तरंजित कारनामों का खुलासा होता है, तो अवचेत रूप से उस प्रणाली के भोले सेवकों की मानसिकता अड़ जाने लगती है, नये तथ्यों को नकारने लगती है। दशकों तक उस राज्य का भक्त रहकर, उसके मूल्यों तथा नेताओं का गुणगान करके, अब एक क्षण में नये प्रकार से सोचने लग जाना अपने सारे जीवन के व्यर्थ होने को स्वीकारने के समान होता। यह नयी यूक्रेनी राष्ट्तवादी सोच यदि निस्संदेह सही भी प्रमाणित होती तब भी कम ही लोग इस प्रकार के तीव्र हृदय परिवर्तन के लिए तैयार हो पाते, उसके लिए आध्यात्म के ही स्तर की मन की परिपक्वता आवश्यक होती है जो कि सोवियत नास्तिक पीढ़ियों में कहाँ विकसित हो सकती थी। फिर भी अधिकांश लोग धीरे धीरे नई विचारधारा में मिल-जुलते गए, अपने इतिहास पर पुनर्विचार करके नए देश के निष्ठावान होते गए। पिता नहीं हो पाए किंतु, पक्के साम्यवादी सोच के रह गए। माँ से तक उनकी बहसें होती हैं इस विषय पर। माँ इस संदर्भ में अधिक नमनीय तथा नएपन के प्रति अधिक भावुक निकलीं, संभवतः एक महिला होने के कारण भी। पिता पुराने सिपाही थे, वे अपनी निष्ठा को ऐसे नहीं पलट सके। हाँ, रूस के आक्रमण के पश्चात वे भी थोड़ा सोच में पड़ गए शायद, कम बोलने लगे उस सब के बारे में, किंतु बदले नहीं। इस दौर में शायद बदलने का विकल्प ही नहीं रहा है उनके पक्के, समय से तराशे गए स्वभाव में। इसीलिए मैं भी बहस नहीं करता हूँ पिता से, उनको अपनी ही सच्चाई के साथ अपने में पूर्ण रह जाने का अधिकार है। वह अलग बात है कि यदि सच में सोवियत विचारधारा वापस राज करने आती तो मैं, उनका बेटा, जेल में डाला जाता या फिर मारा जाता, जैसा उस युग में उन लाखों यूक्रेनियों के साथ हुआ था जो थोड़ा-बहुत शिक्षित और रचनाशील होकर अपनी भाषा, संसकृति तथा जातीय सम्मान की रक्षा के लिए स्वर उठाने से नहीं डरते थे। पिता जैसे भौतिकवादी व्यावहारिक दृष्टिकोण के लोगों के लिए शायद सच में उस युग में कम बुराई थी। पर संवेदनशील बुद्धुजीवियों पर क्या बीतता था उसका रक्त भरा इतिहास आम लोगों को तो पता भी नहीं था कुछ समय पहले तक। अब पता चलने लगा तो भौतिकवादी सोच उसका सामना करने को तैयार नहीं है, अनसुना करके बस अपनी बात दोहराती रहती है। वही बात, नई सच्चाई को स्वीकारने के लिए मन की नमनीयता तथा अनुकूलनीयता की आवश्यकता होती है जो सभी आयुओं के सभी लोगों के पास नहीं होती… पर एक अद्भुत बात यह भी है कि वैचारिक अर्थों में एक दूसरे के विपक्ष होकर भी पिता के साथ संबंध में अपनेपन और आत्मीयता तनिक सी भी कम नहीं होती। यही है सब से बड़ी बात, विचारधाराएं जो भी हो, लोग मिलकर प्रेम से रह पाते हैं, अर्थात मानवता जीवित है…
मुझसे उतने भिन्न मेरे पिता मेरे उस मित्र की तरह है जिससे न अधिक बात होती है, न सोच-विचारों का मेल, पर एक दूसरे के तनिक से कष्ट के बारे में यदि पता चल जाए तो एक छण भी सोचे बिना लपक जाते हैं एक दूसरे को बचाने। शायद ऐसी ही होती है पुरुषों की सच्ची मित्रता। या फिर सिपाहियों की। प्रेम नाम का मूल तत्त्व बातों में नहीं, जज़्बातों में प्रकट होता है। और सहयोग में। इसलिए, उदाहरण के लिए, कभी कभी पिता जब अचानक बोल देते कि उन्हें मेरी कोई कविता अच्छी लगी है तो यह बात मुझे गहरे तक छू देती है, क्योंकि इसका अर्थ है कि सच में उन्हें समझ में आ गए मेरे उलझे हुए अलंकार जिनसे माँ भी घबरा जाती हैं क्योंकि माँ की समझ में काव्य अधिक स्पष्ट तथा मानक होना चाहिए। पिता ने यदि ऐसा कहा तो समझो कि कहीं गहरे से अनुभव किया था उन्होंने। अर्थात किसी अदृश्य स्तर पर हम मिल ही गए हैं… धर्म-ईश्वर के चक्कर में न पड़ते हुए प्रकृति से अभिभूत रहते हैं पिता, सृष्टि की उत्पत्ति तथा विज्ञान के रहस्यों पर विचारते रहते हैं। जीवन-मृत्यु पर भी। उन्हीं की आयु के उनके एक घनिष्ठ मित्र जब गुज़र गए थे कुछ वर्ष पूर्व, तब पिता की एक बात अत्यंत सरल सी होते हुए भी अत्यंत गहरी भी लगी थी मुझे। वे बोले थे – “अब वह जानता है कि आत्मा नाम की कोई चीज़ होती है कि नहीं। मैं तो नहीं जानता फिर भी…” जीवन समापन की ओर बढ़ने लगे तो मनुष्य इन सब बातों पर अधिक सोचने लगता है। मृत्यु के बारे में न सोचने के लिए कुछ वृद्ध लोग स्वयं को मानसिक तौर से अति व्यस्त रखते हैं, दूसरे नशा करते हैं, तीसरे चर्च जाने तगते हैं और स्वयं को नित्य जीवन होने का आश्वासन दिलाने लगते हैं। पिता उन तीनों में से कोई भी नहीं हैं। शांति से अपने दैनिक कार्य निभाते रहते हैं। बस पेड़ों पर, आस्मान पर, पक्षियों पर, मधुमक्खियों पर या गांव के तालाब के पानी पर उनकी दृष्टि अधिक टिक जाने लगी है। शायद तकनिकियों की ही तरह जीवन-प्रणाली को भी बारीकी से समझने का प्रयत्न करते हैं…
यूक्रेनी लोकोक्तियों में अक्सर मृत्यु तथा परलोक का उल्लेख मिलता है, वह भी एकदम डरहीन तथा परिहासपूर्ण शैली में। यहाँ के कोज़ाक, प्राचीन योद्धा, मृत्यु को भाव न देनेवाले तथा उसका उपहास उड़ानेवाले स्वभाव से जाने जाते थे। स्वयं को संत न समझकर स्वर्ग की भी अधिक अपेक्षा नहीं करते थे। लड़ते-नाचते-गाते-पीते-हंसते पहले से ही नरक जाने को तैयार रहते थे बिना किसी चिंता के, उन्होंने ही बनाई होंगी वे सब कहावटें। जैसे बड़ों से पहले किसी कार्य में तीव्रता दिखानेवाले जल्दबाज़ों के बारे में कहा जाता है कि वे “बाप से पहले नरक में कूदते हैं”। इसी लोकोक्ति के आधार पर मेरी भी कुछ पंक्तियाँ लिखी गई थीं जिनको अपने जन्म-दिन पर सुनकर मेरे पिता भावुक से हो उठे थे –
जीवन एक चयन है, आवश्यकता नहीं।
क्षमा करना, पिता, कि मैं पगला गया हूँ,
किंतु नरक में कूदूंगा पहले तुम्हारे
ताकि तुम्हारे पहुंचने तक वह बन पाए स्वर्ग…

—– ——-

लेखक यूक्रेनवासी और हिंदी प्रेमी शिक्षक कवि व लेखक हैं।

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