लखनऊ, 24 सितम्बर, 2023
दीर्घ नारायण के उपन्यास “रामघाट में कोरोना” पर सम्पन्न विमर्श गोष्ठी में वरिष्ठ लेखक सुभाष कुशवाहा के विचार :-
एक महत्वपूर्ण उपन्यास लिखने के लिए मैं दीर्घ नारायण जी को बहुत बधाई देना चाहता हूँ, बहुत हिम्मत का काम है कि आपने 832 पेज का उपन्यास लिखा है। यह उपन्यास किसी ग्रामीण परिवेश का उपन्यास नहीं है, यह उपन्यास किसी आंचलिकता का उपन्यास नहीं है, ये उपन्यास रामघाट का भी नहीं ये उपन्यास है नवाबघाट का! दरअसल वर्तमान में जो पूरी भारतीय संस्कृति जहां रच बस गई है, नामों को परिवर्तित करके जो राजनीति हो रही है उसका संकेत देता है यह रामघाट में कोरोना। आजकल नाम बदले जा रहे हैं, हर चीज के नाम बदल दिए जाते हैं, तो नवाबघाट को भी रामघाट से परिवर्तित कर दिया है। मित्रों, इस उपन्यास को देखते समय पढ़ते समय एक बार पुनः वह दौर आंखों के सामने से गुजर गया जो बारबार डराता है, बारबार हमें वही खींच कर ले जाता है, जहां पर लाशें गंगा में तैरती हैं, कुत्ते नोचते हैं, वो दृश्य याद आते हैं कितने विभत्स थे वे दृश्य! तो कोरोना काल ने जिस तरह से दो वर्ष हम सबको परेशान किया, वो पूरा का पूरा काल ठहर सा गया था, दरअसल ठहरा ही नहीं था वो पूरा का पूरा समय हमको उधेड़ रहा था, हमारे अंदर की जो छिपी हुई हैवानियत थी, जिसको कहते हैं कि हमारे अंदर शालीनता है मासूमियत है इंसानियत है वो सबको उधेड़ रहा था और दिखा रहा था कि भारतीय जनमानस फिलहाल इसका अभी सांस्कृतिकरण हुआ ही नहीं है, ये आज भी बर्बर समाज है, ये और बात है कि आवरण कहीं ना कहीं रख लेता है कि हम बड़े शालीन हैं, बड़े सज्जन हैं। पर जब दुनियां की नजरों से मूल्यांकन करेंगे, मानव मूल्य जहां स्थापित है उस पैमाने पर मूल्यांकन करेंगे तो पाएंगे अभी हम उस दौर में जी रहे हैं कि कोई घटना हमको थोड़ी सी विचलित करती है कि हमारी हैवानियत सामने आती है और इस उपन्यास में जगह-जगह हैवानियत को उधेड़ने का काम किया है लेखक ने।
लेखक ने एक करोना कैबिनेट का गठन किया है और उसमें कुछ युवाओं को लेते हैं, उसमें मुख्य रूप से सहज है, उसकी प्रेमिका है शायनी; पर उपन्यास में प्रेमिकाओं के साथ लेखक ने पता नहीं क्यों उसको अंतिम परिणति तक जाने नहीं दिया! और जहां अंतिम परिणति तक जाते हैं वो एक दिन के चट मंगनी वाला किस्सा होता है, जैसे अंकिता मजदूरों के साथ दिल्ली से गाँव पलायन के रास्ते में प्यार करती है और रास्ते में ही अंकिता और प्रणव शादी कर लेते हैं। पढ़ाई के दिनों से सहज और शायनी प्यार करते हैं, छुप छुप कर मिलते हैं, मंजरी और रामू ग्वाला मिलते हैं, प्यार करते हैं लेकिन दोनों का प्यार कहीं परिणति तक नहीं पहुंचता है। सहज के साथ तो बड़ा दुर्भाग्य होता है कि शायनी विदेश चली जाती है और अंत में पाठक को बेचैन छोड़ दिया है लेखक ने कि आगे आएगी नहीं आएगी शादी होगी नहीं होगी आप सोचते रहिए; यहाँ पर मुझे लगता है कि लेखक ने युवाओ को थोड़ा विचलित कर दिया है। पात्रों में भी लेखक ने असामान्य परिस्थितियां क्रिएट किया है, पात्रों को उन्होने उत्सर्जित किया है; शायनी जिस परिवार से आती है वो बहुत गरीब परिवार है, उसके पिता का देहांत हो चुका है, मां प्राइमरी पाठशाला की टीचर है, और उसे प्यार होता है शहर के सबसे अमीर व्यक्ति हंसामल लोढ़ा के बेटे सहज से, थोड़ा सा एक झेंप भी उसमें पैदा होता है कि गरीब घर की लड़की कैसे उससे प्यार करेगी, कुछ प्रसंगों में उसको बहू बनाने की बात भी आती है, फिर भी हंसामलजी उसे स्वीकार करने की स्थिति में आ जाते हैं। इसी तरह आप देखेंगे कि मंजरी और रामू का जो प्यार है दोनों दलित बस्ती के रहने वाले हैं, मंजरी और रामू पहले बड़े संकोची हैं, फिर धीरे धीरे प्यार के शब्द खुलते हैं, लेकिन उनका भी प्यार परिणति तक आई हो या ना आई हो मंजरी ने वो भूमिका निभा दिया है, क्योंकि कोरोना काल के अंतिम परिदृश्य में रामू की मां का जब देहांत होता है तो मंजरी जिस भूमिका में उपन्यास में मौजूद है वो प्यार की परिणति तक अपने को ले जाती है, एक प्रेमिका, एक पत्नी का या एक बहू का जो भी दायित्व होता है वह वहाँ तक जाती है।
कोरोना मंडली का पूरा का पूरा जो एक स्वरूप है वो एक तरीके से कैबिनेट का ही प्रारूप है, उसका जो पूरा वर्ग चरित्र है उसकी फिलोसफी विभिन्न संदर्भों से रची गई है; उसमें एक पात्र अर्थशास्त्र का विद्वान है, एक पात्र प्राणी विज्ञान का विद्वान है, एक पात्र फ़िलॉसफ़र है, परवेज राजनीतिकशास्त्र का ज्ञाता है, एक पत्रकार भी है; और इस तरह से विभिन्न संदर्भों से विभिन्न तरह के पात्रों को लेकर उन्होने रचा है। उन पात्रों के माध्यम से वे यह परखते हैं कि भारत में कोरोना चीन से आ जाएगा, इसको हम रोक देंगे, सारे फ्लाइट बंद हो जाने चाहिए जिससे कि कोरोना चीन से ना आने पावें, उनका मानना है कि चीन से कोरोना देश में आ सकता है और उसे रोकने के लिए क्या-क्या कर सकते हैं, रामू पार्टी कार्यालय में जाकर लड़ता है। उपन्यास में एक अंबेडकर चौराहा है, भगत सिंह भी आ जाते हैं, अंबेडकर भी आ जाते हैं, रामू अपने अंदर भगत सिंह को समाहित करता है और एक जगह कहता है जैसे भगत सिंह ने असेम्ब्ली में जाकर बम फेंक दिया था, तो दिल्ली जाकर मैं भी पर्चा बम फेंक दूँगा। सत्ता पार्टी के जिला अध्यक्ष से जाकर लड़ भी आता है कि आप फ्लाइट रुकवा दीजिए ताकि कोरोना का आना बंद हो जाए, वो कहते हैं भई फ्लाइट रोकना संभव नहीं है, हम कैसे रोक सकते हैं; फिर वो दिल्ली जाता है कि दिल्ली में जाकर रुकवा देंगे, कोरोना कैबिनेट के मेम्बर पत्र लिखते हैं विदेश मंत्रालय को कि फ्लाइट रुक जाए, अपने क्षेत्र के एमपी के घर तक चला जाता है कि आप फ्लाइट रुकवा दीजिए, फ्लाइटों को रुकवाने के लिए यहां तक वो कहता है कि सारे हवाई जहाजों की चाबी निकाल लिया जाए, ये चलेगी नहीं उड़ेगी नहीं, और तमाम तरह की हरकतें करता है और इसमें एक बार रामू उस झगड़े में हाजत में बंद भी हो गया है।
जब वह दिल्ली में रहता है उसी समय लॉकडाउन लागू हो जाता है और वहीं फंस जाता है; उसमें भी उपन्यासकार ने एक विस्तृत ब्यौरा दिया है कि मजदूरों के बीच में किस तरह से रामू ग्वाला रहता है, वहां पर एक भक्त पात्र प्रकट हो आया है जो हर बात पर खुश हो रहा है कि आज प्रधानमंत्री जी ने ये कहा वो कहा बड़ा अच्छा किया, लॉकडाउन से यह हो जाएगा, सारे डायलॉग चलते हैं, रामू उससे भिड़ता भी है। इधर इनकी करोना कैबिनेट विडीओ कॉनफेरेंसिंग करती रहती है, बकायदा संसद की तरह उनकी बैठकें होती हैं, वे मुद्दे तय करते हैं और केवल कोरोना पर ही बात नहीं करते, उसे कोई सामान्य संसद मत कहिए, कभी-कभी मुझे लगता है वो यूएनओ की तरह की संसद है, उसमें यह भी प्रस्ताव पास होता है कि भारत को नाटो का सदस्य होना चाहिए, यह भी प्रस्ताव पास हो जाता है कि चीन की निंदा की जानी चाहिए, संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को स्थाई सदस्यता मिलनी चाहिए, ऐसे बहुत सारे प्रस्ताव उस कैबिनेट में पास होते रहते हैं और उसको लागू करने के लिए 30 जनवरी को शहीद दिवस पर आंदोलन की भी तैयारी कर लेते हैं।
इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने कुछ और भी चरित्र रचा है, एक जेड साहब है उसकी जात का पता नहीं है धर्म का पता नहीं है, लेकिन मनुष्य है बहुत संवेदनशील है, वह बच्चों को गाइड करते हैं, हर विमर्श में राय देते हैं। अंततः उनकी मृत्यु हो जाती है; वो मृत्यु भी इसमें छिपाई गई है, दरअसल मृत्यु कैसे हुई स्वाभाविक मृत्यु है या हत्या की गई है लेखक यहां भी संकेत छोड़ देता है कि हो सकता है हत्या कर दी गई हो। इसके अलावा आप देखेंगे कि कोरोना काल में जब मजदूरों का पलायन होता है उस दौर में भी रामू बीच-बीच में लड़ता रहता है, जहां क्वारंटाइन सेंटर है वहां भी उसके झगड़े होते हैं, एक गुस्सैल स्वभाव का एक पात्र है वह और शुरू से लेकर अंत तक लड़ते रहता है। ये कोरोना कैबिनेट दरअसल जो करना चाह रही है वो बहुत सामान्य चीज है, लेकिन करने के मामले में कुल मिलाकर दो ही लोग करते हैं वो हैं मंजरी और रामू, रामू और मंजरी वाकई में जिला अस्पताल में कोरोना वार्ड में सेवा देते हैं। बाकी शायनी प्राणी विज्ञान से एमए की है तो कोरोना की भयावहता का आकलन कर अपना भावी करियर आईएएस बनने का विचार तत्काल ही त्याग देती है, कोरोना पर रिसर्च करने में लग जाती है, कोरोना के विभिन्न तरह के स्ट्रेन बनते रहते हैं, बारबार चेंज आते रहते हैं; वह आईएएस बनना चाहती थी, लेकिन कोरोना त्रासदी के दृष्टिगत अपना डिसीजन बदलते हुए विदेश जाती है और रिसर्च करने लगती है।
यह कोरोना कैबिनेट उपन्यास में शुरू से अंत तक सत्ता पक्ष के नेताओं के घर जाता है, विपक्षी नेता के पास जाता है, जिला प्रशासन द्वारा आहूत कार्यक्रम जिसमें कोरोना से लड़ने के लिए बैठक होती है उसमें तर्क-वितर्क कर हस्तक्षेप करता है, जब डीएम उसकी बातों को नहीं मानता है तो खुद आगे आकर अपने स्तर से लोगों के बीच में प्रचार करता है कि हम कोरोना से कैसे बचें, सैनिटाइजर का प्रयोग करें। यहां पर लेखक ने कुछ चीजों की ओर इशारा किया है कि इस कोरोना में जहां एक वर्ग है जो कोरोना से बचने के लिए उपाय कर रहा है, कुछ नेता लोग सैनिटाइजर बनाकर लाखों कमा रहा है, कई व्यापारी अपने अपने घरों में सारे माल भर रहा है, गोदाम में काला बाजारी कर रहा है और पैसा कमा रहा है। इस ओर संकेत किया है कि किस तरह कुछ लोगों के लिए कोरोना काल भी एक तरीके से अवसर था, ये अवसर राजनीति के लिए था, बार-बार लेखक ने कहा कि राजनीतिज्ञों ने अपने फायदे के लिए इसका भरपूर इस्तेमाल किया, जनता भले ही मर रही थी, मजदूर भले ही खाने के लिए तड़प रहे थे उनके लिए कोई काम न आया। इस उपन्यास को पढ़ते समय मुझे अंत में जाते जाते हाथ लगता है जो कोरोना कैबिनेट के सदस्य हैं अतिउत्साही हैं, कुछ बड़ा करना चाहते हैं और वो मनुष्यता के लिए करना चाहते हैं गरीबों के लिए करना चाह रहे हैं; तभी तो दलित बस्ती के भी पात्र लिए गए हैं, गरीबों से उनका जुड़ाव है, यदि उसमें परवेज जैसे पात्र है वो प्रोफेसर का लड़का है तो उसकी भी थोड़ी हैसियत है, सहज की अच्छी खासी हैसियत है, लेकिन कुछ लोग गरीब परिवार के भी हैं, इसमें मीडिया के वर्ग-चरित्र को मनोज के माध्यम से लेखक ने बहुत साफ रखा है, वो वही मीडिया है जो आज की मीडिया है जिसको गोदी मीडिया कह लीजिए, मनोज ने साफ कर दिया कि किस तरह से संघर्षशील पत्रकार हैं उनकी क्या दशा है और इस अभिव्यक्ति के खतरे में जिस तरह वर्तमान सत्ता किसी को उठाकर बंद कर देती है उसे भी बंद कर दिया जाता है, रामू जेल चला जाता है और अंत में कोरोना कैबिनेट के पाँच सदस्य जेल भेज दिए जाते हैं, इतनी सी बात पर कि वो कह रहे कि 30 जनवरी को आंदोलन करेंगे, उस पर पांच जेल भेज दिए जाए तो वर्तमान सत्ता के परिदृश्य भी उस उपन्यास में आप तलाश सकते हैं कि किस तरह मीडिया के पूरे वर्ग चरित्र को तलाश कर सकते हैं कि सत्ता पक्ष को कैसा मीडिया चाहिए। वो जिलाध्यक्ष कहता कि इस तरह के पत्रकार नहीं चाहिए तो देशद्रोही हो, इसको तो अंदर होना चाहिए।
तो यह उपन्यास भले ही दो साल तीन साल पूर्व के इतिहास को अपने अंदर समेटा हो लेकिन वर्तमान के साथ चलता है और वर्तमान की विसंगतियों को साफ-साफ हमारे बीच रखता है। यद्यपि इसको थोड़ा सा और साहित्यिक करके पूरे कथानक को इन पात्रों के माध्य से और परिमार्जित करने की जरूरत थी। लेकिन आपको वो छूता हुआ चलता है और आपकी आंखों के सामने पूरा परिदृश्य दिखाई देता है कि क्या कुछ घटित हो रहा था तब और क्या कुछ घटित हो रहा है अब! इन दोनों बातों की ओर उपन्यास संकेत करता है। मैं समझता हूं कि अगर कोई उपन्यास अतीत से ग्रहण करके वर्तमान की व्याख्या कर रहा है तो ये बड़ी बात है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। मैं एक बार पुन: बधाई देता हूं कि आपने इस उपन्यास के माध्यम से कोरोना काल को हमारे जीवन में एक बार पुन: प्रकट किया है।
सुभाष कुशवाहा, लखनऊ