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Lahak Digital > Blog > Literature > साहित्यकार की एकाक्षी संवेदना – राकेश भारतीय
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साहित्यकार की एकाक्षी संवेदना – राकेश भारतीय

admin
Last updated: 2024/01/19 at 3:15 PM
admin
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13 Min Read
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राजनीतिज्ञ एकाक्षी संवेदना के लिए बदनाम हैं और उनकी “ इसे देखकर गला फाड़कर चिल्लाओ, उसे तो देखो ही न या देखकर भी न देखो” वाली एकाक्षी संवेदना के प्रमाण लगभग हर रोज ही मिलते रहते हैं । कभी संवेदना के एकाक्षी होने का कारण किसी जाति-विशेष को खुश कर वोट बटोरना होता है तो कभी किसी वर्ग-विशेष या धर्म-विशेष के लोगों का वोट इसका कारण बन जाता है । जनता भी अब इस एकाक्षी संवेदना को अच्छी तरह जानने- पहचानने लगी है पर राजनीतिज्ञ हैं कि आदत से मजबूर हैं ।

पर, अपनी गहन संवेदना पर अभिमान करनेवाले और उस संवेदना के बूते पर ही रचनाकर्म में रत होने का दावा करनेवाले साहित्यकारों के बारे में भी जरा विवेचन कर देखें ।

इस समय इक्कीसवीं सदी का वह दौर है जब संसार के दो अलग-अलग क्षेत्रों में, जो पहले ही युद्ध और मानव जीवन की हानि के शिकार रहे हैं , यानी योरप के इलाके और मध्यपूर्व के इलाके में क्रमशः रूस-यूक्रेन के युद्ध एवम् इज़राइल – हमास संगठन( फिलिस्तीन)के युद्ध की वजह से सम्पूर्ण मानवजाति के लिए चिंता बढ़ गई है । इन युद्धों में भारी जीवनहानि हो चुकी है , हो रही है और युद्धाभिलाषी राजनीतिज्ञ शवों की गणना में “ उनके कितने मरे , हमारे कितने मरे” करें तो करें हमारे साहित्यकार बंधु इस वाली हिंसा बयान- पोस्टर जारी करें , उस वाली हिंसा पर मुँह पर पट्टी बाँधे फिरें तो ऐसे साहित्यकारों की संवेदना पर ही प्रश्न उठ जाता है । इन पंक्तियों के लेखक की निगाहों से ऐसी एकाक्षी संवेदना के प्रस्फुटन के कई उदाहरण गुजरे जहाँ साहित्यकार बंधु टोली बनाकर इस वाली हिंसा पर ज्ञापन सौंपने तो अधिकारियों के दरवाजे पहुँच गए ( जहाँ उन ज्ञापनों को पढ़ा तक नहीं जायेगा, हाँ साहित्यकार बंधु अपनी ‘संवेदना’ के प्रमाणस्वरूप उन्हें अखबारों में छपवाकर कतरनें दिखाते ज़रूर फिरेंगे ) पर उस वाली हिंसा पर मुँह बंद रखे हुए हैं । साहित्यकार तो धर्म, जाति, क्षेत्र से ऊपर उठकर पूरी मानवता , यहाँ तक कि पूरे प्राणिमात्र के ही सुख-दुःख से संवेदित होने के लिए ख्यात है , वही उसके रचनाकर्म का उत्प्रेरक-तत्त्व मी है ; और यहाँ साहित्यकारों का एक वर्ग राजनीतिज्ञों की नकल में या उनका मोहरा बना एकाक्षी संवेदना का नमूना बन रहा है !
इस संदर्भ में कुछ महान साहित्यकारों की गहन तथा व्यापक संवेदना और उस गहन- व्यापक संवेदना की प्रतिमान उदाहरण बनी रचनाओं का उल्लेख करना समीचीन होगा ।

सआदत हसन मन्टो उर्दू के ही नहीं, विश्व-साहित्य के भी विलक्षण रूप से बेबाक सृजन के एक प्रतिमान कहानीकार इसीलिए हैं क्योंकि उन्होंने भारत-विभाजन की त्रासदी को बड़ी मानवीय त्रासदी के रूप में देखा और महसूस किया, उससे संवेदित होकर अविस्मरणीय कहानियाँ लिखीं । वे मुसलमान थे, विभाजित भारत के पाकिस्तान वाले हिस्से में चले भी गए पर एक लेखक के रूप में उनकी संवेदना हिन्दू-मुसलमान या हिन्दुस्तान-पाकिस्तान केंद्रित सीमित संवेदना कभी नहीं रही । इसका एक ही उदाहरण काफी होगा , उनकी अविस्मरणीय कहानी ‘टोबा टेक सिंह’ के रूप में । विभाजन के बाद पागलखाने के पागलों का भी धर्म-आधारित स्थानांतरण जैसा अनोखा कथ्य लेकर वे कटाक्ष की शैली के माध्यम से विभाजन की पूरी अवधारणा पर ही मारक व्यंग्य रचते हैं , मानवीय त्रासदी के रेशे-रेशे को उधेड़कर दिखाते हुए पाठक को हिलाकर रख देते हैं । यह है एक सच्चे लेखक की सच्ची संवेदना ।

महान रूसी साहित्यकार टॉलस्टॉय सामन्ती पृष्ठभूमि से थे और, जाहिर है, सामन्ती सुख-सुविधाओं का लाभ भी उठाते थे । पर एक लेखक के रूप में उनकी दृष्टि मानवीय संवेदना से ओतप्रोत होकर मानव-मात्र के सुख-दुःख से ओतप्रोत रचनाएं दे गई, सामन्ती चश्मे से बाधित एकाक्षी संवेदना वाली रचनाएं नहीं । एक ही उदाहरण काफी होगा । उनके महान उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ का एक प्रसंग है जब युद्ध के दौरान घायल योद्धाओं से पटे पड़े सैनिक अस्पताल के वार्डों से गुजरते हुए टॉलस्टॉय वर्णन करते हैंकि अफसरों वाले वार्ड तो साफ-सुथरे हैं पर साधारण सैनिकों वाले वार्ड से गुजरते हुए ( घायल सैनिकों के घावों के ) सड़ रहे मांस की बदबू का भभका बिलबिला दे रहा है , सफाई भी नहीं है । इस छोटे से वर्णन के माध्यम से ही टॉलस्टॉय साहित्यकार की संवेदना के प्रामाणिक स्वरूप का अद्भुत परिचय दे जाते हैं । इसी तरह तुर्गनेव भी सामन्ती पृष्ठभूमि से थे , उनकी माँ तो क्रूरता से अपने सर्फ ( बंधुआ मज़दूर) को कोड़े से मारने के लिए कुख्यात ही थीं पर तुर्गनेव की अद्भुत कहानी ‘पहरुआ’ पढ़कर हम जानते हैं कि उनकी संवेदना मानव-मात्र के साथ खड़ी है, अपनी बीहड़ गरीबी के कारण किसान सामंत के स्वामित्व वाले जंगल से लकड़ी चुराने के लिए मजबूर है , लकड़ी की पहरेदारी कर रहा पहरुआ उसी की तरह गरीब है पर अपनी नौकरी के चलते उसे पकड़ने के लिए मजबूर है ; और सामंती तंत्र के भुक्तभोगी इन दोनों गरीब रूसियों की संवेदनात्मक एका को अद्भुत रूप से महसूस कर रहे साहित्यकार तुर्गनेव साहित्य में अमर उस छोटी सी कहानी में चित्रित कर पाठक की संवेदना झनझना देते हैं । पाठक ( न जानता हो तो ) कभी कल्पना कर ही नहीं सकता है कि यह कहानी घोर सामंती पृष्ठभूमि से आनेवाले व्यक्ति ने लिखी है ।

साहित्यकार की संवेदना की ख़ूबी यही है, वह उन स्थितियों में भी संवेदित होकर रचना का मोती निकाल लेता है जहाँ वह ख़ुद एक व्यक्ति के रूप में अनैतिक आचरण का दोषी है । इसका एक प्रतिमान उदाहरण फ्रांसीसी कहानीकार मोपासां हैं । मोपासां व्यक्तिगत जीवन में विकट वेश्यागामी थे , उनका यह नैतिक विचलन इतना बिगड़ चुका था कि उनके करीबी दोस्त भी उनसे कन्नी काटने लगे थे , मृत्यु भी उनकी यौनसम्बन्धजनित रोग से हुई । पर वही मोपासां अपनी पहली ही कहानी ‘ वूल दे सूई’ एक वेश्या पर केन्द्रित करते हैं तो वह विश्व-साहित्य की प्रतिमान कहानी बन जाती है । उस कहानी में फ्रांस एवम् जर्मनी के युद्ध के दौरान जर्मन कमान्डर जब बग्घी में सवार सारे यात्रियों को निरापद रूप से जाने देने की शर्त के रूप में देहसुख की मांग रखता है तो बाकी यात्री अपने साथ ही सवार वेश्या से उसे खुश कर देने का आग्रह करते हैं यह मानते हुए कि यह तो उसका ‘धंधा’ ही है , वेश्या नहीं जाना चाहती क्योंकि मांग करनेवाला आक्रामक सेना का कमान्डर है । सहयात्रियों के बहुत आग्रह करने पर वह चली जाती तो है बाकी यात्रियों की जान बचाते हुए पर वापस लौटते ही कोई यात्री उससे सीधे मुँह बात तक नहीं करना चाहता , सामाजिक रूप से ‘अस्पृश्य’ नारी के प्रति दुराग्रही भंगिमा में वापस लौटते हुए। बिना वेश्या-जीवन की घनीभूत व्यथा से संवेदित हुए मोपासां ऐसी कहानी लिख ही नहीं सकते थे । उनकी एक और प्रसिद्ध कहानी ‘ ला मैसोन तेलियर’ ( मदाम तेलियर का मकान) भी वेश्याओं की व्यथा में बहुत गहरे तक जाकर उनके जीवन की त्रासदी को बेहद प्रामाणिक संवेदना के साथ उकेरती है ।

साहित्यकार की संवेदना जीवन की संगति-विसंगति में गहरे पैठने के बाद आकार लेती है और उसके बाद मानव-जीवन के तमाम आयामों को रचनाओं में प्रामाणिक रूप से उकेरने का कारण बनती है । संवेदना ही रचना की अंतर्वस्तु का निर्माण करती है , वाह्य स्वरूप यानी शैली वगैरह तो बाद में आते हैं । रचना की अंतर्वस्तु मौलिक और जीवन से जुड़ी होने पर ही उस रचना की श्रेष्ठता मानी जायेगी । अगर साहित्यकार दूसरों ( यथा किसी राजनीतिक हस्ती या विचारधारा ) द्वारा तय ‘संवेदना का मॉडल’ या ‘ बिकाऊ संवेदना’ को अपनी रचनाओं पर थोपता है या उनके ही अनुसार रचनाओं को ‘गढ़ता’ है तो , जाहिर है , ऐसी नकली संवेदना न सिर्फ साहित्यकार की प्रामाणिकता में घात लगाती है बल्कि उसकी उन रचनाओं को भी नकली बना देती है । उन्नीस सौ साठ-सत्तर के दौरान ऐसी रचनाओं , विशेषकर कविताओं, की हिन्दी साहित्य में बाढ़ आई हुई थी और ऐसे तमाम कवि उतने ही नकली आलोचकों द्वारा प्रतिपोषित-प्रक्षेपित होकर ‘प्रतिष्ठित’ भी मान लिए गए, प्रायोजित पुरस्कारों से लाद भी दिए गए पर आज एक भी सुधी पाठक या श्रोता उनकी नकली कविताओं को पढ़ने- सुनने लायक नहीं समझता ।

जिस प्रकार एक सुनार का काम सोने के बिना नहीं चल सकता, लोहार का लोहे के बिना नहीं, मिलावटी या विषमधर्मी पदार्थों से मिश्रित सोना या लोहा सुनार या लोहार का काम ही बिगाड़कर रख देंगे , वैसे ही सच्ची और स्वतःस्फूर्त संवेदना के बिना साहित्यकार का काम नहीं चल सकता। साहित्य-सृजन तो वैसे भी वह दुर्गम पथ है जिसपर ‘कठोपनिषद्’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ काफी हद तक ठीक बैठती हैं –
“ क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गम पथ तत्कवया वदन्ति “
( यह पथ छुरे की धार की तरह तीक्ष्ण हि , दुर्गम और दुस्तर है ; ऐसा मनीषी कहते हैं ।)

सारे साहित्यकारों और साहित्य के पथ पर चलने का आकांक्षी नई पीढ़ी के लोगों को यह तथ्य गाँठ बाँध लेना होगा कि एकाक्षी संवेदना वह संवेदना है ही नहीँ जो साहित्य-सृजन का आधार बनती है , भले राजनीतिक नारे या पोस्टर का आधार बन ले । साहित्यकार का काम राजनीतिज्ञ के काम जैसा तात्कालिक मुनाफे को ध्यान में रखकर किया गया काम नहीँ है । जो साहित्यकार कुछ तात्कालिक प्रलोभनों के दबाव में राजनीतिज्ञों के अंदाज़ में एकाक्षी संवेदना जताने-दिखानेवाली रचनाएँ झोंके जा रहे हैं वे अपनी साहित्यिक ज़मीन से समझौता कर अपनी तो अपनी साहित्यिक कब्र खोद रहे हैं , पाठकों की निगाह में साहित्य की विश्वसनीयता को ही धूमिल कर रहे हैं । साहित्य की जीवन में उपस्थिति और मनुष्यमात्र के सुख-दुःख के सार्थक और प्रामाणिक चित्रण में उसकी भूमिका सुनिश्चित करने के लिए अभी जो , बाजार और महन्तों की कृपादृष्टि पाने के लोभ में , ‘ एकाक्षी संवेदना ‘ से चालित अस्वाभाविक रूप-चरित्र वाली रचनाएँ झोंकी जा रही हैं , उसका विरोध जरूरी है , विरोध में सभी सच्चे साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों को आगे आना ही होगा।
वर्ना – – – वर्ना ‘बाज़ार’ बहुत कुछ सार्थक और सुंदर खा ही चुका है, साहित्य को भी देर-सबेर खा ही जायेगा।
× × ×
स्थायी पता – 590, डी. डी. ए. प्लैट्स, पाकेट 1,
सेक्टर- 22, द्वारका, नई दिल्ली-110077

फोन – 09968334756
ईमेल – bhartiyar@ymail.com

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