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Lahak Digital > Blog > Literature > विजय कुमार तिवारी की कविताएं
Literature

विजय कुमार तिवारी की कविताएं

admin
Last updated: 2024/01/19 at 3:36 PM
admin
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16 Min Read
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1-यह प्रेम ही तो है

मेरे तप्त मन को,व्यथित हृदय को

Contents
1-यह प्रेम ही तो है2-प्यार की बस्तियाँ3-मेरा कुनबा4-बदलने का दौर5-कविता, आदमी और युद्ध6-धुंध7-प्रेम की कविताएं8-सदियों से प्रतीक्षा9-सुबह का सूरज10-मुश्किल के बावजूद11-पिता और पेड़12-स्वयं को बदलना13-दुखराग14-दुनिया और ईश्वर15-मानव सम्बन्ध

शान्ति की अनुभूति होती है,वह तुम्हारा प्रेम ही तो है।

जब-जब मनोनुकूल नहीं होता या पीड़ित होता हूँ

अपनों के दंश से,तुमने ही बार-बार रोका है मुझे,

सम्हाला है,सहारा दिया है।

तुमने ही सिखाया है विष पीने की कला,

जीवन जी लेना, विष पीने से कम तो नहीं,

तुमने ही पहचान करवा दी है अपनों की,परायों की।

मुक्ति नहीं चाहता,चाहता हूँ तुम रहो मेरे साथ,

ऐसे ही सहलाते,सम्हालते,ऐसे ही हँसते,मुस्कराते।

भूल जाता हूँ अपनी पीड़ा,अपना दर्द

भूल जाता हूँ दुनिया भर की यन्त्रणा,क्षोभ और दुख।

समझने लगा हूँ,सारे सम्बन्ध,रिश्ते-नाते ऐसे ही हैं

सब के सब दोष देखते हैं,दोषी मानते हैं मुझे।

अपनी असफलताओं के लिए,असुविधाओं के लिए

मुझसे उत्तर चाहते हैं,कटघरे में खड़ा करते हैं

तिल-तिल मारना चाहते हैं,अपने हों या पराये।

मरना मैं नहीं चाहता,मृत्यु के पहले,

जीना चाहता हूँ तुम्हारे साथ,तुम्हारी उपस्थिति की

अनुभूतियों के साथ,हे ईश्वर! तुम्हारा प्रेम महसूस करता हूँ।

हर बार समेट लेते हो तुम

अपने आगोश में,अपनी करुणा-कृपा में।

मेरी प्राण-चेतना जगा देते हो,

स्पन्दित हो,हृदय धड़कने लगता है

यह तुम्हारा प्रेम ही तो है,

महसूसता रहता हूँ-तुम्हारा ऐश्वर्य,

तुम्हारा सौन्दर्य,तुम्हारा सम्पूर्ण आनन्द।

2-प्यार की बस्तियाँ

दौर तो कोई भी सहज नहीं होता

कभी भी,कुछ भी आसानी से नहीं मिलता

मुफ्त का पाने के लिए भी करनी पड़ती है तिकड़में।

तिल-तिल मारना पड़ता है स्वयं को

सीखनी पड़ती  है कला, दबाए रखने की-

अपना पुरुषार्थ,अपना हुनर और जोश-उत्साह,

फिर सीखनी पड़ती है कला, मुँह ताकने की,मांगने की।

दुनिया के सारे कवि जानते हैं इसका रहस्य,

तुम भी अनजाने नहीं हो, जानते हो सब कुछ।

वह उतना ही देता है कि जीवित रह सको,

और बने रहो ऐसे ही लाचार,बीमार।

कोई तुम्हें काम नहीं देता चाहे पक्ष हो या विपक्ष

कोई तुम्हें श्रेष्ठ जीवन की तरकीब नहीं बताता।

तुम भी तो नहीं चाहते अपना पौरुष जगाना,

मुफ्त नहीं, कुछ करके रोटी खाना।

विनाश के लिए तो रोज खड़ा होते हो,

कभी अपने लिए खड़ा हो जाओ,

कुछ करने के लिए निर्माण या सृजन

और बसाने के लिए प्यार की बस्तियाँ।

3-मेरा कुनबा

जिस मोड़ पर खड़ा हूँ

सामने के खेतों की फसलें काटी जा चुकी हैं

कट चुके हैं मेरे भी जीवन के अनेकों साल,

खेतों में किसान तैयारी करेंगे नई फसलों की।

मुझे भी तो कुछ करना चाहिए नये सिरे से

कम से कम मुस्करा तो सकता ही हूँ

उन स्मृतियों के सहारे

कि ऐसे ही चलता रहता है जीवन में उतार-चढ़ाव।

हलरा-दुलरा सकता हूँ घर-परिवार के बच्चों को

या निराश लोगों के मन में उम्मीद जगा सकता हूँ

कि यह दुनिया उतनी बुरी नहीं है,

बल्कि पुरजोर दलीलों से बता सकता हूँ

कि कोशिशें करो,फिर से फसल लहलहायेगी,

फिर से फूल खिलेंगे और मौसम फिर से सुहाना होगा।

उपयोगी बनाए रखना होगा स्वयं को

कुछ न कुछ करते रहना होगा

ताकि होता रहे अहसास कि जीवित हूँ मैं

और मेरे होने से सुरक्षित है मेरा कुनबा।

4-बदलने का दौर

बदलने का दौर है,

धरती,आकाश,मौसम,नदी-पहाड़

हमारा मन-चिन्तन सब बदल रहे हैं,

बदल रही है मिट्टी और हरियाली।

मलय बयार नहीं कि मिलती रही चैन की नींद

इसमें तपिश भी है,शीतलता और कोई नई चेतना।

तुम्हारे सारे गढ़े हुए शब्द, खो चुके हैं अपना अर्थ

गिर रहे हैं,ढह रहे हैं और खाली हो रही है भूमि,

तुम्हारे सारे आवरण खुल चुके हैं।

उठ रही है कोई जीवन्त भाषा,कोई शैली

पुरानी सारी परिभाषाएं ले रही हैं नया आकार।

हड़पने,दबाने का खेल खेलने वाले नहीं जानते

कोई अन्तर्धारा बहती रहती है,हमारी धमनियों में,

धरती के भीतर कठोर चट्टानों के नीचे

हमारी सभ्यता-संस्कृति को थामे हुए।

बीच का अंतराल किसी स्वप्न की तरह था,

ताकत और तलवारों पर आश्रित

बार-बार रौंदी गई है धरती,यहाँ के बाग-बगीचे

यहाँ के बच्चे,यहाँ की स्त्रियाँ

बार-बार किया है आक्रमण आक्रान्ताओं ने।

टुकड़े-टुकड़े में बँटे हैं तुम्हारे अवशेष,

ले रहे हैं अंतिम सांसे,गिन रहे हैं अंतिम दिन,

मानवता के लिए जीते,मानवता के साथ

तो नहीं आते ऐसे दुर्दिन हमारे-तुम्हारे जीवन में।

5-कविता, आदमी और युद्ध

1

इस कविता में मैं हूँ भी

और नहीं भी

वैसे ही जैसे वायु मण्डल में हवा

बादलों में पानी या बर्फ की कोई चादर

हूँ इसीलिए तो यह कविता है

नहीं होने का तो कोई सवाल ही नहीं है

2

हमारे होने से बहुत कुछ है

जैसे सुबह का होना,सूरज का उगना

चाँद का चाँदनी बिखेरना या चिड़ियों का गायन

हमारे होने से दुनिया रोशन है,क्योंकि

भीतर आग है और पानी भी

संस्कृति और सभ्यता भी

3

जब भी लगता है

धरती अधिक गर्म हो रही है

हवा आँधियों की शक्ल ले रही है

मौसम डराना चाहता है

या फैलने वाली है कोई महामारी

सबसे पहले बेचैन होते हैं जीव-जन्तु

चिड़िया उड़ान भरती है किसी बेचैनी में

पशु भी होने लगते है बेचैन

4

सबसे बाद में जागता है मनुष्य

जम्हाई लेता है,खाँसता-खँखारता है

उसका नहीं टूटता आलस, नहीं टूटती तन्द्रा

सहसा विश्वास ही नहीं होता

वही आदमी खड़ा होता है,ऊर्जा समेटता है

देर नहीं लगती चुनौती समझने में

रणनीति भी तेजी से बनाता है और कूद पड़ता है युद्धभूमि में

5

आदिम काल से लड़ता आया है यह युद्ध

दुश्मनों को पहचानता है और मित्रों को भी

पहचान गया है अपनी भीतरी ताकत

धरती,आकाश,जल,अग्नि और हवा

उसने साध लिया है सबको

सर्वत्र फैल गया है,हमारी ऋचाओं में

और हमारी कविताओं में भी

6-धुंध

आजकल धुंध बहुत है,मौसम में और जीवन में भी,

सूरज निकल आए,धुंध खत्म हो जाता है मौसम का

सोचता रहता हूँ जीवन में व्याप्त धुंध को लेकर

लोग सलाह देते है,हँसते है,कोई तरकीब नहीं बताते

जान जाता हूँ,सब के सब धुंध में है,

और सच्चाई को शायद जानते भी नहीं

7-प्रेम की कविताएं

आजकल खूब लिखी जा रही हैं,प्रेम की कविताएं

छप रही हैं प्रेम की कविताएं अखबारों में,पत्रिकाओं में

घरों में खूँटियों पर टंगी हैं प्रेम की कविताएं,दीवारों पर लटकी हैं

चाहो तो देख लो खिड़कियों से झाँककर या बालकनी से

छिपाई नहीं जा रहीं प्रेम की कविताएं

प्रेम की कविताएं अँगड़ाई ले रही हैं किसी नवयौवना-सी

आँखों में उभर आई हैं स्मृतियाँ,होंठों पर फैल रही है पावन मुस्कान

चालीस पार सांस ले रही किसी प्रौढ़ा की धड़कने

गरम सांसे,लम्बा उच्छवास,कौंध गयी है कोई मधुर याद

उम्रदराज नाती-पोतियों वाली दादी के सीने में

प्रेम की कविताएं उजास फैला रही हैं,खेत-खलिहान,द्वार-आँगन

हमेशा जोश में रहता है मौसम,प्रेम की कविताओं के साथ

चमकती रहती है आँखें प्रेमियों की, प्रेम की टीस के साथ

सरसों के पीले फूल लिए सज जाते हैं खेत

झूम उठते हैं धरती-आसमान प्रेम की चादर ताने

खूबसूरत अहसास देती हैं प्रेम की कविताएं

प्रेम में सम्पूर्ण सृष्टि सुख,आनंद में होती है और दुनिया निराली

दुखद है-क्यों नहीं लिखते सब लोग प्रेम कविताएं

प्रेम कविताएं बहुत लोग पढना भी नहीं चाहते।

8-सदियों से प्रतीक्षा

उसने कहा,वीरान-सी हो गयी है जिन्दगी,

न पत्ते,न फूल,न फल,बोझिल शामें और उदास सुबह

मैंने कहा,देखो भीतर कोई नदी ठहर सी गयी होगी प्रेम की

रुक सा गया होगा भोर-भोर का सिन्दूरी सूरज

देखो तुमने खुद बंद कर ली होगी सारी खिड़कियाँ

कोई चल कर आता होगा,लौट जाता होगा बंद दरवाजे से

उसने बारहा आवाज लगाई होगी, गुहार के साथ

देख लो,तुम्हारी ही बेरुखी ने बंद किया होगा मुस्कराने के रास्ते

तुमने ही भगाया होगा प्रेम के सारे मनुहार,समय रहते

देख लो बाहर झाँककर,

शायद कोई अब भी कर रहा हो प्रतीक्षा तुम्हारे आने की

देख लो,कोई ऐसे ही पड़ा हो पत्थरों के बीच, पत्थर-सा

बाहर देखो,किसी की सांसें अटकी पड़ी हो,तुम्हारी एक नजर के लिए

तुम्हारी छुअन,शायद अब भी जिन्दा कर दे सारी उम्मीदें

तुम्हारी मुस्कराहटें अब भी रोशन कर दे किसी का अंधेरा

कभी-कभी पहल करना चाहिए,प्रतीक्षा करने के बजाए

कभी-कभी बढ़कर स्वागत करना चाहिए

शायद कोई प्रतीक्षा में बैठा हो सदियों से तुम्हारे लिए

9-सुबह का सूरज

उसने ‘सुप्रभात’ कहा

और भेज दिया उगता हुआ लाल सूरज का गोला

नीचे नदी का प्रवाह था और सूरज झिलमिला उठा

हवा थोड़ी शीतल,सहला गई मुझे

लगा,उसने ही छुआ है अपनी पूरी सात्विकता के साथ

मेरा सम्पूर्ण सौन्दर्य उभर आया था उसकी आँखों में

मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व उसकी भुजाओं में

मैं थी ही नहीं,कहीं भी उस वक्त

वहाँ सूरज था,हरियाली थी और पूरी प्रकृति

हाँ,वही फैला हुआ था, धरती से आसमान तक

मेरे मन में,आँखों में और नदी के चारों ओर।

10-मुश्किल के बावजूद

मुश्किल है ना?

बहुत कठिन है पहचान पाना

कौन सही कह रहा है,कौन गलत?

आँख रहते लगता है अंधा हूँ मैं

कान रहते बहरा और मुँह रहते गूँगा

चारों ओर शोर है,सभी सच का दावा कर रहे हैं,

सभी अपनी-अपनी सीमा में दुनिया बना रहे हैं,

अपने-अपने हिसाब से सजा-संवार रहे हैं,

कोई हजार पंद्रह सौ वर्षों को ही सच मनवाना चाहता है

बर्बरता से मिटा देना चाहता उसके पहले का सब कुछ,

जो दूर,बहुत पीछे को जोड़ते हैं अपने जीवन में

सभ्यता-संस्कार जन्म ले चुका है उनमें

सीख गये हैं करुणा,दया और प्रेम की भाषा

पूरे देश में,विश्व में पसरा है उनका आलोक

विध्वंस के बाद भी चमकते खड़े हैं उनके देवी-देवता

मनुष्य के बस में नहीं उन्हें नष्ट करना

सूर्य को,चाँद-तारों,दिशाओं को देवता कहा है

नदी,पहाड़,पेड़-पौधे सभी पूजे जाते हैं

सबको पता है,ये नष्ट हो गये तो नहीं बचेगी सृष्टि

कोई नहीं बचेगा तब,चाहे इधर का या उधर का

विधान तो एक ही चलेगा,गलत को दण्ड,सच को पुरस्कार

सारे झंझावातों के बावजूद बचे रह जायेंगे कोमल पौधे

नरम दिल लोग और करुणा,प्रेम से भरी आँखें।

11-पिता और पेड़

हम परिचित हैं अपने-अपने पिता से

जानते हैं अपनी मां को,बहनों और भाइयों को

वैसे ही पेड़ को जानना होगा,हरियाली और शीतल हवा को भी

जीवन शून्य है यदि हम फूलों को नहीं जानते

नहीं जानते चिड़ियों को,गिलहरियों को

हम कुछ भी नहीं हैं,यदि नहीं जानते मिट्टी की गंध

नहीं जानते नदी का अविरल प्रवाह,समुद्र की हलचल

हमें जानना होगा,किस आलोक में बिहँसता रहता है नन्हा सा शिशु

मां की कौन सी छुअन उसे सुख से भर देती है

किस तरह तृप्त कर देती है उसे मां की गोद

वैसे ही पौधे पहचानते हैं,पेड़ और फूलों की पंखुड़ियाँ

कौन तोड़ने,काटने आया है और कौन सींचने,बचाने

पौधे पहचान जाते हैं तुम्हारी करुणा और संवेदना

वे खूब पहचानते हैं तुम्हारे चेहरे की मुस्कराहट,तुम्हारा प्यार

आज भी मेरे सपने में आते हैं, फूल,पौधे और पेड़

बेचैनी में आज भी महसूसता हूँ उनकी खुशबू और छायाएं

उनकी उपस्थिति तरोताजा कर देती है

आज भी उमगता,किलकता रहता हूँ बच्चे की तरह उनके साथ।

12-स्वयं को बदलना

चलो,कोशिश करते हैं,दुनिया को बदलने की,

शुरुआत करते हैं,अपने को बदल कर,

सबसे सरल है स्वयं को बदलना।

धरती बदलती है तो निकलते हैं अंकुर,

पेड़-पौधे बदलते हैं तो निकल आती हैं कोंपलें,

मन बदलता है तो जागता है आलोक और प्रेम।

दुनिया उतनी बुरी नहीं है,जैसा समझते हैं लोग,

वीभत्स होने लगते हैं,संसार के सारे विमर्श,

घटित होने लगता है विनाश,प्रतिक्रिया के रुप में।

चलो कुछ पेड़ लगायें,पुचकार दें,आसपास के बच्चों को,

बना लें इस तरह कि पास आ जायें तोते और गिलहरियाँ,

बेधड़क,बिना सहमे गुजर जायें मुस्कराती जवान लड़कियाँ।

13-दुखराग

उस नन्ही सी बच्ची को देखो,

खुश है कि कोई देख रहा है उसे,

सहला,पुचकार रहा है,खेल रहा है उसके साथ।

बस,इतना ही करना है,सब इतना ही चाहते हैं,

यह आकाश सबका है,धरती और सारी रश्मियाँ,

सारी वनस्पतियाँ और सारी मानवता।

कोई उदास निहारता रहता है,अपनी पनीली आँखों से,

देख तो लो उसकी ओर मुस्कराकर,

शायद वह भी मुस्कराये,निकल तो आयेगा ही

अपनी उहापोह से,अपने जज्बातों और दुखों से।

हो सके तो बैठो उसके पास,ठंडापन दूर हो जायेगा,

दुनिया उसे,उम्मीदों भरी नजर आयेगी,

शायद वह भी दे सके कोई सीख,कोई ज्ञान।

उसके दुखराग को कविता समझो,कोई बहुत जरूरी कहानी

उसकी आँखों में झाँको,बहुत समानता दिखाई देगी,

मैं हमेशा हैरान होता हूँ,कितना कुछ पा जाता हूँ,

तनिक पास बैठकर,मुस्कराकर या उनकी आँखों में झाँककर।

14-दुनिया और ईश्वर

दुनिया खूबसूरत थी,है और रहेगी,

ईश्वर ने सौंपी है हमें सुन्दर और लाजवाब दुनिया,

सब कुछ सहज है,सुन्दर और हम सबके अनुकूल।

कुछ लोग बददिमाग थे,हैं और रहेंगे,

पहले भी उजाड़ी है दुनिया,आज भी लगे हैं,

तब भी बची रह गयी दुनिया,आज भी बचेगी।

तय तो उन्हें ही करना है,अपने सुख-चैन के बारे में,

शान्ति के बारे में,अपने जीवन और मृत्यु के बारे में,

अपयश और अपराध-बोध की बेचैनी दण्ड ही तो है।

खोया है मन का चैन,कुकर्म करने के बाद,

देश और समाज के कानून से बच नहीं सकते,

बच नहीं सकते ईश्वर की व्यवस्था और विधान से।

15-मानव सम्बन्ध

कुछ हुआ है आज,जैसे घटित होता है कोई उल्लास,

जैसे किसी नवजात शिशु के चेहरे पर उभरती है मुस्कान,

मां निहारती है,खुश होती है,भूल जाती है अपनी पीड़ा।

मैं खुश हूँ,उसने पूछा है हम दोनों पति-पत्नी का हालचाल,

लम्बी बातें हुई हैं हमारे बीच,शालीन और स्नेह भरी।

कोरोना के पहले मिला करते थे,सुबह-शाम टहलते हुए,

हम पति-पत्नी तेज चाल चलते,वह दौड़ लगाती।

आकर बैठ जाती हम दोनों के साथ,उल्लसित,थोड़ी थकी हुई,

फिर बातें होतीं उसके घर की,मेरे घर की,

उसके जीवन की,हमारे जीवन की।

अच्छा लगा उसका पूछना,हमारे स्वास्थ्य की चिन्ता करना,

अच्छा लगा उसका हँसना,खुश होकर सारी बातें बताना।

बहू है वह,भले ही खून का रिश्ता नहीं है और न जाति-धर्म,

हृदय से आशीर्वाद है,बना रहे ऐसे ही सबके साथ मानव सम्बन्ध।

———–

विजय कुमार तिवारी

(कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक)

टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002
पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029
भुवनेश्वर,उडीसा,भारत

मो: 9102939190

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