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Lahak Digital > Blog > Literature > देवेन्द्र कुमार चौधरी की कविताएं
Literature

देवेन्द्र कुमार चौधरी की कविताएं

admin
Last updated: 2024/01/10 at 6:22 PM
admin
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15 Min Read
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जाड़े की एक सुबह 【1】

……………………..

ओस कुहासों के पीछे

छिपा रहा सूरज
जाड़े की एक सुबह
नहीं खिली धूप
धीरे-धीरे सिसक रही पछिया हवा से
ठिठुरन और बढ़ गई
समूचा वातावरण सर्द हो गया
और देखते-देखते
पूरे गांव में मायूसी छा गई
बढ़ती धुंध ने सबों को अपने आगोश में ले लिया
हर एक चेहरे पर जैसे उदासी की लकीरें उभर आईं
और तो और
एक माँ की चिंताएँ हजार गुना बढ़ गईंं
अपने छोटे बच्चे एवं बच्चियों को लेकर
पर दाल-रोटी की चिंता
और निवाले के उपक्रम में
जैसे हर किसी को निकलना हींं पड़ता है
घर से बाहर
इस हाड़ कँपाती ठंढ़ में भी
निकली छोटी-छोटी बच्चियाँँ एवं महिलाएँँ
अपनी अपनी बकरियों को लेकर
खेतों की ओर
वैसे हीं
जैसे निकलती हैं चिड़ियाँँ
दाने की खोज में
नित्य सुबह सेवेरे !
यह रजाई में दुबकने का मौसम है  【2】
……………………………………

उफ्फ ! यह जो ठंड का मौसम है
घर से बाहर निकलने
या प्यार में बहकने का मौसम नहीं है,
कल अंशु के पापा ने कहा-
यह गाय के बियाने का भी मौसम नहीं है।
यह प्रकृति के अत्यधिक निकट आने
और जीवटता का नया पाठ सीखने जैसा
कुछ-कुछ वैसा हीं मौसम है,
क्योंकि यह तो खेतों में
सरसों के पीले-पीले फूलों के
खिलखिलाने का मौसम है।
यह अलाव के पास बैठकर दो शब्द बतियाने
और तिल-गुड़-चावल से बने एक अलग तरह के
गर्मा-गर्म खिचड़ी के खाने का भी मौसम है,
इस मौसम के बारे में आप जैसा ख्याल रखते हों
अंततः तो यह रजाई में दुबकने का हीं मौसम है।

रेनकोट 【3】
…………

शरीर से बरसाती निकालने के बाद भी
उसमें बचा रह जाता है थोड़ा-सा पानी
और यह बचा हुआ पानी
उन मछलियों, नदियों के लिए है
जो पानी के इंतज़ार में
आकाश की ओर टकटकी लगाए रहती है
बारिश के दिनों में
उन मछलियों, नदियों का जीवन है
बारिश का यह पानी
जैसे यह जीवन है धरती का
प्यासी धरती की प्यास
बारिश के दिनों में हीं बुझती है
और पूरी पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है
बरसाती का यह पानी
सुखने नहीं दूंगा मैं
और सहेज कर रखूँगा
उन मछलियों, नदियों और धरती के लिए।
तुम जाओ 【4】
……………

तुम जाना चाहते हो

जाओ
पर जाकर भी
तुम कहाँ जा पाओगे ?
बहुत कुछ छोड़ जाओगे यहाँ भी
जैसे तुम्हारे पायल की खनक
मौजूद रहेगी मेरे कानों में
सब्जी में तुम्हारी उपस्थिति का स्वाद
बना रहेगा जीह्वा पर
हवा में व्याप्त तुम्हारे पसीने की गंध
बनी रहेगी देह पर
पूजा के तुम्हारे तुलसी दल का नित्य भोग
हृदय को सुवासित करता रहेगा।
तुम जाओ
पर गुलाब की पंखुड़ियों में
छिपी हँसी
दूर्वा पर मौजूद आँखों की नमी
केले के पत्ते पर
बिखरी मन की हरीतिमा
खीर में घुली इलाइची की खूशबू
यहीं छोड़ जाओगे
पलंग के उदासी की पीर में।
तुम जाओ
पर छोड़ जाओगे
आलमारी में करीने से टंगी साड़ी
तकिये पर अपने हाथों
उकेरे फूल
कमरे में
चारों ओर सजी तस्वीर।
तुम जाओ
पर तुम कहाँ जा पाओगे ?
तुम मत आओ 【5】

……………….
तुम मत आओ
तुम आते हो तो
मैं एक दिनी सपने में
खो जाता हूँ ऐसे
जैसे कि यह दिवस
यह वैश्विक उत्सवी त्योहार
कांटें की तरह चुभने लगता है
जैसे कि धीरे-धीरे मन की सारी परतें
गांठों की तरह खुलने लगती हैं
कि अमेरिका के शिकागो में
एक मई को
मेरे मजदूर रैली पर
दमन की वह याद
एक चलचित्र की भाँति
आँखों के सामने तैरने लगती हैं
कि लगता है जैसे आज भी पूरी दुनिया में
हमारी जद्दोजहद वैसी हीं हैं
जैसा कि उस समय था
और भारत जैसे विकासशील देश में तो
कई कानूनी अध्यादेशों के बाद भी
हमारी जिन्दगी में घुप्प अंधेरा है
जहरीली गैसों के खतरे हैं
गर्मी में जुझते और झुलसते बदन
कोयला खानों के नीचे
उतरने को मजबूर हैं
यहाँ तक कि किसी दुर्घटना के बाद
हमारे मरने तक की खबरें भी
हमारे परिजनों के सिसकियों तक सीमित हैं
इतना हीं नहीं
प्रतिदिन रोटी की तलाश में
एक लाचार इंसान की तरह
हर गाँव या हर चौराहे पर
हम सदा खड़े होने को विवश हैं
और यदि कहीं मौसम मुँह फेर ले
तो घर की ओर कदम बढ़ाने से पहले
जैसे हमारे मुँह पर फफोले उग आते हैं
और हमारा पूरा चेहरा उदासी में
तब्दील और गमगींन हो जाता है
कि फिर आगे क्या ?
इसलिए तुम मत आओ
तुम आते हो तो
यह एक दिनी त्योहार
कांटें की तरह चुभने लगता है।
मेघपुष्प   【6】
……………
लीजिए एक बार फिर से
जल जीवन के लिए
अभिशाप हुए
मेघपुष्प फिर से
घर के आर-पार हुए
सारे चेहरे मुरझा गये
देख रौद्र रूप नीर के
सांसें अटकी
मन द्रवित हुए
मानसून के सारे दावे
फलीभूत हुए
खेतों, नदियों के जरिये
दूर दिशाओं तक
जलतरंगों से
छुई-मुई हुई हरियाली
सुख भरे जीवन
दुख से दो-चार हुए
लीजिए एक बार फिर से
जल जीवन के लिए
अभिशाप हुए।
तुम जल्दी आओ 【7】
……………………..
(कोसी में सहरसा-प्रतापगंज-फारबिसगंज के बीच बड़ी रेल लाइन के आमान परिवर्तन की धीमी प्रक्रिया पर…)
तुम आओ
तुम जल्दी आओ
रेलगाड़ियों के बड़े-बड़े डिब्बों
और चौड़ी-चौड़ी पटरियों के साथ
तुम जल्दी आओ
अपने विकास के विस्तृत आयामों के साथ
तुम नहीं जानते
कछुए की चाल से भी धीमी गति से
तुम्हारा इस तरह आना
उदास कर गया है यहाँ के गाँव-गाँव को
वीरान पड़ा है वह सभी स्थान
जिनसे होकर छोटे-छोटे डिब्बों में
कभी खुशियाँ भर-भर कर गुजरती थीं
लेकिन अब सन्नाटा पसरा है उन सभी चेहरों पर
मातम जैसा लगता है वहाँ चारों ओर
लगता है जैसे
कि हजारों जिन्दगियाँ उजड़ गयी हों एक साथ
इसलिए तुम जल्दी आओ
तुम आना भी चाहते हो क्योंकि
तुम्हारे आने में
तुम्हारा हीं विकास है
तुम जानते हो
कि कोसी की बाढ़
और बालू के भीत पर
पल रहे इन जिन्दगियों में
पहले से अंधेरा है
तुम जल्दी आओगे
तो हमारे इन बुझे चेहरों पर उजास होगा
अमलताश के फूलों जैसी मुस्कान होगी
हमारे पिछड़ेपन में नयी कोंपले उगेंगी
हमारे घरों में सपनों को नये पंख लगेंगे
और तब हमारा गाँव भी शहर जैसा होगा!
देखा मैंने  【8】
…………….
(‘दरभंगा महाराज’, दरभंगा, बिहार के किला से आँखों देखा हाल….)
देखते हुए
देखा मैंने राज किला को
खंडहरों में तब्दील होते
और चाहरदीवारियों को अपनी हीं
बेबसी पर ठहाका लगाते हुए भी देखा
देखा मैंने
लाल ईंटों से बने मुख्यद्वार को
( जो वास्तुकला के एक दुर्लभ दृश्यों
और ‘रामबाग’ किला की याद दिलाता है )
शैलानियों और श्रद्धालुओं के स्वागत में
दिन-रात मुस्तैदी से खड़े होते
और उसे मंद-मंद मुस्कुराते हुए
देखा मैंने
पत्थरों में कैद
महाराजा कामेश्वर सिंह को देखते हुए
अपने दरभंगा राज को
मानव राज में स्थापित होते
और उनके कृत्यों से बदबूदार होते हुए
देखा मैंने
संरक्षित किए जाने के शर्तों से
सरकार को मुकरते हुए
और उनकी उदासीनता से
दीवार को बदरंग और बेजान होते हुए
देखा मैंने
समाधियों के राख पर बने
श्यामा और कंकाली जैसी देवियों को
मंदिर में विराजित होते
और उनके चमत्कारी प्रभाव से
मानव को समर्पित और फलीभूत होते हुए
मैंने देखा
यहाँ-वहाँ किलाओं में
आज भी जीवित हैं उनकी स्मृतियाँ
मरे नहीं हैं राजा साहब
बिखरे पड़े हैं उनके सपने
सपनों को सहेज रहा है बंदर
इंसान कहीं दूर खड़ा
देख रहा है इसे
देखते हुए
देखा मैंने!
प्रतापगंज की सड़कों पर 【9】
……………………………
मैंने नहीं देखा
प्रतापगंज की सड़कों पर
उन दोनों को
प्रेम में दो शब्द बतियाते हुए
कभी मुस्काते और खिलखिलाते हुए भी
किसी ने नहीं देखा
उन्हें आते-जाते प्रतिदिन
सबों ने देखा
जाड़े में बर्फ-सा जमते
गर्मी में आइसक्रीम-सा पिघलते
और बरसात में भींगते-भींगते-सा संभलते हुए
मैंने और सबने देखा बार-बार
वह रिक्सा चलाता है
वो दूध बेचती है
वह उसे रिक्से पर बिठाकर
बाजार लाता है
वो दूध बेचकर रिक्से से
घर जाती है
यह सिलसिला कब से चला आ रहा है
इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया
घर-गृहस्थी की चिन्ता में
गूँथा हुआ उनका साधारण-सा जीवन
प्रेम में असाधारण दिखता है
वो उसके लिए दूध बेचती है
वह उसके लिए रिक्सा चलाता है
यह बंद नहीं हुआ प्यार में
वसंत में खिलखिला रहा है
प्रतापगंज की सड़कों पर
वो आ रही है
वह जा रहा है
आज भी वे आ-जा रहे हैं!
लौट आओ प्रिय.  【10】

………………….

प्रिय तुम लौट आओ
वैसे हींं
जैसे लौट आती हैंं चिड़ियांं
सांध्य वेला
अपने घोंसले में
जैसे लौट आता है कोई श्रमिक
थका मांंदा अपने घर
तुम भी लौट आओ
पर मैं जानता हूँ
कि तुम्हारा लौटना सहज नहीं होता
कदवा किए खेतों में
दिनभर बिचड़ा रोपते हुए
तुम्हारे पैर बहुत थक जाते हैं
आँखें निस्तेज हो जाती हैं
सारा बदन टूट रहा होता है
और जब अंधेरा होने पर
लौट रही होती हो तुम
तो तुम्हारे पैर थमक थमक जाते हैं
और फिर जैसे राह चलते हुए
किसी सपने में खो जाती हो तुम
कि कैसे घर पहुंचकर
जल्दी-जल्दी चुल्हे चौके से निपटना है
सोते हुए बच्चे को उठाकर खिलाना है
परिवार के सदस्यों को
खुश रखना है
और फिर सुबह सारा कार्य निपटाकर
पुनः खेतों में लौट जाना है
इसलिए देर हो जाती है
तुम्हें लौटने में
लेकिन इस संबंध में
कुछ मत सोचा करो
किसी भी बात की
चिन्ता मत किया करो तुम
एक दिन बच्चे बड़े होंगे
तो निस्संदेह
हमारे भी सुख के दिन फिरेंगे
इसलिए मैं कहता हूँ
कि लौट आओ तुम वैसे
जैसे लौट आती है हरियाली
पेड़ों में प्राण बनकर !
उजाले की उम्मीद शेष है 【11】
…………………………..

मेरे पिता के पिता ने भी

घर-बार नहीं छोड़ा था
तो मैं घर-बार छोड़कर कहां जाऊंगा
यही रहूंगा
साल में
बस तीन महीने की हीं तो बात है
किसी ऊंचे स्थान पर चला जाऊंगा
और पानी के ऊपर सांस लूंगा
कोसी तटबंध के अंदर रहने वाले
एक बूढ़े व्यक्ति ने मुझसे ऐसा हींं कहा
तब मैंने सोचा कि
पूरे एक ऋतु की बारिश में
डूबते उतरते जीवन
और रेत की तपिश में
दिन दिन सुलगते मन के अंदर
अभी भी उजाले की उम्मीद
और फसलों की आदिम गंध का
आकाशीय महक शेष है
सचमुच पूरी पृथ्वी की
सुप्त पीड़ा
यहीं अवशेष है।
बची रहेगी कविता 【12】
……………………
मैं रहूंँ या ना रहूँँ
बची रहेगी कविता
जैसे बचा हुआ है प्रेम
मानव के अंतस में
बीज की तरह
वह भी बची रहेगी
जब तक बचा है
एक भी नदी का दुःख
गिलहरी के आँखों में आँसू
और खरगोश के मन में संताप
बची रहेगी कविता
जब तक बाकी है
मछली में जिजीविषा
कछुओं में विश्वास
और एक भी स्त्री में सौंदर्य
बची रहेगी कविता
वो उन्हें संबल देगी
उनके चेहरे पर
एक अदद मुस्कान का सबब बनेगी
और आशाओं के फूल बनकर
सदा महकती रहेंगी
बादलों के पार
पृथ्वी के अंतिम छोड़ तक!
कराह रहे होंगे कवि   【13】
…………………….
वक्त आ गया है
कि सारे कवि घर से बाहर निकलें
और भाषा को
तमीज़ की तरह
जनता के बीच बाँचे
शब्दों को
लज़ीज़ व्यंजन की तरह
उनके थाली में पड़ोसें
उतना हीं
जितना कि पचा सके
और उनका हाज़मा दुरुस्त रह सके
वे बचे रहेंगे
भाषा में
शब्दकोष में
तो सारे कवि भी बचे रहेंगे
जैसे बचे हुए हैं कबीर
आज भी
उनके बीच
नहीं तो
कहीं दूर
काले अक्षरों में दबकर
कराह रहे होंगे कवि
किसी अन्य कवि की
आलमारी के किसी खाने में।
रेगिस्तान का संस्कार  【14】

………………………
भीषण गर्मी में भी
सड़क किनारे
जगह-जगह
रखे हुए
ठंडे जल के मटके
और पीने के लिए
एक गिलास के साथ
पथिक का स्वागत
यह रेगिस्तान का संस्कार ही है
कि पानी का रोना
कभी नहीं रोया
इन थार वालों ने।
जीवन भर साथ चलें 【15】  
………………………
थोड़ा तुम चलो
थोड़ा मैं चलूं
बीच बराबर
लेकर हाथ में हाथ चलें
तो जीवन भर हम साथ चलें
————
नाम- देवेन्द्र कुमार चौधरी
जन्म-तिथि- 04 -06-1975
जन्म-स्थान- प्रतापगंज, सुपौल (बिहार)
शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिन्दी), पटना विश्वविद्यालय, पटना (बिहार) 
 
सम्प्रति- स्थानीय सरकारी विद्यालय में ‘प्रखंड शिक्षक’ के पद पर अध्यापन एवं लेखन।
 
प्रकाशित कृतियाँ- 
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं एवं कई साझा संकलनों में (आलेख एवं कविताएं) प्रकाशित।
 
प्राप्त साहित्यिक सम्मान व पुरस्कार- 
कई साहित्यिक मंचों से सम्मानित व पुरस्कृत।
 
———-
देवेन्द्र कुमार चौधरी
परिचय : सुपरिचित कवि। पत्र-पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनाएं (आलेख एवं कविताएं) प्रकाशित। सम्प्रति: स्थानीय सरकारी विद्यालय में ‘प्रखंड शिक्षक’ के पद पर अध्यापन एवं लेखन।

संपर्क- प्रतापगंज, सुपौल-852125 (बिहार)
मो0- 8877249083
ईमेल: devendrac615@gmail.com

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