शहर के प्रमुख चौराहे से निकलकर जो सड़क नदी की तरफ जाती है, उधर एक प्राचीन शिव मंदिर है। इसी मंदिर के पिछवाड़े, नदी के कछार पर एक बस्ती सी बसी हुई है। निम्न स्तर का काम करने वालों, भिखमंगों आदि का डेरा है वहाँ। अक्सर ही बरसात में, जब नदी उफनती है, तो इस बस्ती का बड़े से हिस्से को अपने आगोश में ले लेती है। बाढ़ के उतरने पर फिर जंग खाए टिनों, टूटे एस्बेस्टसों, फटे-पुराने बोरों-कपड़ों-चिथड़ों-तिरपालों, बाढ़ से छाने गए लकड़ियों, मिट्टी-पत्थर, घास-फूस आदि से फिर घर बन जाते हैं। बस्ती बस जाती है।
शहर के लोग इधर सिर्फ प्रातः भ्रमण करने अथवा मंदिर में शिव दर्शन को ही आते हैं। वैसे इस बस्ती में सभ्य लोग आना पसंद नहीं करते। क्यों आएँ वे यहाँ? यहाँ भूख, बीमारी, बेकारी, बदहाली, मार-पीट, रोना-धोना, हाय-हाय आदि के सिवा है क्या? शहर के खूबसूरत इलाके का घिनौना दाग है यह। मखमल में टाट के पैबंद की तरह! कभी कोई शहरी इधर आता भी है, तो दाई- नौकर खोजने अथवा भिखमंगों को श्राद्ध के ‘दरिद्रनारायण’ भोजन का आमंत्रण देने।
काम करके कमाने वालों का महल्ला और भिखमंगों का महल्ला अलग-अलग है यहाँ। कामकाजी महल्ले के लोग स्वयं को भिखमंगों से थोड़ा ऊपर समझते हैं। अलबत्ता राम-रमौव्वल तो होती ही है। कभी-कभी तो यह भी होता है कि जब कामकाजी महल्ले का कोई असहाय अथवा अशक्त होकर भीख माँगने लगता है, तो वह भिखमंगों के महल्ले में रहने लगता है। मगर भिखमंगों के बीच का कोई कामकाजी महल्ले में रहने लगा, ऐसी कोई घटना नहीं हुई। शायद ही कोई भिखमंगा हो, जिसने काम की तलाश की हो और कामकाजी महल्ले में अपना आश्रय खोजा हो।
कामकाजी महल्ले का सुमेसरा जब मरा था, तब ऐसा ही कुछ होते-होते रह गया था। सुमेसरा की औरत गत वर्ष की बाढ़ में बही जा रही थी। बाढ़ का नजारा देखने वाले ढेर सारे तमाशबीन थे। मगर उस भयानक, उफनती नदी की खतरनाक लहरों से लड़ने कौन जाए? तभी सुमेसरा शोर सुनकर पहुँचा और कूद ही तो गया नदी में! अच्छा तैराक था वह। औरत तक पहुँच गया और उसे पकड़ भी लिया। मगर उस औरत ने अकबका कर उसे दबोच लिया और उसे भी साथ ले डूबी।
सुमेसरा के घर में थी उसकी कानी बुढ़िया माई, दस बरस की लड़की हीरा और छः बरस का शंकर। लोग अब यह अनुमान लगा रहे थे कि सुमेसरा की माई भी भीख माँग कर गुजारा करेगी। मगर बुढ़िया ने तो साफ ऐलान कर दिया कि अब वह काम करेगी। वैसे भी पहले भी काम करती ही थी। मगर जब से बेटा-बहू कमाने लगे थे, वह काम-धाम छोड़कर घर पर ही रहने लगी थी।
काम करने वालों के लिए काम की कमी नहीं होती। फिर शहर में तो सैकड़ों छोटे-मोटे काम थे। बर्तन-कपड़े धोने, अनाज-मसाला पीसने-कूटने से लेकर पत्थर तोड़ने, गारा ढोने तक का काम बुढ़िया करने लगी। सुमेसरा की बेटी कभी-कभार हाथ में बोरा लिए, अपने भाई का हाथ पकड़े, साथी-संगियों के साथ कूड़ों के ढेर में से काम की चीजें निकालते, बटोरते शहर भर की खाक छानती फिरती।
जीवन पुनः सामान्य हो चला था। मगर इस बीच हीरा कहीं गुम हो गई। नाम के अनुरूप वह लड़की ‘हीरा’ ही थी। चिथड़ों में लिपटे होने के बावजूद वह बहुत सुंदर, प्यारी सी लगती थी। एक दिन वह अपने हमजोलियों के संग कूड़े के एक ढेर को कुरेद रही थी, कि एक दूसरे कूड़ेखानों में एक आदमी ने बड़ा सा टोकरा उड़ेला। खाली टीन, शीशियों, अगरबत्ती के पैकेट, पोलीथीन के थैले, कागज-पत्तर, फलों-सब्जियों के कतरन-छिलके और जाने क्या-क्या पड़ा था वहाँ ? सभी उधर दौड़ पड़े और काम की चीज खोजने लगे। वे बच्चे, जिनके खाने-खेलने और पढ़ने-लिखने की उम्र थी, अपने पेट की खातिर उस ढेर पर झपट्टा मारने में मसरूफ हो गए।
थोड़ी ही देर में वह ढेर छोटा होकर, इधर-उधर बिखर गया था। उन बच्चों के बोरों में कुछ और सामान आ गया था। वे सभी चलने को हुए, मगर वहाँ हीरा नहीं थी। शंकर ‘दीदीया-दीदीया’ करके रोने लगा। सभी यह सोचकर लौटे कि शायद वह घर चली आई हो। मगर वह तो उधर आई ही नहीं थी।
अखबारों में न तो हीरा के खोने का विज्ञापन छपा, और न ही टी. वी. में उसका फोटो आया। कुछ दिनों की खोज-खबर के बाद फिर सबकुछ सामान्य हो गया। रोज कुआँ खोदकर पानी पीना ही जहाँ जीवन हो, वहाँ एक बच्ची की खातिर कौन माथा खपाए? मगर शंकर का जीवन तो एकदम से सूना हो गया। बहन उसका आधार, उसका साथी थी। वह उसे खिलाकर स्वयं भूखी रह जाती। उसे ओढ़ाकर स्वयं ठंढ से ठिठुरकर रह जाती। शैतान बच्चों से उसकी रक्षा का दायित्व भी बहन का ही था। वह उसे याद करता, तो उसका मन कुहँक उठता।
मगर अब उसकी सुनने वाली बहन न थी।
कहाँ गई होगी वह? लोग तरह-तरह की बातें बनाते, अटकलें लगाते कि क्या पता कोई उठा ले गया हो और दूसरे शहर में ले गया हो । यहाँ शहर में बाघ-भालू तो हैं नहीं, जो खा ले और पता न चले। दुर्घटनाग्रस्त होती, तो भी पता चलता। बुढ़िया को तो अब सचमुच डर लगने लगा। झोपड़ी जैसे उसे काट खाने को दौड़ती। मगर फिर यही सोचकर संतोष कर जाती कि क्या आजतक कभी कोई ‘हीरा’ झोपड़ी में रह सका है? लेकिन अब जब भी वह कहीं काम पर जाती, तो शंकर को साथ में अवश्य कर लेती। ‘इस बुढ़ापे की लकड़ी को भी कोई छीन न ले’ यही सोच उसे खाए जाता था।
जनवरी का महीना चल रहा था, और बुढ़िया भी बीमार चल रही थी। फिर भी काम पर तो जाना ही था। नहीं तो चूल्हा कैसे जलता ? सर्दी-खाँसी, कमर दर्द से तो वह पहले से ही परेशान थी। इधर और जाने क्या-क्या तकलीफ बढ़ गई थी। शंकर छोटा था। घर में कोई आसरा नहीं। शीत-लहरी के ये दिन काटे नहीं कट रहे थे।
मकर संक्रांति का दिन नजदीक था। इधर बुढ़िया तीन दिन से चारपाई पर पड़ी थी। वह ‘खाँए-खाँए’ करते हुए इधर-उधर खँखार फेंकती, फिर उठने में एकदम अशक्त हो अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाती थी। घर में खाने को एक दाना नहीं। शंकर ‘दादी-दादी’ करते हुए यहाँ-वहाँ डोलता फिरता और खाना माँगता। मगर घर में कुछ हो, तब तो। बुढ़िया दादी शंकर से सारे डब्बे खुलवा कर देख चुकी। मगर सब खाली पड़े ढनमना रहे थे।
शंकर बाहर निकल आया। दोपहर का समय। कामकाजी महल्ला लगभग खाली था। बच्चे बूढ़े, स्त्री-पुरुष सभी काम पर गए थे। वह भिखमंगों के महल्ले की तरफ निकल आया। कल मकर संक्रांति होने की वजह से इधर उल्लास छाया हुआ था। चेहरों को और अधिक विकृत और दयनीय तथा अपंग शरीर को और अधिक अपंग बनाने की वर्जिश सी चल रही थी। कटे-फटे घावों को और अधिक गहरा और रक्तमय किया जा रहा था। बगल में ही नदी बहती थी। इसके बावजूद कौन भिखमंगा था, जो नहाता था! हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले भी भीख मांगने के अपने नुस्खे ठीक करने में व्यस्त थे।
एक जगह कलटुआ कोढ़ी धूप में बैठा था। उसकी औरत एक ब्लेड से उसके घावों को कुरेद-कुरेद कर खून और मवाद को यहाँ-वहाँ भर रही थी। कलटुआ दर्द से आँख मींच लेता, मगर कुछ नहीं कहता था। शंकर ने घृणा और असहनीय दर्द की कल्पना कर आँखें फेर लीं।
एक जगह एक आदमी और दो औरतें जाने किस बात पर गुत्थम-गुत्था थे। तमाशबीन मजा ले रहे थे। उसके आने तक लड़ाई खत्म हो चुकी थी। मगर अब धारा-प्रवाह गालियों का आदान-प्रदान चल रहा था। उसके आगे कुछ लड़के पैसों का जुआ खेल रहे थे। एक झोपड़ी के पीछे दो साए फिल्मी अंदाज में लिपटे हुए नोंक-झोंक कर रहे थे। आगे एक स्थान पर कुछ औरतें बैठी हुई एक-दूसरे के मैले, चीकट बालों में से जुएँ निकाल-निकालकर पटापट मार रही थीं। और आगे बढ़ने का उसे मन न हुआ। पेट में आग सी लगी थी। कहीं से कुछ खाने को मिल जाता?
वह लौट चला।
उन औरतों में से एक को उसके घर का हाल मालूम था। वह पूछ बैठी- “काहे रे संकरवा! एतना उदास काहे है?”
“दादी बीमार है……”
‘दादी बीमार हे” एक दूसरी औरत ने मुँह बनाया- “अरे बुढ़ी है, कानी है! बगल में एक पोता है। भीख माँगने के लिए और क्या चाहिए? मगर बड़का बनती है महारानी! बड़ा बनने चली है कामवाली, इज्जत वाली!”
उस औरत के मुँह बनाकर बोलने पर बाकी औरतें ठहाका मारकर हँस पड़ीं। कौन कहेगा कि इन्हें किसी भी प्रकार का दुख है! मगर फिर पहले वाली औरत ने पूछा- “कुछ खाया है या नहीं?”
उसके ‘न’ करने पर वह दो रोटी और सब्जी ले आई। देखते-देखते वह रोटी खा गया। जाने लगा, तो फिर एक औरत बोली- “बोल देना दादी को, कल मकर संक्रांति है। आ जाएगी थाली-गुदड़ी लेकर। माह भर का खर्च निकल आएगा।”
घर लौटकर शंकर ने जब दादी से सारी बात बताई, तो बुढ़िया सन्न रह गई! फिर पास में पड़ी छड़ी शंकर को दे मारी। “हे भोले बाबा!” बुढ़िया अपने सिर और छाती पर दोहत्थड़ मार-मारकर रोने लगी थी- “अब क्या इसी दिन के लिए जिंदा रखे हो… अब क्या भीख मंगवाओगे मुझसे…. मुझे मौत भी तो नहीं आती रे…?”
शंकर अब तक सुबक रहा था। मगर दादी का यह हाल देख उसके होश-हवास गुम हो गए। यह क्या कर दिया उसने! फिर वह रोना छोड़ दादी से लिपट गया। उन दोनों की रोते-रोते हिचकियाँ बँध गई। शंकर को उबकाई सी आने लगी थी। ‘ओह! उसने दादी का दिल दुखा दिया’ वह सोच रहा था। उधर बुढ़िया सोच रही थी- ‘इसमें इस का क्या कसूर? इस निष्ठुर दुनिया ने आखिर इसे दिया क्या है?’
मकर संक्रांति की सुमधुर सुबह! रात गए ही भिखमंगों ने शहर से नदी तरफ को आनेवाली सड़क के दोनों किनारों पर कब्जा जमा रखा था। फटे हुए चादर, कपड़े, गुदड़ी-कथरी-कंबल और अल्युमुनियम के थाली-कटोरों की पंक्तियाँ सी लगी थीं। और वहाँ भिखमंगे बैठे हुए, खड़े हुए, लेटे हुए, कोई खंजड़ी-करताल बजाकर, अपने चेहरों पर बेचारगी लपेटे हुए, दुनिया भर की दयनीयता लादे रात से ही डटे पड़े थे।
मुँह अँधेरे ही चींटियों की कतार की तरह शहर से श्रद्धालुगण नदी स्नान करने, ग्रह गोचर उतारने, शिव दर्शन करने और दान-पुण्य की कामना लिए आने लगे थे। भिखमंगों में भनभनाहट शुरू हो चुकी थी। सोये हुए जाग गए थे। जागे हुए भिखारी सोये हुए को जगाने का अलख जगा रहे थे।
अजब समाँ था!
भूख के मारे शंकर को रातभर नींद नहीं आई थी। दादी के गले में गलबहियाँ डाले, वह रातभर कुनमुनाता रहा था। बुढ़िया भी अपनी तकलीफ के मारे रातभर कहाँ सो पाई थी, सो रातभर कराहती रही थी। सूर्य की पहली किरण के साथ ही शंकर तो उठ गया। मगर बुढ़िया की आँख लग गई थी।
पास के नल पर हाथ मुँह धोने के बाद उसने दो-तीन चुल्लू पानी पेट में उतार लिया। इस समय वह एक बड़ा सा पैंट और कई जगह से उघड़ा हुआ बदरंग स्वेटर पहने हुए था। नदी किनारे की सड़क पर जब वह आया, तो यहाँ का उत्साह और आमोद-प्रमोद देखकर थोड़ी देर के लिए वह अपना दुख भूल गया।
रंग-बिरंगे परिधानों में सजे-धजे स्त्री-पुरुष-बच्चों के कदम इधर नदी की तरफ ही बढ़े चले आ रहे थे। यह नदी रोज बहती है। आज भी बह रही है। मगर आज के कोलाहल में नदी की वह सुमधुर कलकल ध्वनि कहीं डूब सी गई है। जनवरी की इस भयानक ठंढ़ में भी लोग अपने वस्त्र उतार उत्साहपूर्वक नदी में नहा रहे हैं। भगवान भास्कर को अर्घ्य दे रहे हैं। शंकर अपनी भूख भूल इन दृश्यों का आनंद लेने लगा। इसी नदी ने उसके माता-पिता को निगल लिया। शहर ने उसकी प्यारी बहन को गायब कर दिया। दादी उधर खाट पर पड़ी अपनी बीमारी से संघर्ष कर रही है। और वह…. वह यहाँ भूख से बेहाल हो इधर-उधर भटक रहा है।
इतने बड़े हजूम में, इतने विशाल मेले में उधर ध्यान देनेवाला कोई नहीं है। यहाँ उसकी बस्ती के कुछ चंट-चालाक लड़के भी घूम रहे थे। कोई नजर चूकते ही सामान उठाकर चंपत होने के चक्कर में था। तो कोई दीन-हीन बना, याचना का हाथ फैलाए भीख माँग रहा था। कुछेक ने तो एक कदम आगे बढ़कर त्रिपुंड लगाकर, बिसातियों के यहाँ से दस-बीस पैसे में खरीदे हुए चंदन-रोली का टीका लगा, ब्राह्मणसुत बनकर स्नानार्थियों को लगाते थे और पांच पैसे से पाँचेक रुपए तक की दक्षिणा वसूल किए ले रहे थे। भीख माँगने का एक तरीका यह भी तो है ही, जो सनातन काल से चला आ रहा है।
लोग नदी किनारे की चमचमाती बालूका-राशि पर अपने परिवारों, रिश्तेदारों अथवा मित्रों के साथ बैठे हुए ‘धरम’ का काम कम, ‘पिकनिक’ का ज्यादा आनंद ले रहे थे। नदी में नावें चल रही थीं। मल्लाह प्रसन्न थे। आज अच्छी और नकद आमदनी की आशा है। नाव भर-भरकर लोग नदी पार उतर रहे थे। शंकर का मन हुआ कि वह भी नदी तैर कर पार चला जाए। छोटा है, तो क्या हुआ? उसने अब संघर्ष करना तो सीख ही लिया है। वह चाहे वक्त के थपेड़े हों अथवा नदी की लहरें, अब उसे डर नहीं लगता।
मगर वह मंदिर की तरफ बढ़ चला। अपने समय में, अपने हिसाब से यह प्राचीन मंदिर ही रहा होगा। कहते हैं कि किसी राजा ने पुत्र होने की खुशी में इस मंदिर का निर्माण कराया था। मगर आज आबादी बढ़ने के कारण, इस विशाल मेले के आगे यह मंदिर छोटा लग रहा है। भगवान शंकर के दर्शनार्थ लोग तिल-तिल करते आगे बढ़ रहे हैं। उनके हाथों में जल भरा पात्र, फूल, बेल-पत्र, प्रसाद, पैसा, अगरबत्ती आदि है। पहले नंदी बैल की काली प्रतिमा है। फिर विशाल घंटा, जिसकी कर्कश ध्वनि आज वातावरण में लगातार गूँज रही है। गर्भगृह में शिवलिंग है। क्या यहाँ भगवान भूतनाथ होंगे ? शायद हॉ, तभी तो इतने लोग आ रहे हैं। शायद नहीं, क्योंकि असंख्य लोगों की गर्म सांसों और अगरबत्तियों के धुएँ से क्या उनका दम घुटता नहीं होगा? कौन ठीक, वह यहाँ से भाग ही न गए हों! कारण कि लोग तो जैसे-तैसे अपनी श्रद्धा का सामान यहाँ चढ़ाकर मुक्ति पा लेते हैं। मगर वे जाएँ, तो जाएँ कहाँ ? वहाँ पर मुस्तैद हैं कुछ मस्त पंडे, जिनकी गिद्ध नजर चढ़ावे के पैसों पर है।
जिन फूल, बेल-पत्रों को भक्तजन बड़ी ही श्रद्धा के साथ मालियों से खरीद कर चढ़ा रहे थे, उन्हीं फूल, बेल पत्रों को पंडे टोकरियों में भर-भरकर बाहर कूड़ेदान में फेंक रहे थे। छोटा शंकर क्या जाने समझे इन बातों को? कूड़े के ढेर के पास गाय-बैल-बकरियों आदि में होड़ लगी थी कि कौन काम की चीज उदरस्थ कर, फिर उनकी ऐसी-तैसी करता है! श्रद्धा के ये फूल-पत्र स्वयं श्रद्धालुओं द्वारा भी कुचले जा रहे थे। भोले शिव उन फूल-पत्रों की सुगंध भी न ले पाते होंगे कि उन्हें बाहर फेंक दिया जा रहा था!
दोपहर होने लगी थी। लोग यहाँ-वहाँ बिखरे बैठे हुए थे। और अपने-अपने दल के साथ चूड़ा, तिल की मिठाइयाँ, रेवड़ियाँ और जाने क्या-क्या चीजें खा रहे थे। वह फिर इधर घाट की ओर चला आया। इधर मेला सा लगा था। हलवाइयों की भट्ठियों पर कड़ाह चढ़े थे, जिनमें से गरम-गरम जलेबियाँ, पकौड़ियाँ आदि उतर रही थीं। उनकी काँच की आलमारियों में रंग-बिरंगे नमकीन और मिठाइयाँ सजी थीं। हलवाइयों को छींकने तक की फुर्सत न थी। खरीददार टूटे पड़ रहे थे। मगर शंकर… उसका बुरा हाल था। आह! कहीं से एक सूखी रोटी मिल जाती! वह सोचता और खून के आँसू रोता था।
वह फिर नदी किनारे की सड़क पर चला आया। वहाँ भिखारियों की लंबी लाईन दानदाताओं का गुहार लगा रही थी। उनका वह दिखावटी आर्त्तनाद राह चलते लोगों को दाता बनने पर मजबूर कर रहा था। उनमें से कई दानदाताओं के पास तो थैले होते थे, जिनमें से वे कुछ सामान निकालकर तटस्थ भाव से भिखारियों को दान दिए चले जाते थे।
भिखारियों के पीछे छिपी हुई गठरियाँ बड़ी हो रही थीं। सामने के चादर पर कुछ पैसे, चावल, चूड़ा, तिल और मूढ़ी के लड्डू, बताशे और याचना का वह दीन स्वर था, जो पत्थर दिल वालों को भी मर्माहत किये दे रहा था। शंकर क्रम से सबको देखता चला जा रहा था। क्या यह वही लोग हैं, जिन्हें वह रोज अपनी बस्ती में देखता है! अचानक ही कलटुआ कोढ़ी की औरत चिल्लाई – “क्या है रे संकरवा? कहाँ जा रहा है?”
“………?”
“अरे भुक्खड़…आ मेरे बगल में खड़ा हो। तुम्हारी दादी तुम्हे भूखा मार देगी रे! आ बचवा…।”
वह उसकी बगल में खड़ा हो गया। एक तोंदियल सेठ चूड़ा बाँटते चला जा रहा था। उसके नन्हें हाथों में भी चूड़ा के कुछ कण पड़े, जिसे उसने फाँक लिया। एक औरत बताशे बाँटते चली गई। उसके हाथों में भी एक बताशा पड़ा। वह भी पेट में। एक आदमी पैसा बाँटते चला गया। उसके हाथ में भी पाँच रूपये का एक सिक्का पड़ा।
अब कलटुआ चिल्लाया- “रे संकरवा! हाथ में केतना समान आयेगा रे? जा, भाग के घर जा। घर से कोई कपड़ा ला के बिछा के बईठ ईहाँ।”
उसने अपना फटा स्वेटर खोल वहीं जमीन पर बिछा दिया। वहाँ अब दानदाताओं के दिए चावल, चूड़ा, गूड़-मूढ़ी-तिल-मूँगफली आदि के लड्डू, बताशे, रूपये-पैसे आदि गिर रहे थे। हवा बह रही थी। वह अधनंगे ठिठुर रहा था। स्वेटर सामान से भर रहा था। मगर अब उसकी आँखों में कोई खौफ सा खेल रहा था। दादी का वह चेहरा भीख के नाम पर कैसा हो गया था? और वह यहाँ भीख माँग रहा है! वह क्या कर रहा है… क्या कर रहा है शंकर…क्या कर रहा है संकरवा…क्या कर रहा है रे तू…?
अचानक ही वह उठा और उसने उस स्वेटर को खींचकर सड़क पर दे मारा। फिर स्वेटर उठाकर पागलों की तरह नदी के किनारे-किनारे भागने लगा। सड़क पर बिखरे हुए चूड़ा, चावल, मिठाईयाँ, बताशे, पैसे आदि सिर्फ भिखारियों को ही नहीं, दानदाताओं को भी मुँह चिढ़ा रहे थे।
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चितरंजन भारती,
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