भारतीय इतिहास में किसान और मजदूर शब्द प्रायः नये थे। उपनिवेशवादी लेखन में किसान के लिए काश्तकार और रैयत जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता था। रैयत शब्द मूलतः फारसी का शब्द है। जिसका अभिप्राय है प्रजा। मुगलिया दौर में कामगारों और किसानों के लिये रियाया शब्द का प्रयोग किया जाता था। ये शब्द रैयत का बहुवचन है। भारत में जैसे-जैसे अंग्रेज मजबूत होते गए, भारत में उद्योग-धंधों का चलन बढ़ा और एक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग प्रकाश में आया। मार्क्सवादी और साम्यवादी विचारधारा का भी इनपर गहरा प्रभाव पड़ा। इसी प्रभाव का परिणाम है कि मजदूरों और किसानों की परिवर्तनगामी इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत हुई। तब से लेकर आज तक प्रायः हर रचनाकार ने अपनी-अपनी कृति में अपने-अपने तरीके से किसानों और मजदूरों पर अपनी कलम चलाई। भारतीय इतिहास के दरीचे पर दृष्टिपात करें तो हम पाएँगे कि समय-समय पर होने वाले किसान आन्दोलनों ने आजादी के पहले और आजादी के बाद भी बड़ी-बड़ी शक्तियों की जड़ें कँपा दीं। खैर… इस लेख में हम हिन्दी साहित्य में किसानों ,लोक, और मजदूर की स्थिति पर विचार करेंगे इसलिए हम इसी पगडंडी का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ते हैं।
हिन्दी के वर्तमान ग़ज़लकारों में ज्ञान प्रकाश पाण्डेय ने अपने लिए एक विशेष जगह बनायी है। इनकी ग़ज़लें यथार्थ की ज़मीन पर उगने वाली सच्चाईयों से लोगों को रूबरू कराती हैं। कहीं किसी तरह का कोई छद्म नहीं है। इनकी ग़ज़लें जीवन की उबड़-खाबड़ पगडंडियों पर बोलते बतियाते हहाते और ठठाते हुए आगे बढ़ती हैं। इन्होंने ग़ज़ल के रिवायती ढर्रे को बहुत हद तक बदला है। उनकी ग़ज़लों से गुजरते हुए हम एक तरफ हिन्दी की साठोत्तरी कविता को याद करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हिन्दी के दिग्गज ग़ज़लकार भी याद आते हैं। इनकी ग़ज़लें कहीं तो सहराओं से गुजरते हुए नज़र आती हैं तो कहीं पहाड़ों पर ट्रैकिंग करती हैं। ज्ञान प्रकाश की ग़ज़लें प्रेमिका की बात कम लगती हैं। रोटी का संघर्ष अधिक। इनकी ग़ज़लों में प्रेमिका के आरिज़ और जुल्फ़ की जगह मजदूर के माथे का पसीना अधिक प्रभावी नज़र आता है। ज्ञान प्रकाश जी प्रेयसि की बाँहों में बाँहें डालकर वाक करते बहुत कम नज़र आते हैं, रेगज़ारों की ख़ाक छानते अधिक दिखाई देते हैं। ये वर्तमान के धुंध की रौशनी में तर्जुमानी करते दिखाई देते हैं। ज्ञान प्रकाश की ग़ज़लें आज के मिठबोलना समाज में सच बोलने की हिमाकत करती हैं और बार-बार करती हैं।
रेगज़ारों पर कमल की बागवानी है ग़ज़ल,
धुंध में इस रौशनी की तर्जुमानी हैं ग़ज़ल।
धूप को ठेंगा दिखाकर जिस्म से मजदूर के,
दम-ब-दम चूता हुआ नमकीन पानी है ग़ज़ल।
बे हिचक वे रोक, बे-खौफ़ो-ख़तर दिल खोल के,
दुम हिलाउँ दौर में आतिश बयानी है ग़ज़ल।
(सर्द मौसम की खलिश, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 80)
ज्ञान प्रकाश पाण्डेय ने अज्ञेय की तरह पुराने उपमानों को छोड़कर आगे बढ़ने की पूरी-पूरी कोशिश की है। वे ग़ज़लों में किस्सागोई तो करते हैं, किन्तु यथार्थ की ठोस ज़मीन के कट्टर हिमायती हैं। संभवतः यही इनका मूल स्वर भी है। तभी तो ये कहते हैं-
गर न मानेगा तो जा यार उतर दलदल में,
मिल न पायेगी मगर राहगुज़र दलदल में।
जौके-तमीर बदल शहरे-हवस के ख़्वाहा,
कैसे मुमकिन है कि तामीर हो घर दलदल में।
(आसमानों को खल रहा हूँ, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. …)
ज्ञान प्रकाश की ग़ज़लों की कहन इंद्रधनुषी है। इनमें सामाजिक चेतना, राजनैकि उठापटक और आर्थिक संघर्ष का स्वर काफी मुखर है। इनकी ग़ज़लों में यथार्थ का रंग भी काफी चटक है। कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे वर्तमान की एलबम में संग्रहित सारे चित्र कवि हमें दिखवा देना चाहता है। चूंकि इस लेख में हम किसान जीवन का चित्र खींचने की कोशिश कर रहे हैं अतः हम उसी तरफ चलते हैं। कवि सूखे के समय का चित्र खींचते हुए उस समय में घटित तमाम विडंबनाओं को अपने ग़ज़ल में दिखाने की कोशिश करता है। कैसे एक किसान सूखा पड़ जाने पर असहाय हो जाता है। चूल्हे सर्द पड़ जाते हैं। तमाम संवैधानिक अधिकार धरे-के-धरे रह जाते हैं। जो खेत कुछ दिन पहले तक खिलखिलाकर हँसा करते थे वही खेत एक लंबी चुप्पी में तब्दील हो जाते हैं। पारिवारिक दायित्व चारो तरफ से चाबुक की तरह शरीर पर आघात करने लगते हैं। त्रासदी यहीं खत्म नहीं होती, लगान, मुँह बाए सुखों के साथ-साथ इज्ज़त को भी निगल जाने के लिए एड़ियाँ उचका-उचकाकर लपकने लगता है। खेत वीरान से दिखाई देने लगते हैं। एक ग़ज़ल देखें-
अब न गेहूँ न धान खेतों में
बो रहा क्या किसान खेतों में।
सर्द चूल्हे सिसक रहे हर सू,
जल रहा संविधान खेतों में।
कल तलक खिलखिला के हँसते थे
अब न लेकिन जुबान खेतों में।
आह बिटिया की क्या करे हरखू,
बस उगा है लगान खेतों में।
(सर्द मौसम की खलिश, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 34)
कुछ इसी तरह का मार्मिक चित्रण मैथिलीशरण गुप्त अपनी किसान कविता में करते है।-
मानो भुवन से भिन्न उनका दूसरा ही लोक है,
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं उनमें नहीं आलोक है।
(मैथिलीशरण गुप्त, किसान कविता)
मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है कि शशि और सूर्य के होने के बावजूद भी किसानों के जीवन में किसी तरह का आलोक नज़र नहीं आता। इस आलोक के न होने के क्या कारण हो सकते हैं? मुझे लगता है इन कारणों को हम ज्ञान प्रकाश की ग़ज़लों में खोज सकते हैं। पूस की ठंडक हो, आषाढ़ की बरसात हो या जेठ की गरमी हो, किसानों की स्थिति में किसी तरह का परिवर्तन नहीं आता। पूस की हड्डी गलाती ठंडक में किसान खेतों की रखवाली करता है। रात-रात भर मेड़, मोहार में निकल जाता है। आषाढ़ छवाई, रोपनई की भेंट चढ़ जाता है। छपरा कभी इधर चू रहा है, कभी उधर चू रहा है। जेठ में जिस्म को जला देने वाली गर्मी में हमारा किसान कमरतोड़ मेहनत करता है मगर उसके जीवन का दुःख खत्म ही नहीं होता। दिन-ब-दिन गाँवों में पलायन बढ़ रहा है। गाँव में लोगों को रोज़गार मिल पाना संभव नहीं हो पा रहा है। गाँव में अब सिर्फ बूढ़े बच रहे हैं। कभी न कभी ये भी भारत सरकार की बड़ी समस्या हो सकती है। कुछ शेर देखें-
अब न होगी यहाँ गुजर भइया,
गाँव छोड़ो चलो नगर भईया।
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खेत परती हैं फट रही छाती,
पी गया कौन फिर नहर भईया।
पूस आषाढ़ हो या जेठ मियाँ
इन किसानों को बस है डर भईया।।
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गाँव में गाँव अब कहाँ आखिर,
गाँव आए कहीं नज़र भईया।
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चुक न पाया किसान क्रेडिट फिर,
बैंक निगले कहीं न घर भइया।
(वही, पृ. 25)
किसान क्रेडिट, जो किसानों की सहायता के लिए बनाया गया था, वही किसान क्रेडिट किसानों के लिए मुश्किल बनता जा रहा है। इसे हम व्यवस्था का भ्रष्टाचार ही कहेंगे कि एक किसान क्रेडिट को चुकाते-चुकाते एक किसान अपनी पत्नी के जेवर, पुश्तैनी ज़मीन तथा अंत में अपनी इज्जत तक बेच देता है। कभी-कभी तो स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए अपने जान की भी आहुति देनी पड़ती है। शायर कहता है-
खुदकुशी बुजदिली है लड़ थोड़ा,
इतनी जल्दी न कर ठहर भईया। (वही, पृ. 24)
कहने को कोई कितनी भी बड़ी बातें क्यों न कर ले, मगर जिसके ऊपर आफत टूटती है वही समझ पाता है। तभी तो कहा गया है ‘जाके पैर न फटै बेवाई, सो क्या जाने पीर पराई’।
किसान का जीवन लम्बी रात की तरह है, जिसकी सुबह मुमकिन नहीं लग रही। किसी ने कहा जरूर है कि ‘लंबी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।’ मगर इस गम के रात का कोई शहर अबतक नज़र नहीं आई। जिसके पसीने से सारा खेत महकता रहता है, उसके घर, उस खेत का एक दाना भी आना मुश्किल हो जाता है। कभी सूखा तो कभी बाढ़ की भार से कमर टूट जाती है। किसान एक दिन में नहीं मरता बल्कि थोड़ा-थोड़ा रोज मरता है। जो बैल दुवार की शोभा हुआ करते थे वे अब महाजन के यहाँ गिरवी हैं। यही अभाव पलायन को जन्म देता है। ये पलायन किसान को मजदूर बनने के लिए विवश कर देता है। नहर न आने से खेतों की छाती फट जाती है।
पूस की रात का वो डर हल्कू,
यूँ कि होगी न अब सहर हल्कू।
खेत महके तिरे पसीने में
गाँव तुझमें हर इक पहर हल्कू।
बाढ़ पहले औ बाद में सूखा,
मर रहा है ठहर-ठहर हल्कू।
बिक गए बैल खेत रेहन हैं,
अब तो भटके है दर-ब-दर हल्कू।
खुश्क खेतों की फट रही छाती
क्यों न आती है ये नहर हल्कू।
(वही, पृ. 25)
किसानों का ये पलायन हमेशा सुखद परिणाम लेकर नहीं आता। अधिकांशतः ये परिणाम दुःखद ही होता है। गाँव का पानी जब शहर जाता है तो उसकी सरलता और पवित्रता में कुछ परिवर्तन तो आता ही है। कभी-कभी तो ये पानी कमीन लोगों के हत्थे चढ़ जाता है और खुदकुखी तक की नौबत आ जाती है। शेर देखें-
गाँव से क्या नगर गया पानी,
सर से होकर गुजर गया पानी।
—-××××—-
खुदकुशी गर नहीं तो क्या करता,
क्यों कमीनों के घर गया पानी। (वही, पृ. 30)
ज्ञान प्रकाश जानते हैं कि इस संसार में और भी कई संसार हैं। अमीरों और गरीबों का, शोषितों की और शोषकों का। इसी शोषक वर्ग का एक हिस्सा भारतीय किसान भी है। मामूली सी लगने वाली बातें वास्तव में बहुत बड़ी बातें हैं। वर्गों का अंतर ज्ञान जी की रचनाओं में बहुत स्पष्ट और चटक दिखाई पड़ता है। इस अंतर के लिए किसी हुनर की जरूरत नहीं बल्कि उनके साथ रहकर अधिक व्यक्त किया जा सकता है। रचनाकार स्वयं कृषक वर्ग से संबंध रखता है अतः वह इसे अधिक प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकता है। शायर का सारा जीवन इन्हीं के इर्द-गिर्द गुजरा। अतः शायर इनके दुःख-दर्द को समझता है। उनकी छोटी-छोटी जरूरतों से वाकिफ है। कवि जानता है कि कब और कहाँ वे असहाय हो जाते हैं। कुछ शेर देखते हैं-
भूख की कश्ती है खस्ताहाल मौजे सर चढ़ीं,
मुफलिसी का ये समंदर कैसे ‘हल्कू’ पार हो।
(वही, पृ. 55)
इस शेर का ‘हल्कू’ सिर्फ ‘हल्कू’ नहीं बल्कि पूरे भारतीय किसान का प्रतिनिधि है। ये हल्कू पूरे भारतीय किसानों की गरीबी का साक्षी है। उनके कुपोषण, उनके अभाव, उनके बच्चों की अशिक्षा का गवाह है। एक शेर देखें-
शीत पीकर मर गया फिर एक ‘जबरा’ खेत में
राड़ पछुवाँ चाहती है नित नई रफ्तार हो।
शायर यहाँ ‘राण पछुवाँ’ उस पश्चिमी प्रभाव को कह रहा है। उस उपभोक्तावादी प्रभाव को कह रहा है, जिसके कारण हम एक सर्वग्रासी परछाईं से घिरते जा रहे हैं। सबकुछ हमारी मुट्ठी से सरकता जा रहा है। कुछ तो साधनों की कमी और कुछ बाजारी चाकचिक्य ने हल्कू को किसान से मजदूर बनने के लिए विवश कर दिया है। गाँव उजड़ रहे हैं। पश्चिम की अपसंस्कृति ने हमसे हमारा बहुत कुछ छीन लिया है। वसीम बरेलवी साहब ने एक जगह लिखा था-
दुश्मने तहजीबे-मशरिक और क्या चाहेगा तू,
हमने टी.वी. को बुला वक्ते-अजाँ रहने दिया। (वसीम वरेलवी)
ज्ञान प्रकाश पाण्डेय मूल रूप से जनवादी कवि हैं। वे कहीं किसी तरह का लिहाज नहीं करते। कहीं-कहीं तो वे गरिया देने तक में संकोच नहीं करते। उनके समय के कवि उनसे चिढ़ते भी हैं। उनकी आलोचना भी करते हैं, किन्तु उनकी काव्य चेतना उन्हें सबसे अलग करती है। उनके शेरों में न जाने ऐसा क्या है कि जो उन्हें पसंद करते हैं या जो उन्हें समझते हैं बहुत अधिक पसंद करते हैं। उनके लिए फौजदारी करने तक चले जाते हैं। एक तपाकपन ज्ञान प्रकाश के शेरों में देखने को मिलता है। उनकी कविता का किसान बड़ा स्वाभिमानी है। इस स्वाभिमान का एक कारण है। इनका किसान आसमानी ख्वाब नहीं पालता। वह जमीन का आदमी है। शेर देखें-
फटी गंजी फटी पनही, मगर ये शान तो देखो,
लिए कंधे पे हल जाते हुए दहकान तो देखो।
फ़कत दो जून की रोटी, लँगोटी और इक छप्पर,
समुंदर के हृदय में बूँद सा अरमान तो देखो।
(सं. रमेश कँवल, 2020 की नुमाईंदा ग़ज़लें, पृ. 313)
ज्ञान प्रकाश पाण्डेय की इसी ग़ज़ल को जब हम और आगे तक पढ़ते हैं तो हम देखते हैं कि एक सुंदर भारतीय गाँव का पूरा चित्र उभर कर सामने आया है। तमाम होनी-अनहोनी और पलायन के बाद भी भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। लहलहाते खेत उसमें मुस्कुराती श्रम बालायें, टेसू के फूलों का भान कराती हैं। सुनहली फसलों से भरे खलिहानों की सुंदरता शब्दों और कल्पना की सीमा को लाँघ जाती है, मगर इनके दस्तरखान हमें निराश करते हैं। पूरे संसार को रोटी देने वाला, भोजन देने वाला स्वयं रूखी-सूखी खाकर बिताता है। शेर देखते हैं-
निराती गोड़ती, हँसती, चहकती कोल बालायें,
दहकते टेसू के फूलों सी ये मुस्कान तो देखो।
न लफ़्जों में बयाँ करने की है तौफीक क्या बोलूँ,
अनाजों से भरे स्वर्णिम सुघर खलिहान तो देखो।
नमक रोटी, दो टुकड़ा प्याज, अमचुर और हरी मिर्ची,
हमारे अन्न दाताओं के दस्तरखान तो देखो। (वही, पृ. 313)
अंतिम शेर सिर्फ किसानों की स्थिति का ही बयान नहीं कर रहा बल्कि व्यवस्था पर व्यंग्य भी कर रहा है। आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद भी किसानों की स्थिति में कुछ खास सुधार नजर नहीं आता। हाँ प्रेमचन्द की स्थिति से गाड़ी तनिक आगे जरूर बढ़ी है।
ज्ञान प्रकाश पाण्डेय कोई भी बात हवा में नहीं करते। कहने का अर्थ ये है कि ज्ञान प्रकाश जी के ख्वाबों का गाँव हिन्दी सिनेमा का गाँव नहीं है। वे बड़ी गहराई में पैठ कर पड़ताल करते हैं। वे गाँव को जीते हैं। ज्ञान जी की ग़ज़लों में उत्तर भारत का समूचा मंजरनामा दिखाई देता है। इनके ग़ज़लों की अँगुली पकड़कर समूचे उत्तर भारत को घूमा जा सकता है। जगह-जगह उत्तर भारत के गँवई शब्द नजर आते हैं जो ग़ज़लों को और नजदीक ला देते हैं। हृदय के इतने करीब कि स्पंदन सुनाई पड़ने लगता है। गाँव की सोंधी खुशबू चित्त और मन को आनन्द से भर देती है। संवेदना के कितने ही रूप सदेह हमारे सामने आने लगते हैं। एक ग़ज़ल देखें-
चना गेहूँ मटर, अलसी औ जौ से प्यार करती हैं,
मिरी ग़ज़लें मिरे खलिहान में सजती सँवरती हैं।
कभी कउड़ा में आलू भूनकर खाओ तो समझोगे,
तमन्नाएँ मिरी क्यों गाँव की मिट्टी पे मरती हैं।
कहीं कोल्हू से सरसो की कहीं पर पक रहे गुड़ की,
वो भीनी खुशबुएँ बेरोक रूहों तक उतरती हैं।
हिलाकर क्या कभी पोखर में नहलाया है भैंसों को
यकीं मानो यहीं से ख्वाहिशें परवाज भरती हैं।
दरिद्दर खेदती आजी बजाकर सूप और दौरी,
सुनो है ऐसा करने से बलाएँ ज्ञान मरती हैं।
(सं. डॉ. कृष्ण कुमार प्रजापति, 30 ग़ज़लको 300 ग़ज़लें, पृ. 318)
इस ग़ज़ल को वही लिख सकता है जिसने इस परिवेश को जिया हो। इस ग़ज़ल को लिखने के लिए उस्ताद होने की जरूरत नहीं बल्कि इस माहौल का होना जरूरी है। खलिहान, कउड़ा में आलू भूनना, गन्ना से गुड़ बनना, कोल्हू में सरसों पेरवाना, पोखर में भैंस को हिलाकर नहलाना तथा आजी द्वारा दरिद्दर खेदना कोई गाँव का ही व्यक्ति समझ और लिख सकता है। हिन्दी परिवेश के प्रायः लोगों ने ऐसा किया होगा।
वैश्वीकरण और बाजारवाद ने रचनाधर्मिता को काफी हद तक प्रभावित किया। इतना ही नहीं लोक की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। लोगों में बाबूगिरी का विकास हुआ। लोक से अनजान बने रहना स्टेटस सिंबल बना गया। मिट्टी की गंध से नाक सिकुड़ने लगी। दादुरों और झिंगुरों का स्वर खलल पैदा करने लगा। मगर इन सबके बावजूद जब हम ज्ञान प्रकाश की ग़ज़लों से गुजरते हैं तो हमें सिर्फ खेत-खलिहानों, सिवानों और चाँवर का ही दृष्टिगत नहीं होते बल्कि गहरे से और गहरे डूबते चले जाते हैं। सच कहें तो हम इनकी गँवई ग़ज़लों में त्रिलोचन, नागार्जुन, विद्यानिवास मिश्र और शैलेश मटियानी को एक साथ प्रतिबिंबित पाते हैं। जहाँ एक तरफ गाँव की साधारण चीजें दिखाई देती हैं वहीं दूसरी तरफ लोकगीतों का आभास भी होने लगता है। नयी पीढ़ी के लिए बँसवारी, महुवारी, अमराई, खटोला, उनचन, ओसार, जँतसार जैसे शब्द भले ही अटपटे लगें, किन्तु गंभीर चिंतकों और पाठकों के लिए काफी आनन्दवर्धक हो जाता है। ये शब्द कानों में किसी मंदिर की घंटी की तरह बजने लगते हैं। एक ग़ज़ल देखें-
बँसवारी, महुवारी खुशबू में डूबी अमराई है,
गाँव हमें फिर खींच रहे हैं हिचकी मुझको आई है।
एक खटोले पर ‘गुलवा’ है एक पे चट्टू की बिटिया,
खटिया के ढीले उनचन पर पसरी बुढ़िया माई है।
घर आँगन ओसार अजब वो जँतसारों की तान मधुर
रह-रह कर मन को छूए है पीर बहुत गहराई है।
सेम मटर लौकी कद्दू की झिलमिल-झिलमिल सी चादर,
जिससे अब तक जीवित हूँ वो यादों की पुरवाई है।
दूध दही घी की अब घर में गंगा यमुना बहती है,
अब से बस कुछ दिन पहले ही धवरी मेरी ब्यायी है।
(सर्द मौसम की खलिश, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 78)
इस कविता को पढ़कर पूरी तरह से त्रिलोचन जी याद आते हैं। जिस तरह त्रिलोचन की कविता किसी विशेष अवसर, किसी विशेष काव्यशास्त्र, किसी विशेष परिस्थिति या किसी विशेष सलीके की माँग नहीं करती, बल्कि अपने आस-पाास, लोक और अपने पास-पड़ोस से अपनी कविता के लिए कुछ-न-कुछ चुन लेती है। ठीक उसी प्रकार ज्ञान प्रकाश भी अपने आस-पास से अपने कविता की सामग्री खोज लेते हैं, किसी सिचुवेशन का इंतजार नहीं करते। उनके लिए तो खटोला, चट्टू की विटिया, उनचन और बुढ़िया माई में भी कविता परिलक्षित होती है। ज्ञान प्रकाश जी का अपना ढर्रा है। लोक में कुछ भी करीने से सजा नहीं होता और यही उसकी सुंदरता है। जैसे त्रिलोचन जी अपनी कविता के लिए भोरई केवट, फेरन, रामचन्दर, नगई महरा और शिवटहल जैसे पात्र खोज लेते हैं, ठीक वैसे ही ज्ञान प्रकाश जी भी अपनी कविता के लिए जोखू, हरखू, शिउआ, जोधा, हल्कू जैसा पात्र खोज लेते हैं। ज्ञान प्रकाश की कविता कटे और करीने से सँवारे हुए लॉन नहीं है। इनके कविता की सुंदरता बहुरंगी गुलाब के पौधों से नहीं बल्कि नीम, महुआ, कटहल और आम के पेड़ों से है। इनके यहाँ सेम और लौकी की झालर लहलहाती है। बाजरे की कलगी है, भुट्टे और धान के खेत हैं। सुग्गा है, गौरैया है, अलाव है, हल है, बैल हैं, हेंगा है। इन्हीं से बना है ज्ञान जी की कविताओं का संसार। एक ग़ज़ल देखते हैं-
चार सू मद्धिम अलाओं के जुटाना चाहती है
गाँव की ठंडी हमें कुछ पास लाना चाहती है।
सेम की झालर में लिपटी झूमती हँसती मड़ैया,
स्वर्ग को शायद जमीं पर खींच लाना चाहती है।
क्या पता ये आँख बूढ़ी हो न हो कल इसलिए बस,
अनुभवों की एक ढिबरी छोड़ जाना चाहती है।
झूमती हँसती मचलती, शोख कलगी बाजरे की,
गाँव क्या है शहर को शायद बताना चाहती है।
रफ्ता-रफ्ता हो रहा है ज्ञान का एहसास संदल,
खेत की मिट्टी मेरे मुझको बुलाना चाहती है। (वही, पृ. 103)
एहसास का संदल होना और खेत की मिट्टी द्वारा बुलाया जाना कोई साधारण बात नहीं है। अनुभव की ढिबरी ही एहसास को संदल करती है। अनुभव की भीनी गंध रग-रग में रच-बस जाती है। खेत की मिट्टी का ये बुलावा ही व्यक्ति को उसकी ज़मीन और अतीत से जोड़े रखता है। इसी से व्यक्ति का समाज भी निर्मित होता है। व्यक्ति इसी मिट्टी के बल पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ पाता है। अपनी जड़ जमा पाता है। बाजरे की झूमती कलगी गँवई स्वाभिमान को जीवित रखती है। बाजरे की कलगी गँवई फक्कड़पन का परिचायक है। ये गाँव को शहर के सामने ह्यूमीलिएट होने से बचाती है। ज्ञान की गँवई चेतना में बुजुर्गों को आला दर्जा प्राप्त है। सच कहें तो इन्हीं बुजुर्गों के द्वारा ज्ञान जी की गँवई व्यवस्था संचालित होती है। एक और शेर देखें-
अभी तलक तो यहाँ बरगदों का साया है,
अभी न धूप में आए हरे भरे हैं ख्वाब।
(आसमानों को खल रहा हूँ, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 51)
गाँव की दिनचर्या भी खूब होती है। घर की बुजुर्ग औरतें एक बोरिंग सा काम लेकर बैठ जाते हैं। जैसे चावल बीनना, दसना सीना आदि। सुबह उठकर बैलों को सानी-पानी के बाद लोग अपनी-अपनी बिरवाही गोड़ने, निराने लगते हैं। दादी सब्जी निराती गोंड़ती हैं। खेत से खड़-पतवार बीनती हैं । छोटे बच्चों को लड़िकधरवा का डर दिखाकर उन्हें डराया जाता है। कभी-कभी रात में लेरुआ (गाय का बच्चा) गाय का दूध पी लेता है और सुबह की चाय मुश्किल हो जाती है। सब का अपना-अपना कार्य होता है। सुबह उठते ही लोग अपने-अपने निर्धारित कार्य में लग जाते हैं। एक ग़ज़ल देखें-
है बुआ साठ से भले ऊपर,
सीती दसना प’ आज भी जमकर।
कोलिने गोड़ती हैं बिरवाही,
पीटती हैं ये रातभर अरहर।
सानी-पानी है शाम का बाकी
भैंस भी आ चुकी है अब चरकर।
दिन में आया था इक लड़िकधरवा,
बच्चे घर में छुपे हैं कुछ डरकर।
शाम की चाय आज फिर मुश्किल,
गाय ने फिर पिला लिया छुपकर।
(आसमानों को खल रहा हूँ, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 71)
इस कठिन दिनचर्या के बाद भी लोगों में आर्थिक खुशहाली का अभाव ही दिखाई देता है। इतनी सरकारी योजनाओं के बावजूद भी हर व्यक्ति के लिए छत और रोटी सुलभ नहीं हो पाया है। कुछ शेर देखें-
खेत परती पिसान गायब हैं,
फूस के सायबान गायब हैं।
सिर्फ वादे हैं तस्तरी भर के,
नून चावल पिसान गायब हैं।
(आसमानों को खल रहा हूँ, ज्ञान प्रकाश पाण्डेय, पृ. 27)
खेतों के परती रह जाने का साफ-साफ मतलब ये है कि हमारे इनफ्रास्ट्रक्चर आज भी इतने उन्नत नहीं हो पाये जितनी हमें जरूरत है। या फिर इन साधनों को संचालित करने वाले लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। जो साधन रूपी नदी को प्यासे खेतों तक या जरूरतमंदों तक पहुँचने ही नहीं देते। किसान अपनी फटेहाली से दुःखी है। एक और शेर देखें-
जोत के खेत ये दहकान जो घर आते हैं,
अपने हालात की तस्वीर से डर जाते हैं। (वही, पृ. 27)
यही फटेहाली इन किसानों को खुदकुशी की ओर ले जाता है। किसान अपने कुपोषित बच्चे और अभावग्रस्त पत्नी को देख नहीं देख पाता। ऊपर से महाजन का प्रेसर अलग। कुछ शेर देखें-
पगहा बरते हुए जोख ने क्या सोचा होगा,
लोग पगहे से लटक कर भी तो मर जाते हैं। (वही, पृ. 29)
है टेंट खाली उदास जेबें कहाँ से लाए ये दाल-रोटी,
अभी तो कितने ही झोपड़ी में खड़ी है बन के सवाल रोटी। (वही, पृ. 45)
अच्छे दिन की चासनी अब कब तलक चाटें कहीं,
उजड़ी झोपड़िया मुसलसल पूछती सरकार से। (वही, पृ. 48)
किसान की वो स्थिति वास्तव में नहीं है जो हमें दिखाई जाती है। वास्तविकता बिल्कुल अलग है। सारी खुशहाली सिर्फ़ काग़ज पर और ग्राफ में है। यही सच्चाई दिखाने के लिए अदम गोंडवी साहब हमें चमारों की गली में जाने की सलाह देते हैं। कुछ शेर देखें-
ये गली थे रास्ते ये घर बतायेंगे तुम्हें,
सच बज़ाहिर कब हुआ है दोस्तो अखबार से।
(वही, पृ. 48)
क्या किसी बिल से मिला है क्या है मनरेगा से लाभ,
आओ पूछो भूखे से लड़ते हुए परिवार से। (वही, पृ. 49)
कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे ज्ञान प्रकाश जी में पूरी तरह से एक गँवई नॉस्टेल्जिया व्याप्त है। गाँव उन्हें बार-बार याद आते हैं। कभी दसना सीती आजी याद आती हैं, कभी पगहा परते जोखू याद आता है, कभी सुखवन फैलाती बुआ याद आती है, कभी सिकहर पर टँगा दूध याद आता है तो कभी चरती हुई गाय याद आती है। गाँव की याद में उन्हें बार-बार हिचकी आती है। ज्ञान प्रकाश जी का गाँव बहुत जगहों पर ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ से बिल्कुल अलग है। इसी देहाती जीवन की कुछ बानगी देखें-
अब न सिकहर पे टँगा दूध न दादी का दुलार,
वक्त के साथ ही मंजर भी गुज़र जाते हैं। (वही, पृ. 29)
—-××××—–
सुबह निकले मवेशियों के संग,
रात लौटे ठगे-ठगे लड़के।
(वही, पृ. 82)
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गड़ारी माटी की आवाँ में पकवाने की जिद पहले,
उसी की तोड़ फिर बचपन का धन्नाना वो खटिया पर।
(वही, पृ. 85)
किया है क्या कभी गुम-गुम मदारी तुमने बच्चों को,
किलकना चीखना सोना मचना जाना के खटिया पर।
(वही, पृ. 85)
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अभी भी दिल को छू जाती है बचपन की मधुर यादें,
बुआ के साथ सुखवन धो के फैलाना वो खटिया पर।
(वही, पृ. 85)
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हेंगाते खेत के हेंगे पे चढ़ने तो पता चलता,
खुशी कैसे जरा सी बात पर परवान चढ़ती है।
ज्ञान प्रकाश पाण्डेय को श्रमिकों की मजबूरी अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। उनकी ईमानदारी का स्रोत यही शोषित और दलित मजदूर वर्ग है। इन्हें ही उन्होंने अपनी ग़ज़लों का विषय बनाया है। मजदूर प्रगतिवादी कविता का प्रिय विषय है। ज्ञानप्रकाश स्वयं भी निम्न मध्यवर्ग से आते हैं और गाँव से उनका सीधा संपर्क है। गाँव के श्रमजीवी वर्ग, किसान और मजदूर के साथ इनका उठना-बैठना है। यही कारण है कि इनकी कविता का सर्वहारा फिल्मी न होकर वास्तविक है। इनकी कविता का अधिकांश हिस्सा सामाजिक चेतना पर ही केन्द्रित है। कोरोना के दौर की लिखी हुई कविताएँ देखते हैं-
सिर पर गठरी गोद में बच्चा पेट है खाली कैसे जायें,
पाँव थके हैं प्यास लगी है हाली-हाली कैसे जायें।
धूप पहनकर भूख दबा कर इस गर्मी में पैदल-पैदल,
बेचारी है पेट से धुन्नन की घरवाली कैसे जाए।
एक न रोटी सब हैं भूखें बउआ विट्टी सूख गये हैं
आँखों के आगे की दुनिया बिल्कुल खाली कैसे जायें।
क्या छोड़े क्या साथ रखें अब सबसे ही तो अपनापन है,
झोला बक्सा बटुई कल्छुल लोटा थाली कैसे जायें।
घर वालों से मिल पाऊँगा या रस्ते की भेंट चढूँगा,
कलकत्ता से मिर्जापुर अब हे माँ काली कैसे जायें।
पूरी ग़ज़ल प्रवासी मजदूरों के पलायन या ये कहें कि घर वापसी का मंजरनामा है। लोग बद से बदतर होते जा रहे हैं। लोग अपने-अपने सामान और परिजनों के साथ लौट रहे हैं। यहाँ सोचने की बात ये है कि आखिर ये वहाँ गये क्यों थे? अगर इन्हें अपने क्षेत्र में ही काम मिल जाता तो ये इतना दूर क्यों जाते। ऐसे में नागार्जुन याद आते हैं-
खाली नहीं माइन्ड
खाली नहीं ब्रेन
खाली है हाथ
खाली है पेट
खाली है थाली
खाली है प्लेट। (तालाब की मछलियाँ, नागार्जुन, पृ. 23)
कुल मिलाकर सारांश ये है कि त्रिलोचन, नागार्जुन, अपने उत्तरकाण्ड में निराला, अदम गोंडवी, वर्तमान में महेश कटारे सुगम ने जिस परंपरा को आगे बढ़ाया है उसी परंपरा के संवाहक ज्ञान प्रकाश पाण्डेय भी हैं। प्रेम और रूमानियत से अपनी काव्य-यात्रा का प्रारंभ करने वाले ज्ञान प्रकाश जी सर्वहारा की आग्नेय चेतना के प्रबल समर्थक नज़र आते हैं। इनकी कविता शोषकों के खिलाफ लड़ने की ऊर्जा प्रदान करती है , साथ-ही-साथ धूमिल होते जा रहे लोक से जोड़ती है। चूंकि इनकी कविता का स्वर प्रगतिवादी है, अतः किसान समस्या पर भी प्रतिवाद और अधिकार के स्वर को बुलंद करती है।-
सहायक आचार्य (हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग)
जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय
राया सचानी (बागला), डिस्ट्रिक-सांबा, पिन-181143, जम्मू
मोबाइल: 914950076