ज़िन्दगी में इत्तेफ़ाक़ का ख़ासा अहम रोल होता है, भोपाल प्रवास में अपनी बहिन के घर अच्छे मूड में मेहदी हसन की ग़ज़ल गुनगुना रहा था ‘अगर तू इत्तेफ़ाकन मिल भी जाए तेरी फुरक़त के सदमें कम न होंगे.’
गाते-गाते मैंने, टेबल पर रखी एक क़िताब का
पन्ना पलटा, नाम दिखा ‘बशीर बद्र’
आगे-आगे फोन नम्बर, यह मेरे प्रिय शायर का फोन समेत सन्दर्भ मिलना गजब इत्तेफ़ाक़ था।
देर तक में उनका नाम और फोन नंबर देखता रहा। इत्तेफ़ाक़ से ही ज़ेहन में रिस्की सटायर आया और मैंने फ़ोन घुमा दिया।
उधर से मीठी ध्वनि – ‘जी, फ़रमाइए?’
मैंने ठहर कर कहा-
‘सर मैं ग्वालियर के कॉलेज में पढ़ाता हूं, आपको, आपके ही दों शेर सुनाना चाहता हूं।’
हंसी के साथ आवाज़ आई
‘इरशाद’
शेर कुछ यूं थे –
“मकां से क्या मुझे लेना मकां तुमको मुबारक़ हो,
मगर ये घास वाला रेशमी कालीन मेरा है।”
“इस रूमाल को काम में लाओ अपनी आँखे साफ करो,
धुंधला-धुंधला चाँद नहीं है धूल जमीं है आँखों में।।”
‘वाह वाह , क्या कहने’
हंसते हुये आवाज़ आई।
मैंने कहा- ‘सर, मेरे मार्गदर्शन में शोध में आपके बहुत से पर्यावरण से जुड़े शेर हैं। कृपया आप हमें साक्षात्कार के लिये समय दीजिये।’
‘आप कल सुबह 10 बजे आइयेगा’
सुन कर शरीर में जहां कहीं बाछें थीं, खिल गयीं।
शोध छात्र परितोष मालवीय को फ़ोन कर आने को कहा।
परितोष ज़हीन, भयानक घूमन्तु,
कुछ स्तर पर विचित्र किन्तु सत्य, अनुवादक होने से हिन्दी – अंग्रेजी के घोलमाल से , न ख़ुदा ही मिला न….
बिना एमबीए के कुशल प्रबंधक, बेहद एनरजेटिक लेकिन भाषा के बीहड़ों में भटकता हुआ।
सुबह फोन आया –
‘सर आ जाएँ’
नीचे देखा, लक्ज़री गाड़ी के बाहर परितोष और शेलेन्द्र पटेल खड़े थे।
4 नवम्बर 2007 के दिन गुलाबी सर्दी में हम बताशे वाली गली में अपने प्रिय शायर से मिलने चल पड़े।
रास्ते में फ़्लैशबैक में प्रिय शायर के शेर
ज़ेहन में सरगोशी करने लगे-
“उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए।।”
इस शेर के असर से कार में उजाला हो गया।
मेरठ में जब बशीर बद्र साहब का घर राईट्स (दंगे) में जला दिया गया तब के अहसास –
“लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में,
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में।।”
बेबाक़ चेतावनी –
“शोहरत की बुलंदी भी दो पल का तमाशा है
जिस शाख़ पर बैठे हो वह टूट भी सकती है ”
उनके कहे शेरों के सुरूर में कब घर आ गया पता ही नहीं चला।
घंटी बजाने पर मैडम नें दरवाज़ा खोला, हमने परिचय दिया तो उन्होंने कहा –
‘आप आएं, सर इंतज़ार कर रहे हैं।’
अन्दर बशीर बद्र साहब सिंहासन नुमा सोफ़े पर कीमती शॉल ओढ़े हुए बहादुर शाह ज़फ़र के अंदाज़ में बैठे दिखे, हमने अदब से सलाम किया।
उन्होंने हंसते हुए कहा- ‘ हाँ! तो प्रो.
साहब! आप वो वाहिद शख़्स हैं, जो मुझे, मेरे ही शेर सुना कर मिलते हैं ।’
मुझे संकुचित होता देख बशीर बद्र साहब ने ठहाका लगाया।
कुछ अनौपचारिक बातों के बाद मैंने पूछा – ‘सर मेरठ से भोपाल प्रवास के बारे में कुछ बताएं।’
उनके चेहरे पर उदासी तैर गयी, मुझे पंक्ति याद आई।
“उदासी का ये पत्थर आँसुओं से नम नहीं होता
हज़ारों जुगनुओं से भी अँधेरा कम नहीं होता”
सर्द लहज़े में उन्होंने कहा – ‘विस्थापन का वक्त बहुत दर्दनाक रहा। उसे बयान नहीं किया जा सकता।’ बस ख़याल आता रहा क़ि –
‘मौत से पहले आदमी ग़म से निज़ात पाए क्यूँ’
मैंने माहौल चेंज करने के लिये कहा- ‘ग़ालिब पर कुछ कहें सर’
तो थोड़ा ठहर कर वह बोले –
‘ग़ालिब ने मुश्किलें झेलीं कि बहुत कुछ आसान लगने लगा, और उन्होंने लिखा भी “मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गयीं”‘
माहौल ख़ुशग़वार करने हेतु मैंने कहा – ‘सर आपका यह शेर तो कहावत में तब्दील हो गया है’ –
“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफा नहीं होता।।”
बशीर बद्र साहब चहक़ उठे कहा –
‘हाँ, मेरा यह शेर बहुत मकबूल हुआ बल्कि
उम्मीद से ज्यादा।’
और मालूम हुआ कि फिल्म स्टार सुष्मिता सेन का यह फेवरेट शेर है, और वह अक्सर बातचीत के दौरान इसका प्रयोग करतीं हैं।
अब मैंने बड़ी गलती की और पूछा –
‘सर आपकी पसंदीदा ग़ज़ल?
वह बोले – ‘सर, आप यह न पूछें क्योंकि अपना
हर शेर बच्चे की तरह प्यारा होता है।’
मैंने कानों पर हाथ लगाया, तो वह हँस पड़े, वही उनकी चिरपरिचित खनकदार हंसी!
इसके बाद उन्होंने तरन्नुम में अपनी कुछ ग़ज़लें सुनायीं कि हम सब मंत्रमुग्ध हुए।
फिर मैंने परितोष को रात में तैयार किया हुआ प्रश्नों का कागज़ दिया जो बहुमूल्य दस्तावेज़ के रूप में उसके शोध प्रबंध में समाहित है।
सुस्वाद चाय -नाश्ते के बाद बतरस का
आनंद अवर्णनीय रहा।
एक अज़ीम शायर और ख़ुश मिजाज़ शख़्सियत से मिलने का सुखद अहसास लिये हमने बशीर बद्र साहब से विदा ली।
*मेरी पसंदीदा ग़ज़ल*
“कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं कोई आएगा कोई जाएगा
तुम्हें जिस ने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तिहार सी लगती हैं ये मोहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो जो सुना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्न-ए-पर्दा-नशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं मिरे साथ तुम भी चला करो
नहीं बे-हिजाब वो चांद सा कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो
ये खिजां की ज़र्द सी शाल में जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है उसे आंसुओं से हरा करो.”
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— गोपाल किशोर सक्सेना, ग्वालियर, मध्यप्रदेश