(1)
हमने बाबा को देखा है
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हमने बाबा को देखा है
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सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कभी चमकती सी आँखों से
गुपचुप कुछ कहते, बतियाते,
कभी खीजते, कभी झिड़कते
कभी तुनककर गुस्सा खाते।
कभी घूरकर मोह-प्यार से
घनी उदासी में घुस आते,
कभी जरा सी किसी बात पर
टप-टप-टप आँसू टपकाते।
कभी रीझकर चुम्मी लेते
कभी फुदककर आगे आते,
घूम-घूमकर नाच-नाचकर
उछल-उछलकर कविता गाते,
लाठी तक को संग नचाते,
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
जर्जर सी इक कृश काया वह
लटपट बातें, बिखरी दाढ़ी,
ठेठ किसानी उन बातों में
मिट्टी की है खुशबू गाढ़ी।
ठेठ किसानी उन किस्सों में
नाच रहीं कुछ अटपट यादें,
कालिदास, जयदेव वहाँ हैं
विद्यापति की विलासित रातें।
एक शरारत सी है जैसे
उस बुड्ढे की भ्रमित हँसी में,
कुछ ठसका, कुछ नाटक भी है
उस बुड्ढे की चकित हँसी में।
सोचो, उस बुड्ढे के संग-संग,
उसकी उन घुच्ची आँखों से,
हमने कितना कुछ देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
कहते हैं, अब चले गए हैं,
क्या सचमुच ही चले गए वे?
जा सकते हैं छोड़ कभी वे
सादतपुर की इन गलियों को,
सादतपुर की लटपट ममता
शाक-पात, फूलों-फलियों को?
तो फिर ठाट बिछा है जो यह
त्यागी के सादा चित्रों का,
और कृषक की गजलें, या फिर
दर्पण से बढिय़ा मित्रों का।
विष्णुचंद्र शर्मा जी में जो
कविताई का तंज छिपा है,
युव पीढ़ी की बेचैनी में
जो गुस्सा और रंज छिपा है।
वह सब क्या है, छलक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में,
मृगछौनों सा भटक रहा जो
सादतपुर की इन गलियों में।
यह तो सचमुच छंद तुम्हारा
गुस्से वाली चाल तुम्हारी,
यही प्यार की अमिट कलाएँ
बन जाती थीं ढाल तुम्हारी।
समझ गए हम बाबा, इनमें
एक मीठी ललकार छिपी है,
बेसुध खुद में, भीत जनों को
इक तीखी फटकार छिपी है!
जो भी हो, सच तो इतना है
(बात बढ़ाएँ क्यों हम अपनी!)
सादतपुर के घर-आँगन में
सादतपुर की धूप-हवा में,
सादतपुर के मृदु पानी में
सादतपुर की गुड़धानी में,
सादतपुर के चूल्हे-चक्की
और उदास कुतिया कानी में—
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में
हमने बाबा को देखा है!
करते हैं अब यही प्रतिज्ञा
भूल नहीं जाएँगे बाबा,
तुमसे मिलने सादतपुर में
हम फिर-फिर आएँगे बाबा,
जो हमसे छूटे हैं, वे स्वर
हम फिर-फिर गाएँगे बाबा।
स्मृतियों में उमड़-घुमड़कर
आएँगी ही मीठी बातें,
फिर मन को ताजा कर देंगी
बड़े प्यार में सीझी बातें!
कई युगों के किस्से वे सब
राहुल के, कोसल्यायन के,
सत्यार्थी के संग बिताए
लाहौरी वे दिन पावन-से।
बड़ी पुरानी उन बातों को
छेड़ेंगे हम, दुहराएँगे,
दुक्ख हमारे, जख्म हमारे
उन सबमें हँस, खिल जाएँगे।
तब मन ही मन यही कहेंगे
उनसे जो हैं खड़े परिधि पर,
तुम क्या जानो सादतपुर में
हमने कितना-कुछ देखा है!
काव्य-कला की धूम-धाम का
एक अनोखा युग देखा है।
कविताई के, और क्रांति के
मक्का-काबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
हम बाबा के शिष्य लाड़ले
हम बाबा के खूब दुलारे,
बाबा के नाती-पोते हम
बाबा की आँखों के तारे।
हम बाबा की पुष्पित खेती
हममें ही वे खिलते-मिलते,
हमसे लड़ते और रीझते
हममें ही हँस-हँसकर घुलते।
हमको वे जो सिखा गए हैं
कविताई के मंत्र अनोखे,
हमको वे जो दिखा गए हैं
पूँजीपति सेठों के धोखे।
और धार देकर उनको अब
कविताई में हम लाएँगे,
दुश्मन के जो दुर्ग हिला दें
ऐसी लपटें बन जाएँगे।
खिंची हुई उनसे हम तक ही
लाल अग्नि की सी रेखा है!
हमने बाबा को देखा है!
सादतपुर की इन गलियों में,
हमने बाबा को देखा है!
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(2)
राम-सीता
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राम-सीता
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पड़े थे राम भूमि पर
निद्रालीन…
सोई थीं बगल में सीता कृशकाय।
एक चादर मैली सी जिस पर दोनों
सिकुड़े से पड़े थे
इस प्रतिज्ञा में मानो कि कम से कम जमीन वे घेरेंगे,
एक सिरे पर राम दूसरे पर सीता,
बीच में संयम की लंबी पगडंडी…
राम छोटा सा बेडौल तकिया लगाए
जिसकी रुई जगह-जगह से निकली हुई,
सीता सिर के नीचे धोती का छोर मोड़कर रखे
उसी को मिट्टी के महलों का सुख मानकर लेटी थीं।
पास में एक परात एल्यूमिनियम की
एक पतीला बहुत छोटा
एक करछुल एक लोटा
फावड़ा…गेंती…
एक छोटा ट्रांजिस्टर भी!
और हाँ, सोती हुई सीता की कलाई पर
चमक रही थी एक बड़ी सी
मर्दाना घड़ी,
जरूर राम की होगी।
यों बहुत सुख था
ढेर-ढेर सा सुख
जो शहर में साथ-साथ मजूरी करते-खटते
उन्होंने पाया था
और जो उनके साँवले चेहरों पर
दीयों की-सी जोत बनकर झलकता था।
शहर फरीदाबाद का यह स्टेशन
नहीं-नहीं स्टेशन का
यह सर्वथा उपेक्षित, धूलभरा प्लेटफार्म नंबर चार,
लेटे थे जहाँ राम और सीता दिन भर के श्रम के बाद बेसुध
निद्रालीन…
अयोध्या के राजभवनों का-सा आलोकित
नजर आता था!
कल वे फिर खटेंगे वन में
साथ-साथ मजूरी…
कल वे फिर आएँगे इसी अधकच्चे मटियारे
प्लेटफार्म नंबर चार पर
आश्रय पाने
और यों जीवन भर खत्म न होने वाले कठिन बनवास का
एक और दिन काटेंगे।
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(3)
एक बूढ़े मल्लाह का गीत
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एक बूढ़े मल्लाह का गीत
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अपनी थकी हुई पुरानी नाव खेता
मैं देख रहा हूँ अपने इर्द-गिर्द नन्ही-नन्ही किश्तियाँ
बड़ी ही चंचल, शरीर और अलमस्त किश्तियाँ
कागज की
जो लहरों पर लहर होकर बढ़ी जा रही हैं
इस बुलंद हौसले के साथ कि जैसे कभी रुकेंगी ही नहीं,
कहीं रुकेंगी ही नहीं…
और नदी-नालों और समुद्रों की छाती पर हो सवार
विजेता बनकर लौटेंगी एक दिन
वे कागज की किश्तियाँ हैं
किश्तियाँ कागज की
नन्हे हाथों के नन्हे इरादों से बनी
पर उनके भीतर ताजा मन,
ताजी इच्छाओं के
हैं बहुरंगे पुष्पगुच्छ और मोरपंख गर्वीले
उनके खिले हुए चेहरों की हँसी
हजार घातक तूफानों पर भारी
वे प्रलय के तूफानों पर हँसकर सवारी कर सकती हैं
कि जैसे यह भी कोई खो-खो नुमा दिलचस्प खेल हो
इस अथाह समंदर की हिचकोले खाती
विशाल छाती पर
मैं देख रहा हूँ नन्ही-नन्ही किश्तियाँ
और खुश हूँ
मैं खुश हूँ—बहुत खुश
कि अब जबकि
मैं समेट रहा हूँ अपनी जिंदगी का आखिरी पाल
और हसरतों से देख रहा हूँ अपना बूढ़ा चप्पू—
तब हजारोंहजार किश्तियाँ ये
हवाओं से मीठी छेड़छाड़ करती
चली जा रही हैं एक बेपरवाह धुन में
अलमस्त
ओह, असीसें…!
किस कदर असीसें निकलती हैं भीतर से
दिल की एक मीठी कँपकँपाहट में लिपटी
कि जियो…जियो मेरे अनगिनत बेटो, बेटियो
कि हमारी हारी हुई लड़ाइयाँ, खीज और टूटन…
तुम्हारे हाथों में बन जाएँ
अमोघ अस्त्र, ढाल और कवच
कि तुम विजेता होकर लौटो
वहाँ-वहाँ से भी, जहाँ हम हारे थे
अपने संशय, अविश्वास और बुनियादी कमी से।
नदी किनारे के हरे-भरे बूढ़े पेड़
तुम्हारे आगे हरे पत्तों का बंदनवार
सजाएँ
और जब तुम लौटो अपनी गर्वीली विश्वयात्राओं से
तो बिछाएँ तुम्हारी राह में महकते फूलों के कालीन
तब यह बूढ़ा मल्लाह शायद न रहे
पर इस बूढ़े मल्लाह का
बूढ़ा चप्पू
नदी के एक किनारे पर उपेक्षित पड़ा
टूटते सुर में
नए युग के नए आने वाले विजेताओं का
विजय-गीत गा रहा होगा…
गाता रहेगा धीरे-धीरे टूटकर बिखरने तक
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(4)
बेटी के जन्मदिन पर
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बेटी के जन्मदिन पर
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तुम्हारे अट्ठाईवें जन्मदिन पर भेंट में
क्या दे सकता हूँ मैं बेटी
जिसने जीवन में कुछ नहीं कमाया सिर्फ पढ़ीं किताबें
अँधेरे की छाती पर गोदे कुछ उजले अक्षर
और कुछ नहीं किया
और रिटायर होने पर पता चला
लोग जो आते हैं इस लीक पर
पहले से सुरक्षित कर लेते हैं अपना आजू-बाजू फिर लिखते हैं
बातें बड़ी-बड़ी
जबकि मैं तो कहता और लिखता रहा बस छोटी-छोटी बातें
जो देखीं अपने आसपास
लड़ता रहा छोटी-छोटी लड़ाइयाँ जो कल की किसी बड़ी लड़ाई
का हिस्सा हो सकती थीं शायद
जूझता रहा अपने अंदर और बाहर भी
उन सवालों के लिए जो पसलियों में तीर की तरह धँसे थे
और खुद अपने आने वाले कल का हिसाब-किताब
तो कभी किया ही नहीं।
इसीलिए जब ठोस हकीकतें टकराती हैं
तो बहुत टूट-फूट होती है भीतर
बहुत-कुछ है जो छितरा जाता है एकाएक
आँखों में उग आतीं लाचारी की झाड़ियाँ काई और सेवार
पर फिर भी जन्मदिन तुम्हारा है तो मन विकल है सुबह से
पूछ लेता है रुक-रुककर
कि बेटी को क्या देना है उपहार इस बरस कवि
बेटियाँ ही तो हैं तुम्हारी सबसे बेहतरीन कृतियाँ
जिन पर नाज है तुम्हें
याद आता है मेरी नाजों पली बेटी
कि मम्मी-पापा को कितने आँसुओँ से नहलाकर तुम
आई थीं कितने लंबे इंतजार के बाद
और जब आई थीं तो आँसू और मुसकानें
दोनों गड़मड हो गए थे मेरे चेहरे पर
मैं रोया था बेसुधी में और हँसा भी
हँसा और रोया भी
कि इतना सुख कैसे सहार पाऊँगा जिंदगी में
खुशी से तुम्हें कंधे पर उठाए हुए पूरा बाजार घूम आता था
शास्त्री नगर दिल्ली का
और भूल जाता था
कि तुम तो मेरे कंधे पर ही हो चिपकी हुई
किसी नाजुक कबूतरी सी
और लौटते ही घर आकर पूछता था बेकली से
कि अरे, दिखाई नहीं दे रही अनन्या
कैसे दिखाई देगी तुम्हारे कंधे पर जो है
कहती हुई मम्मी की आँखों में क्या गजब उल्लास होता था
हालाँकि फिर शुरू हुईं लड़ाइयाँ
चक्रव्यूह समय के
एक से एक भीषण, अंधे और मायावी
कोई था जो पीता रहा रक्त
और मैं जीता रहा टूट-टूटकर
बमुश्किल टूटे हुए मनोबल को सँभाले
जिंदगी भर प्रवाह के विरुद्ध तैरने के बाद
छिले हुए कंधों जर्जर छाती ने
आज जाना बेटी
कि उतना ही आत्मविश्वास होता है किसी की आँखों में
जितनी बड़ी और सुरक्षित होती है जेब
कि कविता-शविता तो ठीक,
मगर सच यह भी है कि
पंछी कितना भी उड़े आकाश, दाना तो है धरती के पास…
खूब लड़ते हुए अपनी और समय की लड़ाइयाँ
पंगा लेते हुए इससे उससे और उससे
और शक्तिशालियों की आँखों में काँटे की तरह चुभने के बाद
आखिर दो वक्त की रोटी के इंतजाम के लिए
आना तो इसी धरती पर पड़ेगा ना बेटी
कभी पूछा था बाबा नागार्जुन ने बड़े बिंदास अंदाज में
और मैं दर्जनों बार नागा बाबा के शब्दों में ही
अपने आप से पूछ चुका हूँ
यह असुविधाजनक सवाल—
कि कवि हूँ पर क्या खुशबू पीकर रह सकता हूँ?
कभी भूलना मत धरती बेटी
यही है कसौटी सभी सिद्धांतों की
कि जिंदा रहेंगे तभी लिखेंगे लड़ेंगे तभी
और बनाएँगे फिल्में तमाम-तमाम आँधियों के बीच
इस हँसती हुई सुंदर वसुंधरा की
मुझे पता है तुम करना चाहती हो बहुत कुछ
मुझे पता है तुम्हारे सपने हैं ऊँचे
और ऊँची उड़ानों के लिए मजबूत पंख हैं तुम्हारे पास…
पर उम्र की इस ढलान पर
मेरा तो बस एक ही सपना है बेटी कि तुम्हें मिले
एक तृप्ति भरी सकारथ जिंदगी
छुओ सपनों का आकाश…
और मैं खुद से कम,
तुम्हारे नाम से ज्यादा जाना जाऊँ
कि देखो, देखो, ये जा रहे हैं पापा उस मेधाविनी अनन्या के…
वही अनन्या, जिसने लिखी हैं सुंदर किताबें
वही अनन्या, जिसकी कलाकृतियाँ हैं बेजोड़
वही अनन्या, जिसकी बनाई फिल्मों में हमारी कामगर धरती
किसी मधुर गीत-पाँखी जैसी हँसती-गाती है
वही अनन्या जिसकी भाषा एकदम खाँटी है
अंदाज सबसे अलग…
आवाजें…आवाजें और आवाजें…
जब भी अकेला होता हूँ यही आवाजें
मेरे सिर पर मंडप बना लेती हैं सपनों का
और मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच जाता हूँ
नम आँखों से खुद अपना ही तर्पण करते
छुआकर अपने अदृश्य प्रभु को माथ
तुम्हें कैसे बताऊँ बेटी
कि पिता होना दुनिया का सबसे पवित्र अहसास है
पिता होना
भावनाओं की सबसे निर्मल नदी में स्नान
और किसी बेटी का पिता होकर
दुनिया एकदम बदली हुई लगती है मेरी लाडली,
और इतना कुछ छप जाता है भीतर-बाहर
कि अनजाने ही आप चीजों को अपनी नहीं
बेटी के पिता की नजरों से देखने लगते हैं।
तुम्हारे अट्ठाईसवें जन्मदिन पर
कुछ और तो नहीं दे पा रहा बेटी
बस, पापा की यह आधी-अधूरी
बेतरतीब कविता ही सहेज लेना जतन से
जिसे हो सकता है आने वाला वक्त कभी पूरा करे।
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(5)
हमारी कहानी बस यहीं खत्म होती है
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हमारी कहानी बस यहीं खत्म होती है
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हमारी कहानी बस यहीं खत्म होती है
अब तुम अपनी कहानी कहो
हमारी कहानी में तो कोई घुंडी नहीं न कोई
खास आकर्षण
हम पैदा हुए जूझते रहे और एक दिन मर गए
हमारी कहानी इससे बहुत आगे नहीं जाती
पर तुम्हारी कहानी में शायद बहुत अर्थ है
बहुत चक्कर बहुत बारीकियाँ
तुमने झेला है बहुत कुछ वक्त के हाथों
लुटे-पिटे हो
बहुत लंबी प्रताड़नाओं की सुरंग से निकले हो साथी
बहुत घाव हैं तुम्हारी छाती पर…
तुम अपनी कहानी कहो।
हमारी कहानी बस यहीं खत्म होती है
अब तुम अपनी कहानी कहो।
हम तो गरीबी और गुरबत में जिए
सींखचों से लगातार भिड़ते रहे मगर रहे सींखचों में कैद
बड़ा बेदर्दी था राजा
हर हुक्मउदूली पर पीठ पर पड़ते थे कोड़े
कब सोना है कब जागना क्या खाना है क्या पीना
क्या हाँ और क्या ना,
सब तय था
कुछ भी सोचने-विचारने पर कड़े पहरे
मगर हाँ-हाँ करने की खुली छूट…
पर तुम्हारी कहानी का राजा शायद थोड़ा
अलग हो
बारीक पेंच और रस्सियों वाला
नए जमाने की नई रणनीति वाला राजा
जो तुम्हें सींखचों से बाहर रखकर भी
कैद में रखता हो
डंडे नहीं दिमागी यंत्रणाओं से करता हो शासन
हँसते-हँसाते खेल खिलाते मारता हो
दुश्मन को…
इस तरह कि वह आह भी न कर पाए
और कौन दोस्त है कौन दुश्मन
इसका फैसला
उसके साइबर विशेषज्ञों की फौज करती हो।
हमारी कहानी तो बस यहीं खत्म होती है
अब तुम अपनी कहानी कहो।
हमारी कहानी में पुलिसिया आतंक सबसे डरावनी चीज थी
पुलिस का चेहरा आतताइयों से ज्यादा खूँख्वार था
अपराधी खुले घूमते थे चुनाव लड़ते थे खुलेआम
और जनता अनकिए जुर्म के लिए जेलों में ठूँस दी जाती थी
करोड़ों के घपले वाले आदर से जी रहे थे
और भूल से एक चवन्नी ले लेने वाले पर मुकदमा
चलता था चौदह बरसों तक…
पर तुम्हारी कहानी में शायद पुलिसिया कोतवाल की भूमिका
इतनी जरूरी न हो
कि जनता ही जनता का करती हो वध
भीड़ का चेहरा पहनकर
लोग ही लोगों के प्राण लेते हों और उसके पीछे हो
राजा की चतुराई भरी शह।
तुम्हारी कहानी में शायद राजा
ज्यादा बारीक मार मारता हो
और तमाम-तमाम अदृश्य रूपों में बदल जाता हो
दसों दिशाओं से करता हो
दस तरह के आलाप।
और भरमाई जनता समझ न पाती हो
कि सच ये है या वो या वो या फिर वो…
और एक दिन इसी भरम में निकल जाते हों उसके प्राण।
हमारी कहानी तो बस यहीं खत्म होती है
अब तुम अपनी कहानी कहो,
हाँ, अपनी कहानी कहो…!
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प्रकाश मनु, 545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008
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