काव्य सृजन को लेकर हर रचनाकार का अपना चिन्तन और आलोक होता है। कोई आंतरिक चेतना आसपास की संगतियों-विसंगतियों से अनुप्राणित होकर गहन भाव-संवेदना के साथ साहित्य की विधा में ढलने लगती है। विधा का चयन रचनाकार की अपनी स्वतंत्रता है। काव्य विधा शायद हर किसी के मन में सबसे पहले प्रस्फुटित होती है। यह कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है परन्तु हर लेखक पहले कवि ही होता है। कविता मन के भावों को बहुत सहजता से सामने लाती है,विस्तार देती है और सबका सम्बल बनती है।
मुंबई में रहने वाली कवयित्री एवं चित्रकार सुश्री शिवाली ढाका का ऐसा ही सम्बल प्रदान करने वाला काव्य संग्रह “साँझ के पंछी” मेरे सामने है। पुस्तक के आवरण पृष्ठों पर लिखा वक्तव्य उद्धृत करने योग्य है-“एक रचनाकार के तौर पर शिवाली की दृष्टि बेहद व्यापक है और इसी कारण उनकी कविताएं कभी प्रकृति के सौन्दर्य का रसास्वादन कराती हैं तो कहीं तीखे सवालों से साक्षात्कार करती हैं। अपनी जड़ों से लगाव और जुड़े रहने की भावना उनकी कविताओं में बेहद कोमल,शांत और शिष्ट शैली में प्रकट होती है। शिवाली एक अच्छी चित्रकार के रुप में पहले से ही स्थापित हैं और अपनी अनुभूतियों,अनुभवों को समेटते हुए बहुत समय से काव्य-सृजन कर रही हैं।” संग्रह के शुरु में उनकी लम्बी आभारोक्ति के पीछे के भाव समझने योग्य हैं। अमित कल्ला जी ने अपनी भूमिका में उनके काव्य-चिन्तन व लेखन पर बड़ी सार्थक,सशक्त टिप्पणी की है। शायद इसके बाद कहने के लिए कुछ भी रह नहीं गया है। शिवाली ने भी अपना आत्मकथ्य बड़े सधे हुए अंदाज में लिखा है,पिता आते तो अपने साथ अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं ले आते,मां कहती,तुम सोचती बहुत हो,लिखा करो। शादी के बाद पति भी लिखने के लिए प्रेरित करने लगे। अपने संग्रह को लेकर विस्तार से उसने जीवन की सच्चाइयों के बारे में बताया और लिखा है–ऐसा भी कह सकते हैं कि मैंने इन कविताओं को नहीं अपितु कविताओं ने मुझे गढ़ा है। ”साँझ के पंछी” शिवाली का पहला काव्य संग्रह है जिसमें उनकी कुल 67 कविताएं संग्रहित हैं।
मानवीय संवेदना के बिना हमारी रागात्मक चेतना विस्तार नहीं पाती। हम तभी जुड़ पाते हैं जब भीतर कोई करुणा,दया या प्रेम का भाव होता है। ‘भाव हूँ मैं’ कविता का संदेश यही है,भाव न हो तो शब्द या वाक्य कोई अर्थ नहीं रखते। कवयित्री ‘दर्पण बोलता है’ कविता में अनेक सन्दर्भों,बिंबों के साथ सच्चाई बता रही हैं,जो हम कह नहीं पाते,छिपाते रहते हैं,दर्पण वह सच बोल देता है,हमारा हमसे साक्षात्कार करवा देता है और हमारी कुरूपता उजागर कर देता है। ‘मैं ही क्यों?’ से ‘तुम नहीं तो और कौन?’ के बीच की यात्रा समझने-समझाने की कोशिश है इस कविता में। ‘संबंधों का पेड़’ नए तेवर की कविता है,विचार स्पष्ट हैं और सारे प्राकृतिक बिंब खुलकर उभरते हैं,पंक्तियाँ देखिए-प्रेम और नेह के बीज/जहाँ एक बार पड़ जाएं/वहाँ संबंधों का पेड़ उगते/विलंब नहीं होता या इन पंक्तियों को समझिए-पत्तियों की मानिंद/हर सम्बन्ध की अपनी उम्र होती है/अपनी शाख,अपनी सुगंध/अपना कंपन, अपना चलन होता है। ‘बिखरी रोटियाँ’ समाज के बड़े फलक को पकड़ती है,अन्तर्विरोध दिखाती है और कोई सच बयान करती है-पर ‘गरीबी’ नाम की कैसी महामारी है/जो देश से जाने का नाम नहीं लेती है।
कवयित्री को जीवन का,संघर्षों का,सुख-दुख का गहरा अनुभव है,वह कहती है-हद तो खुशियों की होती है/दर्द की कोई हद नहीं होती। आगे के भाव देखिए-और दर्द गर प्रीत का हो/तो तोड़ जाता है और यह अनुभूति देखिए-फिर दर्द,दर्द नहीं रहता/एक मुस्कराती हुई/आह बन जाता है।’कभी देखा है अरुणोदय?’ कोई आपबीती-सी गहन अनुभूति को सहेजती,संभालती व सामंजस्य बिठाती परिस्थितियों की कविता है। यह किसी भी स्त्री के जीवन का सच हो सकता है जिसे साहस पूर्वक शिवाली ने चित्रित करने का प्रयास किया है। ‘जलरंग’ प्रेम के भावों के स्वीकार की कविता है, गहन अनुभूतियों के साथ सब कुछ स्मृतियों में जीवन्त है-जो कभी तुमने खींचा था/मेरे सुरमई नैनों के नभ में। ‘मिट्टी’ की स्थिति को सहज भाव से उन्होंने समझा है इस कविता में और स्त्री-जीवन से जोड़कर सब कुछ समझाया है। वह अपने बिंबों को प्रकृति से ग्रहण करती है और जीवन में उनके आलोक को दिखाती है। ‘मैं सरिता-सी’ कविता में नदी के साथ अपनी समानता के सारे भाव विह्वल करने वाले हैं और कोई सच दिखाने का उपक्रम व्यथित करता है। स्त्री-मन की गहन अभिव्यक्ति हुई है उनकी कविताओं में। वह प्रेम करती है तो स्वीकारती है और किसी के प्रेम को भूलती नहीं, स्मृतियों में पूरी तरह जीवंत रहता है।
शिवाली चित्रकार हैं,उन्हें दृश्य रचने खूब आता है। ‘बंजारन पुकार’ के दृश्य उजास फैलाने वाले हैं,कोई संवाद चलता रहता है भीतर ही भीतर,पंक्तियाँ देखिए-सुप्तावस्था में गँवा चुकी/अपने भाग की अरुणबेला को/चिरनिद्रा से पहले एक बार/स्वागत करना चाहती हूँ/इसी पुकार के साथ/’पूरी रात बीत चुकी,अब सो जाओ’। ‘क्या देह,क्या परछाई’ कविता में स्त्री दीवारों के भीतर है,मन के झरोखों से झाँकती है,स्वयं को किसी के लिए प्रतीक्षारत पाती है और सोचती है-अगर हो जाए मिलन/दो संतप्त आत्माओं का/फिर क्या देह,क्या परछाई। वह सहजता से मन की बात कह जाती हैं और नायिका-भेद के हर स्वरुप को उजागर करती हैं।
भीतर की संवेदनाएं,शब्दों का सहारा लेकर भाव-दृश्य रचती हैं और कोई कविता प्रवाहित होने लगती है। गहराइयाँ, गोधूलि बेला,चाक समय का,काव्यांश और थकी साँझ जैसी कविताएं ऐसे ही निःसृत नहीं हुई हैं,कोई न कोई भाव-दृष्टि है इनके पीछे। ‘गहराइयाँ’ गहरी अनुभूति लिए मिलन-संयोगों के भाव की कविता है। गहराई का अपना अर्थ है,सौन्दर्य है,वह आकर्षित करती है,भीतर समा जाने को प्रेरित करती है और डूबकर भी मन नहीं भरता। ‘गोधूलि बेला’ कविता बिंबों के माध्यम से प्रेम की बात करती है और प्रेम-यात्रा के दैविक अंत की कल्पना करती है। इन कविताओं में,इन बिंबों में प्रेम नाना रुपों में प्रकट होता है। नारी-मन का प्रेम खूब मुखरित होता है। ‘काव्यांश’ कविता में नायिका पूर्णता अनुभव करती है और इसका रहस्य समझना चाहती है। ‘थकी साँझ’ कविता में कवयित्री के पास प्रश्नों की गठरी का बोझ है,न उत्तर मिलता है और न बोझ उतरता है। ऐसी कविताएं गहरे चिन्तन-भाव से उभरती हैं और चमत्कृत करती रहती हैं। शिवाली मानवीय संवेदनाओं व प्रेम को खूब समझती हैं और कोई गहन असंतुष्टि ही काव्य बन उभरता रहता है। हर किसी के जीवन में एक सच्चाई होती ही है,सब कुछ होते हुए भी कोई न कोई कोना खाली रहता है। कवयित्री ही नहीं हर कोई वहाँ प्रेम ही खोजता है और यह सत्य है,प्रेम से ही उसे भरा भी जा सकता है।
‘शीतल आगमन’ में झुलसी हुई देह है किसलय की,रुठा मौसम है,रेत के शुष्क होंठ हैं,उपर से रेगिस्तानी आँधी, कवयित्री ने कोई वीभत्स दृश्य देखा है और पैर के तलुए जल रहे हैं। उनका भाव अद्भुत है कि तृष्णा सिर नहीं उठाती विलग हो जाने की, निर्भरता विचलित नहीं करती बल्कि सिखा जाती है धैर्य व प्रतीक्षा जल रुपी प्रेमी की जो निष्ठुर तो है किंतु विश्वासघाती नहीं है। ग्रीष्म के बाद बरसात में बगिया भीग जाती है। ‘काँच या पाषाण’ के शक्तिशाली होने की तुलना चमत्कृत करने वाली है। ‘पगडंडी’ कविता के सारे दृश्य मनमोहक हैं और साथ चलने का भाव सम्मोहित करता है। शिवाली की स्मृतियों में गाँव,खेत-खलिहान,हवेली और सहयात्रा जीवन्त रहती है। ‘उर्मिला उवाच’ कविता में लक्ष्मण-उर्मिला प्रसंग की यह कोई नई व्याख्या है और शिवाली का काव्यात्मक प्रश्न झकझोरने वाला है। ‘प्रभात किरण’ के पीछे कोई ऐतिहासिक सन्दर्भ की गाथा है,शरणार्थी की पीड़ा विचलित करने वाली है परन्तु प्रभात की किरण सुखद अनुभूति जगा रही है। ‘सार मैं,सारांश भी’ कवयित्री के मन की उड़ान की कविता है। वह बिंबों में अपनी उपस्थिति से चौंकाती है-साहिलों की पतवार भी हूँ,सीली-सी बरसात भी हूँ,मैं सृजन हूँ,सम्मान हूँ और नारीत्व का दर्प मैं स्वाभिमान भी हूँ। ‘प्रीत का तोरणहार’ का गहन भाव-संदेश यही है,हर किसी के मन के पट-द्वार हल्के नहीं होते,उन्हें पाने के लिए मृदुल शब्दों की दस्तक देनी होती है,प्रीत का तोरणहार सजाना पड़ता है और स्वप्नों की रंगोली से जीवन के सतरंगी पुष्प आँगन में बिछाकर,प्रतीक्षा का दीपक जलाना पड़ता है। कवयित्री की इन शिक्षाओं को प्रेम करने वाले गहराई से समझ लें।
‘आखिर कब तक?’ बहुत जरुरी प्रश्न उठाती कविता है। देश-समाज में अपनों द्वारा बच्चियाँ वासना की शिकार हो रही है,शोषण हो रहा है,उनकी नन्ही काया का,अबोध आत्मा का और उनके मासूम विश्वास का। कविता की पंक्तियाँ देखिए-और कितना शर्मसार करेंगे/माली के नाम को/ये वासना के कीड़े/जो उगती कलियों को कुतर रहे हैं। ‘आज की हवा’ कविता में वे आज की हवा को आत्मविश्वास से भरा बताती हैं जो रुकने वाली नहीं है,वह हर जगह पहुँच सकती है और हर विरोध को ध्वंस करने वाली है। ‘दूरियों का काफिला’ समाज के मनोविज्ञान के चिन्तन की कविता है। बातचीत में कुछ शब्द फिसल जाते हैं चाहे रस से पगे हों या विष में बुझे,धैर्य की कसौटी पर चढ़ते-उतरते वे हाँफने लगते हैं,जरूरी हो जाता है अल्प विराम या बंद हो जाता है सिलसिला कहने-सुनने का। कभी-कभी कवि या कवयित्री का काव्य चिन्तन बहुत तेज चलता है,शायद कविता की पंक्तियाँ उस चिन्तन के साथ ताल-मेल नहीं कर पातीं या उनका अभीष्ट सहजता से सुगम्य नहीं रह जाता। शिवाली की कविताओं में ऐसी कोई दुरूहता नहीं है परन्तु रचनाकार को सजग होना ही चाहिए कि उनका मंतव्य पाठकों तक संप्रेषित हो रहा है।
‘स्याह रेखा’ कविता कोई प्रक्रिया समझाती है-फूलों से छलकते रंग/रंगों में महकती सुगंध/रंग व सुगंध में लिपटी प्रकृति/प्रकृति से झाँकती नैसर्गिकता/नैसर्गिकता से उपजा प्रेम। चित्रकार शिवाली कला के शिखर से कविता लिखती हैं-उसी निश्छल प्रेम को/उभारने के लिए/उसके उथलेपन को/गहराई में उतारने के लिए/कहीं न कहीं खींचनी/आवश्यक हो जाती है/एक स्याह रेखा। चित्रकार एवं कवि मन का मिलन संभावनाओं का द्वार खोलने वाला है। उनकी कविताएं चित्र-सी लगती हैं,ऐसे में उनके चित्रों में लोग कविताओं की अनुभूति करते होंगे। ‘अपूर्ण को संपूर्ण बनाना’ जैसा भाव कोई चित्रकार-कवि ही सोच सकता है। स्त्री-मन की प्रतीक्षा,सारी तैयारी, विश्वास और प्रश्न,कुछ भाव-चित्रण देखिए-ओस के भीगे पत्तों के/लरजते-मचलते होंठ/मानो दे रहे हों गवाही/कि झिझक रहे हैं कुछ/मासूम,अल्हण प्रश्न/ देहरी लाँघ जाने को। ऐसी रचनाएं हृदय की पुकार की तरह होती हैं,प्रेम और मिलन की गहन भावनाओं-सी। ‘मौसम मनभावन है’ कविता में भीतरी द्वन्द्व है,भीगा मौसम है,उठती हूक है और प्यार भरी उलाहनाएं हैं-फिर भी/’मौसम मनभावन है’/ऐसा कह सकते हो/क्योंकि छोड़ तड़पता बादल/प्रीत की रिमझिम में/भीगे जो हो तुम आज।
चित्रकारी के दृश्यों से होकर उभर रही कविता है ”धुँधली-सी चित्रकारी”। कुहासे से भरी सर्द रात है, स्मृतियों में उभर रहा है जलता हुआ अलाव तुम्हारे आँगन का। पंक्तियों में दृश्य देखिए- उसकी गर्म आँच/खींच रही है मेरी/बर्फीली देह को/और मैं/पिघलती जा रही हूँ/उसी ओर। शिवाली अपनी कविता में चित्रांकन रचती हैं और कोई प्रेम का सूत्र जोड़ती हैं। ‘फिर कोई मीरा’ कान्हा के लिए अपने भावों के साथ जन्म ले रही है। ‘एक थी चिड़िया’ कविता में कवयित्री अपनी मां को बड़ी मार्मिकता के साथ याद करती हैं और कहती है-यह जान गई हूँ मां/वो चिड़िया कोई और नहीं/बल्कि शायद तुम ही थी। शिवाली को सुबह का सिंदूरी सूरज,शाम में घोंसलों में लौटते पंछी तनिक भिन्न तरीके से आकर्षित करते हैं,कोई जीवन-दर्शन चित्रित होता है और प्रेम की ध्वनि गूँजती है आसपास। ‘नीड़ की ओर’ कविता में यही भाव मुखरित हुआ है। वह सम्पूर्ण दृश्य जीवन्त होता है उनकी पुतलियों में और वर्षों बाद भी स्मृतियों में बसा हुआ है। ‘समय की हाँडी’ में जीवन-दर्शन छिपा हुआ है,उनकी गहन अनुभूतियाँ सृजित हुई हैं,लिखती है-तुम देखना/जीवन के चूल्हे से/जब हाँडी उतरेगी/चाशनी का रंग गाढ़ा होगा। ‘स्वर्ण परी’ कविता में कवयित्री के साथ नन्ही परी का मिलना बहुत कुछ बदल कर रख दिया है। अब वह बिखरती नहीं,उड़ती फिरती है उन्हीं पंखों के सहारे मनचली हवाओं के उपर। ‘सिलवटें’ कविता में जीवन की सच्चाइयों को सहजता से स्वीकार लेने का भाव है,समझौते करने पड़ते हैं,बिस्तर पर सिलवटें पड़ती रहती हैं और दब कर रह जाते हैं मासूम-से उत्तर सदा के लिए। शिवाली अपनी उम्र से कहीं अधिक समझदार होती गई हैं और उनके सारे सन्दर्भ जीवन-दर्शन की सहज व्याख्या करते हैं।
‘अभिलाषा’ प्रेम में मसल दी गई पंखुडी की यथार्थ कहानी है। अक्सर प्रेमी-प्रेमिका के जीवन में ऐसे संयोग बनते हैं और प्रेमी कली को मसलकर कहीं और चला जाता है। शिवाली ने आसपास देखा होगा,यह दृश्य घटित होते,बहुत सुन्दर शब्द-वाक्यों के साथ कविता में ढाल दी है। ‘क्षितिज से परे’ उन स्त्रियों के जीवन पर मार्मिक कविता है जिनके पति या प्रेमी अक्सर कहते हैं-छोड़ दो मुझे/उड़ जाओ कहीं। कवयित्री ने स्त्री की पीड़ा,मनःस्थिति का सुन्दर चित्रण किया है। वह महत्वपूर्ण सलाह देती है किसी अनुभवी की तरह-हाँ,तुम्हारे मन में लगी/एक क्षीण-सी गाँठ/अगर वो खोल दो तुम/तो उड़ने लगोगे मेरे ही संग। रिश्तों को तोड़ने के बजाए उन गाँठों को खोलने की जरुरत है। ‘साँकल’ खुलती नहीं है,बार-बार प्रयत्न करने पर भी क्योंकि वह तो सदियों से/बंद पड़ी/रुढ़ियों की/जंग लगी/ लोहे की साँकल है। प्रयत्न करने वाले को ही लहूलुहान होना पड़ता है। शिवाली सहजता से,सहज भाषा के शब्दों में,सधी हुई शैली में जीवन की बड़ी-बड़ी सच्चाई उजागर करती है। ‘सुलगते सपने’ हर किसी के सपनों के साथ दिन-रात की यात्रा है। ‘छंदमुक्त’ सुन्दर भाव-विश्वास की कविता है। प्रेमिका विश्वास करती है और उससे इतर की कल्पना नहीं करती। ‘सियासी हाथ’ किंचित राजनीतिक चिन्तन की कविता है-वादों की सुलगती अंगीठी में/फिर आ पड़ी है/तपती,झुलसती जनता। कवयित्री जनता की मजबूरी बतलाती है और सियासी हाथों में शिकार होती रहती है। कुछ तेरे,कुछ मेरे,सच होते सतरंगी स्वप्नों का ‘अनमोल कालीन’ बन ही जाता है एक दिन। कवयित्री प्रक्रिया बतलाती है-इसके निःशब्द धागे में/बुनती रही फिर भी मैं/अनवरत कभी मिलन/कभी ठहरी हुई जुदाई। शिवाली की कविताओं में स्त्रियों के अनुभव,संघर्ष,सुख-दुख,धोखे भरे पड़े हैं,वे स्त्रियाँ धैर्य रखती हैं,प्रतीक्षा करती हैं,अपने हिस्से का प्रयास करती हैं और प्रेम से भरी हुई हैं। ‘कच्ची राह’ हो,कच्ची उम्र हो,सबका अपना महत्व है। पंक्तियाँ देखिए-फिर भी कच्ची राह की/सोंधी खुशबू/हर बरसात में/दिला ही जाती है/अपनी मिट्टी का एहसास/जो अभी तक दबी है/जड़ों में कहीं। जीवन की सच्चाई को समय रहते स्वीकार लेना और उसी के अनुसार अगला कदम उठाना अच्छा है। ‘सिंदूरी सूरज’ में वही भाव लिए वह अपने सूरज का हाथ थामे चल रही है। सहजता से स्वयं को बदल लेना और ढाल लेना परिस्थिति के अनुसार कोई चाहे तो शिवाली से सीख सकता है। ‘कही-अनकही’ में लिखती है-नहीं स्वीकृत अगर/झुकना इनका तो लो/ तुम्हारी कही झटककर/केवल अनकही ओढ़ ली। वह संतुष्ट होकर लिखती है-इससे मोहक श्रृंगार/ क्या होगा किसी रिश्ते का? किसी स्त्री के समर्पित मन का निश्चय ही यह सुन्दर उदाहरण है।
अतृप्ति बहुत कुछ समझा देती है। ‘माटी की गागर’ की पंक्तियाँ देखिए-कुछ भरी हैं/मेह से तृप्त/कुछ पड़ी हैं/स्नेह से रिक्त। अंत में सबको मिट्टी में ही मिल जाना है। ‘इठलाता समय’ में बिंबों के द्वारा वह जीवन के रहस्यों को समझती-समझाती हैं। ‘लिखी कहानी,बनी कविता’ सहज प्रेम से भरे जीवन की उड़ान की कविता है। ‘मालिन की मलिन टोकरी’ कविता में जीवन का गहन सत्य उजागर हुआ है,कल फूल खिले हुए थे,आज मुरझा कर उसी गंदी टोकरी में जायेंगे। ‘खामोशी’ टूटने पर झनझना उठता है शब्दों का मौन,उसे संभालना पड़ता है। उनकी भावनाएं देखिए-कहीं प्रीत की यह वीणा/रह न जाए अनसुनी/दबकर किसी ताल के नीचे/जिसके एक तार में तुम/और एक तार में हूँ मैं। कवयित्री दुनिया की तमाम स्त्रियों की ओर से पूछती है अपने प्रिय से-क्या संभाल सकोगे/मेरे लिए–मेरे प्रिय? ‘प्रथम पात’ हर पति-पत्नी के जीवन की कविता है। भाव सुखद अनुभूति देने वाले हैं,लिखती हैं-यही गर्म हवाएं/उड़ाकर लाई थी एक दिन/एक पात तुम्हारी शाखों का/कुछ मेरे अरमानों-सा गीला/कुछ तुम्हारी चाहत में महका-सा। घर-संसार बढ़ता जाता है,कुछ सुखी होते हैं,कुछ दुख भोगते हैं,कुछ जिम्मेदारियाँ पूरी होती हैं,बहुत कुछ अधूरा रह जाता है। शिवाली के सारे बिंब व भाव हृदय को धड़का देते हैं और कोई सुखद प्रेम की बयार बहती रहती है। ‘गुलाबी छतरी’ के भाव-बिंब वही तो बता रहे हैं। ‘साँझ के पंछी’ कविता के शीर्षक को ही शिवाली ढाका ने अपने काव्य संग्रह का नाम रखा है। कवयित्री को साँझ का पंछी बहुत प्रिय है क्योंकि वह मिलन की संभावना,भोर की उम्मीदें जगाता है और प्रेम की लाली व बिखरी-महकी हृदय की धड़कन लाता है। समर्पण के गहन भाव की पंक्तियाँ देखिए-कुछ शरमाई,कुछ इठलाई/शूल चुभे तो कुछ घबराई/लिपटी फिर भी इन साँसों से/भीगी हुई रेशमी एहसासों में। प्रिय के आत्मसात करने,स्वीकार कर लेने से ही जीवन की राहें सुगम,अलंकृत और प्रीत का सुखद आलिंगन है। ‘मत्स्यकन्या-सी’ कविता में जीवन की उलझने हैं,कवयित्री के प्रश्न हैं और श्रेष्ठता की तलाश है। ‘नेह का चंद्र’ कविता में वह अपने पिता को याद करती है,अपने बचपन को फिर से जीना चाहती है और खो जाना चाहती है पिता की छाँव तले।
‘नाम तेरा’ कविता स्त्री-मन का विस्तार बताती है कि हर प्रसंग में प्रिय का नाम नाना भूमिकाओं में उभरता रहता है। वह बताती है-‘नियति’ के खेल में हम दोनों टूटे थे,अंतर सिर्फ इतना था/कि तुम लहराकर/किनारे गिरे/और मैं/सीधी धारा के बीच। ‘चार पल’ जीवन के उतार-चढ़ाव को लेकर सशक्त भाव-चिन्तन है। ‘अलंकृत हथेली’ कविता स्त्री के सर्व-समर्पित मन की कविता है,वह लिखती है-खुली हो या बंद/अलंकृत रहेगी/यूँ ही हथेली/तेरे नामों से। ‘बिन सावन बारिश की बूँदें’ कविता सावन-भादो के बरसात का मोहक दृश्य दिखाती हैं। बूँदें शहरों में भिन्न अंदाज में बरसती हैं और कोई सौन्दर्य सृजन नहीं होता। वहीं बूँदें किसी झोपड़ी के छप्पर की फुनगियों से टूटकर बरसने से पहले थम जाती हैं,फिसलकर सहम जाती हैं,गोबर से लिपे आँगन में बरसकर पछताते हुए धरती में समा जाती है।
‘बदरा मेरे’ के भावपूर्ण दृश्यों में कवयित्री रंगों का अद्भुत साम्य चित्रित करती हैं। बादल भटक कर कीकर के जंगल में उलझ गया है और उसकी मटमैली-सी झोली फट गयी है। बूँदें चाँदी के मनकों की तरह बिखर गई हैं,कुछ शाखाओं पर,कुछ गुलाबी पंखुड़ी में,कुछ रेत के गालों पर और कुछ हथेली में आ सिमटी हैं। कवयित्री की रुमानियत भरी चाह देखिए-यदि राह पा जाओ तो प्रतिज्ञा करो-कि फिर भूलोगे राह/इसी छत पर मेरी/फिर बरसोगे अँगना मेरे/यूँ ही बनकर सोना-चाँदी/ओ श्यामल बदरा मेरे। ”अँखियाँ’ कविता जीवन के अलग-अलग रुपों में आँखों का भाव-कृत्य-दृश्य दिखा रही हैं। ‘छलनी’ में दीपक का संघर्ष है,वह कहता है,अंधकार में तुम्हारी सूनी देहरी पर प्रकाश फैलाता रहता हूँ, फिर भी कहते हो कि/मैं हूँ बस माटी की काया। ‘अश्रु’ का त्रिशंकु की तरह लटके रहना,अद्भुत साम्य दिखाया है शिवाली ने,वह अश्रुओं को परिभाषित करती है-न ढलकते हैं,न ठहरते हैं,न बरसते हैं,न सँभलते हैं,हो प्रसन्न कभी क्रीड़ा करते हैं या संवेदना की पीड़ा में जलते हैं और न मौन रहते हैं,न व्यक्त करते हैं। संग्रह की अंतिम कविता है ‘दरिया’। प्रायः सभी ने दृश्य देखा है,शांत जल में कोई कंकड़ गिरता है, लहरें गोलाकार दायरा बनाती हैं और किनारों की ओर बढ़ती जाती हैं। कवयित्री की स्थिति देखिए-गिरा कहीं से आकर/एक कंकड़ अनजाने में/न शोर हुआ/न आह निकली/पर बन गए सैकड़ों दायरे/दिल के दरिया में। वीतरागी के हाथों से गिरता है कंकड़ तो भीगती जाती हैं आँखें। आगे की पंक्तियाँ देखिए-किंतु मानवता का/धैर्यशील पवित्र जल/कहाँ किसी/दायरे में सिमटता है/नव उत्साह से भरा/एक उछाल आता है/और झिलमिला उठती है/स्नेह की चंचल रश्मियाँ।
इस तरह देखा जाए तो शिवाली के लेखन में परिपक्वता है,भाव,भाषा,शैली के साथ-साथ दृश्यांकन में भी। उनका चित्रकार होना काव्य लेखन को गंभीर दिशा प्रदान करता है। उनमें भावुकता है,संघर्ष है और सामंजस्य की भावनाएं अधिक हैं। यह कोई कमजोरी नहीं बल्कि उनकी अपनी ताकत है। प्रथम प्रयास होते हुए भी संभावनाएं अधिक दिखाई दे रही हैं। शिवाली को सतत लेखन करते रहना चाहिए,हिन्दी साहित्य समृद्ध होगा और उनके लेखन में परिपक्वता आती जायेगी।
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समीक्षित कृति: साँझ के पंछी (कविता संग्रह)
कवयित्री: शिवाली ढाका
मूल्य: रु 360/-
प्रकाशक:शुभदा बुक्स,साहिबाबाद
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विजय कुमार तिवारी
(कवि,लेखक,कहानीकार,उपन्यासकार,समीक्षक)
टाटा अरियाना हाऊसिंग,टावर-4 फ्लैट-1002
पोस्ट-महालक्ष्मी विहार-751029
भुवनेश्वर,उडीसा,भारत
मो०-9102939190