1.भूमिगत
सरकार मुझे ढूंढ रही है
जबकि उसकी जुल्मतों के खिलाफ
मैंने आवाज भी नहीं बुलंद की
मैंने उसके खिलाफ पर्चे भी नहीं लिखे
मैंने लोगों के हक हकूक के लिए जगाया भी नहीं
मैं उस जलसे में भी नहीं गया
जिसपर सरकार के मुखबिर रख रहे थे नजर
मैं तो एक फूल लेकर निकला था सड़क पर
सरकार कहती है हाथ में फूल लेकर चलना गुनाह है
मैंने किसानों को जरूर बताया
उनसे बीस रूपये में खरीदा गया गेंहू
पचास रुपए किलो के आटे में कैसे बदल जा रहा है
सरकार मुझे ढूंढ रही है
उसका मानना है मैं लोगों को प्रश्न करना सिखा रहा हूं
मेरी कविताएं जाति का सवाल उठा रही हैं
मैं उसके बनाए ईश्वर को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूं
उसके दिन ब दिन के झूठ पर हंसी आ जाती है अक्सर मुझे
यही मेरा जुल्म है
यही मेरा विद्रोह
सरकार ढूंढ रही है मुझे
मैं फिलहाल अपनी विचारधारा में भूमिगत हूं
सरकार चाहती है
चुप रहने वालों की बड़ी संख्या में मैं भी शामिल रहूं
सहता रहूं उसकी जुल्मतें
सरकार मुझे ढूंढ रही है
जबकि मैंने कोई अपराध नहीं किया है
क्या होता
अगर मैं भी बागी होता
मेरा भी नाम शामिल होता अर्बन नक्सल में
मैं किसान की तरह पगड़ी पहनकर
संसद की तरफ कूच करता
मैं सरकार की उस विचारधारा को पल्लवित करता
जो घातक हो सकती है देश के लिए
सरकार मुझे ढूंढ रही है
सरकार के पास बहुत सारे काम हैं।
2.मरम्मत
फिलहाल, मेरा जूता टूट गया है
इसे ठीक कराना है
बाहर भारी बारिश है
नदी ने जूता नहीं पहना
फिलहाल, उधेड़बुन में हूँ
आखिर जूता
बार बार क्यों टूट जाता है मेरा
नदी का नहीं टूटता
बादल का जूता तो बहुत पुराना है
मेरे जूते से काफी पुराना
और उस मोती मोची का जूता
जो कल्पना में बहुत ऊँचा चलता है
मेरी तरह क्यों नहीं टूटता
उन पक्षियों का जूता
क्या मोची ब्रांड का है
बिल्कुल नया
जूता पहनाना
जूते मारना
जूते चढ़ाना
मेरे मुहावरे में कब शामिल होंगे
जैसे बारिश शामिल है
मेरी उधेड़बुन में
बाहर बारिश है
फिलहाल मेरा जूता टूट गया है
मुझे जूता ठीक कराने जाना है।
3.ओ री वनबेली
सोनजुही, चम्पकला, चमेली
उतर रही कोई गंध देख न मटमैली
थिर हुए पाँव
बैठ गए गाँव,
थिरक रही टोली
आई मनभावन तू,
सावन सी सरस गई
बरस गई देर तक,
बारिस जो बरस गई
तू भी तो तरस रही,
बरस रही भीग भीग
नई सीख
उतर रही घाटी, ले चोखा बाटी
आ री चमेली, आ री वनबेली
खेल ले खेतन में, जी भर ले तन मन में
नाच, नाच बांच-बांच
ओ री किसानन, ओ री तम्बोली
ओ री वनबेली
थिर हुए पाँव
बैठ गए गाँव, थिरक रही टोली
आई चौदह अप्रैल
मच रही है रेलमरेल
गा रही भीमा
गा रही टोली
भीम बोली, भीम बोली, भीम बोली!
4.इन दिनों
इन दिनों
राजधानी की सड़कों पर
हुवांता है एक सियार
फिर सियारों की एक पूरी जमात
हुवाँ हुवाँ के स्वर में करती है अरण्यरोदन
अनुमोदन
इन दिनों
एक कौआ लेकर भागता है किसी का कान
और फिर उस जमात के कौवे
काँव काँव करते हैं उसके पीछे
इन्हीं दिनों
एक लोमड़ी
किसान के खेत से गाजर चुरा के लाती है
कहते हैं उसका हलवा बिकी हुई सरकार खाती है
इन्हीं दिनों
भेड़ियों ने भेड़ियों की सभा बुलाई है
और खबर न फैले आम जनता के बीच
खबरी भेड़ियों को गोश्त मलाई बंटवाई है
इन दिनों
कुत्तों ने यात्राएं कम कर दी हैं
कहते हैं विदेश अब गाड़ी नहीं जाती
इसलिए बाहर से सामूहिक मौत भी नहीं आती
कैसा समय है
किसान ठंड में मर रहे हैं
और नौकर शाह
कंपनी के पैसों से घर भर रहे हैं
कहते हैं ट्रेनें अब जब खुलेंगी
अपनी मौत का पैगाम लेकर आयेंगी
बिकेंगी सरे बाजार
पर वे अपनी दास्तान न कह पायेंगी
किसान आंदोलन की बात नहीं
इन दिनों मौत बांट रही है दिल्ली
जब तथाकथित खालिस्तानी किसान नहीं
तब कौन ठोकेगा उनकी ताबूत में किल्ली
कांशीराम जी कहते थे, खोलो गुरु किल्ली
नहीं तो बहुरूपिये बेच डालेंगे दिल्ली
दिल्ली बिकने वाली है क्या
बर्फ जमने वाली है क्या
इन दिनों राजधानी की सड़कें जाम हैं
ए सी में रहने वाले कहते हैं
मौसम ठीक है
आराम है
इन दिनों सड़कों पर बर्फ की चादर ओढ़े
एक किसान राजधानी जा रहा है
उसके हिस्से का झंडा
कोई नहीं फहरा रहा है।
(इस वर्ष की पहली कविता)
5.हवा का धर्म
हवा ने कब कहा
सामंती है आपकी भाषा
हवा ने कब कहा
दुनिया के लोगों के लिए ठीक नहीं आपके विचार
हवा ने कब कहा
भेदभाव करना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है
हवा तो यह भी नहीं कहती
दुनिया का भ्रष्टतम धर्म है तुम्हारा
ढोंग है तुम्हारा वसुधैव कुटुम्बकम
आ नो भद्रा क्रतवो यन्तु विश्वतो का उद्घोष
केवल किताबी है
करनी और कथनी में जो अधिकतम भेद हो सकता है
वह है तुम्हारे जीन में
फिर भी हवा नहीं कहती
वह तुम्हारी मृत्यु तक तुमसे घृणा कर सकती है
हवा का यह काम नहीं
हवा सिर्फ प्रश्न उठाती है
वह तुम्हें कहती है
मनुर्भव
मनुष्य नहीं तो कम से कम मनुष्य की परछाईं ही बन जाओ
हवा जानती है
जानवरों की कहानियों से भरा पड़ा है हितोपदेश
फिर भी हित सिर्फ तुम्हारा ही क्यों होता रहा है इस देश में
हवा तुम्हें कोस नहीं सकती
हवा तुम्हें सुखा सकती है
हवा तुम्हें परिमार्जित कर सकती है
हवा का काम तुम्हारा उपनयन करना नहीं है
तुम्हें द्विज बनाना नहीं
हवा का न वेद है न पुराण
न कुरआन है न अवेस्ता
बाइबल भी नहीं है
न सगुण है न निर्गुण
हवा पंथ निरपेक्ष है, धर्म निरपेक्ष
हवा मनुष्यता की बात करती है
हवा मनुष्य की बात करती है
हवा हवा है
वह अपना धर्म कैसे छोड़ सकती है
6.नए द्विज
पिता जी भैरों वाले हैं
माता जी शेरों वाली हैं
हम दलितों की इसी तरह से
मनी दिवाली है
कन्या पूजन, ब्राह्मण भोजन
दान दक्षिणा बहना का है
छोटा वाला जनसंघी है
और बड़े का कहना क्या है
पत्नी भजन सुनाने वाली
सासू ताल मिलाने वाली
अठमी नवमी सब करती हैं
मीट शीट न खाने वाली
गुरुपूर्णिमा गुरुदक्षिणा
शिक्षा मंदिर वाली है
होली में होलिका दहन हो
मस्ती गोगा पीर वाली है
लिंचिंग विंचिंग सब सीखा है
बहुसंख्यक अपना भैवा है
ट्रक रोककर चन्दा मांगे
बलवाई अपना दैवा है
भीम जयंती धूमधाम से
रैदासी तो गए काम से
हिन्दू मंच सजाकर आया
बेटा कोटा से पढ़ आया
अपनी जात छुपाने वाले
दलित नहीं कहलाने वाले
अपने ही जैसे लोगों से
बचकर आंख चुराने वाले
दलित हुए अब दलन करेंगे
मध्यवर्ग पर बहस करेंगे
मुंह में राम बगल में गांधी
हम दुनिया के अम्बेडकरवादी
नया धनिकहा करे गुमान
भगवत किरपा का परिणाम
छापा तिलक लगाते हैं
जयभीम चिल्लाते हैं
सेवक धर्म निभाते हैं
घर में मंदिर
मन में मंदिर
जिंदगी मंदिर वाली है
शाम भए दीवाली है
7.शम्बूक के लिए संविधान पीठ
राम!
लंबी यातना के बाद
तुम्हारे गर्भगृह को खोज लिया गया
यानी तुम्हारे पैदा होने का स्थान
बचा लिया गया अबैध कब्जेदारों से
संविधान पीठ ने गदगद होकर
सुना दिया फैसला
तुम यहीं पैदा हुए
एक माँ के गर्भ से
यहीं हुआ तुम्हारा सौरकर्म
धन्य हुए तुम, तुम्हारी कुल परंपरा
स्तब्ध हुआ देश
एक बार फिर तुम्हारा नाम गूँजा अयोध्या में
अधर्म से धर्म हारा
या धर्म हारा अधर्म से
कौन जानता है
इसी साकेती अयोध्या में
जब तुम थे न्यायाधीश
अपने दो अनाथ बच्चों की शरणगाह खोजते
एक स्त्री धरती में समा गई थी धरती में
धोबी के वचन को बनाकर आधार
पितृसत्ता का दम्भ
सिर चढ़कर बोला था तुम्हारे
चार स्त्रियों को भोगकर
तुम्हारा पिता बना रहा धर्म प्राण
तुमने किसी धोबी से अपने पिता के बारे में
क्यों नहीं पूछा
पिता की आखिर वह कौन सी मर्यादा थी
जिसे ओढ़कर तुम कहलाये पुरुषोत्तम
आखिर क्या जरूरत आन पड़ी थी
बुढापे में शादी की
तीन स्त्रियां पहले से ही मौजूद थीं घर में
कहाँ थी उनकी मर्यादा
सीता पर लांछन
मर्द होने का सबूत भर था केवल
था सिर्फ पितृसत्ता का पोषण
और वह शम्बूक
जो अपना सिर उठाये घूम रहा है यहां वहां
वर्षों से न्याय की तलाश में
क्या उसके हत्यारे पर
चलेगा हत्या का मुकदमा
देगा कोई गवाही
क्या होगी उसके हत्यारे को जेल
क्या उसपर भी बैठेगी कोई संविधान पीठ
अहंकारी न्याय के मंदिर
क्या उस पर भी कुछ बोलेंगे
अभी न्याय नहीं हुआ है
क्योंकि न्यायाधीश हैं मर्यादा भक्षक
शम्बूक की समाधि पर फूल चढ़ाने से कुछ नहीं होगा
उसकी पीढ़ियों को न्याय चाहिए
और अयोध्या में न्याय कैसे संभव है
पितृसत्ता और सामंतवाद के चलते
बताओ मर्यादा पुरुषोत्तम
बताओ !!
तुम्हें तो न्याय मिल गया
शम्बूक के हत्यारों को कब मिलेगी सजा
उनके लिए कब बैठेगी संविधान पीठ
8.हाँ, मैं नक्सलवादी हूँ
शोषित पीड़ित जनता का मैं
प्रतिनिधि हूँ, फरियादी हूँ
हाँ, मैं नक्सलवादी हूँ
बर्बरता के जो खिलाफ है
नस्लवाद से जातिवाद से
मुक्ति के लिए जो अपने साथ है
कुलीन हिंसा के खिलाफ मैं
मुखर जंग का आदी हूँ
हाँ, मैं नक्सलवादी हूँ
आरक्षण को सही मानता
सामाजिक न्याय की बात ठानता
ब्राह्मणवाद का मुखर विरोधी
व्यक्ति अहिंसावादी हूँ
हाँ, मैं नक्सलवादी हूँ
तुम चाहो तो देश लूट लो
सब सम्पति सब घर में ठूंस लो
सब संसाधन खा जाओ तुम
न्याय को अपना दास बना लो
संगीनों के दम पर तुम जो
चाहो कि अधिकार छीन लो
बर्बरता के दम पर तुम जो
चाहो कि सर्वस्व लूट लो
मनुवाद और ब्राह्मणवाद का
तुम चाहो आतंक फैलाना
ऐसा नहीं अब होने वाला
फुले अम्बेडकरवादी हूँ
आदमियत का आदी हूँ
हाँ, मैं नक्सलवादी हूँ
9.दुहाजू मुसहर
उम्र के इस पड़ाव पर
कई दिन बाद दिखाई दिए तो
मैंने यूँ ही पूछ लिया
दुहाजू मुसहर कैसे हो भाई
इतने दिन बाद भी क्या याद नहीं आयी
उम्र भी क्या
सूरज की लंबाई से नाप लीजिये तो
एक दिन और छोटा पड़ जाय
सुबह ही जैसे दोपहर का सूरज चढ़ जाय
कांपते हुए बोले
हुकुम, उम्र भी क्या बला होती है
जवानी की राहें कहाँ अकेले सोती हैं
जरूरत यहां तक ले आयी
छोड़कर अपने दादा माई
गांव डोमपुरा
साकिन छपिया, गया के सुदूर इलाके में
कट गई जिंदगानी
अपने पूर्वजों की रही यही कहानी
हम यहां शहर कमाने आ गए
फिर लोग कहते हैं गरीब देश खा गए
जबकि देश को देह की तरह
मुन्ना सिंह आज भी खा रहा है
देखो साहब, वह आज भी मुटा रहा है
हम गरीबों की क्या
बेटी टीवी से मर गई
बेटा यहीं साथ में रहता है
जातिदंश का मारा
अब गांव जाने के लिए वह भी नहीं कहता है
लेकिन अब धीरे धीरे जीवन से हार रहा हूँ
क्या खोया क्या पाया विचार रहा हूँ
हमने रोज कुआं खोदा तो पानी पाया
पूर्वजों ने जहालत दी थी, वही काम आया
हम दोनों की उम्र बराबर
दुहाजू मुसहर चले गए तो मन भर आया
तुम्हारे ही वर्ग से आता हूँ मैं भी
क्यों नहीं उन्हें बता पाया
हमारे भी पूर्वजों ने
जिंदगी भर ठाकुरों के खेत जोते
पर जाने कैसे पढ़ गए उनके पोते
शहर में घर है
लंबी कहानी है कभी सुनाऊँगा
दुहाजू मुसहर को अपनी जाति बताऊँगा
10.एकलव्य लौट आया है
एकलव्य लौट आया है
प्लास्टिक सर्जरी से उसने नकली अंगूठा लगवाया है
कम्पनी में करता है काम
बोलता है जय श्री कृष्णा, जय श्रीराम
द्रोणाचार्य को देता है बधाई
कहता है उन्हीं की कृपा से नौकरी पायी
अच्छा गुरु अन्धकार से तार देता है
बेरोजगारी में अपना जातिवाला भी मार देता है
द्रोणाचार्य धरती का रहनुमा है
क्या बुरा है जो उसने अर्जुन को चुना है
आज कल तो सेटिंग का जमाना है
जाति से ऊपर उठकर हमने यही पहचाना है
गुरुकुल से बाहर रहकर हमने यह शिक्षा पायी
स्कूल जाने से बचा, हमारी शामत नहीं आयी
जंगल में घूमकर करता रहा पढ़ाई
स्कूल में रहकर अर्जुन ने कौन सी तीर चलाई
गुरु के चरणों में रहकर हमने अपना भाग्य बनाया है
खुद लग गया अब लड़के को लगवाया है
उन्हीं की कृपा से हो जायेगा बेटी का काम
जय श्रीकृष्णा-जय श्रीराम, जय श्रीकृष्णा, जय श्रीराम
11.कठपुतली नाच
सुरक्षित शीट पर जीत कर
आरक्षण को खा गए
देखो ये कठपुतली फिर नाच दिखाने आ गए
ससुरे अब भी धोते हैं ये उनके पाँव
कुटते-पिटते ठाँव कुठाँव
बची कुची हड्डी ये जूठन चबा गए
देखो ये कठपुतली नाच दिखाने आ गए
सदन वदन में शोर के बीच
पंख फैलाकर नाचते नीच
हाहा, हूहू, हेहे बीच
गाड़ी पा पथरा गए
देखो ये कठपुतली नाच दिखाने आ गए
इनकी संख्या भारी
जनेऊ के आगे इनकी बुद्धि जाती मारी
गोबर करदी दुनियादारी
पांच साल का मौका था विकास करते
भरमा गए
देखो ये कठपुतली नाच दिखाने आ गए
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परिचय –
युवा कवि-आलोचक। असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में हिंदी विभाग, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया में कार्यरत हैं।
मोबाइल- 8863093492