आज हिन्दी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा जी का जन्मदिन है(10 अक्तूबर,1912) उनकी स्मृति और अवदान को नमन करते हुए,प्रस्तुत हैं उनसे जुड़े कुछ प्रसंग-
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डॉ.रामविलास शर्मा जी हिंदी आलोचना के युग-पुरुष हैं।सम्भवतः वे हिंदी आलोचना के अकेले ऐसे आलोचक हैं- जिन्होंने सर्वाधिक अनुशासनों में लेखन कार्य किया है।डॉ.शर्मा हिंदी आलोचना के ऐसे विद्वान हैं, जिन्होंने अंग्रेजी-साहित्य में ph.d की। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से जॉन कीट्स पर अपनी पीएच.डी पूर्ण की थी। वे चाहते तो अंग्रेज़ी में लेखन कर सकते थे, लेकिन उन्होंने हिन्दी में लिखना ज्यादा सार्थक और सही समझा।उनका यह निर्णय हिंदी के प्रति उनके अनन्य प्रेम का सूचक है। हालाँकि हिंदी में लेखन-कार्य करने की बाबत उन्हें जीवन में खामियाज़ा भी भुगतना पड़ा। उनके ph.d शोध-निर्देशक निर्मल कुमार सिद्धान्त को अपने अंग्रेज़ी विद्वान शिष्य का हिंदी में लिखना कतई पसन्द न था।परिणामस्वरूप रामविलास जी को लखनऊ विश्वविद्यालय का अंग्रेज़ी का प्रथम ph.d होने के बावजूद नौकरी के लिए आगरा जाना पड़ा। एक बार मैंने रामविलास जी से पूछा-“लखनऊ विश्वविद्यालय जैसी प्रसिद्ध जगह से आगरा जाना आपको कैसा लगा?” उन्होंने थोड़ी देर अतीत की स्मृतियों में जाते हुए कहा-“पहले-पहल आगरा मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन इसका मुझे एक बड़ा फायदा हुआ- मैंने अपनी सारी शक्ति लेखन-कार्य में लगा दी। ‘निराला की साहित्य साधना'(तीन खण्ड) जैसी पुस्तक आगरा की ही देन है।”
एक बार एक सज्जन रामविलास जी से मिलने उनके विकास पुरी आवास पर आये।बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा-“डॉ.साहब अगर आपकी पुस्तकों का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद हो जाये, तो वे ज्यादा पढ़ी जा सकेंगी।” उनकी टिप्पणी सुनकर रामविलास जी ने कहा–“नहीं मैं ऐसा नहीं सोचता, अगर कोई हमारी पुस्तकें पढ़ना चाहता है, तो वह हिंदी सीखे। हमने भी तो अनेक भाषाएँ सीखी हैं।हमने अपनी पुस्तकें हिंदी को बढ़ावा देने के लिए लिखी हैं,ना कि अंग्रेज़ी को।” उनके जवाब से यह साफ ज़ाहिर था,उनके ह्रदय में हिंदी के प्रति कितना अटूट- अगाध प्रेम समाया हुआ है।
रामविलास जी ने अपनी ph.d की थीसिस स्वयं ही टाइप कर ली थी। उनकी थीसिस मूल्यांकन के लिए इंग्लैंड भेजी गयी।रामविलास जी ने पाँच साल तक लखनऊ यूनिवर्सिटी में अध्यापन भी किया था।लेकिन जब परमानेंट अपॉइंटमेंट की बारी आयी तो स्थायी नौकरी किसी और के हिस्से में चली गयी।जबकि उस समय इंग्लिश डिपार्टमेंट के हेड रामविलास जी के गाइड सिद्धान्त साहब ही थे।वे
इंग्लिश और बांग्ला के विद्वान थे। गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगौर निर्मल कुमार सिद्धान्त को बहुत मानते थे। सिद्धान्त साहब रामविलास जी को बहुत स्नेह-सम्मान देते थे। लेकिन उन्हें रामविलास जी का मार्क्सवादी होना और हिंदी में लिखना पसन्द नहीं था।सिद्धान्त जी ने रामविलास जी को नौकरी के सिलसिले में आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में भेज दिया। हालाँकि लखनऊ से आगरा जाना रामविलास जी को अच्छा नहीं लगा। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वाह हेतु उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। एक दिन मौके की नज़ाकत को देखते हुए बलवंत राजपूत कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ रामकरण सिंह ने रामविलास जी से पूछा–” डॉ साहब सिद्धान्त जी आपकी तारीफ़ करते हुए थकते नहीं हैं,लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आयी, कि फिर उन्होंने हेड होने के बावजूद भी आपको लखनऊ यूनिवर्सिटी में क्यों नहीं रखा?”
रामविलास जी ने बड़ी संजीदगी से सवाल का उत्तर देते हुए कहा–” इसलिए कि सिद्धान्त साहब चाहते थे, कि लखनऊ की तहजीब आगरा भी पहुँच जाये।”
यह उत्तर सुनकर प्रिंसिपल साहब रामविलास जी विद्वता के साथ -साथ उनकी हाज़िरजवाबी के भी मुरीद हो गये।
रामविलास जी आगरा में बहुत समय तक किराये के मकान में रहे।फिर उन्होंने अपना मकान बनवा लिया। उनका घर मज़बूत और सादगी से परिपूर्ण था। रामविलास जी के घर के सामने डॉ. जटाना रहते थे। डॉक्टरी के पेशे से उन्हें ख़ास आमदनी नहीं होती थी, इसलिए वे मकान बनवाने और बेचने का काम भी करते थे। डॉ. जटाना ने अपने घर को बहुत ही खूबसूरत ढंग से सजाया था। एक दिन कॉलेज के प्रिंसिपल डॉ. रामकरण सिंह रामविलास जी के घर आये।उन्होंने रामविलास जी का घर गौर से देखा और कहा-” रामविलास आपने इस घर को और खूबसूरत क्यों नहीं बनाया?”
रामविलास जी ने कहा-” यह घर मेरे रहने के लिए काफी है। खूबसूरती देखने के लिए सामने डॉ. जटाना का मकान है, उसे देख लेता हूँ।”
उत्तर सुनकर प्रिंसिपल साहब भी डॉ जटाना का मकान देखने लगे।
रामविलास जी अपने पास कुछ डायरियाँ रखते थे,जिनमें वह समय-समय पर कुछ नोट करते रहते थे। एक डायरी ऐसी होती थी जिसमें रोजमर्रा की खास घटना दर्ज होती थीं–जैसे कौन आया,कौन गया,कौन पास हुआ,कौन फेल,खाने में कौन से विशेष व्यंजन खाये, आदि।
बाकी डायरी विशेष विषय सम्बन्धी होती थीं-एक भाषा विज्ञान सम्बन्धी,एक करेंट अफेयर्स संबंधी, एक इतिहास सम्बन्धी और इसी तरह दूसरे विषयों से सम्बन्धित।
कभी-कभी डायरियों में अपने लिए नसीहत भी होती थी। कभी कोई गलती हो जाने पर अपने लिए फटकार भी होती थी।
सन 1993 में उन्होंने एक नए विषय पर डायरी बनाई,जिसका नाम उन्होंने रखा ‘अनुभव सूत्र’। यहां डायरी की कुछ प्रविष्टियां प्रस्तुत हैं:
1 हर किसी के सामने,जो लिख रहे हो उसका वर्णन प्रस्तुत मत करो,पहले उसके दृष्टिकोण, उसकी समझ,का अनुमान कर लो जिससे व्यर्थ बहस में न उलझना पड़े।
2 प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दो।
3 तीसरी पीढ़ी के सामने दूसरी पीढ़ी से मज़ाक मत करो।
4 रात को ग्यारह बजे के बाद मत जागते रहो।
5 रात को चिट्ठियां लिखना बंद।
6 रात को हल्का खाना खाओ।
7 कागज़-पत्र व्यवस्थित रखो,इससे लिखने-पढ़ने के लिए अधिक समय मिलेगा।
8 साक्षात्कारों में नपे-तुले ढंग से कहो..संक्षेप में कहो, वाक्य रचना का ध्यान रखो।
अधिकांश सूत्रों में समय बचाने और उसका सदुपयोग करने पर ज़ोर है। सम्भवत उन्हें लगने लगा था कि समय तेजी से भाग रहा है।
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जसवीर त्यागी
राजधानी कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय