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Lahak Digital > Blog > Literature > सुषमा गजापुरे की ग़ज़लें
Literature

सुषमा गजापुरे की ग़ज़लें

admin
Last updated: 2023/09/27 at 1:56 PM
admin
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11 Min Read
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1.

“मेरे एक बदलने से”

मेरे एक बदलने से, यह दुनिया तो नहीं बदल जाएगी.
पर परिवर्तन की दिशा में,शायद एक पहल हो जाएगी।

मैं रहूँ चाहे गौण, परिवर्तन के इस नेक-भले उपक्रम में,
पर आशा है कुछ और बदल जाएँगे इस सुसंक्रमण में।

मुझे नाम, दाम, शोहरत कुछ भी नहीं करना हासिल ,
संग मेरे बस, कुछ अच्छे परिवर्तन हो जाएँ शामिल।

जड़ता का श्राप भोगती इस दुनिया को मुझे जगाना है,
बदल कर कुंठ मानसिकता, चैतन्यता को तपाना हैं।

दुनिया की दिशाहीन भीड़ में रह जाऊँ मैं चाहे अकेली ,
सदैव शुभकामनाओं से तो भरी रहेगी मेरी यह झोली ।

जबकि जानती हूँ यह प्रयास सागर में बूंद सरीखा है,
पर बूंद-बूंद से ही मैंने सागर को भरते भी देखा है।

परिवर्तन के इसी क्रम में यदि दुनिया बढ़ती चली जाएगी.
चाहे थोड़ी-थोड़ी बदले पर सुखद भविष्य अवश्य लाएगी।

00000000

2.

मुकुराईये…

सदन में कुछ विपक्ष के, कुछ सत्ताधारी हो गए,
बाकी बचे कभी इनके, कभी उनके आभारी हो गए।

सबने आवेदन दे रखे थे, बड़ा मंत्री बनने के लिए,
जिन्हें कुर्सी नहीं मिली, बेचारे पार्टी प्रभारी हो गए।

5 वर्षों में कुबेर के खजाने खुल गए खानदान के,
मारुति में आये थे, देखते-देखते नेता फरारी हो गए।

जनता ने सोचा था,नेताजी सब कुछ अच्छा करेंगे,
पर उनके खोले हॉस्पिटल ही एक बीमारी हो गए।

कौन से लड्डू मिल गए, शादी करके लोगों को ,
सत्ताधारी! तो सच पूछो, सारे ही कुंवारे हो गए।

3.

जो लिखना है वो लिखा नहीं जा रहा,
जो कहना है वो कहा नहीं जा रहा,

अफरा-तफरी का माहौल है चारों ओर,
कुछ नहीं पता कौन यहाँ कहाँ जा रहा,

हर आदमी पूछ रहा है रास्ता कहीं का,
पानी में तिनके की तरह बहा जा रहा,

खौफ में माँ के सीने से लिपटा बच्चा,
भूखा है पर दूध तक नहीं पिया जा रहा,

बदहवासी के हालात हैं इस मुल्क में
क्या पूछना है यह तक नहीं कहा जा रहा

कब किस घड़ी कोई नया हुक्म आ जाए,
ऐ खुदा कुछ कर, और नहीं सहा जा रहा,

हँस रहा है नदी किनारे वाला वो फकीर,
बोला सजदा करो कुछ नहीं होने जा रहा

आते हैं बहुत से हुक्मरान इस ज़मीन पर,
किसका महल यहाँ हमेशा खड़ा रहा,

4.

पूरी क़ौम को पराया कर के क्या मिलेगा
उसका भी घर जलेगा मेरा भी घर जलेगा

मत ऐतबार कर उस जहां के कमज़र्फ़ों पर
तुझको भी वो छलेगा मुझको भी वो छलेगा

मुफ्त में भी न लेना नफरत के बीजों को तुम
न तेरा खेत फलेगा और न मेरा खेत फलेगा

दूसरों के बहकावे में रंजिशों को मत बढ़ा तू
अंत में मैं भी हाथ मलूँगा तू भी हाथ मलेगा

चल छोड़ मिट्टी डालें हम पुरानी बातों पर
इस से न तेरा घर जलेगा न मेरा घर जलेगा
*****

5.

जवानी खरीद ली

बड़ी मुश्किल से बनायीं थी कुछ कश्तियाँ
सिपहसालारों ने लहरों की रवानी खरीद ली

पहाड़ के किसी गाँव में हँसते थे कुछ बच्चे
इक निज़ाम ने उनकी वो नादानी खरीद ली

वक़्त गुज़रा तो क़ातिलों से शहर भर गया
उन्होंने भी बादशाह की मेहरबानी खरीद ली

जुल्मों सितम के ठेकेदार हर मोहल्ले में हैं
बदजुबानों ने वज़ीर की मेजबानी खरीद ली

बड़ी मुश्किल से लिखी थी ज़िन्दगी की दास्तां
किसी ने दो कौड़ियों में मेरी वो कहानी खरीद ली

सच में……

कुछ लोगों ने मुल्क की जवानी खरीद ली
********

6.

चुप रहने का मौसम है, चुप रहा कीजिये
जो हो रहा है यहाँ, बस हो जाने दीजिए

ज़रूरी नहीं हर बात पर नुक्ताचीनी हो
गलत-सही, अब गलत ही हो जाने दीजिए

कब तक दीवारों से सर फोड़ते रहेंगे यारो
अब ओढ़ के चद्दर,थोड़ा सो जाने दीजिए

दरबारी सब मज़े में, हम नाहक हैं परेशां
दरबारी बनने का एक मौका मिलने दीजिये

छोड़िये पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों को
अच्छी सेहत के लिए पैरों को चलने दीजिए

राजा ने बनवाया होगा रहने को नया महल
हमें झोपड़ी में ही नल से जल पीने दीजिये

आयुष्मान होने का वरदान सबको मिल गया
अच्छे दिन आ गए, बस! खुशी से जीने दीजिए

7.

बेखबर ही सही आप, पर खबरदार हो के चलिए
बहुत सोच समझ के ही आज के लोगों से मिलिए

ये चुप रहने वाली नस्लें हैं कभी कभार ही जागती हैं
ये मूक बधिर हैं इनसे नए हालात पर कुछ न कहिये

सुना है सुबह के भूले शाम को घर लौट आते हैं
ये शाम को लौट आएंगे इस मुगालते में मत रहिये

जिस्म इंसानों के हैं इनके दिमाग पत्थरों के बने हैं
इन्हें समझा सकते हो तुम, इस सोच में मत रहिये

मीलों चल चुके हैं तय रास्ते पर ये आज के लोग
एक नहीं हुज़ूर अब तो कई कोल्हू के बैलों से मिलिए

8.

आओ जान ले ज़िंदगी का सच…

“वक़्त की कैद में तुम भी हो हम भी हैं”

न तुम हो आज़ाद परिंदे, न हम हैं आज़ाद परिंदे
मत भूलो वक़्त की क़ैद में, तुम भी हो हम भी हैं

न ही तुम हो बादशाह, न ही हम हैं गुलाम तुम्हारे
याद रखो वक़्त की क़ैद में, तुम भी हो हम भी हैं

ख़ुदा की क़ायनात में जैसे तुम हो, वैसे हम भी हैं
यही सच है वक़्त की क़ैद में, तुम भी हो हम भी हैं

जैसे तुम आए इस जहां में, वैसे हम भी आए हैं
मान ही लो वक़्त की क़ैद में, तुम भी हो हम भी हैं

जो न आया कभी और न गया, वो बस खुदा ही है
जान लो ये वक़्त की क़ैद में, तुम भी हो हम भी हैं

वक़्त की क़ैद में तुम भी हो हम भी हैं….

9.

हुकूमते हिन्दोस्तान उनसे संभलती नहीं
सिपहसालारों की दाल अब गलती नहीं

गुरबतों में डूबे हैं शहर के शहर यहाँ
किसी भी चौक पे शमां कोई जलती नहीं

मरते हों जवान सीमा पे तो मरते रहें रोज़
पर इनकी खोटी नियत कभी बदलती नहीं

साफ नियतों के वादे थे उनके सालों साल
पर फिजां कोई अब यहाँ महकती नहीं

यहाँ-वहाँ सब जगह उनके ही तो वज़ीर थे
फिर भी गरीब की रोटी से नज़र हटती नहीं

क्या पता था हमारी हसरतें हसरतें ही रहेंगी
सच ये कि आम आदमी की बात बनती नहीं

हुक़ूमते हिन्दोस्तान उनसे संभलती नहीं..
****

10.

शहर में अंधेरों के नए सौदागर आए हैं
चारों तरफ काले काले बादल छाए हैं

ये खरीद लेते हैं हर शय इस जहान की
ये अपने साथ बेशुमार दौलत लाए हैं

हर आदिल के ईमान को खरीद लिया है
जो नहीं बिके उन्हें पूरा कांट छांट आए हैं

बहुत गुमान हैं इन्हें तलवारों की धार पर
जहां से गुजरे वहीं एक दिया बुझा आए हैं

इन्हें यकीं है इन्होंने खुदा को खरीद लिया
सामने कब्रिस्तान हैं बस यही भूल आए हैं

शहर में अंधेरों के नए सौदागर आए हैं

11.

अगर मन में है कुछ तो फिर लिखते क्यों नहीं
कुछ है दिल में तुम्हारे तो फिर कहते क्यों नहीं

ख़ामोश हो तुम सहमे- सहमे से भी लगते हो
हुक्मरानों के ज़ुल्म तुम्हें फिर चुभते क्यों नहीं

डर ओ’ खौफ के साये में कब तक जियोगे तुम
एक बार अपने ज़मीर से तुम मिलते क्यों नहीं

हर मोड़ हर राह पर किस ख़ुदा को ढूंढ रहे हो
गर इंसां हो इक तो फिर तुम संभलते क्यों नहीं

कितना बाँधोंगे और अपनी उमंगों को ऐ दोस्त!
किसने रोका है परिंदों की तरह उड़ते क्यों नहीं

स्याही तुम्हारे सामने है और क़लम बेक़रार है
तो इस क़लम का एहतराम करते क्यों नहीं

अगर मन में है कुछ तो फिर लिखते क्यों नहीं

फिर लिखते क्यों नहीं,क्यों नहीं……………………….

12.

सच बोल नहीं सकता तो सच लिख”

गर हिम्मत नहीं तुझ में सचबयानी की
तो अल्फाज़ में ही कहीं सच लिख

देखता है तू ज़ुल्म की दास्तां हर ओर
ज़ुबाँ सिली है तो जो देखा वो ही लिख

मैख़ानों में सुना है सच बोलते हैं लोग
ख़ौफ़ है तो इक बार पी के ही लिख

कनारे हैं बहुत दूर उम्मीद भी नहीं अब
सांस है तो आस है इतना ही अभी लिख

न शुक्रगुज़ार थे पहले भी साहिबेआलम
अब भी मिज़ाज ऐसे हैं बस ऐसा लिख

वक़्त बदला तो उनके लहज़े बदल गए
मर गया आदिल सिर्फ़ इतना सच लिख

घायल हैं जिस्म और सब ओर बदहवासी
ज़िंदा नहीं तो मुर्दापरस्तों की तरह लिख

माना कब्रिस्तान का सन्नाटा है हर ओर
कब्र से निकल और रूहों की तरह लिख

हुक़्मरानों की शानोशौक़त के क्या कहने
टूटी ही सही पर कोई क़लम उठा के लिख

सच बोल नहीं सकता तो सच लिख
सच लिख, सच लिख
13.

मालूम था ज़िन्दगी में बुरा वक्त भी आएगा,,
दुआएं इसीलिए कुछ मैंने बचा रक्खी थी।

कोई फरिश्ता आएगा एक दिन घर मेरे,,
कुंडी इसीलिए हल्के से लगा रक्खी थी ।

डाले थे दालान में सूखने के लिए गेहूं,
पंछी आएंगे,कब से आस लगा रक्खी थी ।

बात करके तस्वीरों से, गुज़ार दी ज़िन्दगी ,
मिलेंगे कभी तो,इतनी प्यास बचा रक्खी थी।

वक़्त बे-वक़्त तेरी याद चली आती थी ,
तेरे ख़्वाबों के लिए कुछ नींद बचा रक्खी थी।

मालूम था ज़िन्दगी में बुरा वक्त भी आएगा,
दुआएं इसीलिए कुछ मैंने बचा रखीं थी।

——–

डॉ. सुषमा गजापुरे, नागपुर, महाराष्ट्र

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admin September 27, 2023
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