“ग़ज़ल का जो जनवादी चेहरा ग़ज़लकार – कवि डी एम मिश्र पाठकों को दिखाते हैं, वह अदम गोंडवी के बाद अन्यत्र लगभग दुर्लभ है। दूसरे शब्दों में कहें अदम के बाद के गांवों के बदलते हालात के जीवंत चित्र उसी मेयार पर इनकी ग़ज़लों में देखे जा सकते हैं। ”
सुशील कुमार की इस टिप्पणी के साथ पेश हैं डी एम मिश्र की गांव पर कुछ ग़ज़लें-
1.
गाँवों का उत्थान देखकर आया हूँ
मुखिया का दालान देखकर आया हूँ
मनरेगा की कहाँ मजूरी चली गई
सुखिया को हैरान देखकर आया हूँ
कागज़ पर पूरा पानी है नहरों में
सूख गया जो धान देखकर आया हूँ
कल तक टूटी छान न थी अब पक्का है
नया-नया परधान देखकर आया हूँ
लछमिनिया थी चुनी गयी परधान मगर
उसका ‘पती-प्रधान’ देखकर आया हूँ
बंगले के अन्दर में जाने क्या होगा
अभी तो केवल लॉन देखकर आया हूँ
रोज सदन में गाँव पे चर्चा होती है
‘मेरा देश महान’ देखकर आया हूँ
2.
बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है
धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती है
लॉग लगाये लूगे की, आँचल का फेंटा बाँधे वो
आधे वीर, आधे सिंगार रस में हिरनी-सी लगती है
कीचड़ की पायल पहने जब चले मखमली घासों पर
छम्म-छम्म की मधुर तान नूपुर की घंटी बजती है
किसी कली को कहाँ ख़बर होती अपनी सुंदरता की
यों तो कुछ भी नहीं मगर सपनों की रानी लगती है
किसी और में बात कहाँ वो बात जो चंद्रमुखी में है
सौ-सौ दीप जलाने को वो इक तीली-सी जलती है
खड़ी दुपहरी में भी निखरी इठलाती बलखाती वो
धूप की लाली, रूप की लाली दोनों गाल पे सजती है
3.
नम मिट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरा गाँव, शहर हो जाये ऐसा कभी न हो
हर इंसान में थोड़ी बहुत तो कमियाँ होती हैं
वो बिल्कुल ईश्वर हो जाये ऐसा कभी न हो
बेटा, बाप से आगे हो तो अच्छा लगता है
बाप के वो ऊपर हो जाये ऐसा कभी न हो
मेरे घर की छत नीची हो मुझे गवारा है
नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो
खेत मेरा परती रह जाये कोई बात नहीं
खेत मेरा बंजर हो जाये ऐसा कभी न हो
गाँव में जब तक सरपत है बेघर नहीं है कोई
सरपत सँगमरमर हो जाये ऐसा कभी न हो
सागर जितनी पीड़ा मन में, धैर्य भी उतना ही
मेरा दर्द मुखर हो जाये ऐसा कभी न हो
4.
किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये
हमारे गाँव से क्यों सादगी लेकिन चुरा लाये
बताओ चार पैसे के सिवा हमको मिला ही क्या
मगर सब पूछते हैं हम शहर से क्या कमा लाये
हज़ारों बार इस बाज़ार में बिकना पड़ा फिर भी
खुशी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये
तुम्हारी थाल पूजा की करे स्वीकार क्यों ईश्वर
ये सब बाज़ार की चीज़ें हैं, अपनी चीज़ क्या लाये
इसे नादानियाँ समझें कि क़िस्मत का लिखा मानें
समन्दर में तो मोती थे मगर पत्थर उठा लाये
इसी उम्मीद पर तो टूटती है नींद लोगों की
नयी तारीख़ आये और वो सूरज नया लाये
तुम्हारे हुस्न के आगे हज़ारों चाँद फीके हैं
तुम्हारे हुस्न को ही देखकर हम आइना लाये
5.
ग़ज़ल ऐसी कहो जिससे कि मिट्टी की महक आये
लगे गेहूँ में जब बाली तो कंगन की खनक आये
मेरे घर भी अमीरी चार दिन मेहमान बन जाये
भरे जोबन तेरा गोरी तो शाख़ों में लचक आये
नज़र में ख़्वाब वो ढालो कि उड़कर आसमाँ छू लें
जलाओ वो दिये जिनसे सितारों में चमक आये
दुखी मन हो गया तो भी मेरे आँसू नहीं सँभले
बहुत खुश हो गया तो भी मेरे आँसू छलक आये
क़लम से रास्ता लेकिन बनाया जा तो सकता है
बुझे तब प्यास जब गंगा मेरे अधरों तलक आये
6.
गांव भी अब कहाँ सुरक्षित है
अब यहाँ की हवा भी दूषित है
गांव में , गांव जैसा क्या है अब
घर भी अपना लगे अपरिचित है
अब इधर ख़्वाब भी नहीं आते
रात कैसे कटे अनिश्चित है
उसको ये दर्द सालता होगा
देश खुशहाल है , वो पीड़ित है
किसको अपनी व्यथा सुनाये वो
सारे अधिकार से जो वंचित है
हाकिमों उस ग़रीब को देखो
थोड़ी पेन्शन जो पा के पुलकित है
ऐसा संकट है अब भरोसे का
बाप, बेटे से भी सशंकित है
क्या हुई आपसी परस्परता
व्यक्ति अब सिर्फ़ आत्मकेंद्रित है
7.
यूँ ही रहा तो खेती करने वाले नहीं मिलेंगे
आगे चलकर गाँव में रहने वाले नहीं मिलेंगे
खेती करै वो भूखा सोये माल निठ्ल्ले चाभैं
किससे करूँ शिकायत सुनने वाले नहीं मिलेंगे
इस कच्ची मिट्टी की नमी सँजोकर रखना वरना
पौधे अपने आप पनपने वाले नहीं मिलेंगे
इन्सानियत अगर थोड़ी-सी बची रहे तो अच्छा
नहीं तो फिर दुख-दर्द समझने वाले नहीं मिलेंगे
जिधर उठाओ नज़र झूठ का डंका बजता यारो
इक दिन आयेगा सच कहने वाले नहीं मिलेंगे
जिसको देखो आसमान की बातें बस करता है
लगता है ज़मीन पर चलने वाले नहीं मिलेंगे
इंतिज़ार में नाहक पलकें आप बिछाये बैठे
ओह क़यामत तक ये मिलने वाले नहीं मिलेंगे
8.
शहर के ऐशगाहों में टँगे दुख गाँव वालों के
ग़ज़ब हैं जो अँधेरे में रचें नक्शे उजालों के
हमारे गाँव में खींची गयी रेखा ग़रीबी की
फिरे दिन इस बहाने हुक्मरानों के, दलालों के
तुम्हारी फ़ाइलों मे दर्ज क्या है वो तुम्हीं जानो
लगे हैं ढेर मलवे के यहाँ टूटे सवालों के
हुँआने का है क्या मतलब हमें मालूम है इतना
मरेंगे लोग तब ही दिन फिरेंगे गिद्ध-स्यालों के
ग़रीबी की नुमाइश के लिए तम्बू विकासों के
हमारे बाग़ में गाड़े गये ऊँचे ख़यालों के
9.
किससे कहूँ कि खेतों से हरियाली ग़ायब है
मेरे बच्चों के आगे से थाली ग़ायब है
निकली थी वो काम ढूँढने लौटी नहीं मगर
कब से खोज रहा हूँ मैं घरवाली ग़ायब है
कैसे मानूँ राम अयोध्या आज ही लौटे थे
चारों तरफ़ अँधेरा है दीवाली ग़ायब है
हम तो भूख-प्यास पर ताले मार के बैठे हैं
सुबह हुई है मगर चाय की प्याली ग़ायब है
उधर लुटेरे देश लूटकर देश से भाग रहे
चौकीदार सो रहा है रखवाली ग़ायब है
वो इन्साफ़ माँगने वाला स्वर क्यों मौन हुआ
क़त्ल हो गया होगा तभी सवाली ग़ायब है
10.
मेरा प्यार बेशक समंदर से भी है
मगर गाँव के अपने पोखर से भी है
किनारे जो लग करके डूबा सफ़ीना
कोई वास्ता क्या मुक़द्दर से भी है
तेरे इस चमन की हर इक शै है प्यारी
मुझे इश्क काँटों के बिस्तर से भी है
मेरे तन का बहता लहू बोल देगा
तअल्लुक़़ मेरा उनके ख़ंजर से भी है
बहस यूँ न छेड़ो कभी मज़हबों पर
तवारीख़ जुड़ती सिकंदर से भी है
तुम्हें दिख रहा है जो अख़लाक़ मेरा
नहीं सिर्फ़ बाहर से अंदर से भी है
डॉ. डी एम मिश्र, सुलतानपुर, उत्तरप्रदेश