(‘संवाद प्रकाशन,मेरठ से प्रकाशित रूपसिंह चन्देल के बहुचर्चित उपन्यास
‘क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां’ का अंश)
पराजय और प्रस्थान
नाना साहब और अजीमुल्ला के लखनऊ आगमन से लारेंस घबड़ाया हुआ था. वह हैवलॉक को सेना सहित लखनऊ की रक्षा के लिए आने के लगातार संदेश भेज रहा था. हैवलॉक ने नील को कानपुर आने के लिए लिखा. बीस जुलाई को नील चार सौ सैनिकों के साथ कानपुर आया. इलाहाबाद से खागा तक के गांवों को नील के आदेश पर रेनाड पहले ही आग के हवाले कर चुका था. गांव वालों को गोलियों से उड़ाया था और अनेक को पेड़ों से फांसी पर लटकाया था. हैवलॉक का आदेश पाकर नील जब उस मार्ग से अपने चार सौ घुडसवार सैनिकों के साथ कानपुर की ओर बढ़ रहा था तब जले गांवों और सड़क किनारे पेड़ों पर लटकी लाशों को देखकर उसे आंतरिक प्रसन्नता हो रही थी. लाशों को गिद्धों ने क्षत-विक्षत कर दिया था और उनसे तेज दुर्गन्ध आ रही थी. वह दुर्गन्ध नील को बुरी नहीं लग रही थी जबकि उसके कई सैनिकों को उलटियां होने लगी थी. सैनिकों की बिगड़ती तबीयत के कारण वह बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा था. अठारह जुलाई को वह औंग पहुंच गया. गांव सही सलामत देख उसके अंदर का हिंस्र पशु जागृत हो गया. उसने सैनिकों को आदेश दिया कि रास्ते के हर गांव का वही हाल किया जाए जैसा रेनाड ने किया था.
नील का आदेश पाकर सैनिक गांव में घुस गए. घरों को लूटकर वे उनमें आग लगाने लगे. बरसात में भीगे छप्परों में आग न पकड़ पाने पर वे घर के सामान जला देते. घर में जो भी पुरुष मिले उन्हें गोली मार देते. गांव के बाहर जो दिखाई दिए उन्हें पेड़ों से लटकाकर फांसी देते. उनका यह ताण्डव औंग,गुधरौली, सिउली, पुरवामीर, सिकठिया, नौगवां, काछी खेड़ा, प्रेमपुर, तिवारीपुर, सरसौल, महाराजपुर, रूमा और अहिरवां तक जारी रहा. उन्होंने इन सभी गावों के घरों को लूटा और अधिकांश को आग के हवाले किया. पकड़ में आए लोगों को गोली से उड़ाया या पेड़ों से लटकाकर फांसी दी. सिउली से कानपुर तक जी.टी. रोड किनारे का एक भी पेड़ ऎसा नहीं था जिनमें दो-चार लोगों को फांसी पर नहीं लटकाया गया था.
बीस जुलाई को नील कानपुर पहुंचा. हैवलॉक को उसकी बर्बरता के समाचार मिल रहे थे. उसने उसे कहा, “कानपुर में शांति है और आप ऎसा कुछ भी नहीं करेंगे, जिससे शांति भंग हो. हमें इन हिन्दुस्तानियों पर शासन करना है. प्रतिशोध आग को भड़काएगा. भले ही आज भयवश लोग शांत हो जाएगें, लेकिन उनके अंदर की आग शांत नहीं होगी और वह किसी न किसी दिन फिर जल उठेगी. इसलिए आप अपने को शांत करें और क्रान्तिकारियों से शहर की रक्षा का कार्यभार संभालें.”
“जी सर!” नील केवल इतना ही बोला. हैवलॉक के रहते वह शांत रहना चाहता था और प्रकट में दिखाना चाहता था कि अपने जनरल की बात का उस पर प्रभाव पड़ा था. लेकिन पचीस जुलाई को हैवलॉक के कानपुर छोड़ते ही नील ने अंग्रेज भक्त हिन्दुस्तानियों को बुलाकर ऎसे लोगों के विषय में सूचना देने के लिए कहा जो सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े रहे थे. उन लोगों ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए कितने ही उन लोगों के नाम भी बताए जिनकी क्रान्ति में कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन उनकी उनसे निजी शत्रुता अवश्य थी. उन सभी को पकड़ लिया गया.
बीबीघर हत्याकाण्ड से नील ही नहीं अन्य अंग्रेज भी क्रोधाग्नि में जल रहे थे. नील ने गिरफ्तार लोगों को आदेश दिया कि वे बीबी घर के रक्त को साफ करें. धार्मिक कारणॊं से हिन्दू और मुसलमानों ने उसे साफ करने से इंकार कर दिया. उसने उन पर कोड़े बरसाने के आदेश दिए. कोड़ों की असह्य पीड़ा से बचने के लिए वे रक्त साफ करने के लिए विवश हो जाते. जो उसके बाद भी विरोध करता उसे कोड़े मारते हुए जीभ से रक्त चाटकर साफ करने का आदेश दिया जाता. झुण्ड के झुण्ड लोगों को लाया जाता और उस रक्त को साफ करने के लिए कहा जाता. बाद में उन्हें छावनी के एक ओर ले जाकर गोली मार दी जाती थी. मुसलमानों को सुअर की खाल में सी दिया जाता या उनके शरीर पर सुअर की चर्बी मली जाती. दिनभर उन्हें उसी रूप में रखा जाता, बाद में गोली मार दी जाती. हिन्दुओं के मुंह में गाय का मांस भरा जाता या उनके शरीर पर गाय की चर्बी मली जाती. बाद में उन्हें भी गोली मार दी जाती.
क्रान्ति का प्रारंभ दूसरे नम्बर की पलटन ने किया था. जब उस पलटन का कोई सिपाही नील की पकड़ में आता उसे अमानवीय यातना देकर मारा जाता.
अजीमुल्ला खां को सेवस्तोपोल में मिलने वाला ’द टाइम्स’ के आयरिस युद्ध संवाददाता विलियम हावर्डा रसेल उन दिनों कानपुर में था. रसेल हिन्दुस्तानियों पर नील के अत्याचार देखता और उत्तेजित होता. वह नील को कहना चाहता कि चार दिनों में वह सैकड़ों लोगों की जानें ले चुका है. अब उसके प्रतिशोध की ज्वाला शांत हो जानी चाहिए, लेकिन कह नहीं सका. अट्ठाइस जुलाई को उसे रातभर नींद नहीं आयी. दिन में उसने जो वीभत्स दृश्य देखा था वह उसे बेचैन कर रहा था. उससे पहले भी उसने नील के सैनिकों द्वारा दो नम्बर पलटन के सिपाहियों को पकड़कर उन पर बेहरहमी से कोड़े बरसाकर उनकी खाल उधेड़ते हुए देखा था. उस उधड़ी खाल के स्थान पर नमक-मिर्च का छिड़काव करके वे उसे सड़क किनारे छोड़ देते थे. चौबीस घण्टे में वह सिपाही स्वतः मर जाता था, लेकिन यदि वह अधिक ही जीवट वाला होता और जिन्दा रहता तब वे उसे गोली मार देते थे. लेकिन रसेल ने इस बात पर गौर किया था कि एक भी सिपाही ने क्षमा नहीं मांगी थी. बल्कि हर कोड़े पर वे मुस्कराते रहते और ’भारत माता की जय’ ’क्रान्ति अमर रहे’ के नारे लगाते. जो सैनिक नहीं थे वे भी चुप रहकर असह्य पीड़ा सहते और जिन्हें पेड से लटकाकर फांसी दी जाती वे शांत भाव से फांसी पर लटक जाते थे. एक ने भी प्राणॊं की भीख नहीं मांगी थी. लेकिन उस दिन की घटना उसके लिए बिल्कुल ही अलग थी.
अंग्रेज सैनिकों को सूचना मिली कि पटकापुर के एक मकान में दो नम्बर पलटन का एक सैनिक है. मकान में बाहर से ताला बंद था. उस सैनिक को घर में पनाह देने के बाद परिवार गांव भाग गया था. अंग्रेज सैनिकों ने घर का ताला तोड़ा. सामने अंग्रेज सैनिकों को देख दो नम्बर पलटन के उस सैनिक ने उन पर बन्दूक तान दी. वह गोली चला पाता उससे पहले अंग्रेज सैनिकों ने उसे पकड़ लिया और खींचकर उसे रेतीली जमीन पर ला पटका. रसेल वहां उपस्थित था. उसे रेतीली जमीन पर पटककर उसपर चार सैनिक खड़े हो गए और उसके चेहरे और शरीर को संगीनों से गोदने लगे. दूसरे अंग्रेज सैनिकों ने उसके लिए चिता तैयार की. फिर उसे उठाकर चिता पर लिटा दिया. चिता को आग लगा दी गयी. चिता धू-धूकर जलने लगी. तभी रसेल देखकर हैरान रह गया कि आधा जला हुआ वह सैनिक चिता से उठ भागा था. रसेल को जो बात सोने नहीं दे रही थी वह थी उसके शरीर की हड्डियों से लटकता हुआ मांस. उसे पकड़कर नील के सैनिकों ने फिर आग में झोंक दिया गया था.
रसेल को एक दिन पहले की घटना भी याद आ रही थी. दूसरी नम्बर पलटन का दफ़ादार सफदरअली नील की पकड़ में आ गया था. उसने उसे बीबी घर के रक्त को जीभ से साफ करने का आदेश दिया. उसने इंकार कर दिया. उसे कोड़े मारे जाने का आदेश दिया गया. लेकिन सफदरअली ने उफ नहीं की. लहू-लुहान वह बेहोश होकर गिर गया. होश में आने पर उसे नील ने फिर अपना आदेश सुनाया. लेकिन सफ़दरअली टस से मस नहीं हुआ. अंततः खीजकर नील ने उसे बीबी घर के पास के बरगद के पेड़ पर लटाकाकर फांसी देने का आदेश दिया. तीस वर्ष बाद इसी सफ़दरअली के पुत्र मज़हरअली ने मध्य प्रदेश के आगर नामक छावनी में नील के पुत्र की हत्या करके पिता के खून का प्रतिशोध लिया था.
बीबी घर के पास के उस बरगद के पेड़ पर पांच दिन में एक सौ पचास से अधिक लोगों को फांसी दी गयी थी. पांच दिनों तक शहर में नील के सैनिकों का आतंक व्याप्त रहा और उन्होंने लगभग पांच हजार निर्दोष लोगों को गोली का शिकार बनाया था. मारे गए क्रान्तिकारियों की संख्या इन निर्दोष लोगों के अतिरिक्त थी.
नाना साहब के बरेली और तात्या टोपे और राव साहब के कालपी प्रस्थान के बाद भी कानपुर, बिठूर और उसके आसपास के क्षेत्रों में अशांति थी. सीताप्रसाद चन्देल, दुर्गाप्रसाद चन्देल, दरियावचन्द गौर, नरपति सिंह और जोधा सिंह आदि ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. अंग्रेज जब भी किसी तहसीलदार या थानेदार को नियुक्त करते ये क्रान्तिकारी उनकी हत्या कर देते थे. इस बीच तात्या टोपे ग्वालियर की सेना की सहायता प्राप्त करने में सफल रहे थे. उनके पास बीस हजार सैनिकों की विशाल सेना हो गयी थी. उनकी दृष्टि कानपुर की गतिविधियों पर लगी हुई थी. उनके गुप्तचर क्षण-क्षण की सूचना उन्हें दे रहे थे. लखनऊ में क्रान्तिकारियों के साथ अंग्रेजों का भीषण युद्ध चल रहा था. तात्या टोपे को सूचना मिली कि कानपुर का प्रधान सेनापति कैम्पबेल लखनऊ की सहायता के लिए जाने वाला है. उन्होंने पहले ही व्यूह रचना कर ली थी. उन्होंने भोगनीपुर में बारह सौ क्रान्तिकारी, शिवली में चार हजार क्रान्तिकारी सैनिक और चार तोपें और शिवराजपुर में तीन हजार सैनिक और चार तोपें तैनात कीं. इन मोर्चाबन्दियों का उद्देश्य अंग्रेजों को रोकना था. कैंपबेल के लखनऊ प्रस्थान के अगले दिन उन्होंने आक्रमण करने का निर्णय किया. कैंपबेल ने कानपुर की रक्षा का भार सेनापति विंडहम को सौंपा. उसके पास तीन हजार अंग्रेज सैनिक और दो सौ पचास सिख सैनिक थे. भौंती के पास विंडहम और तात्या टोपे की सेनाओं का भीषण युद्ध हुआ. अंग्रेजों को पीछॆ हटना पडा. विंडहम ने जूही के मैदान में पडाव डाला, लेकिन तात्या टोपे ने दो ओर से उसकी सेना पर अचानक आक्रमण कर दिया. अंग्रेजी सेना भाग खड़ी हुई. विंडहम के सैनिक इतना हताश और थके हुए थे कि वे मालखाने में घुस गए और उन्होंने शराब की बोतलें लूट लीं. तात्या टोपे की सेना लगातार अंग्रेजी सेना का पीछा कर रही थी. कानपुर के इस युद्ध में तात्या टोपे को ग्यारह हजार कारतूस, पांच सौ तम्बू, घोड़े की जीनें, फौजी यूनीफार्म, और पांच लाख रुपए मिले थे.
तात्या टोपे की विजय का समाचार लखनऊ की ऒर बढ़ रहे कैंपबेल को मिला. वह लौट पडा. विंडहम को पराजित करने से क्रान्तिकारियों का उत्सह आसमान पर था. तात्या टोपे ने कानपुर के पुनः स्वतंत्र होने और नाना साहब के कानपुर का राजा होने की घोषणा की. शहर में सैनिक चौकियां स्थापित की जाने लगीं.
कैंपबेल ने गंगा पुल पार किया और छावनी में पड़ाव डाला. उस समय कैंपबेल के साथ होप ग्रंट और वालपोल जैसे सेनानी थे जिन्हें अनेक युद्धों का अनुभव था. नहर के निकट दोनों सेनाओं ने अपने-अपने मोर्चे स्थापित किए. अंग्रेजी सेना ने तोपें दागनी प्रारंभ कर दीं जिनका उत्तर तात्या टोपे की तोपों ने दिया. दोनों सेनाओं के बीच नहर बह रही थी. दिनभर भयानक युद्ध होता रहा. अंग्रेजों की तोपों के सामने तात्या टोपे की तोपें कामयाब नहीं हो पा रही थीं. तात्या टोपे ने अपनी सेना को पीछे हटने का आदेश दिया. उनकी सेना सरैयां घाट के पास गंगा पर कर रही थी. होपग्रंट ने उनकी सेना पर आक्रमण करके से भारी क्षति पहुंचाई. तात्या टोपे की सेना गंगा पार करके फतेहपुर चौरासी की ओर चली गयी.
होपग्रंट कानपुर लौटने ही वाला था कि तभी उसे एक गुप्तचर अंगूरी तिवारी ने नाना साहब के कुंआ में पडी विशाल सम्पत्ति की सुचना दी. अपनी सेना के साथ वह बिठूर के लिए रवाना हुआ. उसने कुंआ का निरीक्षण किया. कुंआ बहुत गहरा और विशाल था. इसके लिए उसने सेना के इंजीनियरिंग विभाग के लेफ्टीनेंट मालकम को बुलाया और कुंआ से नाना की सम्पत्ति निकालने का काम सौंपा. मालकम ने कुंआ में चार गर्रियां लगवायीं और कुंआ का पानी निकालने का काम प्रारंभ किया. ग्यारह दिनों तक रात दिन पुरों से पानी निकाला जाता रहा. बारहवें दिन पानी कम हुआ. सम्पत्ति निकालने के काम में होपग्रंट ने अपनी सेना के हिन्दुस्तानी सैनिकों को कुंआ में उतारा. उन्हें आश्वासन दिया गया कि सारी सम्पत्ति निकालने के बाद उन्हें एक एक हजार रुपए इनाम दिया जाएगा. कुंआ से सम्पत्ति निकालने को देखने के लिए कानपुर का डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट शेरर भी आया हुआ था.
कई दिनों तक कुंआ से सम्पत्ति निकाली जाती रही. कई पेटियों में तीस लाख रुपए के सोने-चांदी के सिक्के, सोने और चांदी की ढेरों थालियां तथा सोने और चांदी की जेवरात थी. कई करोड़ की सम्पत्ति कुंआ से निकली. सारी सम्पत्ति निकलने के बाद होपग्रण्ट ने निकालने वाले सैनिकों को कहा, “इसे सरकारी खजाने में जमा किया जाएगा और इसके बारे में गवर्नर जनरल को सूचित किया जाएगा. आप सभी को इनाम देने के लिए उनकी अनुमति लेना आवश्यक है.”
होम ग्रण्ट की बात सुनकर शेरर बोला, “आपने सैनिकों को पहले यह सब क्यों नहीं बताया था. यह उनके साथ ज्यादती है.”
“मिस्टर शेरर, यह फौजी मामला है. कृपया आप हस्तक्षेप न करें. मैंने उन्हें इनाम देने से इंकार नहीं किया, लेकिन गवर्नर जनरल से अनुमति लेना आवश्यक है. यह सरकारी सम्पत्ति है, जिससे मैं एक रुपया भी उनकी अनुमति के बिना नहीं ले सकता.”
कुंआ से सम्पत्ति निकालने वाले सैनिक निराश हो गए थे. जानते थे कि उन्हें वह इनाम कभी नहीं दिया जाएगा.
होप ग्रण्ट नाना साहब से इतनी घृणा करता था कि उसने उनके जले और तोपों से ध्वस्त बाड़ा का मलबा हटवाकर उस पर हल चलवाया था.
अजीमुल्ला खां और नाना साहब ने जब बिठूर से बरेली के लिए प्रथान किया तब उनके साथ दो सौ क्रान्तिकारी थे. जाड़ा प्रारंभ हो चुका था. इसलिए नाना साहब ने शिवराजपुर में जाड़ा बिताने का निर्णय किया. ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली भी नाना साहब से आ मिले थे. सतीप्रसाद चन्देल ने सभी के लिए बेहतर व्यवस्था की. अजीमुल्ला खां का गुप्तचर प्रमुख जगंबहादुर और उसके अधीन काम करने वाले आठ गुप्तचर भी उनके साथ थे. जंगबहादुर के गुप्तचर हर दिन अंग्रेजी सेना की गतिविधियों के सामाचार ला रहे थे. उस समय अंग्रेजों का सारा ध्यान कानपुर, बिठूर की सुरक्षा और लखनऊ के युद्ध में केन्द्रित था.
उस वर्ष होली अट्ठाइस फरवरी को थी. लेकिन किसी ने भी होली का त्योहार नहीं मनाया. शिवराजपुर की जनता ने भी प्रतीकात्मक रूप से ही होली मनायी. मार्च के पहले सप्ताह नाना साहब ने शिवराजपुर से प्रस्थान किया और पचीस मार्च को बरेली पहुंचे. बरेली का शासक खानबहादुर खां रुहेलखण्ड के क्रान्तिकारियों का नेता था. उसने नाना का स्वागत किया और उन्हें बरेली कॉलेज में ठहराया. अजीमुल्ला खां बरेली को क्रान्ति का केन्द्र बनाना चाहते थे, लेकिन उन्हें वहां हिन्दू-मुस्लिम विवाद के चरम पर होने की जानकारी मिली. यह विवाद गाय काटने को लेकर था. अजीमुल्ला खां ने स्थिति की गंभीरता को समझा.
“क्या आप यहां के मौलवियों के साथ हमारी मुलाकात करवा सकते हैं?” अजीमुल्ला खां ने खानबहादुर खां से कहा.
“बेशक. आपसे मिलने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.”
“यदि पेशवा साहब साथ रहेंगे तो—!.”
“उन्हें परेशानी हो सकती है.”
“खां साहब” अजीमुल्ला खां बोले, “जब तक दोनों कौमों में एकता नहीं होगी, हम क्रान्तिकारी कार्यों में सफल नहीं हो सकते. अंग्रेज हमारी एकता को नष्ट करने की साजिशें कर रहे हैं. मुझे मेरे गुप्तचर ने बताया है कि अंग्रेजों ने कैप्टन गोवेम को दोनों समुदाय के लोगों को एक दूसरे के खिलाफ भड़काने का काम सौंपा है. जब तक दोनों समुदाय एक नहीं होंगे क्रान्ति सफल नहीं होगी. रुहेलखण्ड की रक्षा सभी के मिलकर रहने से ही हो सकती है.”
“जनाब, मैं आपकी बात से इत्तिफ़ाक रखता हूं. मैंने भरसक कोशिश की, लेकिन दोनों ही समझने को तैयार नहीं हैं.”
“आप मेरी मुलाकात का इंतजाम करें. मैं कोशिश करके देखना चाहता हूं. पहले मौलवियों से मिलूंगा उसके बाद हिन्दू नेताओं और पुजारियों से.”
अगले ही दिन सुबह वहां की एक मस्जिद में नगर के प्रमुख मौलवियों और अजीमुल्ला खां की मुलाकात हुई. अजीमुल्ला खां के समझाने का मौलवियों पर प्रभाव हुआ और उन्होंने उसी दिन से गाय काटने पर रोक लगाने की घोषणा करने के लिए हामी भरी. वह छब्बीस मार्च जुमे का दिन था. दोपहर नमाज के बाद जामा मस्जिद के इमाम ने सभी मुसलमानों को सम्बोधित करते हुए कहा कि उस क्षण के बाद गाय नहीं काटी जाएगी. इमाम की घोषणा कुछ ही देर में शहर के एक छोर से दूसरे छोर और रात तक आसपास के गांवों में फैल गयी. अगले दिन बरेली कॉलेज में हिन्दुओं के नेताओं और धर्म गुरुओं की बैठक नाना साहब के साथ हुई. अजीमुल्ला खां भी साथ थे. सभी ने आपसी सौहार्द्र बनाए रहने का वचन दिया.
नाना साहब के बरेली पहुंचने के बाद वहां क्रान्तिकारी सैनिकों की संख्या बढने लगी. उन्होंने क्रान्तिकारियों के चयन का कार्य अजीमुल्ला खां,ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली को सौंपा. अजीमुल्ला खां की परीक्षा में खानबहादुर खां द्वारा पहले से नियुक्त बहुत से सैनिक असफल रहे. उन्हें निकाल दिया गया और उनके स्थान पर अवध से आ रहे क्रान्तिकारियों को भर्ती किया गया. कुछ ही समय में नाना साहब के पास बारह हजार सैनिक हो गए. नाना साहब के बरेली पहुंचने के बाद दो घटनाएं हुईं. वहां के बारूदखाना में आग लगने से तिरसठ लोगों की मृत्यु हो गयी. कई दिनों तक शहर में काला धुंआ छाया रहा. खानबहादुर खां दमे का मरीज था. उस धुंए से वह बीमार हो गया. उसने अपने स्वस्थ होने तक नाना साहब को बरेली का शासन संभालने के लिए अनुरोध किया. नाना साहब ने उसके अनुरोध को स्वीकार किया और शासन की बागडोर संभालते हुए अजीमुल्ला खां को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी घोषित किया. अजीमुल्ला खां ने बरेली के आसपास के किलों की मरम्मत करवाना प्रारंभ किया. बदायूं के निकट बिसौली के किले को सुदॄढ करके उन्होंने उसपर चार तोपें लगवा दीं, जिससे यदि अंग्रेजों की सेना अवध की ओर से आए तो उसे वहीं रोका जा सके.
क्रान्तिकारियों को जब अपने प्रिय नेता नाना साहब और अजीमुल्ला खां के बरेली में होने के समाचार मिले तब चारों ओर वे बरेली पहुंचने लगे. नाना साहब के एक माह के बरेली के शासन के दौरान वहां क्रान्तिकारी सेना की संख्या एक लाख तक पहुंच गयी. इसी दौरान लखनऊ का युद्ध हारने के बाद मौलवी अहमद शाह शाहजहांपुर की ओर बढे. उन्हें यह सूचना थी कि नाना साहब और अजीमुल्ला खां बरेली में हैं और उनके पास विशाल सेना है. उन्होंने शाहजहांपुर में आक्रमण के लिए उनसे सहायता मांगी. नाना साहब ने अजीमुल्ला खां और ज्वाला प्रसाद के नेतृत्व में बीस हजार सैनिक भेजे. शाहजहांपुर में मौलवी अहमद शाह का अधिकार हो गया. वहां उनके अधिकार के बाद अजीमुल्ला खां अपनी सेना के साथ बरेली वापस लौट आए.
अजीमुल्ला खां और नाना साहब को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने पचास पचास हजार रुपयों के इनाम की घोषणा कर रखी थी. उन्होंने खानबहादुर खां को भी यह संदेश भेजा कि यदि वह उन दोनों को उनके हवाले कर देगा तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा. लेकिन खानबहादुर खां अंग्रेजों को लिखा कि वह एक देशभक्त है और वह वैसा नहीं करेगा. अंग्रेजों ने इनाम की राशि बढाकर एक लाख कर दी और उन दोनों को उनके सुपुर्द करने वाले को क्षमा करने के साथ उसका राज्य उसके पास ही रहने देने का प्रलोभन दिया, लेकिन इस अभियान में भी वे असफल रहे. अंततः कैंपबेल ने चारों ओर से बरेली पर आक्रमण करने का निर्णय किया. बरेली से तेरह मील दूर फरीदपुर में नाना साहब ने, खानबहादुर खां, अजीमुल्ला खां, ज्वालाप्रसाद, और मोहम्मद अली ने अपनी विशाल सेना के साथ मोर्चा संभाला. वालपोल के अधिनायकत्व में अंग्रेजों ने उन पर आक्रमण किया. इस युद्ध में गाजियों ने ’दीन-दीन’ के नारे लगाते हुए अंग्रेजों पर भीषण आक्रमण किया. वालपोल और उसका सहायक सेनापति केमरान घायल हो गए. लेकिन उन्होंने मैदान नहीं छोडा. खानबहादुर खां अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं था. उसे युद्ध का अनुभव भी नहीं था और न ही उसके सैनिकों को था. वे पीछे हटने लगे. उन्हें पीछे हटता देखकर दूसरे क्रान्तिकारी सैनिक भी पीछे हट गए और जीत के बिल्कुल निकट पहुंचकर क्रान्तिकारी सेना युद्ध हार गयी.
क्रान्तिकारियों को पीछे हटता देख अजीमुल्ला खां ने नाना साहब को सुरक्षित निकलने की सलाह दी. बरेली पहुंचकर अजीमुल्ला खां ने नाना साहब से सलाह लेकर घोषणा की कि जो सैनिक उनके साथ चलना चाहते हैं चलें. लेकिन अधिकांश क्रान्तिकारी सैनिक युद्धस्थल से ही तितर-बितर हो गए थे. नाना साहब और अजीमुल्ला खां के साथ वे ही दो सौ क्रान्तिकारी सैनिक रहे, जो उनके साथ बिठूर से बरेली आए थे. घाघरा नदी पारकर नाना साहब सभी के साथ बहराइच की ओर बढे, गुप्तचरों की सूचना के अनुसार जहां नानपारा के किले में उनका परिवार था. अंग्रेजों को अपने गुप्तचरों से उनके नानपारा के किले की ओर जाने की सूचना मिली. अजीमुल्ला खां को जंगबहादुर और उसके सहायकों ने सूचित किया कि लार्ड क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना नानपारा की ओर बढ रही है. नाना साहब ने किला छोड़ दिया. उन्होंने अपने परिवार को नेपाल भेज दिया था, जिसे वहां के प्रधानमंत्री राणा जंगबहादुर ने नहीं रोका था, लेकिन उसने उन लोगों को सुरक्षा भी नहीं प्रदान की थी. नाना साहब का परिवार जंगल में रहने के लिए विवश था.
नाना साहब और अजीमुल्ला खां ने अपनी सेना और साथियों के साथ चर्दा राज्य के बरोदिया नामक किला में पडाव डाला. चर्दा के राजा ने उनके खाने पीने की व्यवस्था की. वहीं राणा बेनीमाधव नाना साहब से अपनी सेना के साथ आ मिले. नाना साहब ने अपनी सेना का नेतृत्व अजीमुल्ला खां को सौंपा बावजूद इसके कि उनके साथ ब्रिगेडियर ज्वाला प्रसाद भी थे. दरअसल उस समय गुप्तचरों की सेवा का महत्व बढ गया था. बरोदिया में वे कुछ दिन ही रुक सके कि गुप्तचरों ने अंग्रेजों के उधर बढने की सूचना दी. नाना साहब और सभी बंकी पहुंचे. बरोदिया का किला खाली पाकर अंग्रेजों ने उसे नष्ट कर दिया और चर्दा के राजा को गिरफ्तार कर लिया. अंग्रेजी सेना के बंकी की ओर बढने की सूचना अजीमुल्ला खां के गुप्तचरों को प्राप्त नहीं हुई. लेकिन वे निश्चिंत भी नहीं थे. अंग्रेजों ने उन पर आक्रमण किया, लेकिन वह एक मामूली झडप थी. बंकी की झड़प के बाद नाना साहब और उनके साथ के लोग जंगल में चले गये, जहां अंग्रेजी सेना के लिए प्रवेश करना असंभव था. तभी अजीमुल्ला खां को अपने गुप्तचरों से सूचना मिली कि बेगम हजरत महल अपने कुछ सैनिकों और मेंहदी हसन के साथ जंगल के निकट पहुंच चुके हैं. अजीमुल्ला खां ने गुप्तचरों के साथ अपने सैनिक भेजकर बेगम हजरत महल, मेंहदी हसन और उनके सैनिकों को उस घने जंगल में बुला लिया. जंगल के एक ओर हिमालय की चोटियां थीं तो दूसरी दलदल और तालाब थे. भयानक ठंड थी. वहां अधिक दिनों तक रहना कठिन था. अंततः वे सब नेपाल की ओर बढे. लेकिन राप्ती नदी के पास अंग्रेजी सेना उनका इंतजार कर रही थी.
इकतीस दिसम्बर अठारह सौ अट्ठावन का वह जबर्दस्त ठंडा दिन था. हिमालय की ओर से बर्फीली हवा चल रही थी. सुबह ग्यारह बजे तक घना कोहरा छाया रहा था. दिन चढने के साथ जब कोहरा छंटने लगा तब क्रान्तिकारी जंगल से बाहर निकले. अजीमुल्ला खां को सूचना थी कि अंग्रेजी सेना घात लगायी बैठी थी. लेकिन जंगल में भयंकर ठंड और मच्छरों के आतंक का सामना करने से बेहतर युद्ध करना था. जंगल से बाहर निकलते ही अंग्रेजी सेना ने क्रान्तिकारियों पर आक्रमण कर दिया. उनके आक्रमण को बचाते हुए घुडसवार क्रान्तिकारी सेना राप्ती नदी पार करने लगी. घुडसवार अंग्रेजी सेना भी राप्ती में उतर गयी. राप्ती के तेज बहाव और बर्फीले पानी में भयनाक युद्ध होने लगा. अजीमुल्ला खां, ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली घोड़ों पर सवार सैनिकों का हौसला बढ़ा रहे थे और अंग्रेजों पर आक्रमण भी कर रहे थे वहीं नाना साहब, बेगम हजरत महल और राणा बेनी माधव अपने हाथियों पर सैनिकों को निर्देश दे रहे थे. दोनो ही ओर के कितने ही सैनिक राप्ती के तेज धारा में बह गए थे.
सूर्यास्त तक युद्ध होता रहा. गहन अंधकार में युद्ध संभव न था. क्रान्तिकारियों ने इसका लाभ उठाया और राप्ती पार करके नेपाल की तराई में पहुंच गए. नेपाल की सीमा में प्रवेश करते ही क्रान्तिकारी सेना पर गोरखा सैनिकों ने आक्रमण कर दिया. नाना साहब, बेगम हजरत महल या अन्य लोगों ने यह नहीं सोचा था कि नेपाल में उन पर आक्रमण हो सकता है. वे इसके लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं थे. क्रान्तिकारियों के उस दल में बेनीमाधव और उनके सैनिक आगे थे, उनके पीछे नाना साहब के सैनिक, उनके साथ हाथी पर सवार नाना साहब,बाला साहब और बाबा भट थे. उनके बगल में घोड़ों पर अजीमुल्ला खां, ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली तथा उनके पीछे हाथी पर बेगम हजरत महल और उनके सैनिक थे. गोरखा सैनिकों ने आगे चल रहे बेनीमाधव को घेर लिया और उन पर तलवारों से आक्रमण कर दिया. एक सैनिक की तलवार बेनीमाधव की गरदन में लगी और वह अपने घोड़े से नीचे गिर गए. गिरते ही उनकी मृत्यु हो गयी. बेनीमाधव के सैनिकों ने उस सैनिक सहित दो अन्य गोरखा सैनिकों को मार दिया. अपने सैनिकों की मरता देख शेष गोरखा सैनिक भाग गए. आगे बढते हुए क्रान्तिकारियों के साथ गोरखा सैनिकों की दो और झड़पें हुईं. हालांकि वे साधारण झड़पें थीं, लेकिन तीसरी झड़प में जगदीश पुर के बुजुर्ग क्रान्तिकारी कुंवर सिंह के छोटे भाई अमर सिंह को गोरखा सैनिक पकड़कर ले जाने में सफल रहे थे. राणा जंग बहादुर ने अमर सिंह को कैद कर लिया. बाद में उसने उन्हें अंग्रेजों को सौंप दिया था. अंग्रेजों ने उन्हें गोरखपुर जेल में कैद किया जहां उनकी मृत्यु हो गयी थी.
नेपाल पहुंचने के बाद नाना साहब ने अपने परिवार के विषय में जानकारी प्राप्त की. जल्दी परिवार उनसे आ मिला. उन्होंने अपने साथ आए क्रान्तिकारियों को सम्बोधित करते एक दिन कहा, “मित्रो, आगे का जीवन बहुत कठिन है. राणा जंग बहादुर ने लिखा है कि हम नेपाल से चले जाएं. लेकिन हम यहां से नहीं जाएगें. जंगलों में रहेंगे, जहां जीवन बहुत कठिन है. जो मेरे साथ कष्टकर जीवन जीना चाहते हैं वे ही रुकें और जो जाना चाहते हैं वे स्वतंत्र हैं.”
नाना साहब के यह कहने के बाद उनके साथ अजीमुल्ला खां, बाला साहब, बाबा भट, ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली तथा कुछ ऎसे क्रान्तिकारी रह गए जो किसी भी स्थिति में अपने पेशवा का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे. नाना साहब और बेगम हजरत महल जंगल में आसपास एक-दूसरे से कुछ दूरी पर शिविर स्थापित करके रहने लगे. कुछ दिनों बाद राणा जंगबहादुर ने बेगम हजरत महल को शरण प्रदान करते हुए उनके रहने की व्यवस्था कर दी. अंग्रेजों ने जब उस पर बेगम हजरत महल को सौंपने का दबाव बनाया तब उसने उन्हें दो टूक कहा, “हमारी परम्परा में हमें महिलाओं की रक्षा करना सिखाया जाता है. मैं बेगम साहिबा को आपको नहीं सौंपूंगा.” लेकिन वह अंग्रेजों के परम शत्रु नाना साहब के प्रति उदार नहीं हो था.
प्रायः नाना साहब के शिविर में गोरखा सैनिक आक्रमण करते. अजीमुल्ला खां लगातार किसी गांव में बसने के लिए राणा जंगबहादुर को लिख रहे थे लेकिन राणा उनके पत्रों के उत्तर में एक ही बात लिखता कि वे सब नेपाल से बाहर चले जाएं. नाना साहब के पास जंगल में रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था. जंगल में हर क्षण कीड़ों-मकोड़ों का खतरा रहता. जंगली जानवरों का भय अलग था. वहां की जलवायु स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकर थी. लेकिन सर्वाधिक असह्य स्थिति भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं के अभाव की थी. उनके पास रसद समाप्तप्रायः था. मच्छरों का प्रकोप इतना था कि कई क्रान्तिकारियों को मलेरिया हो गया और उनकी मृत्यु हो गयी. ऊपर से गोरखा सैनिकों के आक्रमण. नाना साहब को शिविर बदलने पड़ रहे थे. जून 1859 के पहले सप्ताह में नाना साहब ने दूसरा शिविर बुटवल के निकट डोकर नामक स्थान के पास जंगल में स्थापित किया. शिविर स्थापित करने के पांचवे दिन बाद बाला साहब को तीव्र ज्वर ने आ घेरा. बुटवल के वैद्य ने उन्हें मलेरिया बताया. लेकिन उसके उपचार से लाभ नहीं हुआ. अंततः बीस जून को बाला साहब की मृत्यु हो गयी. बाबा भट ने उन्हें मुखाग्नि दी और अल्प साधन में उनका क्रियाकर्म किया गया. लेकिन उनके क्रियाकर्म के चौथे दिन बाबा भट भी अस्वस्थ हुए और एक सप्ताह बाद उनकी भी मृत्यु हो गयी. जिस दिन बाबा भट की मृत्यु हुई उसी दिन नाना साहब को राणा जंग बहादुर का मिला. पत्र में उसने लिखा था, “मान्यवर, मैंने आपकी बहुत प्रशंसा सुनी है. मैं आपकी बहादुरी से प्रभावित हूं, आपने अपने देश को आजाद कराने के लिए जो कुछ किया उससे इतिहास में आप अमर रहेंगे. लेकिन मेरी अपनी कुछ विवशताएं हैं. मैं आपको अपने यहां रहने की अनुमति देकर अंग्रेजों से शत्रुता मोल नहीं ले सकता, क्योंकि आप, अजीमुल्ला खां, ज्वाला प्रसाद, तात्या टोपे, आपके भाइयों को अंग्रेज अपना सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं. इसलिए आपसे अनुरोध है कि आप नेपाल की धरती छोड़कर जहां चाहें जाकर रहें.”
अजीमुल्ला खां ने पत्र पढकर नाना साहब को सुनाया. पत्र सुनकर नाना साहब गंभीर चिन्ता में डूब गए. ’कैसी विडंबना है कि अपने देश की आजादी चाहने वाले को दर-दर भटकना पड़ रहा है. और हमारा धर्म-बन्धु हमें अपने देश से चले जाने के लिए दबाव बना रहा है.”
नाना साहब एक शिविर से दूसरे शिविर में भटकते हुए थक चुके थे. जीवन दिन-प्रतिदिन कठिन से कठिनतर होता जा रहा था. अक्टूबर में मौसम ठंडा होने लगा. नाना साहब सहित उनके सभी सहयोगियों के कपड़े पुराने हो चुके थे. नाना के परिवार की महिलाओं के पास कुछ जेवर थी, लेकिन वह उन्हें बाजार में बेंच नहीं पा रहे थे. उसके लिए अजीमुल्ला खां ने राणा जंगबहादुर को पत्र लिखा:
“मान्यवर राणा जंगबहादुर जी,
प्रधानमंत्री, नेपाल सरकार।
“नाना साहब की माता जी के पास कुछ जेवर हैं, जिन्हें नाना साहब बेंचना चाहते हैं, जिससे आगामी ठंड से बचने के लिए सभी के लिए गर्म कपडे खरीदे जा सकें. शिविर में खाद्य सामग्री भी खत्म हो रही है. कॄपया उसे बिकवाने में हमारी सहायता करें.”
हस्ताक्षर-
अजीमुल्ला खां
मंत्री और सलाहकार, पेशवा नाना साहब.
राणा जंगबहादुर उससे पहले नाना साहब को सम्बोधित करता हुआ पत्र लिखता था. उसके पत्र के उत्तर नानासाहब की ओर दिया जाता. लेकिन यह पत्र अजीमुल्ला खां की ओर उसे लिखा गया जिसमें अजीमुल्ला खां द्वारा अपने को नाना साहब का मंत्री और सलाहकार लिखना उसे चुभा. उसने उत्तर में अजीमुल्ला खां को लिखा:
“नाना साहब के मंत्री और सलाहकार अजीमुल्ला खां साहब,
मैं आप लोगों की किसी भी प्रकार की सहायता नहीं कर सकता. नाना जी को कई बार नेपाल से चले जाने के लिए लिख चुका हूं. मुझे आशा है कि आप स्थिति की गंभीरता को समझेंगे और नेपाल छोड़ देंगे.”
हस्ताक्षर,
राणा जंगबहादुर
प्रधानमंत्री, नेपाल सरकार
अजीमुल्ला खां ने पत्र नाना साहब को पढकर सुनाया. नाना साहब ने दीर्घ निश्वास लेते हुए कहा, “राणा के पत्र में व्यंग्य और धमकी दोनों हैं.”
“जी महाराज, लेकिन हम यहां से नहीं जाएंगे.”
नाना साहब ने कोई ऊत्तर नहीं दिया.
इस घटना के तीसरे दिन अजीमुल्ला खां को तेज बुखार हुआ. वैद्य ने नाड़ी, हॄदयगति देखा और कहा, “इन्हें भी मलेरिया हुआ है महाराज.” उसने तीन दिन की दवा देते हुए कहा, “पेशवा साहब, आप लोगों के लिए यह जंगल काल है. आपके अपने कई लोग मलेरिया का शिकार होकर काल-कलवित हो चुके हैं.”
नाना वैद्य की ओर देखते रहे. उत्तर नहीं दिया.
नाना साहब के पास उंगली में पहनी अंगूठी बची थी. उंगली से अंगूठी उतारकर जब वह वैद्य को देने लगे वह बोला, “महाराज, यह आपकी उंगली में ही शोभा देती है. आप इसे पहने रहें. नेपाल का प्रधानमंत्री डरपोक और हृदयहीन है लेकिन आप और आपके लोग नेपाल के लोगों के हृदय में राज करते हैं. जनता राणा जंगबहादुर से डरती है वर्ना आप जंगल में न पड़े रहे होते.”
नाना साहब सोच रहे थे, ’इंसानियत जिन्दा है.’
वैद्य की दवा से अजीमुल्ला खां का ज्वर कम नहीं हुआ. बल्कि तेज होता गया. दूसरे दिन वह सरसाम की स्थिति में पहुंच गए. ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली उनके निकट थे. अजीमुल्ला खां रह-रहकर सिर झिटक रहे थे और कुछ न कुछ बुदबुदा रहे थे. सरसाम की स्थिति में पहले उन्हें अपने पिता मुक्की मुल्ला खां दिखाई दिए, फिर मां और उसके बाद नाना साहब और तात्या टोपे, फिर एक भीड़ जिसमें अजीजन, शम्सुद्दीन और टीका सिंह थे. “अब्बा-अम्मी मैं आ रहा हूं.” वह बुदबुदाए, “आप दोनों हवा में तैर क्यों रहे हैं. मेरे पास आओ अब्बा-अम्मी. मैं तैयार हो रहा हूं.” इतना कहने के बाद उन्होंने तेजी से अपना सिर झिटका और शांत हो गए.
ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली ने नाना साहब को अजीमुल्ला खां की बिगड़ती हालत के विषय में बताया. नाना साहब अजीमुल्ला खां के सिरहाने आ बैठे और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, “मेरे प्यारे भाई अजीम, तुम ऎसा नहीं कर सकते. तुम ठीक हो जाओगे.” नाना साहब का स्वर सुनकर या उन्हें उस क्षण कुछ होश आया, अजीमुल्ला खां ने नाना साहब की ओर एक क्षण के लिए देखा और बुदबुदाए, “महाराज—-.” वह आगे कुछ कहना चाहते थे लेकिन फिर बेहोश हो गए. नाना साहब उनके और निकट उनके गद्दे पर बैठ गए और उनके सिर पर हाथ फेरने लगे थे. आधी रात का वक्त था. अजीमुल्ला खां ने एक बार फिर आंखें खोलीं, “महाराज क्षमा–.” यही उनके अंतिम शब्द थे. वह 8 अक्टूबर,1859 की रात थी. वहां कड़वा तेल के दीपक की मद्धिम पीली रोशनी थी. तिरपालों से ढके उस जगह पर सूराखों से हवा आ रही थी जिससे लौ हिल-डुल रही थी. जिस समय अजीमुल्ला खां ने नाना साहब से अंतिम शब्द कहे उस समय दीपक की लौ स्थिर थी, लेकिन कुछ समय बाद हवा से वह हिली और उसी समय सबने देखा कि अजीमुल्ला खां का सिर एक ओर लुढक गया था. ज्वाला प्रसाद और मोहम्मद अली भीगे स्वर में एक साथ बोले, “महाराज, अजीमुल्ला खां हमें छोड़ गए.”
नाना साहब ने लंबी सांस खींची, अजीमुल्ला खां की हलकी खुली आंखों को बंद किया और बुदबुदाए, “तुम अमर हो अजीम.”
सुबह राणा जंगबहादुर से अनुमति लेकर बुटवल के पास अजीमुल्ला खां को दफना दिया गया था.
अपने दोनों भाइयों के बाद अजीमुल्ला खां की मृत्यु ने नाना साहब को अंदर से और अधिक तोड़ दिया. बुटवल के आसपास की जलवायु को अधिक ही घातक मान उन्होंने शिविर बदलने का निर्णय किया. अजीमुल्ला को दफनाने के दो दिन बाद उन्होंने शिविर बदल दिया. इस बार देवखुरी के निकट अपना तीसरा शिविर स्थापित किया. बदली जलवायु, जंगल का असह्य जीवन, भोजन और वस्त्र का अभाव, भाइयों, मित्रो और सहयोगियों की मॄत्यु से नाना साहब का स्वास्थ्य प्रभावित होता आ रहा था. हालांकि प्रकट में किसी को एहसास नहीं होने देते थे लेकिन अंदर से कमजोर हो चुके थे. तीसरा शिविर बदलने के दूसरे दिन ही वह गंभीररूप से बीमार हो गए. शरीर में कंपन और तेज ज्वर. वैद्य के सारे उपाय असफल हो रहे थे. उनकी सौतेली मां सई बाई ने राणा जंगबहादुर को नानासाहब की बीमारी की सूचना देकर उनके उचित इलाज के लिए अनुरोध पत्र भेजवाया लेकिन राणा ने कोई ऊत्तर नहीं दिया. अंततः 23 अक्टूबर, 1859 देवखुरी के निकट के शिविर में उनका देहावसान हो गया था.
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’क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां’ – रूपसिंह चन्देल’
संवाद प्रकाशन, मेरठ,
पृष्ठ – 336, मूल्य – 400/- (पेपर बैक)
रूपसिंह चन्देल
8059948233
ई मेल – rupchandel@gmail.com