सामाजिक उपन्यासों की अपेक्षा ऐतिहासिक उपन्यास लिखना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है विशेषकर उन नायकों के बारे में जिनका मौजूदा इतिहास में नहीं बराबर उल्लेख है। अज़ीमुल्ला ख़ां एक ऐसा ही चरित्र है। वह इतिहास के अंधेरे गर्त मे पड़ा था। यह हर अंदोलनों में होता है कि लाठी-गोली खाने वाले अंधेरे में रह जाते हैं और दलाल लोग सारा श्रेय ले जाते हैं। यह भी संभव है कि इस चरित्र को इतिहासकारों ने जानबूझ कर नकारा हो। माना जा सकता है कि अंग्रेज इतिहासकारों ने उन्हें इसलिए नकारा क्योंकि क्रान्ति की योजना अज़ीमुल्ला ख़ां के दिमाग की उपज थी और वह कोई राजा नहीं था—– “क्रिस्टोफर हिबर्ट (The Great Mutiny India:1857) और पी.जे.ओ.टेलर (A Star Shall Fall) ने अपनी पुस्तकों में उन्हें धूर्त तक कहा” (क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां – भूमिका-पृ.9)। माना जा सकता है कि हिंदू इतिहासकारों ने जातीय कारण से चर्चा करना उचित न समझा हो, लेकिन मुस्लिम इतिहासकार भी मौन हैं। इस बात को उपन्यासकार रूपसिंह चंदेल ने गंभीरता से अनुभव किया और अज़ीमुल्ला ख़ां के विषय में उन्होंने वर्षों शोध किया (लगभग पैंतीस वर्षों तक), कानपुर,बिठूर और आसपास के क्षेत्रों की अनेक बार यात्राएं की। उनका कथन है, “सामग्री संकलन ही पर्याप्त नहीं होता, ऎतिहासिक उपन्यासकार को उन स्थलों की यात्रा अवश्य करना चाहिए जो उसके पात्रों की गतिविधियों का केन्द्र रहा हो। हावर्ड फॉस्ट ऎसा करते थे, लियो तोलस्तोय ने ’युद्ध और शांति’ लिखने से पहले उन कुछ स्थानों की यात्रा की थी जहां नेपोलियन के साथ रूसी-सेना का युद्ध हुआ था।“ (भूमिका-पृ.8)| चन्देल जी के वर्षों के अथक परिश्रम का परिणाम है इसी वर्ष ’संवाद प्रकाशन’ मेरठ से प्रकाशित उनका उपन्यास ’क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां’। पत्रकार सैय्यद शहरोज क़मर से उपन्यास पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि “पैंतीस वर्षों तक उन्होंने अज़ीमुल्ला ख़ां को लेकर टुकडा-टुकड़ा सामग्री एकत्र की—एक प्रकार से बूंद-बूंदकर घड़ा भरा” (यू ट्यूब चेनल – जी.टी.रोड लाइव-15-16 अगस्त,2023). परिशिष्ट में पुस्तकों की सूची देने के साथ वह लिखते हैं, “पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख तथा त्र-तत्र उपलब्ध सामग्री का उपयोग भी मैंने यथास्थान किया है, लेकिन किसी भी सामग्री का उपयोग उसकी प्रामाणिकता और तथ्यात्मकता जांचने के पश्चात ही किया है।—–उपन्यास में सभी विवरण ऎतिहासिक तथ्यों पर आधारित और प्रमाणिक हैं. उपन्यास को कथात्मक बनाने के लिए यत्किंचित कल्पना का उपयोग किया गया है.” (पृष्ठ-336)
अज़ीमुल्लाख़ां के पिता मुक्की मुल्ला ख़ां बांदा जिला के कमातिन गाँव के जमींदार परगट सिंह के यहाँ अधाई पर खेती करते थे, इसके अतिरिक्त वह घर बनाने वाले एक अच्छे कारीगर भी थे। जब खेती का काम नहीं होता वह राजगीरी करते। परगट सिंह का मकान उन्होंने ही बनाया था। परगट सिंह ने जितने भव्य मकान की कल्पना की थी मुक्की मुल्ला ख़ां ने उससे कहीं अधिक सुन्दर मकान बनाया जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने अपने चार बीघे खेत उन्हें दे दिए थे. अधाई की खेती से प्राप्त अनाज के अतिरिक्त चार बीघे खेतों का अनाज मुक्की मुल्ला ख़ां और उनके छोटे-से परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त होता था.
उन्हीं मुक्की मुल्ला ख़ां के घर 17 सितंबर 1830 को भयानक बरसाती रात में अज़ीमुल्ला ख़ां का जन्म हुआ था. पत्नी नसीबन को बच्चे के जन्म से पहले दर्द से बेहाल देख मुक्की पड़ोस की रुकैय्या को बुलाने जाता है, जो नसीबन की रिश्ते में भाभी लगती थी। बच्चे के जन्म के बाद मुक्की मुल्ला गांव की मस्जिद के मौलवी के पास बच्चे का अच्छा नाम सोचकर बताने के लिए गए। उस समय का प्राकृतिक वर्णन लेखक के प्रकृति प्रेम को स्पष्ट करता है। मौलवी ने कहा, “मैं ख़ुद चलकर आपको मुबारकबाद देने आने वाला था. नौनाईदा को अल्लाह लंबी उमर बख्शे। –उस रात घनघोर बारिश हो रही थी।“
“इतना पानी कि जब मैं रुकैय्या बेगम को बुलाने के लिए घर से निकला घर के बाहर गली में घुटनों से ऊपर पानी था। मेरे चबूतरे चार फ़ुट ऊंचे हैं, लेकिन पानी उनके ऊपर पहुंचने के लिए मचल रहा था। आसमान काला था। कुछ भी सूझ नहीं रहा था।“ मुक्की मुल्ला ख़ां बोले।“
“अलहम्दुलिल्लाह।“ सैफुद्दीन ने आंखें बंद कीं, “नौजाईदा का नाम सोचने के लिए कुछ वक़्त दें मुल्ला ख़ां। आपने कृष्ण के बारे में सुना होगा। वह भी ऎसी ही कठिन बारिश की रात में पैदा हुए थे।“—“अल्लाह की मेहरबानी से नौजाईदा दुनिया में नाम रौशन करे।“ (वही पॄष्ठ – 17) बाद में मौलवी ने अपने ख्वाब का जिक्र करते हुए मुक्की मुल्ला ख़ां से कहा, “मैंने उस दिन भी कहा कि बर्खुदार बहुत ख़ुशक़िस्मत हैं। बहुत बड़े दानिशमंद होंगे। बड़ा आदमी बनेंगे—सीधे अल्फाज में नवाब जैसे।“
ठठाकर हंसे मुक्की मुल्ला ख़ां, “आप भी कैसी बातें कर रहे हाफिज जी। मुझ ग़रीब का बेटा और नवाब—“मुल्ला एक बार फिर हंसे।“
“मेरी बात पर यक़ीन करो मुल्ला। अल्लाह पर भरोसा रखो।“ (पृष्ठ – 20)
उपन्यास की भाषा पात्रानुकूल है। अधिकांश मुसलमान पात्र उर्दू मिश्रित हिन्दी और फारसी शब्दों का प्रयोग करते हैं। एक किस्सागो कथाकार के रूप में रूपसिंह चन्देल ने प्रतिष्ठा प्राप्त की है। यह शैली अपने समकालीनों में उन्हें अलग पहचान प्रदान करती है। भाषा की सहजता उनके कथाकार की दूसरी विशिष्टता है। वह आमजन के लेखक हैं। ऎसा वही साहित्यकार कर पाता है जिसके पास विषय का गहन अनुभव, व्यापक और सूक्ष्म अध्ययन होता है। जिनके पास विषय की गहनता नहीं होती वे शब्द-विलास करते हैं। आज जब कथाकारों के पास किस्सागोई शैली के दर्शन नहीं होते उस दौर में चन्देल जी ने उसे साधा हुआ है, यह बडी बात है। साहित्यकारों के पत्रों की उनकी पुस्तक ’समय की लकीरें’ में डॉ. शिवप्रसाद सिंह का एक पत्र है जिसमें उनका उपन्यास ’रमला बहू’ पढ़ने के बाद शिवप्रसाद सिंह ने उन्हें लिखा, “किस्सागोई शैली को कभी मरने न देना।“ और चन्देल जी ने उसे अपने सभी उपन्यासों और कहानियों में जीवित रखा है।
उपन्यासकार को वातावरण निर्माण में महारत हासिल है। वह उपन्यास का प्रारंभ ही सूखे के वर्णन की विभीषिका से करते हैं। सूखे का चित्र जीवंत हो उठा है। उपन्यासकार का गाँव-देहात से संबंध रहा है। गाँव की गर्मी का वर्णन दृष्टव्य है,”— उसने परगट सिंह के बैलों को माड़ने में लगा दिया था और मड़ाई में अभ्यस्त बैल अपने आप घूम-घूमकर मड़ाई कर रहे थे। शाम का समय था। सूरज परगट सिंह की अमराई के पीछे छुपने की तैयारी कर रहा था——रह-रहकर खलिहान के सामने सड़क पर हवा का बवंडर घूमता दिखाई देता— सड़क किनारे खड़े महुओं के पत्र-विहीन पेड़ों के ऊपर इस प्रकार नाचती दिखाई देती मानो महफिल में कोई पतुरिया नाच रही हो।“ (पृ.-14)
सन 1837-38 में बुंदेलखंड में ही नहीं पूरे देश में भयंकर अकाल पड़ा था। कुएं, तालाब यहाँ तक नदियाँ भी सूख गयीं थीं। आसमान आग बरसा रहा था। कुछ इतिहासकारों ने बताया कि करीब पाँच लाख लोग दोआबा में ही काल-कवलित हुए थे, कुछ ने इस संख्या को दस लाख बताया। मरने वाले जानवरों की कोई गिनती नहीं थी, न जाने कितने ही गाँव मरघट में बदल गए थे। दुर्दिन पूछ कर नहीं आते, इसी समय मुक्की मुल्ला ख़ां की लू लगने से मृत्यु हो गई और अज़ीम अनाथ हो गया।
इस भयंकर अकाल के समय आम लोग ही नहीं जमींदारों की हालात भी खराब हो गई थी। गाँव के गाँव शहरों की ओर पलायन कर रहे थे, ऐसे हालात में परगट सिंह अज़ीमुल्ला और उसकी मां की परवरिश कैसे कर पाते। हर तरफ से निराश होकर अज़ीम की माँ नसीबन ने भी शहर की राह पकड़ने की सोची। एक दिन सुबह उन दोनों ने कानपुर के लिए प्रस्थान किया। अज़ीमुल्ला के हाथ में एक थैला था, थैले में वे दो रोटियाँ थीं, रात में नसीबन ने जो रास्ते के लिए बनाकर रख ली थीं। आटा ही दो रोटियों के लिए था। घर से कुछ दूर ही वे गए थे कि अपने पीछे एक मरियल कुत्ते को आता देख अज़ीमुल्ला ने एक चपाती उसे दे दी—– “कुत्ता चपाती पर झपटा और जब तक वे दोनों कुछ क़दम आगे बढ़ते वह फिर उनके पीछे चलने लगा था। अज़ीमुल्ला ख़ां ने दूसरी चपाती भी उसे दे दी।“ (पृष्ठ-26) यह प्रसंग मानवीय संवेदना का अद्भुत दृष्टांत है।
अज़ीमुल्ला खां की यात्रा बहुत कठिनाई और जोखि़म भरी थी। रास्ते में एक धानुक परिवार इनकी मदद करता है। वह उन्हें पानी और सत्तू देता है। रात के समय वह दोनो बांदा पहुचते हैं जहाँ नसीबन अपने कानों की सोने की बालियां चार चाँदी के रुपए में बेचती है। दोनों किसी प्रकार कानपुर पहुँचते हैं। कानपुर पहुंचने तक रात हो चुकी थी। माँ बेटे फ्री स्कूल, जो आजकल क्राइस्टचर्च महाविद्यालय के नाम से जाना जाता है,के अहाते के बाहर एक नीम के पेड़ के नीचे सो जाते हैं। इसे अज़ीम का भाग्य ही कहेंगे कि मॉर्निंग वॉक के लिए जाते समय उस स्कूल के प्रिंसिपल मि. थामस और उनकी पत्नी सोफिया की निगाह माँ बेटे पर पड़ती है और वह उन्हें अपने साथ भीतर ले जाते हैं। (पृष्ठ-33)
यहीं से शुरू होती है अज़ीम की अजीमुल्ला ख़ां बनने की कहानी। सोफिया और थामस दूसरे अंग्रेजों से हट कर दयालु प्रकृति के थे। उन्हें अज़ीम और उसकी माँ नसीबन पर दया आई, उन्होंने अज़ीम को टेबल ब्वॉय और उसकी माँ को स्कूल में आया की नौकरी दी।
अज़ीमुल्ला बहुत ही कुसाग्र बुद्धि का बालक था। लगभग उसी की उम्र के थामस के दो बेटे थे जिन्हें घर पर पढ़ाने के लिए विलियम नाम का अंग्रेज आता था। अज़ीम में पढ़ने की बहुत भूख थी। विलियम जब थामस के बच्चों को फ्रेंच पढ़ाता वह दरवाजे की ओट लेकर खड़ा हो सुना करता। एक दिन थामस ने उसे देख लिया। उन्होंने अज़ीम से पढ़ने के बारे में पूछा तो उसने स्वीकृति में सिर हिलाया. थामस ने विलियम को अजीम को पढ़ाने के लिए कहा।
अज़ीम की कार्यकुशलता को देखते हुए थामस की पत्नी सोफिया अपने मुलाजिम और बावर्ची नंदलाल के साथ अज़ीम को भी सामान लेने के लिए भेजने लगी। कुछ दिन बाद वह अकेले ही सामान लाने के लिए बाजार जाने लगा। एक दिन वह सामान लाने जा रहा था कि शिवाला के सामने उसने एक अंग्रेज सिपाही द्वारा भिखरियों को अकारण पीटते देखा। वह अपने आप को रोक नहीं पाया। उसने प्रतिरोध किया, जिसे अंग्रेज सैनिक ने सहन नहीं किया. अंग्रेज सिपाही गुलाम, काला कुत्ता कहते हुए उसे मारने की कोशिश करता है (पृष्ठ-48) यहीं से उसके बाल-मन में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश और घृणा जन्म लेती है। अज़ीमुल्ला ने विलियम से फ्रेंच और सोफिया और थामस के बच्चों से अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था. यह अज़ीमुल्ला ख़ां का भाग्य ही था कि 1840 में फ्री स्कूल प्राईमरी से आठवीं तक कर दिया गया था और स्थानीय चर्च के प्रबंधन के बजाए उसका प्रबन्धन कलकत्ता प्रशासन के अधीन आ गया था. फ्री स्कूल की स्थापना 1820 में कानपुर के ईसाइयों के बच्चों के लिए की गई थी। 1820 से 1840 तक उसमें किसी अन्य धर्म के बच्चों को प्रवेश नहीं दिया जाता था. लेकिन मिशनरी स्कूल बनने के बाद उसमें सभी धर्मों के बच्चों को प्रवेश दिया जाने लगा. थामस ने अज़ीमुल्ला को वहां प्रवेश दिला दिया था.
दर्जा चार की परीक्षा में उसने कक्षा में टॉप किया और उसे प्रतिमाह तीन रुपए वजीफा मिलने लगा था। यह भी गोरों को रास नहीं आया। इसके लिए थामस को गोरों का काफी विराध झेलना पड़ा। उनका आरोप था कि अज़ीमुल्ला के टॉप करने का कारण थामस के यहां उसका बावर्ची होना था। कालांतर में अज़ीम उसी स्कूल में अध्यापक हो जाता है जहाँ एक गोरे के लड़के को डांटने पर उसका कैप्टेन पिता उसे अपमानित करता है। अपनी ओर बढते कैप्टन का सामना करने के लिए अज़ीमुल्ला खां ने भी अपने को तैयार कर लिया था, लेकिन थामस के हस्तक्षेप से झगड़ा तो टल गया था लेकिन अज़ीमुल्ला इस घटना से अत्यधिक क्षुब्ध हो उठे थे। (पृष्ठ-60)।
कैप्टन और अज़ीमुल्ला ख़ां के विवाद की सूचना नाना साहब तक पहुंची. एक दिन उन्हें नाना साहब का एक छोटा-सा पत्र मिला. उन्होंने अज़ीमुल्ला ख़ां को मिलने के लिए बुलाया था। अज़ीमुल्ला ख़ां उनसे मिलने गए और नाना साहब का सत्कार देखकर बहुत प्रभावित हुए। नाना साहब को टॉड नामका अंग्रेज फ्रेंच और अंग्रेजी अखबारों का अनुवाद सुनाया करता था। नाना ने उसके स्थान पर अज़ीमुल्ला ख़ां को रखने का प्रस्ताव दिया, जिसे अज़ीमुल्ला ने तुरंत स्वीकार कर लिया। अज़ीमुल्ला ख़ां के नाना साहब के यहां जाने से पहले ही उसी वर्ष लू लगने से उनकी मां की मृत्यु हो गयी थी. स्कूल में अध्यापन करते हुए अज़ीमुल्ला ख़ां ने एक मित्र अंग्रेज अध्यापक जॉन स्मिथ के सहयोग से घुड़सवारी, बन्दूक और तलवार चलाना सीख लिया था. लेखक ने थामस के यहां से अज़ीमुल्ला खां की विदाई का अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन किया है. अज़ीमुल्ला ख़ां के लिए वे अभिभावक थे. “अज़ीम, तुम्हारी अनुपस्थिति हमें बहुत खलेगी बेटा।—- सोफिया भावुक हो उठीं। अज़ीमुल्ला ख़ां को लगा कि उनकी आंखें गीली थीं। अज़ीमुल्ला ख़ां भी भावुक हो उठे। उन्हें भी लगा कि मातृतुल्य सोफिया और पितृतुल्य तामस का अभाव उन्हें लंबे समय तक परेशान करता रहेगा।“ (पृ. 87)
उपन्यास में नाना साहब के परिवार की उठा-पटक और बाजीराव के बिठूर आने तक का बहुत सुंदर वर्णन है। बाजीराव की मृत्यु के बाद नाना की पेंशन बंद हो गई थी, जिसकी बहाली के लिए नाना साहब ने बिठूर के स्पेशल कमिश्नर मेनसन के माध्यम से लेफ्टिीनेंट गवर्रनर को लिखा, लेकिन उसने अपील खारिज कर दी। नाना साहब की सिफारिश करने के कारण मेनसन को उसके पद से भी हटा दिया गया। यही नहीं नाना साहब की सिफारिश करने के कारण बिठूर के स्पेशल कमिश्नर मूरलैंड को भी अपना पद खोना पड़ा। बाजीराव पेशवा की पत्नियों और बाजीराव के भाई की बेटी कावेरी के पुत्र चिमणा जी ने कुचक्र चलाए पर नाना साहब का कुछ बिगाड़ नहीं पाए।
यह सारा घटनाक्रम अज़ीमुल्ला के बिठूर आने से पहले घटित हो चुका था। अज़ीमुल्ला ने अपने व्यवहार और विद्वता से अपने को नाना साहब का विश्वास पात्र बना लिया था। नाना साहब ने उन्हें अपना सलाहकार और मंत्री नियुक्त किया। पेंशन बहाली के लिए उनसे देश के अच्छे वकीलों से बात करने को कहा। अज़ीमुल्ला ने देश के प्रसिद्ध वकील हरभुज रुस्तम मोदी को बिठूर बुलाया। वह आए और पेंशन बहाली की अपील गवर्नरजनरल को भेजी, पर काम नहीं बना। उन्हीं दिनों इंगलैंड का एक वकील जॉन लैंग भारत आया हुआ था, अज़ीमुल्ला ने उससे भी संपर्क किया। वह भी बिठूर आया, उसने भी अपील भेजा, लेकिन उसे भी सफलता नहीं मिली। अब एक ही विकल्प बचा था कि ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ डाइरेक्टर या महारानी के पास अपील की जाए। तय हुआ कि अज़ीमुल्ला के नेतृत्व में राजा पिरांजी भोसले और मुहम्मद अली को इंगलैंड भेजा जाय।
मई के पहले मंगलवार का यात्रा का मुहूर्त था। विदाई के समय का उपन्यासकार ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है। कलकत्ता तक की यात्रा उन लोगों को नाव से करनी थी। “सुबह ठीक साढ़े चार बजे नाना साहब, उनके मंत्री—गंगा घाट पर एकत्रित हुए। पुरोहित ने यात्रा की मंगल-कामना के लिए पूजा की और ठीक पांच बजे तीनों यात्रियों को माला पहनाकर नाना साहब और उनके साथियों ने यात्रा की सफलता की कामना के साथ उन्हें नाव में बैठाया. उस समय सूरज का लाल गोला गंगा के बीच उभरता हुआ दिखाई दिया—.” (पृ.109)
कलकत्ता पहुँचते-पहुँचते पिरांजी की तबीयत खराब हो गई। कलकत्ता में डॉक्टर के इलाज से आराम हुआ। मई के अंतिम दिन उन लोगों ने इंगलैंड की यात्रा प्रारंभ की। पिरांजी की तबियत फिर खराब हो गयी। बगदाद पहुँचने पर उनकी मृत्यु हो गयी। अज़ीमुल्ला ख़ां, मोहम्मद अली ने सराय के मालिक की सहायता से वहीं उनका अंतिम संसकार किया और अस्थियां संभालकर रख लीं, जिन्हें लौटने पर गंगा में प्रवाहित किया गया था।
मोहम्मद अली और अज़ीमुल्ला लंदन के जार्ज इन होटल में रुकते हैं। नाना साहब ने उन्हें पर्याप्त धन दिया था और उन्हें एक राजा की तरह रहने को कहा था। अज़ीमुल्ला ख़ां लंदन में एक राजा जैसे ही रहते थे। वहाँ के लोग उन्हें इंडियन प्रिंस जानते थे। उनकी खूबसूरती पर लंदन की अंग्रेज लड़कियाँ दीवानी थीं और उनसे शादी करने को तैय्यार थीं। उनके असाधारण व्यक्तित्व और पांडित्य के कारण लंदन में न जाने कितने संभ्रांत परिवारों मे उनका आना-जाना था। वह लोगों को मंहगे उपहार दिया करते। उन परिवारों की युवतियां भी अज़ीमुल्ला ख़ां पर मुग्ध थीं। उनके भारत लौटने के बाद भी उनके साथ अज़ीमुल्ला ख़ां का पत्राचार होता रहा था. जब हैवलॉक ने बिठूर पर अधिकार किया, उसे नाना साहब के महल से उन युवतियों के प्रेम पत्र मिले थे जिन्हें उसने लंदन भेज दिया जहां वे ’इंडियन प्रिंस एण्ड ब्रिटिश पियरेश’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे.
उनके आश्रयदाता थामस नौकरी से त्यागपत्र देकर लंदन जा बसे थे। थामस और सोफिया की सहायता से अज़ीमुल्ला ख़ां बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के एक सदस्य पोलक से मिलते हैं. वहां भी उनका मुकदमा खारिज हो जाता है। अज़ीमुल्ला और मोहम्मद अली होटल छोड़कर एक कोठी किराए पर लेकर शिफ्ट होते हैं। उन्हीं दिनों अपने वकील के माध्यम से उनका परिचय सतारा के राजा प्रताप सिंह के मंत्री रंगो बापूजी गुप्ते हुआ. वह भी प्रताप सिंह के मुकदमे के लिए वहां थे. उनकी अपील भी खारिज हो गयी थी. अज़ीमुल्ला ख़ां ने बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स से व्यक्तिगत रूप से मिलने का विचार किया. रंगो बापूजी गुप्ते को भी मिलने के लिए प्रोत्साहित किया. लेकिन व्यक्तिगत मुलाकात भी असफल रही. असफलता ने अज़ीमुल्ला ख़ां को भारत में सशक्त क्रान्ति द्वारा अंग्रेजों को भगाने की योजना के लिए प्रेरित किया. इस बारे में उन्होंने अपने सहयोगी मोहम्मद अली से बात की. उनका समर्थन मिलने के बाद उन्होंने रंगो बापूजी गुप्ते से मंत्रणा की। तय हुआ कि गुप्ते वापस लौटकर दक्षिण भारत में क्रान्ति के लिए राजाओं, ताल्लुकेदारों,नवाबों आदि को तैयार करेंगे जबकि अज़ीमुल्ला ख़ां ने क्रान्ति की सफलता के लिए सहायाता प्राप्त करने हेतु फ्रांस, मिश्र, तुर्की और रूस की यात्राओं की योजना बनायी. फ्रांस और ब्रिटेन उन दिनों क्रीमिया में रूस के साथ युद्ध लड़ रहे थे, जबकि तुर्की ने कुछ दिन पहले ही उस युद्ध से अपने को अलग किया था। वास्तव में तुर्की से छिड़े युद्ध के कारण ही फ्रांस, इंग्लैण्ड और आस्ट्रिया रूस के विरुद्ध युद्ध में कूदे थे और भयानक क्षति उठायी थी. अतः तुर्की के सुल्तान और फ्रांस के युद्धमंत्री से मिलने का लाभ नहीं हुआ, जबकि मिश्र के सुल्तान और रूस के जनरल टोडेलबेन ने सहायता का आश्वासन दिया.
अज़ीमुल्ला ख़ां के बिठूर लौटने के बाद नाना सहब अपने मंत्रियों की बैठक करते हैं जिसमे क्रांति के बारे में विचार किया गया। एक विचार यह भी आया कि नाना साहब तीर्थ यात्रा के बहाने दूसरे राज्यों की यात्रा और तीर्थ स्थानों के साधु-संतों से संपर्क करें। नाना साहब 10 फरवरी 1856 की सुबह तीर्थ यात्रा के लिए निकले और अयोध्या,मेरठ और दिल्ली होते हुए वापस बिठूर लौटे। क्रांति की तैय्यारी के लिए हुई मंत्रणा में कानपुर की प्रसिद्ध नृत्यागंना अजीजन, अंग्रेजी सेना के देशभक्त सैनिक ज्वाला प्रसाद,दलगंजन सिंह और शम्सुद्दीन शामिल हुए। रात एक पहर बीतने के बाद अजीज़न सतरंजी मोहाल की अपनी हवेली से बिठूर के लिए अपनी चार सहेलियों के साथ घोड़े पर निकलती है. लेखक ने निकलने से लेकर उसके बिठूर पहुंचने तक का मंत्रमुग्ध करने वाला दृश्य चित्रित किया है।
नाना साहब,अजीमुल्ला ख़ां, अजीज़न आदि चरित्रों को गढ़ने, क्रांति की रूपरेखा, घटनाओं, और युद्धों का उपन्यासकार ने इतना जीवंत वर्णन किया है कि पाठक यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि शायद लेखक स्वयं उस युद्ध में शामिल रहा है। मैंने कितने ही ऎतिहासिक उपन्यास पढे हैं, लेकिन ऎतिहासिक तथ्यात्मकता और कल्पना का ऎसा चित्रण मुझे नहीं मिला। इस उपन्यास ने यह सिद्ध कर दिया है कि रूपसिंह चन्देल न केवल सामाजिक उपन्यासों के गंभीर और चर्चित लेखक हैं बल्कि ऎतिहासिक उपन्यासों के भी वह सफल रचयिता हैं। इससे पहले उनके दो उपन्यास ’खुदीराम बोस’ और ’करतारसिंह सराभा’ पर्याप्त चर्चित रहे। कानपुर, फतेहपुर,बिठूर,और बरेली में अंग्रेजों के साथ हुए युद्धों तथा प्रत्येक ऎतिहासिक छोटी-बड़ी घटना को उपन्यास में चित्रित किया गया है. लेखक ने इतिहास के कितने ही उपेक्षित और भुला दिए गए वीरों को प्रस्तुत करके उन्हें अविस्मरणीय बना दिया है। अज़ीजन उनमें से एक है। कानपुर विजय के बाद नाना साहब ने अज़ीमुल्ला ख़ां को वहां का कलक्टर,मोहम्मद अली को डिप्टी कलक्टर और अजीज़न को सहायक कलक्टर नियुक्त किया था. परम सुन्दरी अजीज़न ’रानी दुर्गावती ब्रिग्रेड’ बनाकर अंग्रेजों से युद्ध करती है. उस समय का चित्रण अत्यंत रोमांचक है. दस क्रान्तिकारी युवतियों के साथ जब उसे गिरप्तार करके जनरल हैवलॉक के सामने लाया जाता है, वह उसकी सुन्दरता देखकर हत्प्रभ रह जाता है. हैवलॉक ने पूछा, “तुमने हथियार क्यों उठाए?”
“अपने देश को अंग्रेज़ी शासन से आज़ाद करवाने के लिए.” अज़ीजन ने सीना ताने हुए कहा.
“यदि तुम माफ़ी मांग लो तो तुम्हें क्षमा कर दिया जाएगा.”
“कदापि नहीं.” अज़ीजन ने संक्षिप्त उत्तर दिया. —-“तुम क्या चाहती हो?”
“ब्रिटिश शासन का नाश!”
अज़ीज़न और उसके साथ की क्रान्तिकारी युवतियों को गोली मार दी गयी थी.
उपन्यास का अंत नेपाल में नाना साहब, अज़ीमुल्ला ख़ां की मृत्यु से होता है. उस समय का बहुत ही मार्मिक और भावुक कर देने वाला चित्रण लेखक ने किया है. ऎतिहासिक उपन्यासों में ’क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां’ मील का पत्थर सिद्ध होगा. चन्देल जी ने अज़ीमुल्ला ख़ां के साथ ही कितने अन्य भूले बिसरे क्रान्तिकारियों को इस उपन्यास के माध्यम से अमर कर दिया है. निश्चित ही वह साधुवाद के पात्र हैं.
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’क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला ख़ां’ – रूपसिंह चन्देल
संवाद प्रकाशन, मेरठ,पृष्ठ – 336, मूल्य – 400/- (पेपर बैक)
समीक्षक का पता –
जयराम सिंह गौर
180/12, बापू पुरवा, किदवई नगर,
कानपुर-208023
मो. नं. 9451547042
समीक्षा : ऐतिहासिक दस्तावेज है ‘क्रान्तिनायक अज़ीमुल्ला खां’ : जयराम सिंह गौर
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