1
अँधेरा है घना फिर भी ग़ज़ल पूनम की कहते हो
फटे कपड़े नहीं तन पर ग़ज़ल रेशम की कहते हो
ग़रीबों को नहीं मिलता है पीने के लिए पानी
मगर तुम तो ग़ज़ल व्हिसकी गुलाबी रम की कहते हो
चले जब लू बदन झुलसे सुना तुमको मगर तब भी
हवायें नर्म लगती हैं ग़़ज़ल मौसम की कहते हो
तुम्हें मालूम है सूखे हुए पत्तों पे क्या गुज़री
गुलों के नर्म होंठों पर ग़ज़ल शबनम की कहते हो
तुम्हारे हुस्न के बारे में हमने भी है सुन रक्खा
हमारा जख़्म भी भर दो ग़ज़ल मरहम की कहते हो
2
कृष्न करै तो लीला बोलो, किसना करै छिनारा
पूछ रहा हूं मुखिया जी कैसा इंसाफ़ तुम्हारा
धरम-करम की परिभाषा पंडित की पोथी बोलै
दो झूठे मंतर पढ़ कर दे वो गुड़ गोबर सारा
खून – पसीना खूब बहाओ पाई-पाई जोड़ो
हाकिम की इक दसख़त से हो जाये वारा न्यारा
मेहनतकश सच्चे इन्सां का दर्द न जाने कोई
जब चाहा पुचकारा उसको, जब चाहा दुत्कारा
मक्कारों को सबक़ सिखाने की ताक़त दे मौला
या फिर इस जीवन से ही दे दे मुझको छुटकारा
अब यह ख़बर वायरल कर देंगे हम जनता में
जबरा मारै, देय न रोवै.. ये आतंक तुम्हारा
अदम गोंडवी ने जनहित में पहले ही लिक्खा है
जनता के है पास बग़ावत का ही अब इक चारा
3
वक़्त ही बदला है केवल और क्या बदला है आज
चल रहा मनुवादियों के नियम से अब भी समाज
आज भी दर्ज़ा बराबर का नहीं पाता दलित
जिस तरफ़ भी देखिए फैला सवर्णों का है राज
प्रश्न यह जितना सरल दिखता है उतना है नहीं
भिक्षु बाभन को भी अपनी बभनई पर क्यों है नाज़
प्यार उसका जुर्म , पंचायत में ठहराया गया
मर गई छमिया बेचारी , पर नहीं बदला समाज
दूर क्यों इन्सान से इन्सान है, बनकर अछूत
सब वही पीते हैं पानी, सब वही खाते अनाज
धर्म, मजहब, जातियों में लोग कैसे बँट गए
इस पुराने कोढ़ का अब मुस्तक़िल ढूंढो इलाज
4
अपना है मगर अपनो सी इज़्ज़त नहीं देता
उड़ता हुआ बादल कभी राहत नहीं देता
फ़रमाइशें हैं शान में उनके भी हो ग़ज़ल
मेरा ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं देता
मेरी भी ख़्वाहिशें हैं कि छू लूँ मैं आसमान
टूटा हुआ पर उड़ने की त़ाक़त नहीं देता
बेवजह वो रखता है सदा ख़़ुद को नुमायाँ
मक्कार किसी और को अज़मत नहीं देता
करिये मदद ग़रीब की दिल खोलकर जनाब
हर शख़्स को वो एक सी क़िस्मत नहीं देता
देखे हैं जो सपने उन्हें कल पर न टालिये
ये वक़्त है पल भर की भी मोहलत नहीं देता
5
हवा में है वो अभी आसमान बाक़ी है
अभी परिन्दों की ऊँची उड़ान बाक़ी है
अभी तो उम्र के पन्ने पलट रहा है वो
अभी तो ज़िंदगी की दास्तान बाक़ी है
नज़र में आपकी कंगाल हम भले ठहरे
हमारे पास अभी स्वाभिमान बाक़ी है
बना लिया है चार -छै मकान शहरों में
अमीर हो गया सारा जहान बाक़ी है
बड़ी अदा के साथ हुस्न ने ललकारा हे
अभी तो तीर है देखा, कमान बाक़ी है
करो हज़ार वार हमको डर नहीं लगता
लड़ेंगे ज़ुल्म से जब तक ये जान बाक़ी है
मेरे मोहसिन अकेले दम पे कुछ नहीं होगा
सुबह हुई है ,पर उसकी अज़ान बाक़ी है
6
आप मज़े में हैं तो क्या फ़स्ले बहार है
उससे पूछो जो अब तक बेरोज़गार है
ज़ख्मी पांवों में बालू के कण भी चुभते
शोषक बहुतेरे हैं, कोई मददगार है
सरकारें तो पहले ही मुंह फेर लिए हैं
करखानों-कंपनियों का भी बंद द्वार है
सत्ताधीशों, क्या तुम ज़िम्मेवार नहीं हो
क्यों मज़लूमों की बस्ती में अंधकार है
नोटों की मोटी गड्डी पर सोने वालो
जनता बख़्शेगी न उसे जो गुनहगार है
टूट गये वे सारे सपने जो देखे थे
कौन सुनेगा घायल मन की जो पुकार है
नम आंखों में अश्रु ही नहीं, शोले भी हैं
धरती-अंबर हिल जायें इतना ग़ु़बार है
7
उधर बुलंदी पे उड़ता हुआ धुआं देखा
इधर ग़रीब का जलता हुआ मकां देखा
किसी अमीर ने दिल तोड़ दिया था मेरा
मुद्दतों मैंने उसी चोट का निशां देखा
अजीब हादसे भी ज़िंदगी में होते हैं
कभी तो दुश्मनों में अपना मेहरबां देखा
वहम ये मिट गया मेरा कि सर पे छत ही नहीं
नज़र उठा के ज्यों ही मैंने आसमां देखा
बहुत तलाश किया हर जगह ढूंढ़ा उसको
मुझको ये याद नहीं कब उसे कहां देखा
ऐसे हालात पे रोना भी खूब आया मुझे
जब फटेहाल कभी अपना गिरेबां देखा
हमें तो मुश्किलों के बाद मुस्कराना है
हसीन फूल को कांटों के दरमियां देखा
8
उजड़ रहा है चमन इसको बचाऊं कैसे
लगी है आग, मगर आग बुझाऊं कैसे
लहू से तर है नज़र इसको छिपाऊं कैसे
चुभा जो तीर कलेजे में दिखाऊं कैसे
मिले वो जब भी बात आशिक़ी की करता है
मसअले और भी हैं उसको बताऊं कैसे
उसे मैं आज तलक हमसफ़र समझता था
चला वो दूर जा रहा है बुलाऊं कैसे
हसीन ख़्वाब देखने की मनाही तो नहीं
ग़रीब हूं किला हवा में उठाऊं कैसे
यहां तो लोग डर रहे हैं अपने साये से
किसी रहबर का पता उनको बताऊं कैसे
हवाएं तेज़ और रात बहुत गहरी है
बताएगा कोई मशाल जलाऊं कैसे
9
मेरा प्यार बेशक समंदर से भी है
मगर गाँव के अपने पोखर से भी है
किनारे जो लग करके डूबा सफ़ीना
कोई वास्ता क्या मुक़द्दर से भी है
तेरे इस चमन की हर इक शै है प्यारी
मुझे इश्क काँटों के बिस्तर से भी है
मेरे तन का बहता लहू बोल देगा
तअल्लुक़़ मेरा उनके ख़ंजर से भी है
बहस यूँ न छेड़ो कभी मज़हबों पर
तवारीख़ जुड़ती सिकंदर से भी है
तुम्हें दिख रहा है जो अख़लाक़ मेरा
नहीं सिर्फ़ बाहर से अंदर से भी है
10
कभी लौ का इधर जाना, कभी लौ का उधर जाना
दिये का खेल है तूफ़ान से अक्सर गुज़र जाना
जिसे दिल मान ले सुंदर वही सबसे अधिक सुंदर
उसी सूरत पे फिर जीना, उसी सूरत पे मर जाना
खिले हैं फूल लाखों, पर कोई तुझ सा नहीं देखा
तेरा गुलशन में आ जाना बहारों का निखर जाना
मिलें नज़रें कभी उनसे क़यामत हो गयी समझो
रुके घड़कन दिखे लम्हों में सदियों का गुज़र जाना
किया कुछ भी नहीं था बस ज़रा घूँघट उठाया था
अभी तक याद है मुझको तुम्हारा वो सिहर जाना
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डॉ. डी एम मिश्र, सुलतानपुर, उत्तरप्रदेश