धुँधली हुई दिशाएँ , छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुँआ–सा ।
कोई मुझे बता दे ,क्या आज हो रहा है
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है ?
दाता पुकार मेरी ,संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे ।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार माँगता हूँ
चढती जवानियों का श्रृंगार माँगता हूँ ।
( ‘आग की भीख ‘ कविता )
स्वदेश हित अंगार माँगने एवं चढती जवानियों का श्रृंगार माँगने वाले राष्ट्रकवि दिनकर के संपूर्ण रचनाकर्म पर दृष्टिपात करने पर यह निर्विवाद रूप से अभिप्रमाणित होता है कि जैसा ओज, तेज ,क्रांति और विद्रोह का स्वर समयसूर्य दिनकर की कविताओ में मिलता है ,उनके समकालीन तथा परवर्ती अन्य किसी भी सहित्यकार में नहीं मिलता । राष्ट्रीय चेतना और सांस्कृतिक अस्मिता की अविरल धारा सदा उनके साहित्य में प्रवाहित हुई है। राष्ट्रकवि दिनकर विराट चेतना के कवि हैं ।वे महती संवेदना और संचेतना के धनी हैं ।उनकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति एक व्यापक फलक प्राप्त करती है जिसमें सर्वत्र क्रांति और विद्रोह की गूँज सुनाई देती है ।दिनकर का युवाकाल भारतीय इतिहास का वह युग था जब भारत की राष्ट्रीयता और देशभक्ति बिट्रिश – साम्राज्यवाद से लोहा ले रही थी।मध्यवर्ग के लोगों में शासन –सत्ता के प्रति घोर अविश्वास था और वे विदेशी राज के शिकंजों से मुक्ति पाने के लिए हर प्रकार का बलिदान करने के लिए सन्नद्ध थे। दिनकर उसी मध्यवर्ग में एक संवेदनशील युवक थे, जो जवाहर, सुभाष, जयप्रकाश और नरेंद्रदेव के साथ था ,जो बिना स्वराज प्राप्ति के एक क्षण भी चुप नहीं बैठना चाहता था।
दिनकर की रचनाओ में आरंभ से ही क्रांति और विद्रोह के स्वर सुनाई देते है। स्वतंत्रता संग्राम की बज रही रणभेरी से निर्मित ज्वालामयी परिस्थितियों ने दिनकर का मार्ग प्रशस्त किया। युग की तमिस्रा में किस ज्योति की रागिनी गाएँ यह प्रश्न उनके सामने था और शीघ्र ही युग की चतुर्दिक जागृति ने क्रांति की श्रृंगी फूँक कर महान् प्रभाती-राग गाने की प्रेरणा दी। प्रभाती जिससे सुप्त भुवन के प्राण जाग उठे ,जो आवाज भारतीय मानस में सोते हुए शार्दूल को चुनौती भेज सके ,जो युगधर्म के प्रति जनता को जागरूक कर सके ,जिसको सुन कर युग-युग से थमी हुई भारतीय जनता के निर्बल प्राणों में क्रांति की चिनगारियाँ उड़ने लगें। ‘रेणुका ‘ के राष्ट्रीय गीत इतिहास और संस्कृति के ऐसे ही आवरण में लिखे गए। अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रीय कवियों की परम्परा का अनुसरण करके उन्होंने भी इतिहास को काव्य में ध्वनित करने की चेष्टा की ।वर्तमान के चित्रपटी पर अतीत का सम्भाव्य बनाना चाहा –
प्रियदर्शन इतिहास कंठ में
आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान के चित्रपटी पर,
भूतकाल सम्भाव्य बनें । 01
युगदर्शन की पहली प्रतिक्रिया ने दिनकर को छायावाद के रंगीन झिलमिले वातावरण और कुहासे से बाहर निकाला। उनकी कविता ने आकाश कल्पनाओं , चंद्रकिरणों और इतिहास के खंडहरों से निकल कर वनफूलों की ओर जाने का आग्रह किया ; धान के खेतों में काम करती हुई कृषक सुंदरियों के स्वर में अटपटे गीत गाना चाहा और सुखी रोटी खाकर भूख मिटाने वाले किसान की तृष्णा बुझाने के लिए गंगाजल बनने की आकांक्षा प्रकट की।
बिट्रिश साम्राज्यवादियों की जिस कूट्नीति और षड्यंत्रों से भारत की बहुसंख्यक जनता को खंड –खंड करने की योजना बनाई गई थी , उससे महात्मा गाँधी को बहुत निराशा हुई। उन्होंने उसकी अखंडता के लिए अनशन किया। संपूर्ण भारत में असंतोष की जो लहर फैली उससे दिनकर भी प्रभावित हुए। ‘रेणुका ‘ की बोधिसत्व कविता इसी अछुतोद्धार आंदोलन की प्रेरणा से लिखी गई। गाँधी की अहिंसा नीति के विरोधी होते हुए भी उन्होंने भारतीय सामाजिक व्यस्था की मूल विषमताओं पर कुठाराघात किया।उन्होंने घृणा सिखाकर निर्वाण दिलाने वाले दर्शन की भर्त्सना की, धन पर आधारित धर्म की विषम व्यवस्थाओं पर व्यंग्यपूर्ण आघात किया।
पर , गुलाब जल में गरीब के अश्रु राम क्या पायेंगे ?
बिना नहाए इस जल में क्या नारायण कहलायेंगे ?
मनुज मेघ के पोषक दानव आज निपट निर्द्वंद्व हुए ?
कैसे बचें दीन ? प्रभु भी , धनियों के गृह में बंद हुए ? 02
अंधविश्वासी रूढ़ीवादी पंडितों ने गाँधी की इस नीति का कर्कश विरोध किया। उन्हें धर्म का खण्डनकर्ता मानकर उनके प्राण लेने की चेष्टाएँ की गई। इसी प्रकार की एक घटना देवघर (बिहार) में हुई। दिनकर ने व्यापक युगधर्म की याद दिलाकर बोधिसत्व का आह्वान इन शब्दों में किया –
जागो, गाँधी पर किए गए नरपशु-पतितों के वारों से,
जागो, मैत्री -निर्घोष ! आज व्यापक युगधर्म पुकारों से।
जागो गौतम ! जागो महान !
जागो अतीत के क्रांति गान !
जागो ,जगती के धर्म –तत्त्व !
जागो , हे ! जागो बोधिसत्त्व ! 03
जब स्वदेशी आंदोलन द्वारा व्यापारिक शोषण पर आधारित साम्राज्यवाद की नींव हिलने लगी, लंकाशायर और मैनचेस्टर के व्यापार का दिवाला निकलने लगा, तब अंग्रेजों ने रक्तपात,त्रास और दमन-नीति का सहारा लिया । “ कस्मै देवाय ?” कविता में दिनकर ने इस शोषण का मर्मस्पर्शी चित्र खींचा है –
शुभ्र वसन वाणिज्य-न्याय का,
आज रुधिर से लाल हुआ है,
किरिच-नोक पर अवलंबित ,
व्यापार , जगत बेहाल हुआ है। 04
किसानों का आर्थिक शोषण और किसान-आंदोलन को दबाने के लिए किए गए अमानुषिक और पाशविक कार्यों का प्रतिशोध लेने के लिए दिनकर ने भूषण की भावरंगिनी और लेलिन की क्रांति-चेतना का आह्वान किया –
देख , कलेजा फाड़ कृषक
दे रहे , हृदय- शोणित की धारे ;
बनती ही उनपर जाती है
वैभव की ऊँची दीवारें ।
धन-पिशाच के कृषक-मेघ में
नाच रही पशुता मतवाली,
आगंतुक पीते जाते हैं
दीनों के शोणित की प्याली ।
उठ भूषण की भावरंगिणी !
लेलिन के दिल की चिनगारी,
युग-मर्दित यौवन की ज्वाला !
जाग-जाग , री क्रांति कुमारी ! 05
‘रेणुका ‘ में क्रांति की जो चिनगारियाँ धीरे-धीरे सुलग रही थी , ‘हुंकार’में प्रज्वलित अग्नि का रूप धारण कर लेती हैं। दिनकर अतीत का आँचल छोड़कर वर्तमान में आते हैं। दो महान् शक्तियों के वज्रसंघात की चिनगारियाँ संपूर्ण भारत-भूमि पर फैल गई। एक ओर ब्रिट्रिश साम्राज्य की संहारक और ध्वंसक शक्ति तो दूसरी ओर भारतीय जनता के त्याग का अपार बल। ज्वालाओं से घिरे हुए रुधिर-सिक्त वातावरण में उन्होंने क्रांति के गीत गाए। पराधीन देश के कवि की भावनाएँ ,प्रकाशन और मुद्रण पर लगे हुए प्रतिबंधों के कारण विवश और असहाय हो उठी। विवशता में भी दिनकर के क्रांति ,विद्रोह और आक्रोश का स्वर मंद नहीं हुआ। उन्होंने ब्रिट्रिश-दमन नीति को चुनौती दी ; गला फाड़-फाड़ कर गाया –
वर्तमान की जय अभीत हो, खुलकर मन की पीर बजे,
एक राग मेरा भी रण में , बंदी की जंजीर बजे ।
नई किरण की सखी , बाँसुरी , के छिद्रों से कूक उठे,
साँस-साँस पर खड्ग-धार पर नाच हृदय की हूक उठे। 06 उन्होंने नव जागृति-काल के जलते हुए तरुणों और मूक होकर अत्याचार सहती हुई जनशक्ति को क्रांति की चुनौती दी –
नये प्रात के अरुण ! तिमिर-उर में मरीचि-संधान करो,
युग के मूक शैल ! उठ जागो, हुंकारों, कुछ गान करो। 07
‘असमय आह्वान ‘ कविता में व्यक्त अंतर्द्वंद्व केवल दिनकर के मन का ही द्वंद्व नहीं है, उनके युग के युवक वर्ग का द्वंद्व है , जो जीवन में राग और रण का सामना एक साथ कर रहा था। दिनकर ने रजनीबाला के अवतंस और मंजीर, विधु के मादक श्रृन्गार से संबंध तोड़कर रजतश्रृंगी से भैरव नाद फूँका। मृतिका-पुत्र दिनकर ने विवस्वान के प्रकाशपुंज को चुनौती दी –
ज्योतिधर कवि मैं ज्वलित सौर- मंडल का,
मेरा शिखंड अरुणाभ, किरिट अनल का ।
रथ में प्रकाश के अश्व जुतें हैं मेरे
किरणों में उज्ज्वल गीत गुँथे हैं मेरे । 08
‘हाहाकार ‘कविता में उनकी दृष्टि चारों ओर फैले हुए शोषण, अत्याचार और राजनीतिक दमन पर केंद्रित हुई। विजित, पराजित और शोषित की सहिष्णुता तथा शांति का उपहास करते हुए उन्होंने कहा –
टाँक रही हो सुई चर्म पर ,शांत रहे हम , तनिक न डोलें,
यही शांति , गरदन कटती हो ,पर हम अपनी जीभ न खोलें ।
शोणित से रंग रही शुभ्र पट, संस्कृति निष्ठुर करवालें
जला रही निज सिंहपौर पर, दलित-दीन की अस्थि मशालें। 09
‘ अनल किरीट ‘ में उन्होंने जनशक्ति को अत्याचारी शासक वर्ग की टक्कर में मर मिटने की चुनौती दी।‘भीख ‘ में उन्होंने भगवान से लहू की आग, मन का तूफान, असंतोस की चिनगारी, शोणित के अश्रु और अंगार माँगे हैं ताकि क्रांति की ज्वाला फूट पड़े।
‘ पराजितों की पूजा ‘ और ‘ कल्पना की दिशा ‘ इस प्रसंग में विशेष रूप से उल्लेखनीय है।ये दोनों ही कविताएँ उस समय लिखी गी थी जब गाँधी ने सत्याग्रह-आंदोलन रोकने की आज्ञा दे दी थी – जब सुभास, जवाहर और जय प्रकाश का हौलता हुआ खून गाँधी के शांति और समझौते की नीति से ठंढा किए जाने को तैयार नहीं था।जिस सविनय अवज्ञा आंदोलनके लिए कांग्रेस अध्यक्ष ने भारतीय जनता को उसकी दृढ़ता और अपराजेय शक्ति के लिए बधाई दी थी , उग्रदल के युवक नेता उसे गाँधी तथा भारत की पराजय मानते थे। उनका उष्ण रक्त साम्राज्यवादी सत्ता को निकाल बाहर करने के लिए उबल रहा था। दिनकर ने भी इसे भारत की पराजय ही माना। उन्हें लगा कि गाँधी की नीति भारत की जवानी को , उसकी प्रज्वलित ज्वाला को मिट्टी में मिला रही है ।गोरा-बादल की माँ और जौहर की रानी का तेज प्रशमित कर उनके साथ अन्याय कर रही है। उनके मन की ज्वाला तलवार चलाने पर प्रतिबंध के कारण घुटने लगी , मन का तुफान अवरूद्ध होकर बोल उठा –
जीवन का यह शाप सेवते हम शैलों के मूल रहे ;
बर्फ गिरें रोज , बेबस खिलते-मुरझाते फूल रहें
बँधी धार, अवरुद्ध प्रभंजन , वनदेवी श्रीहीन हुई ,
एक-एक कर बुझी शिखाएँ , वसुधा वीर-विहीन हुई। 10
जब गाँधी ने अंग्रेजों की तोप का उत्तर तकली और चरखे से देने का निर्णय किया तो दिनकर ने लिखा –
ऊब गया हूँ देख चतुर्दिक अपने
अजा-धर्म का ग्लानि विहीन प्रवर्तन
युग-सत्तम संबुद्ध पुन: कहता है ,
ताप कलुष है,शिख बुझा दो मन की
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तुम कहते हो सिखा बुझा दो ,लेकिन
आग बुझी ,तो पौरुष शेष रहेगा ? 11
स्वतंता के पश्चात् दिनकर द्वारा लिखे हुए प्रमुख ग्रंथ हैं – “ रश्मिरथी “ , “ नीलकुसुम “ , “नए सुभाषित “ , “उर्वशी “ और “ परशुराम की प्रतीक्षा “ । “रश्मिरथी “ परंपरा के मोह से लिखा हुआ प्रबंध काव्य है जिसमे कुंती के ‘ अवैधपुत्र ‘ अथवा ‘ सूतपुत्र ‘ कर्ण की गौरव-गाथा का गान हुआ है। कर्ण के चरित्र के द्वारा सामाजिक प्रश्नों को उठाया गया है। इसकी पृष्ठभुमि में कोई विशेष ऐतिहासिक घटना नहीं है बल्कि इसकी मूल प्रेरणा सामाजिक है। “ नील कुसुम “ की कुछ रचनाओ की पृष्ठभूमि में भारत की राजनीति के विविध पक्षों , पंचशील के सिद्धांतों तथा अन्य सामाजिक घटनाओं को ग्रहण किया गया है। इस प्रसंग में ‘ जनतंत्र का जन्म ‘
कविता उल्लेखनीय है जो 26 जनवरी ,1950 को भारत के गणतंत्र के निर्माण के अवसर पर लिखी गी थी। इस कविता की प्रसिद्ध पंक्ति है –
सदियों की ठंढी –बुझी राख सुगबुगा उठी ,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है ;
दो राह, समय के रथ का घर्घर –नाद सुनो ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ‘ 12
‘ किसको नमन करूँ मैं ‘ , राष्ट्रदेवता का विसर्जन ‘ और ‘ हिमालय का संदेश ‘ कविताओं में दिनकर राष्ट्रवाद की सीमा का अतिक्रमण कर विश्वबंधुत्व की ओर बढ़ रहे थे तथा ‘ नये सुभाषित ‘ की कुछ कविताओं में वर्तमान व्यवस्थाओं की विषमताओं पर हल्के-फुल्के छींटे डाल रहे थे कि चीन के आक्रमण ने उन्हें फिर राष्ट्रवाद की ओर मोड़ दिया। यहाँ यह तथ्य स्मरणीय है कि दिनकर का आक्रोश केवल चीन के आसुरी वृत्ति के प्रति नहीं है , वे चीन के आक्रमण के लिए भारतीय राजतंत्र और विचार दर्शन को उत्तरदायी मानते हैं। सत्ताधारी राजनीतिज्ञों की निर्वीर्य शांति नीति ,उनके अनुसार चीन के इस दुस्साहस के लिए उत्तरदायी है। ‘परशुराम की प्रतीक्षा ‘ की पृष्ठभूमि में चीन के आक्रमण की घटना उतनी नहीं है जितनी उसके लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँ ।इस कविता में गाँधीवाद के नाम पर चलती हुई कृत्रिम आध्यात्मिकता तथा निर्वीर्य कल्पनाओं का खंडन और विरोध किया गया है। भारत की शांति और तटस्थ नीति की अव्यवहारिकता और भ्रांत आत्मप्रधान दर्शन का विरोध किया गया है तथा राजनीतिक सत्ताधारियों के भ्रष्टाचारों और आंतरिक अव्यवस्थाओं की ओर संकेत किया गया है –
घातक है जो देवता सदृश दिखता है ,
लेकिन , कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं ,गोत्र प्यारा है ,
समझों उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है ,
या किसी लोभ से विवश मूक रहता है।
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक् है ,
यह मूक सत्यहंता कम बधिक नहीं है। 13
इस प्रकार हम पाते हैं कि स्वतंत्रतापूर्व और स्वतंत्र्योत्तर दोनों ही युगों में दिनकर की कविताओं में समान रूप से क्रांति और विद्रोह का स्वर ध्वनित हुआ है। राष्ट्रीयता का ओजस्वी स्वर जो राष्ट्रकवि दिनकर की रचनाओं में दृष्टिगत होता है , उनके समकालीन एवं परवर्ती किसी भी अन्य कवि में नहीं दिखाई देता। ओज और पौरूष का यही भाव उन्हें अपने समय का सुर्य तथा संपूर्ण अर्थ में राष्ट्रकवि बनाता है।
संदर्भ –
1) “ रेणुका “ – दिनकर तृतीय संस्करण , पृ. 02 ( ‘ मंगल आह्वान’ कविता )
2) “ रेणुका “ – दिनकर तृतीय संस्करण , पृ. 18
3) “ रेणुका “ – दिनकर तृतीय संस्करण , पृ. 19
4) “ रेणुका “ – दिनकर तृतीय संस्करण , पृ. 30
5) “ रेणुका “ – दिनकर तृतीय संस्करण , पृ. 32
6) “ हुंकार” -दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.13 ( ‘ वर्तमान का निमंत्रण’ कविता )
7) “ हुंकार” -दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.14 ( ‘ वर्तमान का निमंत्रण ’ कविता )
8) “ हुंकार” -दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.16 ( ‘आलोकधन्वा’ कविता )
9) “ हुंकार” -दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.23
10) “ हुंकार ‘’ – दिनकर प्रथम संस्करण, पृ. 55
11) ) “ हुंकार “- दिनकर प्रथम संस्करण ,पृ. 68
12) “ नील कुसुम “-दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.58
13) “ परशुराम की प्रतीक्षा “-दिनकर प्रथम संस्करण, पृ.03
– आदित्य अभिनव उर्फ डॉ. चुम्मन प्रसाद
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी)
भवंस मेहता महाविद्यालय,भरवारी
कौशाम्बी (उ. प्र. ) 212201
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