ठंड हो या बरसात कीरत रात को मचान पर ही सोता है। उसे कहीं और नींद ही नहीं आती।
इस मचान की ‘शयन सुविधा’ का वह अकेला स्थायी भोगी नहीं है। चार – पाँच और भी ‘मचानपकड़’ संगी – साथी हैं जो यहाँ रोज रात को ‘निष्कंटक नींद’ का आनंद भोगते हैं। कुछ लोग इन्हें ‘मचानतोड़ गैंग’ के नाम से भी नवाजते हैं।
मचान पर सिर्फ ‘शयन’ ही नहीं होता बल्कि पूरे गाँव- घर का ‘रामायण’ भी हुआ करता है और कभी –कभी ‘महाभारत’ भी। सिर्फ ‘कांड’ और ‘पर्व’ बदलते रहते हैं। सुई से लेकर पहाड़ तक की चर्चा में उनके दुख – तकलीफ, सुख -सपने, इच्छाएँ- आकांक्षाएँ, लक्ष्य – योजनाएँ आदि सब स्वाभाविक रूप से शामिल हो जाते हैं। पेट – भर भोजन के बाद आह – भर ‘गप्पाचार’ दिल के बोझ को हल्का कर देते हैं और मचान पर इनकी नींद को अतिरिक्त गहराई भी दे जाते हैं। एक बार आँखें लग गईं तो कोई जगाने भी नहीं आता।
कीरत अपनी शादी के दूसरे दिन भी घर में नहीं सोया था। आधी रात को इन्हीं मचानतोड़ मीताओं ने उसे मचान से धक्के देकर घर में दुल्हन के पास भेजा था। इनकी आपसी तालमेल अद्भुत थी। पाँच -छह साल पहले जब मोबाइल- फोन हर हाथ में नहीं आया था तब यह मचानतोड़ मंडली दूरानुभूति (टेलीपैथी) पर आश्रित होती थी। यह दूरानुभूति इतनी सहज और सटीक होती थी कि मचान पर कभी कोई एक आता तो बाकी भी हवा सूँघते – साँघते एक – एककर वहाँ चले आते और फिर शुरू होता था देस – दुनिया से लेकर पेट्रोल-डीजल के दाम और आलू – पटसन के बाजार- भाव तक पर चर्चा । खेती से खाली दिनों में ताश का पूर्णदिवसीय दौर भी चलता। यह दौर बिल्कुल इत्मीनान और सुकून का होता था। पूरा दिन मचान के चारों कोने भरे रहते थे। बीच – बीच में चाय भी आती। कोई तंबाकू चुनियाता तो कोई पनबट्टी से निकाल पान बनाता। पान- तंबाकू की लाल – भूरी थूक से मचान के पास की जमीन पटी रहती थी। कीरत की घरवाली चाय बनाते – बनाते परेशान हो जाती। चाय जब उत्तरोत्तर पतली – फीकी होती चली जाती तो सबकी समझ में आने लगता कि अब ‘गृह – विभाग’ की तरफ से ताश या गप्प की बैठकी पर तत्काल प्रभाव से विराम लगाने का ‘सिग्नल’ आ गया है।
.. लेकिन उस रात को बीरन नहीं आया। देर रात तक मचान पर बातें होती रहीं। कड़ाके की ठंड थी। ऐसी ठंड कि इसमें सिर्फ बोलते वक्त मुँह पर से थोड़ी रजाई हटाने – भर की छूट ली जा सकती थी। यद्यपि इसकी ज्यादा छूट साँसों को जमा सकती थी।
“आखिर बीरन ससुराल से लौटा क्यों नहीं ?” – मचान से बीरन की अनपेक्षित रूप से लंबी अनुपस्थिति पर यह पहला सवाल था जिसे कीरत ने उठाया । मोबाइल भी लग नहीं रहा था। बीरन अपनी ससुराल में एक दिन से ज्यादा कभी नहीं रुकता था। दूसरे दिन शाम तक गाँव जरूर लौट आता था लेकिन इस बार …? सवाल अपनी जगह कायम था और अगले चार दिनों तक कायम रहा।
इस बार बीरन सचमुच चार दिनों के बाद ससुराल से घर लौटा था। वो भी सुबह – सुबह। पाँच बज रहे होंगे। कुहासा अभी भी जैसे किश्त या खेप में धीरे – धीरे उतर रहा था। पूरा गाँव मानो तेज – तापस्खलित हो शिथिल पड़ा था। बिजली – खंभे पर जलते बल्ब की पीली रोशनी भी बिल्कुल निस्तेज- निर्बल होकर हवा में लटकी – सिमटी लग रही थी।
बीरन ने रजाई के ऊपर हाथ डाल कीरत को हिलाना शुरू किया। कीरत था कि टस- से- मस नहीं हो रहा था। जाड़े की सुबह की प्रमादिनी आलस्यकारिणी नींद के समक्ष किसका वश चलता है ? रजाई के भीतर का गर्म अँधेरा आँखों में मानो नशा बनकर छाया रहता है।
कल तो उसने दिन भर ट्रैक्टर से पाँच बीघा जोत भी किया था और उस पर रात को बीवी के हाथों बनाया मुर्ग मसल्लम ! कड़क और गरमागरम !! आह – भर खाया सो नींद…
“कीरत, उठ हम…”
“अरे जा अभी, सोने दे…”
कीरत ने रजाई के अंदर करवट बदलने की असफल कोशिश की।
“नहीं कीरत, यह सोने का समय नहीं है, यह तो जागने का समय…”
कीरत को लगा – बीरन को हो क्या गया है ? ऐसी बातें तो वह कभी नहीं करता था। जागने का समय है? कहीं इसके ससुरालवाले ने जबरदस्ती इसे कबीर- पंथी कंठी तो नहीं दे दी ? ऐसा तो कंठीधारी के कंठ से ही फूटता है – “जाग मुसाफिर भोर…।”
बीरन ने कीरत को फिर हिलाया- डुलाया।
“अरे जागो, कीरत…”
“अब तुम भी कबीर पंथी हो गए बीरन…”
“नहीं नहीं कबीर- पंथ नहीं, मानुस कंपनी बोलो, कीरत।”
“मानुस- कंपनी?” – यह मानुस कंपनी कौन – सी कंपनी होती है, कीरत को नाम भी थोड़ा अजूबा लग रहा था। परन्तु बीरन अपनी बात में कभी मिर्च- मसाला नहीं लगाता। हाँ उसे थोड़ा ऊँचा बोलने की आदत जरूर है।
परन्तु अभी कीरत ने गौर किया – ‘मानुस कंपनी’ बोलते हुए उसकी आवाज़ भी बिल्कुल ऊँची नहीं थी। उसमें थोड़ी फुसफुसाहट उतर आयी थी।
“कबीर पंथ या मानुस कंपनी …? क्या है बीरन , साफ – साफ तो बता”
“अरे, हल्ला मत कर कीरत, ऐसा है कि यह एक कंपनी है, चमत्कारी कंपनी जो…।” – बीरन फुसफुसाकर पूरी बात बता गया ।
परन्तु बात – चीत का स्वर ऊँचा होते देर नहीं लगी। बगल में सोये देवन की आँखें ऐसे खुली रह गईं जैसे उसने कान से नहीं आँखों से सुना हो और वह रह न पाया – “इ तो सचमुच चमत्कार है भाई…”
‘चमत्कार’ सुनकर अन्य दो मचान साथी भी कान लगाकर रजाई के अंदर जैसे ‘अलर्ट’ हो गए और उनके भी रोम – रोम में जैसे कान उग आए।
“लेकिन ज्यादा हल्ला- गुल्ला अभी ठीक नहीं। पहले आजमाकर देख लो, फिर…” – कहते हुए बीरन के मुँह से भाप निकल रहा था।
“लेकिन ये सब कैसे ? कहीं ‘फराॅडगिरि तो नहीं है यह ?”
“अरे इसलिए तो ससुराल में रुकना पड़ा, पिछले एक महीने में उस गाँव में किसको क्या नहीं मिला ? झोपड़ियों को फाड़कर कितने मकानों की दीवारें उठ गईं। और तो और… आँखों देखा – कुछ झोपड़ियों के सामने भी कार, बड़ी गाड़ी… मेरा साला भी अब दो मंजिला मकान ठोकेगा और ट्रैक्टर, स्कारपियो …।”
“लेकिन कंपनी इतना नकद लाती कहाँ से है, बीरन ?”
“वो छोड़ कीरत, यह देख नकद बढ़ाकर लौटाती है कि नहीं। बाकी बातें जानकर हमें क्या करना?” – बीरन ने मुद्दे की बात रखी।
“लेकिन ये सब तुम्हारे साले ने तुम्हें पहले नहीं बताया ?”
“बताया था भाई, कई बार काल भी किया था लेकिन मैं था अभागा। घरवाली ने भी जिद की थी। परन्तु मुझे यह सब झूठ- फरेब का जाल लगा था। मैं भी इसे…। परन्तु आज आँखों देख लिया , कैसे भरोसा नहीं होगा ? यही समझो कि गंगा बगल से बह गयी कीरत और मैं पीठ…।”
कीरत का दिल थोड़ा डोल गया। उसने अपनी रजाई के एक कोने का छोर बीरन के पैरों पर भी डाल दिया। बीरन के मौजे की दुर्गन्ध रजाई के अंदर कैद हो गई और देवन को थोड़ी राहत मिली।
“देखो काॅल आ रहा है अभी, आज ग्यारह बजे कंपनी के लोग आ रहे हैं।”
मोबाइल की रिंग से अन्य मचान पार्टनर की नींद पूरी तरह खुल गई थी।
आदमी के लिए मोबाइल रिंग अब किसी अलार्म से कम नहीं।
लेकिन कीरत के भीतर कुछ और ही अलार्म बजना शुरू हुआ। उसे गाँव में घटी दो – तीन घटनाएँ याद आ गयीं और मन में एक परिचित आशंका जाग गई ।
कुछ साल पहले भी गाँव में कुछ ‘अजनबी आगंतुक’ आए थे। अलग-अलग रूपों में । सबके अपने – अपने जाल थे। कहीं इस बार भी ऐसा ही कोई …?
…पहला अजनबी आगंतुक हाथ में लाल रजिस्टर लेकर आया था। खुद को सरकारी कर्मचारी बताते हुए उसने इतना ही कहा था कि जिले में गरीबी रेखा में नाम – लिखौनी का यह अंतिम चरण है । इस बार जो छूट गया, समझो उसका इंदिरा आवास गया। फी परिवार सिर्फ हजार रुपये…और लोग टूट पड़े थे। इसी मचान पर बैठ रजिस्टर और छोटे कम्प्यूटर दिखाकर उसने दिन – भर में लाखों वसूल किए थे। वह गया सो आज तक…।
…और वह बीमा कंपनीवाला ! उस साल गाँव में धान बहुत उपजा था। “ साल में हजार भरो, एक करोड़ पाओ” – सुनते ही लोगों के मन में करोड़पति बनने की उद्दाम इच्छा हिलोरें लेने लगी थी। फिर क्या था, मरकर भी करोड़पति कहलाने के लिए सैकड़ों आकांक्षी, अभ्यर्थी बनकर कतार में खड़े हो गए थे । मरने के बाद किसी को करोड़ तो क्या, एक धेला भी नसीब नहीं हुआ ।
जो बचा – खुचा सो कोई चिटफंड कंपनी वाला ले गया। पूरे इलाके में उसके कितने लोग एकाएक जैसे ‘फर’आए थे। उनकी “खुश खबरी ! खुशखबरी!! खुशखबरी!!!” की धूम मच गई थी। “एक लगाओ, तिगुनी पाओ” सुनकर लोगों ने फिर उनकी भी बोरी भर दी थी। कुछ लोगों को तिगुनी मिली भी। फिर तो महीनों गए, ‘खुशखबरी’ नहीं आई। तब लोगों ने पूछा भी था – “ चिट फंड कंपनी का मतलब कहीं चीटिंगबाज …. ?”
“नहीं, नहीं इस बार ऐसा नहीं है कीरत, तुम्हें भरोसा नहीं तो कोई बात नहीं लेकिन मैं तो..।”- बीरन की बात से कीरत को थोड़ी तसल्ली हुई ।
“अगर ऐसा है तो फिर…”
बीरन को लगा था – गंगा अब सामने बह रही है और वह किनारे से नीचे उतर रहा है। उसे भी डुबकी लगानी है। लेकिन नहीं, नहीं …अकेले डुबकी नहीं लगाएगा। वह अपने सारे मचानतोड़ मीताओं के साथ गंगा नहाना चाहता है। फिर अकेले डुबकी लगाने में भी तो…।
“शुभ काम में विलंब क्या कीरत ?” – बीरन ने कीरत को सुझाव दिया। उसकी बात सुनकर मचान पर सोये तीनों लोग उठ बैठे। मचान की बत्तियां कर्र – कुर्र करने लगीं। रजाई के अंदर गर्मी भी एकाएक बढ़ गई ।
“मेरा भी पचास हजार…”- किशन ने कहा ।
“मेरा पैसा तो शाम तक ही आ पाएगा।” – बालो ने जैसे थोड़ी मोहलत माँगी।
“तुम्हीं कुछ लगा दो न मेरे नाम पर, फिर मूल का मूल वापस ले लो ?” – नागे ने प्रस्ताव रखा।
नागे की बात सुनकर बीरन ने जवाब दिया- ओहो, मछली के तेल में ही मछली तलना चाहते हो नागे ? सुधरोगे नहीं तुम।”
नागे दरअसल मछली की सूँगठी का कारोबारी था। उसके हाथ अभी खाली थे। सप्ताह भर पहले अपना सारा माल मंडी भिजवाया था परन्तु उसके सेठ ने अभी तक भुगतान नहीं किया था।
“कबतक सूँगठी सूँघते रहोगे नागे ? यही मौका है ।”- देवन की यह चुटकी भी आज नागे को खूब जँची थी।
सिर्फ दो दिन बाद पाँच गुना। एक लाख का पाँच लाख सिर्फ दो दिन बाद । चमत्कार …!
“इतना रिटर्न कौन – से बैंक में मिलेगा भाई ?” – बीरन का दावा था।
“लेकिन नोट तो असली होगा न बीरन ?” – कीरत ने सवाल किया।
“अरे भाई, असली नोट नहीं थे तो इतने लोगों ने खर्च कैसे किए ?” – बीरन की दलील में दम था ।
“बात तो सही है” – बालो ने जैसे मुहर लगाई ।
“सब दुख- दलिद्दर दूर भैया”- कीरत ने इस बार सुनहरे भविष्य की झलक दे दी। सबकी आँखों में एक साथ कई छोटे-बड़े सपने बुलबुलाकर उग आए जैसे रात में भिंगोये चने की पोटली के अंदर सुबह तक अनगिनत दाने एक साथ अंकुआ उठते हैं।
“दस लाख मिल जाए तो सबसे पहले अधूरा मकान…”- कीरत की आँखों के सामने चटक रंग के पोर्टिकोवाला एक मकान सजीव हो उठा, पैरों के नीचे संगमरमर पत्थर की चिकनाई और ठंडक तलवों को गुदगुदाती जैसे सहस्रार तक पहुँच गयी। नज़र के सामने बड़ा अहाता, उसके अंदर पार्किंग छतरी के नीचे खड़ी एक कार , अहाते के भव्य लौह – द्वार पर भवन का नाम- ‘….भवन’ !
“ढाई लाख मिलें तो बैंक का कर्ज भी खतम और एक मोटरसाइकिल…”- किशन की दाहिनी हथेली में गुदगुदी उठने लगी थी।
“बस एक लाख ही दिलवा दो भाई, कम से कम बेटी का गौना” – बालो भावुक हो उठा था। उसकी बेटी दो साल से घर में पड़ी है। ससुरालवाले अभी भी फर्नीचर की ‘डिमांड’ पर अड़े हुए हैं ।
लेकिन बीरन सोच नहीं पा रहा था कि उसे जो पैसे मिलेंगे उनका करेगा क्या ? सूदभरना पर रखी जमीन छुड़वाएगा या डेयरी फार्म खोलेगा ?… नहीं, नहीं, वह पहले अपने ‘गृह- विभाग’ से पूछेगा। वह मचान से उठकर आँगन चला गया ।
किशन और बालो भी उठकर ‘नकद’ के जुगाड़ में निकल पड़े।
कुहासा थोड़ा हल्का होने लगा था। हवा सुस्त हो गयी थी और ठंडक भी थोड़ी कम होने लगी थी। दिन साफ हो रहा था। कई दिनों बाद आज शायद धूप निकलेगी।
ग्यारह बजते – बजते धूप सचमुच निकल भी आई। सड़क पर लोगों की आवाजाही थोड़ी- थोड़ी शुरू हो गयी थी और पूरे सप्ताह के बाद गाँव में सामान्य जीवन की हलचलें देखने को मिल रही थीं।
बारह बज चुके थे। अभी तक कोई कंपनीवाला नहीं आया। मचान पर बैठ कीरत और बालो तीन बजे तक उनकी राह देखते रहे। कंपनीवाले तो नहीं आए पर बीरन का काॅल जरूर आया – “वे लोग देर शाम तक जूमेंगे, उसके साला ने अभी मेसेज दिया है।”
उम्मीद पूरी होने का क्षण थोड़ा आगे खिसक गया। इतना आगे कि पता चला अब वे लोग कल आएँगे। सबकी उम्मीद कल पर जा अटकी ।
“लेकिन कल तक तो यह बात पूरे गाँव में….।” – कीरत की आशंका थोड़ी गहरा गयी थी। बहती गंगा में हाथ धोने का मौका ‘मचानतोड़ गैंग’ के पहले किसी के हाथ न लगे, यह पहली चिंता थी।
पहली बार हुआ था कि मचान पर उन्हें नींद नहीं आई थी। मचान की बत्तियाँ उसकी पीठ में रात – भर गड़ती – सी रहीं। भोर तक कुहासा और भी कहर बरपाने लगा था।
“लगता नहीं कि दिन आज साफ होगा, क्यों कीरत ?” – बीरन ने निराशा भरे लहजे में कहा था।
पर नागे खुश हो रहा था – “यह तो खुशी की बात है कीरत, लोग भले ही घरों में बंद रहेंगे और बारिश भी हो जाए तो मजा आ जाए। यह खुशखबरी मचान तक ही रहेगी न ?”
“क्या बकते हो नागे ? सूँगठी सुखाते- सुखाते आँख का पानी भी सुखा लिया क्या ? माल – मवेशी ठंढ के मारे पहले से ही कठुआकर मरे जा रहे हैं और तुम बारिश..सबको पानी की मछली ही समझते हो क्या ?” – कीरत ने नागे के निर्मम और स्वार्थी नज़रिये का प्रतिवाद किया।
लेकिन नागे का नज़रिया साफ है – सत्संग में नहीं सुना – आपन काज सँवारू रे..? कौन जरा, कौन मरा, उससे क्या लेना – देना ?”
“सूँगठी खाकर सत्संग की बात को कैसे समझोगे नागे? अर्थ का अनर्थ कर रहे हो तुम।”- बालो ने हिदायती लहजे में छौंक मारा।
“देखना सुबह-सुबह वर्षा नहीं हुई तो..।” – नागे ने विश्वासपूर्वक अपनी मूँछें मुड़वा लेने की शर्त पर बाजी लगाई।
“जाओ जाओ नागे पहले मूँछ उगाकर आओ” – किशन ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया। नागे के चेहरे पर मूँछ- दाढ़ी उगती ही नहीं थी। औरतें उसे ‘निमोछा मरद’ कहती थीं – “ जिस मरद की मूँछ नहीं, उसका कुछ नहीं।”
परन्तु नागे का मौसम – पूर्वानुमान सही निकला। सुबह होते ही बारिश होने लगी थी। सभी मचान पर बैठ ठंड का कहर देख रहे थे। बीरन का मोबाइल अचानक घनघनाया। उसके साला का काल था। उसे थोड़ी धुकधुकी लग गयी और सबके कान फोन पर टिक गए। कंपनीवाले के आने की खबर होगी। बीरन ने आवाज़ मद्धिम कर मोबाइल को स्पीकर मोड में डाल दिया था ।
“अरे उनलोगों को रात में ही पुलिस…”
पूरी बात सुनने का न साहस रहा, न जरूरत रही। सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे ।
परन्तु बीरन को अभी भी भरोसा था।
“अरे, पुलिस का क्या ? वो तो पैसे लेकर…”- बीरन ने यह कहकर जैसे ठंडी हवा में तत्काल उम्मीद की गर्मी फूँक दी। यह सही था कि कंपनीवाले स्थानीय पुलिस के हाथों पहले भी पकड़े गये थे और बाद में छूटकर बाहर आ गये थे।
काॅल फिर आया – “ नहीं, नहीं उन लोगों को इस बार एस पी साहब ने खुद धर दबोचा है, चार सौ बीसी में, इस बार कोई चांस नहीं है। अब तो जेल …।”
सबके मुखमंडल पर मनोमालिन्य अब स्पष्ट दीख रहा था।
बारिश की बूँदें तेज हो गयी थीं। उस पर तेज हवा का ठंडा झोंका। मन की सारी हूब ठंडी पड़ गयी थी।
बीरन ने देखा – कोई अधेड़ औरत मचान की तरफ आ रही थी।
“बीरन बाबू, हमारा भी एक हजार लगा दो कंपनीवाले को, बकरी – खस्सी बेचकर लाई हूँ।”
कीरत अचंभित था।
इतनी ठंड में एक पुरानी पतली सूती चादर में लिपटी जैमंती मचान के पास खड़ी अपने आँचल की गाँठ खोल रही थी और कीरत उसके ठिठुरते हाथ की ओर देख रहा था।
…और बीरन के मन में अभी एक ही सवाल उठ रहा था – “ आखिर इसे कैसे पता चला ?”- ।
दिलीप दर्श, पुणे, महाराष्ट्र