निज ध्येय
सुदूर गगन में
टिमटिमाते तारे को देख,
क्या जाने,क्यों मुसकाता हूँ?
दुख तज सारे
खो चकाचौंध में
हर्षित हो मैं जाता हूँ।
साम्य नहीं कुछ
वो हृदयहीन है
मैं उससा निष्प्राण नहीं।
वो जगमग,
मैं तेज़हीन
ऊँचा होने का मुझमें मान नहीं।
खो भीड़ में
अस्मिता की तलाश
मैं भी करता उससा हरपल।
करने दूर तिमिर
जलता वो पल पल,
कहाँ उद्देश्य अलग,मैं भी लड़ता जीवनभर।
टूटता वो भी,
नहीं विजेता अजेय
जीता मैं भी मर मर, पाने को निज ध्येय।
बेहतर कल
न सत्ता का निंदक मैं
न पदवंदक हूँ,
कोमल मन मेरे भी भीतर
न तटस्थ चिंतक हूँ,
नहीं तेवर विद्रोही ले बस
अंगार उगलता हूँ
न जीभ लपलपाती मेरी
न टुकड़ों पे पलता हूँ,
सूरज तपकर जीवन देता
तानाशाह कहूँ कैसे?
आशीष निकले मन से अगर
मुँह अपना सीयूँ कैसे?
सत्ता में बैठा अगर वह तो
बस विद्रोही हो जाऊँ,
वियोगी था पहला कवि तो
बस वियोग ही गाऊँ,
न विद्रोही का तमगा लेकर
मुझको इतराना है,
न सत्ता की चाटुकारिता
कुछ मुझको पाना है,
बस प्रबुद्ध कहलाने की खातिर
छिद्रान्वेषी नहीं बनना,
विश्वामित्र सा सिद्ध करने को
समानान्तर स्वर्ग नहीं गढ़ना,
कवि हूँ कवि कर्म नहीं भूला
बस भाव जताता हूँ,
न भरमाता स्वार्थ सिद्धि को
सच कह पाता हूँ,
बस सच को सच कह पाऊँ
इतना अधिकार चाहता,
आज से बेहतर हो कल
ऐसा संसार चाहता।
अंतस की धधक
क्यों उबल पड़ता हूँ
गर बात सुनता नहीं कोई।
ये सहज उत्प्रेरणा या
अराजकता का प्रस्फुटनहै।
प्रवृत्ति दानवी या
मानवता का विस्मरण है।
बढ़ते अहंकार का
या कि ये फैलाव है।
या कमज़ोर नस
दबने की तिलमिलाहट।
टूटते स्वप्नों की
प्रकट होती झल्लाहट।
अंतस की धधक का
या सहज विस्फोट कोई।
जो लावे की मानिंद
चाहता लीलना सबकुछ।
या कि प्रवृत्ति मानवी
महज ज़िंदा होने का प्रमाण।
द्वंद्व में झूलता
हो जाता हूँ असहज।
महज फट पड़ना
क्या ज़िंदा होने की गवाही?
या कि ज़िंदगी
भी चाहती है संतुलन।
निकलकर उन्माद
ले सके एक नया आकार
और उपजी रिक्तता
अस्वीकार्य को भी ले स्वीकार।
विजय अभियान
ब्रह्मा नहीं मैं
जो लिख डालूँ
तुम्हारा भाग्य।
यूँ रघुवंशिय दशरथ ने
दे ही डाला था
युवराज पद,
ज्येष्ठाधिकार भी
आरक्षित था,
पर प्रारब्ध
राजसिंहासन से हटा
दे गया वनवास।
पर ठहरो
अर्जित पुरुषार्थ ने
ढूँढ़ा अवसर,
तपा कुंदन,
रचा इतिहास,
कह लो
इसे भी प्रारब्ध
पर यह था
पुरुषार्थ का प्रारब्ध पर
विजय अभियान
जिसने गढ़ा
मर्यादा पुरूषोत्तम राम।
यंत्रों की यातना
क्यों बने
ये आधुनिक यंत्र
कितना कुछ तोड़ डाला –
वो आवरण
जिसने ढँका था
दरकते रिश्तों को,
वो उम्मीद
झूठी ही सही
मगर पलती थी,
वो विश्वास
जिससे बँधा था
अपनो का साथ,
वो संशय
जिसमे डोलते हुए
बुदबुदाते थे प्रार्थना,
वो इंतज़ार
जिसकी मिठास में
पुलकता था मन,
वो वहम
पहुँची नहीं बात
वरना बढ़ता हाथ
वो अकथ
जो बिना माध्यम
मरता स्वभाविक मौत,
वो सबकुछ
जिसे रफ्तार की
नहीं थी दरकार,
यंत्रों की
सहज यातना के
बन गये सभी शिकार
विनोद कुमार मिश्रा, पूर्णिया