“जो कभी हुआ ही नहीं”
जैसे
बहुत से सूर्य हैं,
वैसे
बहुत से
समन्दर भी होंगे
कईं ब्रह्माण्डों में-
मानव
अपने अंहकार से
मानव बनता है-
एक से अनेक होता है
जब,
तो उसका अंहकार भी
बहुत बड़ा हो जाता है-
जिसे जानने के लिए
बार-बार
प्रयास करता है,
वो कभी हुआ ही नहीं-
बर्फ बनने के बाद
बर्फ के आगे
और क्या होता होगा-
न तो
अंहकार जानता है
न ही
अंहकार के वश में
मानव-
कण में कितने ब्रह्माण्ड हैं
और
ब्रह्माण्ड में कितने कण-
केवल प्रश्न है
उत्तर की प्रतीक्षा में-
हो रहा है
जैसे बार बार
घड़े का मिट्टी से
बनने के बाद
पकने तक का प्रयास-
और
घटाकश का
घड़े के साथ-साथ
एक जगह से दूसरी जगह
जाते हुए का भ्रम-
जो कभी हुआ ही नहीं-
जैसे
सूर्य व समन्दर ।
1.
सड़क के
दोनों किनारों पर
ज़रा संभल कर चलिएगा-
दरिया
अपने बच्चे के साथ
गुब्बारा लेने
आता ही होगा।
2.
तुमने तो
अपने घर को
तोड़े हुए फूलों से
सजा तो लिया,
परन्तु फूलों के
परिवार वाले
अभी भी
सदमे में हैं।
3.
बन्दिशों में रहना
अंतरिक्ष का
दस्तूर नहीं-
रोशनी के पर्दे
छुप-छुप कर
इश्क नहीं करते।
‘अजीब अज्ञानता’
बर्बरता
मानव के डी एन ए में है-
उसके अस्तित्व का मूल
अभी तक
प्रश्न बना हुआ है-
उसके सर्वाइवल में
प्रकृति की रफ टफ अनुभवों व
उसी को जीवित रखने के लिए
प्रकृति की ही वस्तुओं का
इस्तेमाल होता रहा है-
आरम्भ से ही
स्त्री पुरुष का
आपसी आकर्षण
सहज सहमति भी है
व असीम घृणा का
अवगुण भी-
गुफाओं से लेकर
अभी तक
मध्यम तरह के
सुलह समझोते से ही
सभी प्राणियों का जीवन
वास्तविक में
चलायमान है-
भेदभाव व अति भेदभाव में
विवेक काम नहीं करता
स्वार्थ व लालच घी का
कार्य करते हुए
मानव का क्रोध
जंगली जानवर जैसा
रूप धारण कर लेता है-
यहाँ सबसे अधिक
स्त्री शोषित हुई थी
अब भी हो रही है
और आगे भी होगी-
क्रोध, स्वार्थ व लालच के
दमन के उपायों की कमी नहीं-
शास्त्र व आधुनिक कानून
इससे भरे पड़े हैं-
सच तो यह है
आजकल भी
घर घर में भेदभाव है
घर घर में
स्वार्थ व लालच है-
स्वाभाविक है
समाज व देश
इन्हीं के प्रतिबिंब हैं
विडम्बना है
शत्रु हमारे सभी के भीतर ही है
और
नाश
स्वयं अपने
व वसुधा का
कर रहेे हैं
व कईं जगह
कर भी चुके हैं
अजीब अज्ञानता है
हम पढ़ रहे हैं
बुद्धिमान हो रहे हैं
उन्नति कर रहे हैं
विकसित हो रहे हैं।
1.
परिन्दों व जानवरों के
हल्के -हल्के
शोर व
खामोशी में भी
टहनियां व पत्तियां
अपने उन्मुक्त
फैलाव में
कभी सवाल नहीं करतीं-
जंगलों में भला
क्यारियाँ कौन बनाता है।
2.
ज़िन्दगी की
दौड़
दिन भर
कतरा-कतरा
दौड़ती रही-
थोड़ा आराम मिले,
रात ने अपना पल्लू
उस पर ओढ़ दिया।
3.
बर्फ का जमाव
कईं सदियों की
कहानियाँ हैं-
इसके
धीरे-धीरे
पिघलने से
हमारे सभी के किरदार
जीवंत होकर
खिलखिला उठते हैं।
4.
कोई देखे या न देखे
कोई गुज़रे या न गुज़रे-
जंगल
उगने व हवा देने से
कभी पीछे नहीं लौटते।
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विजय सराफ ‘मीनानी’, जम्मू