आज साहित्य का अपने समय में कितना हस्तक्षेप रह गया है और उसके अरण्य – रोदन को अधिनायकवाद कितना सुनता है, यह एक चिन्तनीय प्रश्न है, किन्तु कुछ लोग स्वयं को समकाल की आवाज समझने की आत्म – मुग्धता पाले बैठे हैं। और न्यू इंडिया की तर्ज पर न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन खुल गए हैं। कविता और कहानी का थोक उत्पादन हो रहा है और पूंजीवाद ने उनके प्रहार को रस्मी बना कर उसकी धार कुंद कर दिया है। बल्कि साहित्य को सेलिब्रिटी की भूमिका प्रदान कर दी है। पुरस्कार – लोलुप फैशनी, फार्मूला बद्ध और नारा – कविताओं की निरर्थकता एक सार्थक मोड़ पर पहुँच गई है। एक समय था, जब भक्त कवियों की तरह राहुल सांकृत्यायन ने पुरस्कार देने के लिए आमंत्रित करने पर प्रधानमंत्री नेहरू के आवाहन को ठुकरा दिया था कि वहाँ उनके सामने सिर झुका कर पुरस्कार लेना पड़ेगा। नेहरू निराला के यहाँ जा सकते थे, अज्ञेय और राष्ट्र कवि दिनकर की पुस्तकों की भूमिका लिख सकते थे। राजनीति के लड़खडाए पैरों को साहित्य संभाल सकता था, किन्तु आज तो मीडिया और साहित्य के पैर ही लड़खड़ा गये हैं। पूंजी की विषम मार की माया अद्भुत है!
माया महा ठगिनी हम जानी।
कभी एक श्रृंगार के रीतिवादी कवि की दो पंक्तियाँ जयसिंह को रंगमहल से बाहर निकाल लाई थीं —–
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सौं बंध्यौ, आगे कौन हवाल?
आज की कविता में प्रश्नवाचकता तो खूब है, किन्तु टोन गायब है या फिर यह प्रश्नवाचक उंगली खुद की ओर ही घूम गई है। केदारनाथ सिंह कहते हैं कि —–
अब तुम अपने गुस्से को निकाल कर
हथेली पर रख सकते हो
और देख सकते हो कि
उसमें कितना तेजाब है और
कितनी बाजार की धूल।
अब कविता भी बाजार के निशाने पर है और साहित्य में भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश हो चुका है। रूस, ब्रिटेन और अमेरिका से आयत्त बिम्बों, विचारों और अनूदित संवेदना ने प्रगतिशील सोच के नाम पर अनन्वय भारतीय चिंता धारा को अपदस्थ कर दिया है। मोदीजी के अन्ध भक्तों की तरह ही यदि आप मार्क्स, नामवर सिंह या फिर राजेन्द्र यादव की आलोचना कर दें तो कुछ लोगों को मिर्गी आने लगती है या यदि वे सक्षम हैं तो आपकी साहित्यिक हत्या कर देंगे। क्योंकि उनकी दुकान के ब्रांड एम्बेसडर या आइकॉन वही हैं। गोया सबसे उलझने का नामवर सिंह का सर्वाधिकार सुरक्षित है और उनसे कोई नहीं उलझ सकता। यह अंध समर्थन या अंध विरोध दृष्टि हीनता का परिचय पत्र है और आलोचनात्मक विवेक का निषेध भी। जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवादी दिनकर की तो पूजा करते हैं लेकिन उनके श्रद्धेय नेहरू को पाताल में गाड़ देते हैं। इन अंतर्विरोधों या विडम्बना – बोध को लक्ष्य करना साहित्य का धर्म है। किन्तु साहित्य संसार में तो मतभेद और मनभेद का अन्तर ही मिट गया है और जैसे उत्तर प्रदेश में चार गुटों में बंट गए शिक्षक संघ की भूमिका राजनीति में अप्रासंगिक हो गई है और वे सत्ता पर कोई परिणामी दबाव नहीं बना पाते, वैसे ही शिविरबंदी का शिकार साहित्य आपस में ही लड़ता रहता है तो सत्ता से क्या संघर्ष करेगा? एक का बयना दूसरे के घर नहीं जाता और सहित का भाव ही नष्ट हो गया है तो साहित्य की अर्थवत्ता कहाँ बची है? कविता में निर्जीव आक्रोश की भरमार है और कलात्मक संघटन कुंठित हो गया है। अ कवियों को रूपवाद का निषेध कवि होने का वरदान दे गया। गीतिकाव्य की प्रगीतात्मक चेतना और सौन्दर्य – बोध तिरोहित हो गए। साहित्य राजनीति के घर्घर रथ को रोक नहीं सकता किन्तु टोक तो सकता है। पहले सौन्दर्य को नजर लग जाती थी और अब तो टोक भी नहीं लगती। जीवन में सत् भी है और असत् भी, प्रेम भी है और युयुत्सा भी। हमें समग्र जीवन बोध का अध्वर्यु बनना चाहिए। समकालीन समस्याओं को सम्बोधित करते हुए भविष्य के कल्प लोक की रचना भी करनी चाहिए। सुधीश पचौरी के कविता की मृत्यु की घोषणा के बाद भी बहुत से आशावादी स्वर बचे हुए हैं। हमें आज की आवाज नहीं, अपने रचना समय का स्वर बनना चाहिए और समय के शोरीले वातावरण को सुरीले शिल्प में ढालना होगा और कविता के बाजारवाद से बाहर आने की जरूरत है। हम रूस – यूक्रेन युद्धों को तो नहीं रोक सकते लेकिन समूचे विश्व में बढ़ रही कट्टरता और अतिवादी सोच वाली सभ्यता को उदारवादी ग्रहण शील समन्वय स्थापित करने वाली अहिंसक संस्कृति से प्रति संतुलित करने की एक विनम्र कोशिश तो कर ही सकते हैं। साहित्य को शालीन होना चाहिए और विरोधी ध्रुवान्तों में एक रचनात्मक सामंजस्य या समीकरण की तलाश करनी चाहिए। इसे हम सर्व संश्लेषण वाद कहकर खारिज नहीं कर सकते। साहित्य अपनी तात्कालिक अपरिहार्यताओं को अतिक्रमित कर सकता है किन्तु अपनी मर्यादाओं को नहीं। आखिर त्रासदी नाटक का आत्यंतिक लक्ष्य भी आनन्द ही है। अरस्तू का अनुकरण – सिद्धांत भी इसका समर्थन करता है। कविता वह पारस मणि है जो दुख के लौह अयस्क को आनन्द का स्वर्ण व्यक्तित्व प्रदान करता है। लालित्य कविता की अन्तश्चेतना है। दग्ध जीवन के भीतर से ही विदग्ध कूट वक्रताएं फूट पड़ती हैं। परिपाटी ग्रस्त अभिव्यक्ति और बाजारू भाषा से बचते हुए सर्जनात्मक भाषा का आविष्कार एक चुनौती है, जहाँ तत्सम के पड़ोस में तद्भव मौजूद हो। कविता पशु क्लब में पढ़ी जाने वाली चीज कभी नहीं रही परन्तु जब वह शिक्षित लोगों से भी दूर चली गई तो प्रश्न विचारणीय हो जाता है। हमें कविता के शिक्षितों की संख्या बढ़ाने के दायित्व को स्वीकार करना चाहिए। और कविता के अन्त:संगीत को खोजने की जरूरत है। सहस्राब्दियों में अर्जित काव्य – भाषा को तत्समता और आभिजात्य के नाम पर छोड़ कर अकाव्यात्मक खुरदुरी भाषा का प्रयोग कहीं अपने भाषा – बोध के दारिद्र्य का सूचक तो नहीं? चमकीले जीवन के आकांक्षी सोफे पर बैठकर स्वेद – श्लथ , नहीं – पसीने से तर – बतर मजदूरनी पर कविता लिखते हैं तो यह विडम्बना स्वयं वातानुकूलित हो जाती है। जीवन में सादगी या खुरदुरापन पसन्द नहीं है लेकिन कविता में जरूर होना चाहिए। भारतीय साहित्य के सांगीतिक वैशिष्ट्य से जानबूझकर कविता को वंचित करना भाषिक अपराध है।
आपकी प्रगतिशीलता बीसवीं शताब्दी में ठहरी हुई है तो जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि और किसे कहते हैं? मार्क्सवाद को आपने कुरान – पुरान बना दिया है तो वैचारिक रूढ़ियों को कहीं और जाने की जरूरत क्या है? आज कविता समरूपता की शिकार है तो सर्जनात्मक चेतना शायद अवकाश पर चली गई है। परंपरागत ऋजुता को छोड़कर आप उल्टा चलते हैं और उल्टे उन्हें प्रतिक्रिया वादी कहते हैं। हर क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है। न्यूटन के इस तीसरे नियम को तो आपने पढ़ा ही होगा। गुजरात – त्रासदी को आप सूक्ष्मदर्शी से देखकर उसकी विराटता का आकलन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं और कश्मीर के व्यापक नरसंहार पर चयनित चुप्पी ओढ़ लेते हैं। धन्य है आप का न्याय और धन्य है आपकी प्रगतिशीलता। दुनिया का सबसे कट्टर धर्म आपकी धर्मनिरपेक्षता का उत्स है और दुनिया का सबसे उदारवादी सर्वग्राही धर्म आप को साम्प्रदायिक लगता है तो आप हमें स्वदेशी नहीं, आत्मा से पराए और विदेशी लगते हैं। कभी – कभार रूस और चीन की अलोकतांत्रिक साम्यवादी व्यवस्था के रन्ध्रों और सत्ता पर विषम वर्चस्व और एकाधिकार वाद पर भी बोल दिया कीजिए। यदि दलित विमर्श चलता रहा तो देर – सबेर सवर्ण – विमर्श भी आएगा ही। क्योंकि क्रीमीलेयर नवब्राह्मणवाद का परिधान पहन चुका है। और पुरानी व्यवस्था शीर्षासन कर रही है।
आज का साहित्य अपने समय के संक्रमण शील यथार्थ को भेद पाने में कितना सक्षम है! और सत्य को उसके मूल अक्ष पर बेधने वाले कितने ईमानदार लोग लेखन में सक्रिय हैं? दलित लेखन और दलितों के लेखन में क्या फर्क है? कितने जनवादी लेखक हैं जो बिना पैसे लिए सर्वहारा के कार्यक्रम में जाने को तैयार हैं? मांस – मदिरा पर टूट पड़ना भूखे लोगों पर कविता सुनाने की दाक्षिणा है और स्त्री विमर्श के नेपथ्य में चलता रहता है वास्तविक स्त्री विमर्श। राजेन्द्र यादव अपनी ही स्त्री मन्नू भंडारी को न्याय नहीं दे सके और पुरुष विमर्श के शिकार हो गए। सामंतवाद के धुर विरोधी नामवर सिंह से बड़ा साहित्यिक सामंत कौन था? किन्तु वे आरक्षण के विरोध में बोल कर पीछे हट जाते हैं। आज गरीबी का वर्ग वृत्त बदल रहा है किन्तु उदय प्रकाश बारिश बंद होने पर भी पीली छतरी लगाए घूम रहे हैं। हाँ, दक्षिणपंथी सरकार होने के बावजूद अभी भी साहित्य में वामपंथी लेखन की सत्ता नहीं बदली है। जनवादी लेखक को कितने जन पढ़ते हैं? आम आदमी पर लिखते हैं खास आदमी बनने के लिए। पर ठीक है, साहित्य स्वार्थी नहीं हो सकता। वह छवि – निर्माता नहीं, मूल्य निर्माता प्रतिष्ठान है। वह हमारे संवेदनों को व्यापक बनाने का मंच है। कविता कलात्मक शिल्प में संवेदनात्मक सत्याग्रह है, जो जीवन को संबोधित है। कविता भावों का निवेश है, विचारों का उपनिवेश नहीं। कविता विज्ञान के अधिक समीप जाएगी तो नष्ट हो जाएगी। सपाट बयानी और वक्तव्य वादी कविता काव्याभास है, काव्य भाषा का आविष्कार नहीं। राजा के जिन गुणों की हम आलोचना करते हैं, क्या अपने व्यक्तिगत जीवन में उससे भिन्न हैं? क्या कवि से सर्जनात्मक आचरण की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए? क्या कविता की महानता के निर्धारण में काव्येतर मूल्यों का निकष के रूप में प्रयोग उचित है? जब वर्तमान की ऐतिहासिक चेतना ही धुंध से भरी हो तो भविष्य की कल्प सृष्टि के रेखाचित्र में कैसे रंग भरे जाएं? स्वाधीन चेता लेखक विभिन्न वैचारिकी के अनुशीलन से अपने अनुभव को पुष्ट करता है, न कि विचारधारा का दास होता है। कबीर वेदान्त के अद्वैत को सत्यापित करते हैं, न कि उससे सत्यापित होते हैं —-
तू कहता कागद की लेखी। मैं कहता आंखिन की देखी।
यह अनुभव की आंख ही है, जो संसार की तरफ से आंखें बंद कर लेने वाले सूर के अन्धत्व को निरस्त कर देती है। कबीर की प्रखर सामाजिक चेतना के मूल में उनके रहस्य लोक की आध्यात्मिक अनुभूतियों का उठा हुआ हाथ है। किन्तु उन्हें भी हम अपने विचार – ध्वज थमा दिया करते हैं। दूसरी तरफ कबीर पंथी कबीर साहेब की ही प्रतीक – पूजा करने लगते हैं, जिस प्रतीक पूजा का वे जीवन भर विरोध करते रहे। जरूरी नहीं कि हम अपने जीवन में अध्यात्म को धारण करें किन्तु कबीर के जीवन से उसे खारिज करने का अधिकार किसने दे दिया? निराला की शक्ति “राम की शक्ति पूजा” में है और तुलसीदास उनके आदर्श कवि हैं। उनकी वीणावादिनी की अभ्यर्थना का क्या करें? हाँ तुलसी को भी हमें आज के समय में उपलब्ध करना होगा और आज के राम को प्रकट करना होगा। किन्तु वे राम ही हों, अन्यथा संशय की रात लम्बी हो जाएगी। तुलसीदास ने यदि हिन्दी कविता का श्रृंगार किया और राम के अतिरिक्त किसी को माथा नहीं नवाया तो जयशंकर प्रसाद कविता के प्रसाद गुण हैं और आधुनिक हिन्दी में उनसे बड़ा कवि कोई पैदा हुआ नहीं। मुक्तिबोध ने भी कामायनी की सभ्यता – समीक्षा की प्रशंसा की तथा उसमें सकर्मक जीवन – अनुभव और अकर्मक जीवन – दर्शन के तनाव को लक्षित किया। प्रसाद ने कश्मीरी शैवागम के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आलोक में एक यूटोपिया रचा। तुलसीदास का कलियुग का वर्णन उनके भविष्य – द्रष्टा व्यक्तित्व को प्रमाणित करता है। आज ऐसा कोई व्यक्तिगत प्रयास भले ही लक्षित न होता हो, किन्तु समवेत सभ्यता – मीमांसा का दायित्व आज भी क्रान्ति दर्शी कविता वहन कर रही है। ज्ञानेन्द्र पति, अरुण कमल, राजेश जोशी और अशोक वाजपेयी के बाद सुशोभित सक्तावत और प्रांजल राय की पीढ़ी भी सक्रिय है। अभी भी बहुत से अज्ञेय स्रष्टा चुपचाप सृजन रत हैं और सृजन – यज्ञ जारी है।
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अजित कुमार राय, कन्नौज