रांची में अवस्थित रामचंद्र ओझा, वागर्थ, हंस, नया ज्ञानोदय, पहल, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, प्रभात खबर इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपने वाले एक मौलिक चिंतक और विचारक हैं। इनकी वैचारिक पुस्तक ‘पाहन फोरि गंग एक निकरी’ तथा उपन्यास ‘विषहरिया’ पिछले दिनों चर्चा में रहा। प्रस्तुत है कला विषयक उनका एक मौलिक आलेख।
कलाओं के बारे विपुल साहित्य उपलब्ध है। किंतु कला, लोककला और गैर-कला ( नन आर्ट ) क्या है, इनके बीच के विभाजन को रेखांकित करती हुई, इनकी कोई स्पष्ट परिभाषा (कहीं ) नहीं दी गई है। कला एक चेतन गतिविधि है, जिसके उद्भव का एक ऐतिहासिक संदर्भ है, जिसे समझे बगैर इसे इसकी संपूर्णता में नहीं समझा जा सकता।
हमारी चेतना किसी संवेद्य पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता का सूचक है। प्रतिक्रिया व्यक्त करना मनुष्य ही नहीं समस्त प्राणियों व वनस्पतियों का भी स्वभाव है। लाजवंती का छूते ही सिमट जाना या सूर्य की रोशनी की दिशा में फूलों का झुक जाना, बाहरी जगत के प्रति दर्शायी गई यदि संवेदनशीलता और प्रतिक्रिया नहीं तो और क्या है?
अलग-अलग व्यक्ति तथा अलग-अलग समाजों में प्रतिक्रिया व्यक्त करने की क्षमता अलग-अलग होती है, जिसे हम उसकी संवेदन क्षमता ( एस्थेटिक कैपिसिटी) कहते हैं। चेतना के विकास के साथ-साथ यह बदलती रहती है।
हिन्दीं में एस्थेटिक्स के लिये सौन्दर्य बोध के प्रयोग का चलन है। जो उचित नहीं है। इससे कला की समझ में बाधा उत्पन्न होती है। एस्थेटिक्स को सौन्दर्य बोध इसलिये कहा जाता है कि सभ्यता के किसी दौर में भारतीय आचार्यों ने कला को सौन्दर्य की अभिव्यक्ति माना और इसके शास्त्र को सौन्दर्य -शास्त्र कहा।
सौन्दर्य किसी पदार्थ में नहीं बल्कि पदार्थ की प्रतिक्रिया में मन की अनुभूति है। यही कारण है कि आज बडे़ विचारकों में भी इसपर मतैक्य नहीं है। मत भिन्नता का आलम यह है कि वे सब एक दूसरे पर, दूसरों की अभिरूचिओं पर, उनकी आकांक्षाओं और विश्वासों पर हँसते हैं। यदि सुन्दर की अभिव्यक्ति ही कला है, तो असुन्दर, कुरूप या बीभत्स की अभिव्यक्ति को क्या कहेंगे?
कला को सौन्दर्य का पर्याय मानने के पीछे भारतीय आचार्यो की अपनी कुछ और मंशा तथा कुछ और तर्क रहे होंगे। उन्होंने जिस समाज के लिये इसका प्रयोग किया, वह एक भिन्न समाज था, आधुनिक समाज तो कतई नहीं था, अतः एस्थेटिक्स को सौन्दर्य शास्त्र कहने के बजाय संवेदन या संवेद्य शास्त्र कहना ही उचित और व्यापक होगा।
संवेदन क्षमता के आधार पर समाजों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। गैर-संवेदनात्मक, संवेदनात्मक तथा संवेदना सुषुप्त, जिसे अंग्रेजी में यदि कहें तो नन-एस्थेटिक, एस्थेटिक व एनास्थेटिक कहना उपयुक्त होगा। इसके समानान्तर इनकी कलाओं को गैर-कला, कला और लोककला की संज्ञा दी जा सकती है।
जिस समाज में किसी बाहरी संवेेद्य या किसी विषय पर समाज के सदस्यों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न और अप्रत्याशित हो, जिसका पूर्व अनुमान नहीं लगाया जा सके, वह एक संवेदनात्मक समाज है, जिसे अँग्रेजी में एस्थेटिक की संज्ञा दी गई है। आधुनिक समाज एक एस्थेटिक समाज है।
किंतु जहाँ किसी सामाजिक संवेद्यों पर इसके सदस्यों की प्रतिक्रिया एक जैसी हो, जिसका पूर्व अनुमान संभव हो, वह एस्थेटिक समाज नहीं है, बल्कि वह एक संवेदना-सुषुप्त ( एनास्थेटिक) समाज है और उसकी कला लोककला है। सामूहिक विश्वासों व मिथकों से परिचालित लोककला एक आदिम या रूढ़ समाजों की उपज है।
पर जहाँ किसी संवेद्य पर प्रतिक्रिया एक नैसर्गिक उत्सुकता भाव के अन्तर्गत होता है, उसे गैर-संवेदनात्मक कहते हैं। वहाँ कला नहीं होती, न लोककला होेती है, उसे गैर-कलात्मक प्रतिक्रिया कहना ठीक होगा। चमत्कार या किसी अनोखे दृश्य के प्रति औत्सुक्य भाव, एक जैवी प्रतिक्रिया है और यह हमारी चेतना का आद्य रूप है।
वस्तुतः शिकारी आदिमानव की चेतना अन्दरूनी नैसर्गिक ताकतों से निर्देशित होती थी। तब न कोई बाहरी नियम-निर्देश थे, न सामाजिक संरचना। होमोसैपियंस के पहले जो मानव जाति पृथ्वी पर पाई गई, उसे आदिमानव ( होमीनाईड्स) कहते हैं। आदि मानव का विकास ही विकास-कालक्रम में आदिम जनजाति के रूप में हुआ।
जानकर आश्चर्य होगा कि अब से लाखों साल पहले, तनजानिया के घने जंगलों मे आल्दुवाई गार्ज ( आदि मानव की एक प्रजाति) के द्वारा अपने घरों में मेनुपोर्ट व चमकीले पत्थरों को सहेजने के दृष्टांत मिले हैं। उनका यह गुण मानव चेतना में उपस्थित औत्सुक्य भाव का द्योतक है। औत्सुक्य भाव हमारे सौन्दर्य-बोध का आद्य रूप है। कला का उ्दभव चेतना के इसी गुण का विस्तार है।
इस तरह आदि-मानव से आदिम तथा आदिम से आधुनिक मनुष्य की चेतना का विकास तथा गैर-कला से लोककला तथा लोककला से आधुनिक कला (कला) का उद्भव मनुष्य की चेतना के विकासक्रम की ऐतिहासिक घटना है।
अनुभव की विशिष्टता और निजता के साथ एक व्यक्ति का मुखर होना, एक सभ्य व आधुनिक समाज की देन है। ब्रोंज एज अर्थात् जब से मनुष्य ने कांसे का इस्तेमाल करना सीखा, उसके बाद के समाज को सभ्य समाज तथा 1453 ई0 में हुए यूरोप के रेनेसाँ के प्रभाव से जिस समाज का उदय हुआ, उसे हम आधुनिक समाज कहते हैं।
आधुनिकता नये और पुराने की दहलीज पर खड़ी है। पुराना हमारी चेतना का हिस्सा है और नया चेतना में प्रवेश हेतु दस्तक दे रहा है। यह एक ऐसा समाज है, जहाँ सामाजिक नियमों और निर्देशनों का आत्मसातीकरण नहीं हो पाया है। फलस्वरूप किसी विषय पर समाज के सदस्यों की प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न व अनिश्चित होती हैं, जिसका पूर्व अनुमान संभव नहीं।
सभ्यता के उदय के पहले के समाजों को हम आदिम समाज कहते हैं। आदिम समाजों को हम एस्थेटिक समाज नहीं मानते और न लोककला को कला की श्रेणी में ही रखते हैं। पर यह निर्णय स्वेच्छा से नहीं लिया गया है। एस्थेटिक्स संप्रेषण की समस्या से जन्मा है।
जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान की जरूरत इसलिये पड़ी कि प्राकृतिक घटनायें अप्रत्याशित होती हैं, जिनका अंदेशा हमें नहीं होता। और जैसे समाज-शास्त्र, समाज की गतिकी के अध्ययन का विज्ञान है, उसी तरह एस्थेटिक्स, संवेदना का विज्ञान है तथा संप्रेषण की समस्या से जन्मा है।
जहाँ सबकुछ पहले से ही बोधगम्य और सूत्रवत हो, वहाँ किसी विज्ञान की क्या जरूरत! आदिम या रूढ़ समाजों में सामाजिक नियमों व निर्देशनों का आत्मसातीकरण इस हद तक होता है कि किन्हीं विचारों या भावों के चित्र सबके मन पर एक जैेसे होते हैं, सबकी रूचियाँ एक हो जाती हैं फलतः किसी विषय पर सबकी प्रतिक्रिया एक जैसी होती है। जहाँ एक व्यक्ति की आवाज पूरे समुदाय की आवाज हो, जैसा आज भी कतिपय आदिवासी समाजों में देखने को मिलता है, वहाँ संप्रेषणीयता का सवाल कहाँ!
संवेदन शास्त्र, कला-शास्त्र और कला के आविर्भाव की परिपक्व पृष्टभूमि आधुनिकता है। व्यक्तिवैचित्र्य या अभिरूचि वैषम्य एक आधुनिक घटना है, जहाँ किसी विषय पर सदस्यों की प्रतिक्रिया बिल्कुल अप्रत्याशित, भिन्न-भिन्न व अपूर्वानुमेय है। कला संप्रेषण की समस्या के संबोधन के लिये है, जो आधुनिक एस्थेटिक समाज की उपज है।
जब हम कहते हैं कि आदिम समाज एक संवेदनात्मक ( एस्थेटिक ) समाज नहीं है, तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यह एक संवेदनहीन समाज है। इसका अभिप्राय मात्र इतना है कि ऐसे समाजों की संवेदना सामूहिक संस्कारों व विश्वासों से सूत्रबद्ध होती है। इन्हें हम संवेदन-सुषुप्त या संवेदनहारी अर्थात् एनेेस्थेटिक समाज कहते हैं।
जैसे एनेस्थिशिया ( चेतन-सुन्न करने की दवा ) के प्रभाव स्वरूप नीम-बेहोशी की हालत में लेटे मरीज को अपने ऊपर घटित क्रियायों का पता नहीं चलता, वैसे ही अदिम या रूढ़िबद्ध समाजों में व्यक्ति की संवेदन-क्षमता संस्कारों की एनेस्थेशिया से सुषुप्तावस्था में चली जाती है। व्यक्ति अपनी निजता, अपनी निजी पहचान और अभिलाषायें खो बैठता है।
यहाँ शब्दों या प्रतीकों के अर्थ संवेदित नहीं होते बल्कि पूर्व निर्धारित अर्थ जो सदस्यों की चेतना का पूर्व से ही हिस्सा होते हैं, उनका प्रकटन होता है। वस्तुतः लोककला हम उसे कहते हैं, जो सामूहिक मान्यताओं की संपुष्टि, उसके सुदृढ़ीकरण तथा नये सदस्यों में संस्कार देने के लिये उस समाज के ही सदस्यों के द्वारा, उस समाज के श्रोता के लिये, एक विशेष अवसर पर, पूर्व निर्धारित उद्देश्य के लिये प्रस्तुत की जाती है।
लोककला आदिम समाज का एक सामूहिक अनुष्ठान है। किंतु लोककला मात्र उसी समाज तक ही लोककला है, जिस समाज की यह उत्पत्ति तथा जिसके लिये यह एक अनुष्ठान है। दृष्टातंतः पाइका ओड़िसा के मयूर भंज का एक लोकनृत्य है। यदि मयूर भंज के अलावा उसकी प्रस्तुति किन्हीं बाहरी कलाकारों के द्वारा की जाये, यदि वह समाज विशेष के बाहर के आडियंस के लिये हो, तो यह प्रस्तुति लोककला नहीं कहलायेगी।
‘निमिया की डाढ़ी मइया लावेली हिलोरवा की झूली-झूली ना’ एक भोजपुरी लोकगीत है, जो रामनवमी के अवसर पर गाया जाता है। अपेक्षा नहीं की जा सकती कि यह गीत राजस्थान की महिलाओं में वही भाव-संचार करेगा, जो भावबोध भोजुरी समाज में बदस्तूर अवस्थित है। लोक कलाओं के आस्वादन के उपरांत उद्भूत भाव आरोपित और संस्कारजन्य होते हैं।
इतना ही नहीं रामनवमी के अवसर पर गाया जानेवाला लोकगीत का आस्वाद होली के अवसर पर नहीं लिया जा
सकता। वस्तुतः लोक कलाओं में निहित संवेदना देश-काल-पात्र सापेक्ष होती हैं। एक जमात-विशेष के सदस्यों के द्वारा, अपने जातिय परिवेश में, अपने जमात विशेष के लिये, किसी विशेष अवसर पर मान्यताओं के अनुरूप प्रस्तुत नृत्य-गीत-संगीत इत्यादि ही लोककला की श्रेणी में आते हैं।
हालांकि लोक विश्वासों से संचालित हो रहे समाज में किसी क्षण इन विश्वासों को एक कलारूप देने का काम कोई कलाकार ही करता है किंतु आज के अर्थों में लोककलाओं की रचना नहीं होती तथा इसका कोई रचयिता नहीं होता। यह लोक विश्वासों का एक प्रस्फुटन है, जो किसी प्रतिभावान सदस्य के हृदय से किसी क्षण फूट पड़ती है। समय के अंतराल में इसका उद्भव, विकास और परिमार्जन होता है। लोककला की यह विशेषता, उसे एक अलग पहचान देती है तथा कला के प्रयोजन व परिभाषा से उसे भिन्न करती है।
कला रची जाती है, उसका एक रचयिता होता है। जिस समाज में वह रची गई हो, जरूरी नहीं कि उसका एस्थेटिक आस्वादन वही समाज करे। संसार के किसी एक कोने की रचना का आस्वाद संसार के किसी दूसरे कोने में लिया जा सकता। एक कलाकृति समकालीन समय व समाज के लिये जितनी सार्थक है, वह उतनी ही अर्थपूर्ण भावी पीढ़ी के लिये है। यहाँ तक की दूसरे समाज के तथ्यों व गतिविधियों से प्रेरणा लेकर, किसी अन्य समाज में कला-रचना संभव है।
कला जहाँ देश-काल का अतिक्रमण करती है, वहीं लोककला देश-काल और पात्र तीनों के प्रति बेहद संवेदनशील है एवं वह इनके परे नहीं जा सकती।
लोककलायें सोद्देश्य होती है। इनका प्रयोग एक औजार के रूप में रोजमर्रे के किसी मतलब की सिद्धि के लिये होता है। संवेदन बोध अर्थात् एस्थेटिक आस्वादन इनका घ्येय नहीं है। एक विशिष्ट पसंदीदा भावबोध, जो पहले से ही तय है, उससे अलग संवेदनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की जा सकती। न रूचि-अभिरूचि का प्रश्न ही उठता है। पाइका या छऊ यदि शोर्य व पराक्रम के भावों को भरने के लिये है, तो यह प्रभाव वैसे ही प्रकट होता है, जैसे ‘स्विच’ देने पर रोशनी आ जाती है।
आज विविध अवसरों पर लोककलाओं की प्रस्तुति का चलन है। एक मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर या आदिवासी जीवन की पहचान के रूप में, इनका संरक्षण हमारा दायित्व है। हम इनका आस्वादन भी ले सकते हैं किंतु तब यह लोककला नहीं रह जाती है। यह एक मनोरंजन का साधन मात्र रह जाती है। सोद्देश्यता और संदर्भ से कटते ही, लोककला में वह प्राण नहीं रहता।
लोककला वस्तुतः लोक-संस्कृति की प्रतिनिधि कला है। अपनी बोली, अपनी भाषा, अपने रहन-सहन और अपनी मान्यताओं और विश्वासों को अपने में समेटे लोक-संस्कृति एक आत्मकेन्द्रित एकजातीय ( एथनिक) बंद समाज का पोषक है। लोक संस्कृतियों का देश-काल बोध, आधुनिक समाज के देश-कालबोध से भिन्न होता है। आदिम समाजों में सवाल नहीं होते, केवल सवालों के उत्तर होते हैं जबकि आधुनिक समाजों में उत्तर नहीं होते, केवल सवाल होते हैं।
स्थान और काल अर्थात् स्पेस और टाइम, हमारे बोध
की दो बुनियादी इकाइयाँ हैं। स्थान भिन्नता का सूचक है। स्थान की दो दिशायें होती हैं। एक आमने-सामने की दूरी और दूसरा ऊपर नीचे का पद सोपान। दो व्यक्तियों के अनुभव एक जैसे इसलिये नहीं होते कि वे चीजों को दो लोकेशॅन और दो सामाजिक स्थितियों से देेेेेेेेेेेखते हैं। स्पष्टतः नदी के कछार से देखा गया सूरज, घाटिओं के मध्य उभरते सूरज की छवि से भिन्न होगा। उल्लास की स्थिति से देखे गये संसार की छवि तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक ग़मगीन या विभिन्न अवस्थाओं में अनुभूत न किया गया है। दो लोेकेशॅन पर हमारा होना, कमजोरी नहीं है, यह हमारी ताकत है। इससे हमारे अनुभवों में बहुरंगीपन और पूर्णता आती है।
काल (समय) परिवर्तन और भविष्य की अनिश्चियता का सूचक है। यही हमारी चिंताओं की उद्गम स्थली है। काल के प्रति संवेदनशील होने का अर्थ, भविष्य के प्रति अनजान बने रहना तथा अपने समय में सिमटे रहना है। आदिवासी समाज यदि चिंताग्रस्त समाज नहीं है, तो इसलिये कि उसमें काल बोध अर्थात भविष्य-बोध नहीं होता। वर्तमान में जीता है। पर याद रहे, भविष्य केवल चुनौती प्रस्तुत नहीं करता। हमारी आशा-आकांक्षायें भविष्य में ही फलित होती हैं। कालबोध का नहीं होना, सपनों के मर जाने का भी सूचक है।
आदिम समाजों में स्थान और काल सामूहिक विश्वासों की परीधि में जमकर ठोस हो जाते हैं। यह संसार को एक स्थान विशेष और एक नजरिये से देखने जैसा है। यह स्थिति उस पक्षी की है, जो चाहकर भी न बाहर की ताजी हवा ले सकता है और न पंखों में सपने सजाकर उड़ान भर सकता है।
किंतु इस आधार पर यह तय करना कि लोक-संस्कृति अच्छी है अथवा एक सभ्य आधुनिक समाज अच्छा है, एक भूल होगी। मूल्य निर्णय देना हमारा अभिप्राय नहीं है। बल्कि विभिन्न समाजों के भावबोध व कलाबोध को समझना हमारा उद्देश्य है, जो निश्चित ही एक दूसरे से भिन्न है।
लोक-संस्कृति को ‘पोपुलर कल्चर’ तथा लोककला को ‘पोपुलर आर्ट’ कहना भी एक भूल होगी। पोपुलर कल्चर उत्तर आधुनिक समय की देन है। हालांकि इनमें बहुत कुछ साम्य है। जैसे आदिम समाजों की हर गतिविधि भौतिक जरूरतो की सिद्धि के लिये होती है, वैसे ही उत्तर आधुनिक समाज की हर गतिविधि एक साधन है। दोनों समाज टेक्नोलॉजी केन्द्रित हैं। आदिम समाज की टेक्नोलॉजी उनके मिथक हैं, जिन्हें हम ‘स्यूडो’ टेक्नोलॉजी कहते हैं, उत्तर आधुनिक समाज की टेक्नोलाजी मशीनों पर निर्भर है। टेक्नोलाजी को जीवन का आधार बनाकर, वास्तव में हम नव-पुरातनवाद की ओर लौट रहे हैं।
पर अंतर यह कि लोक-संस्कृति अपने समुदाय के प्रति एक निष्ठावान संस्कृति है। अभिरूचियाँ एकरूप भले हों, वे अपने अतःकरण की गहराई से स्वीकार की जाती हैं। मान्यताओं के प्रति इस आत्मनिष्ठता का रिसाव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर एक जैसा होता है। ‘पोपुलर आर्ट’ या ‘पोपुलर कल्चर’ एक वर्ण संकर कला और दोगली संस्कृति है। फलतः बोध प्रक्रिया में अनुभवों की सच्चाई नहीं है। रचनात्मक जड़ता का शिकार, यह एक गैर-जवाबदेह व छिछली संस्कृति है।
दुर्भाग्य है कि टेक्नोलॉजी पोषित इस उत्तर-आधुनिक पोपुलर कल्चर की कतिपय विचारकों ने सराहना की है। वाल्टर वेंजामीन एक माकर््सवादी विचारक हैं। उनके अनुसार, टेक्नोलॉजी के प्रभाव से ही कला जन-साधारण तक पहुँची है। पर क्या कला का जन-सुलभ होना, उसकी कसौटी के ऊपर उठने का भी सूचक है? शायद नहीं। आज हमारी संवेदन क्षमता और सहृदयता पहले से कम हुई है।
दरअसल मार्क्सवादी विचार प्रणाली के दो आग्रह हैं, जिन पर उनका अस्तित्व टिका है। पहला, इतिहास को प्रगतिशील मानना। यह मानना कि बाद का काल हर हमेशा पहले से बेहतर होता है। और दूसरा टेक्नोलॉजी के विकास को सभ्यता का विकास मानना। यह मानना कि ज्यों-ज्यों टेक्नोलॉजी का विकास होता है, उत्पादन क्षमता बढ़ती और मनुष्य की चेतना भी उसी अनुपात में विकसित होती है। सभ्यता और टेक्नोलॉजी के संबंधों को इस तरह जोड़ना गलत होगा।
वे भूल जाते हैं कि सभ्यताओं में यदि भिन्नता है तो उसका कारण जीवनदृष्टि की भिन्नता है। वैचारिकता पर आधारित सभ्यतायें, टेक्नोलॉजी पर टिकी सभ्यतायों से अलग होती है। ग्रीस या भारत एक प्रत्यय या विचार-केन्द्रित सभ्यतायें रहीं हैं, जबकि मिश्र या मेसोपोटैमिया की सभ्यता टेक्नोलॉजी प्रधान थी।
वे यहाँ तक भूल जाते हैं कि जिस समय रेनेसाँ हुआ, यूरोप में टेक्नोलॉजी नहीं थी। इसके उलट रेनेसाँ एक वैचारिक क्रांति थी। पहले विचार आते हैं, फिर विचारों का मूर्तन होता है। विज्ञान जो पश्चिम की पहचान बना, वह प्रत्ययों के अविर्भाव का द्योतक है।
टेक्नोलॉजी का उद्भव बहुत बाद की घटना है। यदि टेक्नोलॉजी के प्रभाव स्वरूप चेतना आगे बढ़ती तो आज वैज्ञानिक अनुसंधानों का ताँता लग जाता। अधिकतर बड़े वैज्ञानिक आविष्कार दो सौ साल पहले हुए जब टेक्नोलाजी अपने शैशव काल में थी। चेतना के विकास को टेक्नोलॉजी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।
तात्पर्य है कि मनुष्य की बुनियाद उसकी चेतना है। जो स्वयं सभी क्रियाओं की बुनियाद हो उसका आधारस्तंभ कुछ दूसरा कैसे हो सकता है। हाथ-पाँव से मनुष्य नहीं बनते, मनुष्य के हाथ-पाँव होते हैं।
हमारी चेतना अभिलाषाओं से गतिमान होती हैं। इसके तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं। भौतिक, आघ्यात्मिक और कलात्मक या रचनात्मक। जब हम सुख और आनंद की कामना भौतिकता में करते हैं अथवा भौतिकता को प्राथमिकता देते हैं, तो भौतिक संस्कृति का विकास होता है। पर भौतिकता को प्रधानता देने से हमारी आध्यात्मिक या कला चेतना का लोप नहीं हो जाता। और न ही इस आधार पर भौतिकवादी होना, कला-परक व आध्यात्मिक जीवन से बेहतर कहलायेगा। ये तीनों हमारी चेतना के अटूट हिस्से हैं। यह हम पर निर्भर है कि हम कब, किसे, कितना महत्व देते हैं। सभ्यता के विकास को केवल भौतिक समृद्धि से जोड़कर देखना सभ्यता की ठीक परिभाषा नहीं है।
कला का विभिन्न चरणों में विकास एक ऐतिहासिक घटना है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि जिस बोध को हम पीछे छोड़ आये हैं, उनसे हमारा अब रिश्ता नहीं। हमारी चेतना से इतिहास कभी अलग नहीं होता। पिछली प्रवृत्तियों का अवशेष वर्तमान में भी व्याप्त होता है। हमारे भीतर यदि कला चेतना है तो आदिम समाजों की लोककला या लोकचेतना भी है, और साथ ही आदि-मानव का गैर-कलात्मक औत्सुक्य भाव भी है। सबकी अपनी उपयोगिता है, पर वे एक दूसरे का विकल्प नहीं हैं।
सड़क पर दुघर्टना होते ही भीड़ का इकट्ठा हो जाना या दो औरतों के झगड़े के दृश्य को बड़े चाव से देखना कोई सहृदय यानी एस्थेटिक गतिविधि नहीं है। यह चेतना में अवस्थित औत्सुक्य भाव का द्योतक है। मदारी के डमरू की आवाज पर बंदर के नाच के लिये बच्चों का दौड़ पड़ना, एक लोक कलात्मक प्रतिक्रिया है। पहली बार जब बंदर नचाया गया होगा, तो यह किसी की रचनात्मक प्रतिभा का परिणाम होगी। तब यह कला होगी। वस्तुतः किसी प्रस्तुति के कला कहलाने के लिये रचना का तत्व होना तथा उसमें सतत् विकास की गुंजाइश का होना भी अनिवार्य है। बंदर के नाच की जो प्रस्तुति 50 वर्ष पहले थी, वही आज भी है। बंदर के नाच को कला की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
यह एक लोककला है। प्रतिक्रिया यहाँ पूर्व अनुमानित है। यह सबको मुग्ध करेगी, यह निश्चित है। वस्तुतः अच्छा लगने की मनोवृत्ति लेकर ही हम मदारी का खेल इत्यादि देखने जाते हैं।
किंतु सर्कस एक कला है। झूले पर झूलती लड़कियों का खेल या रिंग मास्टर का बाघ पर नियंत्रण दर्शकों को पसंद आयेगा या नहीं, यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। प्रतिक्रिया की अनिश्चितता कला की पूर्वापेक्षा है।
किंतु जंगल में यदि बाघ आ जाये तो यह अनुभूति कलात्मक नहीं है। इसलिये कि यहाँ डर, रोमांच या अन्य भावों की उत्तेजना एक जैवी प्रतिक्रिया है। यह एक गैर कलात्मक अनुुभूति है।
इस प्रकार हमारी चेतना की ये तीन संस्कारगत अवस्थायें हैं। गैर-संवेदनात्मक, संवेदना सुषुप्त और संवेदनात्मक। ये तीनों हमारे भाव संसार को अपने-अपने ढंग से प्रभावित करती हैं। गैर-कला, कला और लोककला के अन्तर्विभाजन का हमारा यही प्रतिमान है।